बुधवार, 13 अप्रैल 2011

अन्ना हजारे के अनशन के बाद उसमें निहित अर्थ/अनर्थ



अंतत: पूरे राष्ट्र ने राहत की सांस ली जब केंद्रीय सरकार और सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के बीच समझौता हो गया और अन्ना हजारे ने एक आम भारतीय की प्रतीक बिटिया के हाथ (किसी सेलेब्रिटी के हाथ नही) नींबू का पानी पीकर अनशन समाप्त किया। अन्ना हजारे की पांच मांगो मे से सरकारी गजट अधिसूचना जारी करने की अंतिम मांग उनके द्वारा छोड़ देने के बावजूद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मसौंदा समिति की केंद्रीय गजट मे अधिसूचना जारी कर न केवल बडप्पन का परिचय दिया बल्कि एक अच्छा माहौल बनाने के संकेत भी दिये। इसलिये स्वामी अग्रिवेश ने प्रधानमंत्री को इस बात के लिये धन्यवाद भी दिया। यद्यपि अनशन समाप्त होने से एक अध्याय समाप्त जरूर हुआ लेकिन इसने कई नये अध्यायों को व आयामो को जन्म दिया है जिसमें कुछ भविष्य के गर्त में छुपे है और कुछ तुरंत परिलक्षित हुये है जिनका विवेचन आगे किया जाना आवश्यक है।
                        स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहला आंदोलन हुआ जिसमें बगैर किसी देशव्यापी संगठन के, हजारों व्यक्तियों के सदस्य (मेम्बर) हुए बिना एक रालगेन सिध्दी (अन्ना के गांव) के व्यक्ति अन्ना के आव्हान पर तीव्र गति से पूरे देश में अन्ना द्वारा प्रारम्भ में अपने मात्र कुछ सैकड़ो सहयोगियों के साथ जंतर मंतर,दिल्ली मे प्रारम्भ किये गये एक अनशन को विराट जनक्रांति का रूप प्राप्त हो गया। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जन मानस की अधिकांश भागीदारी इस मूवमेंट के साथ हो गई जिसने इस मिथक को भी तोड़ा है र्कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड सकर्र्ता । यह अन्ना का पहला आंदोलन नहीं था। वे इसके पूर्व भी इसी भ्रष्टाचार के मुददे से लेकर कई अन्य मुद्दो पर महाराष्ट में आंदोलन चला चुके है (वैसे सबसे प्रथम अहिंसक आंदोलन भारत मे सन १८११ मे बनारस मे हुआ था) लेकिन तब वे मूवमेंटस आंदोलन की जनसामान्य के अधिकाधिक जनसंख्या तक नहीं पहुंच सके के जैसा कि आज इस आंदोलन में हुआ है। इसका सबसे बड़ा कारण  यही है कि जनता वास्तव में भ्रष्टाचार से इतना तंग आ चुकी है कि आज जब अन्ना हजारे ने पुराने मुद्दे को उठाया तो जनता उससे दो कदम आगे की सोचने लगी। अन्ना हजारे ने लोकपाल विधेयक लाने का जो मुद्दा उठाया उससे भ्रष्टाचार समाप्त होने वाला नहीं है और न ही अन्ना ने ऐसी कोई बात कही है। उनके द्वारा तो मात्र राजनैतिक भ्रष्टाचार पर प्रभावी अंकुश लगाने के उद्देश्य से जन लोकपाल बिल की मांग की गई थी। जब कोई कड़क कानून बनता है तो उसके डर का नागरिक पर इतना दबाव बना रहता है कि वह उक्त अपराध करने की चेष्टा न करें। कानून की मंशा भी यही होती है। लेकिन यह धारणा भी गलत है क्योंकि क्या कानून बन जाने से अपराध समाप्त हो गये है। भ्रष्टाचार पर रोक के लिए देश में पहले सेे ही कई कानून है। भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम से लेकर भारतीय दंड संहिता में भ्रष्टाचार को एक बडा अपराध मानकर कड़ी सजा के विभिन्न प्रावधान है। लेकिन जिस प्रकार सैकड़ो कानून होते हुए समस्त तरह के गैर कानूनी, अनैतिक कृत्य को अपराध मानकर उनके खिलाफ फांसी से लेकर विभिन्न कड़ी सजा के प्रावधान होने के बावजूद न तो समाज-देश मे अपराध समाप्त हुए है और न ही उनकी संख्या कम हुई। इसलिए मात्र जनलोकपाल बिल के लोकपाल अधिनियम बन जाने से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा या कम हो जाएगा यह सोचना बेमानी होगा और वास्तविक स्थिति से आंख मूंदने के समान होगा। 
                                   मैं बात उपर यह कह रहा था कि अन्ना हजारे जनता को राजनैतिक भ्रष्टाचारियों को सजा दिलाने की बात  कह रहे थे अन्य भ्रष्टाचारियों की बात नहीं की थी। लेकिन जनता उनके दो कदम आगे सोचकर कि समस्त प्रकार का भ्रष्टाचार समाप्त हो सकता है और इस कारण वह बिना किसी ''पीले चावल'' (आमंत्रण) के, बिना किसी के द्वारा मूवमेंट किये, स्वप्रेरणा से जनअभियान के रूप में पूरे देश की जनता अन्ना हजारे के साथ जुड़ गई जिससे एक प्रतिष्ठित विवाद रहित सामाजिक व्यक्ति ''अन्ना'' ''अन्नदाता'' के रुप मे उभर कर ''नायक'''' (अन्ना का प्रारंभिक जीवन नायक के रूप में सेना में कार्य करते हुए गुजरा है) से ''जननायक'' की श्रेणी में आकर ''लोकनायक'' जयप्रकाश की श्रेणी में गिनती होने लगी। शायद भविष्य में उससे आगे भी महात्मा गांधी की श्रेणी में वे गिने जाने लगें। यह उनके व्यक्तित्व की सज्जनता सहजता एवं सीधापन है कि उन्होने मीडिया से उनकी तुलना महात्मा गांधी से न करने को कहा। यह इस क्षण की सबसे बड़ी उपलब्धि है। लेकिन सिक्के के हमेशा दो पहलू होते है और मैं हमेशा इस सिद्धांत पर विश्वास करता हूं कि कोई भी व्यक्ति, संस्था या व्यवस्था सम्पूर्ण नही होती है। हर व्यक्ति में कुछ न कुछ गुण एवं अवगुण अवश्य होते है। जब अन