गत शुक्रवार को भारतीय संसद में सांसदो का वेतन १६ हजार से बढ़ाकर ५० हजार व अनेकानेक भो भी गई गुना बढ़ाये जाने का प्रस्ताव सर्वसमति से पारित किया गया और इसके ४ दिन बाद ही सोमवार केबिनेट ने पुनः १० हजार रुपये की पैकेज में वृद्धि के प्रस्ताव को स्वीकृति प्रदान की। इस प्रकार लगभग ८४०००/- से अधिक की कुछ वृद्धि वेतन व अन्य भाड़ो में हुई।
शुक्रवार को संसद में प्रस्ताव लाने के ७ दिन पूर्व केबिनेट में सांसदो के वेतन भो बढ़ने के सबंध में जब प्रस्ताव आया तब कुछ गिने चुने भद्र मंत्रियों के प्रभावशाली विरोध के कारण तत्समय केबिनेट ने अपनी बची-कुची इमेज को और बिगडऩे से बचाने के लिए उक्त प्रस्ताव को स्वीकृति प्रदान नहीं की। लेकिन शायद इस प्रकार की जानकारी जानबूझकर प्रेस को लीक की गई या कराई गई तब सांसदो के एक बड़े समूह ने पार्टियों की सीमाओं की दीवार को तोड़ते हुए (वर्षो पुरानी चीन और पाकिस्तान के साथ कटुता की दीवार अभी तक संसद नहीं तोड़ पाई) अलग-अलग सुरों में किसी ने उंची आवाज में किसी ने धीरे से लेकिन एक ही बात का समर्थन किया कि सांसदों की तनख्वा तुरंत बढ़ाई जानी चाहिए और उसका बिल इसी सत्र में संसद में लाया जाना चाहिए। विभिन्न मुद्दो पर विपक्षी सांसदो की मजबूत आवाज से कान पर कोई जू ना रेंगते हुए ऐसी सरकार के कान में ऐसी हुडक़ी पहूंची कि लोकसभा में वित्तमंत्री को यह आश्र्वासन देना पड़ा की वह तुरंत ही इस सबंध में आवश्यक विधेयक लाएगी। सेवा की भावना लिये जनसेवक कहलाने वाले और चुनाव के समय जनता के नौकर कहलाकर स्वयं को आत्ममुग्ध होने वाले नेता अपने वेतन की तुलना नौकरशाह से करने लगे और केंद्रीय सचिव को मिलने वाली तनख्वा से एक रू. ज्यादा की मांग करने लगे। तब उस सरकार ने जो दबंग विपक्ष के दबंग विरोध को दबंगता से सफलता पूर्वक निपटने में सक्षम होने के बावजूद उक्त मामले में निरीह बनकर संसद में लगभग ३ गुने से अधिक वृद्धि का प्रस्ताव सर्वसमति से पारित किया गया वास्तव में सांसद कोई नौकरी नहीं कर रहे जो वे अपने वेतन की तुलना नौकरशाहो से करे। वास्तव में उन्हे 'वेतन' पद्धति पर आपत्ति कर चाहिए व उसे मानदेय के रूप में परिभाषित करने के लिये संशोधन की मांग करनी चाहिए। पाठको को यह याद होगा कि यह वहीं केंद्रीय सरकार है जो महंगाई के मुद्दे पर बहस कराने को तैयार नहीं थी जिस कारण एक हप्ते से अधिक संसद में हंगामा होकर संसद ठप्प पड़ी रही। तब न तो सरकार ने तेवर ढीले किये और न ही विपक्ष ने। भारत देश शायद एकमात्र ऐसा देश है जहां सांसदो का वेतन बिना किसी तर्क के बिना कोई आयोग वेतन कमीशन, ट्रिबुनल या विशेषज्ञ समिति की औपचारिक सिफारिश किये बिना मूल्य सूचकांक को धता बताते हुए देश के लिए कानून बनाने वाले स्वयं अपने लिए बेशर्मी से स्वयं के आर्थिक पक्ष को शेष जीवन एवं उसके बाद (पेंशन में भी वृद्धि) मजबूत करने का कानून बनाते है वह भी तब जबकी भारत देश में आधी से अधिक जनसँख्या गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करती है और मध्यम वर्ग को आज भी परिभाषित नहीं किया गया है। इसके तुरंत पूर्व ही महंगाई के मुद्दे पर न केवल गरमागरम बहस हो चुकी थी बल्कि पूरे देश में आंदोलन भी किया गया था। लेकिन उस महंगाई का सामना करने के लिए कोई राहत तो प्रदान नहीं की यहां तक उच्चतम न्यायालय ने निर्देश के बावजूद खराब होते अनाज को आवश्यक लोगो को बांटने की जेहमत भी नहीं उठाई गई। लेकिन मंहगाई के तप को स्वयं के लिए महसूस कर गायत्री परिवार आंदोलन के उस सिद्धांत पर कि ''हम सुधरेंगे युग सुधरेगा'' की तर्ज पर आपस में बंदरलृबांट बांट लिया गया। जब कोई व्यत्ति नौकरी के लिए आवेदन करता है तो तब उसे यह मालूम होता है कि नौकरी ज्वाईंन करने के बाद उसे प्रथम तनख्वा कितनी मिलेगी और रिटार्यमेंट होने के पश्चात उसे उसकी लगभग कितना पैसा जमा होगा। उसे इस बात की भी कल्पना होती है कि उसकी वेतन में सालाना सामान्य वृद्धि के बाद मूद्रा सूचकांक बढऩे से समय-समय पर गठित होने वाले वेतन आयोग की रिपोर्ट के आधार पर उसका वेतन भी रिवाईज होगा। जब सांसद बनने के लिए नागरिक चुनाव लड़ता है तब वह समाज सेवा, जन सेवा की कसम खाकर उसको कितना मानदेय व सुविधाए उपलध हो यह जानने के साथ-साथ मंहगे चुनाव के धरातल की जानकारी होने के बावजूद चुनावी संग्राम में उतरता है। इसके विपरीत शायद यह भी एक सत्य है कि सांसदो का उन्हे मिलता मानदेय व सुविधाएं शायद नहीं मालूम होगी। क्योंकि शायद अधिकांश व्यत्ति वेतन को देखकर चुनाव लडऩे नहीं आते (नौकरी करने वाला व्यत्ति अवश्य देखता है) क्योंकि वे तो वास्तव में जनता की सेवा करने के लिए अपना सब कुछ स्वाहा कर जनसेवा देने के लिए आते है। लेकिन उक्त सेवा के अन्य कई आकर्षण अवश्य है जिसके कारण सांसद बनने के बाद उनकी संपत्ति में ११० गुना से लेकर १७०० गुना से भी अधिक तब वह समाज सेवा जन सेवा की कसम खाकर (औसत ५०० गुना से भी अधिक) वृद्धि के आकड़े लोकसभा के पटल पर प्रस्तुत है जो संपत्ति की वृद्धि इतनी बढ़ी हुई तनख्वा से भी नहीं हो सकती है। यदि वास्तव में संपत्ति बढऩे का कारण सांसदो का अन्य व्यवसाय होना है तो फिर ये अपना मानदेय बढ़ाने के लिए इतना हो हल्ला क्यों कर रहे है। उस स्थिति में जबकि वो अपने आप को जनता का सेवक कहलाना चाहते है। वास्तव में यह स्पष्ट है कि जब चुने हुए प्रतिनिधी जो जनता के आर्थिक हितों के मजबूत करने के आश्र्वासन के आधार पर चुनकर आते है, के आर्थिक हित की जब कोई बात होती है तब काश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक भारत एक है कि तर्ज पर विभिन्न धर्मो, देवी देवताओं को मानने वाले देश के सांसद समस्त पार्टीयो की समस्त सीमाओं को तोडक़र इस भावनाओं के साथ की भगवान एक है, इश्र्वर एक है और इसलिए हम भी आर्थिक हितों में एकमत है और सर्वसमति से निर्णय संसद में पारित कर लेते है। जो हाल की वर्षो में राष्ट्र हित के किसी मामले में भी देखने को नहीं मिला चाहे वह कश्मीर का मुद्दा हो, परमाणू संधि मुद्दा हो चाहे भारत-चीन विवाद का मुद्दा हो या अन्य कोई राष्ट्रीय मुद्दा।
उक्त प्रस्ताव पारित होने की एक और महत्वपूर्ण बानगी देखिए। जिस त्वरित गति से उक्त प्रस्ताव पारित हुआ है वह संसद एवं केन्द्रीय शासन के समक्ष लंबित अनेक गंभीर मामलों में देखने को नहीं मिला। एक बार केबिनेट में अस्वीकार कर दिये जाने के बाद ७ दिन के अंदर केबिनेट में प्रस्ताव पारित कर संसद में पारित कर दिया गया। प्रस्ताव पारित करते समय ही बहस के दौरान सरकार को लगा कि महंगाई का सूचकांक तेजी से बढ़ रहा है अतः उसकी प्रतिपूर्ति के लिए उन्हे ४ दिन के अंदर ही १००००/- रुपये की वृद्धि पुनः करनी पड़ी। लेकिन महंगाई की इस वृद्धि का सूचकांक किसी अन्य क्षेत्रो में वेतन वृद्धि के लिए नहीं माना गया। सामान्यतः जब भी संगठित और गैर संगठित क्षेत्रो में वेतन आयोग व अन्य आयोग के माध्यम से जब वेतन बढ़ाये जाते है या दरे तय की जाती है तब सरकार उनकी रिपोर्ट को पूर्णतः न मानकार वित्तीय संकट का हवाला देकर उन्हे आंशिक रूप से स्वीकार कर अगले पांच-दस वर्षो के लिए उन्हे छोड़ देती है। देश के आर्थिक इतिहास में ऐसा शायद कभी नहीं हुआ कि वेतन वृद्धि, न्यूनतम मजदूरी भुगतान की राशि में वृद्धि या अनाज की न्यूनतम खरीदी मूल्य या वृद्धि या किसी भी अन्य मामले में ४ दिन के अंदर पुनः वृद्धि की गई है। इस वृद्धि के मामले में किसी भी सांसद या पार्टी ने प्रभावशाली विरोध नहीं किया, संसद को ठप्प नहीं किया। लालू यादव, मुलायम यादव जिन्होने तनख्वा बढ़ाने के बावजूद और तनख्वा नहीं बढ़ाने के लिए संसद में हंगामें की चेतावनी दी लेकिन उनका मुह आज तक सरकार द्वारा अफजल गुरू को फांसी न दिये जाने के मामले में संसद ठप्प करने की धमकी देने की सीमा तक नहीं खुला क्योंकि अफजल गुरू से तो सिर्फ राजनीति होती है पर वेतन से आर्थिक हित मजबूत होते है जिससे और मजबूती के साथ राजनीति की जा सकती है क्योंकि यह एक अलिखित मान्य तथ्य है कि राजनीति बगैर पैसो के नहीं होती है।
केंद्रीय शासन व संसद के समक्ष कई बिल कई वर्षो से लंबित है चाहे वह महिला आरक्षण का मामला हो परमाणू संधि का मामला हो या अन्य मामले। लेकिन इन मामलों में तुरंत निर्णय नहीं लिया जा सका। तब न तो सरकार ने ही अपनी वह गति दिखाई और न ही विपक्ष ने। अतः यह स्पष्ट है कि जब आर्थिक हितों की बात हो तो पूरी संसद एक हो जाती है। शायद इसलिए किसी सांसद पर आर्थिक अनाचरण का आरोप लगने पर वैसी कार्यवाही उनके खिलाफ तब तक सरकार नहीं करती है जब तक कि न्यायालय का हस्तक्षेप न हो। अतः अब समय आ गया है कि जनप्रतिनिधी बनना अब जनसेवा नहीं है बल्कि यह भी एक नौकरी है और तदानुसार इनकी वेतन सर्वे तय करने से लेकर वृद्धि करने आदि तमाम बातों के लिए एक स्टेचरी बॉडी बनाई जाये, आयोग बनाया जाये ताकि कम से कम हमारे देश का शासन चलाने वाले सांसदो को इस शर्मनाक स्थिति से भविष्य में ना गुजरना पड़े।
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बहुत गहराई में जाकर लेख लिखा है. बदिया.
जवाब देंहटाएंमैंने भी व्यंग किया था.... इन्ही के उपर. साहेब फुर्सत में पड़ लेना मेरे ब्लॉग पर.
आपकी पोस्ट रविवार २९ -०८ -२०१० को चर्चा मंच पर है ....वहाँ आपका स्वागत है ..
जवाब देंहटाएंhttp://charchamanch.blogspot.com/
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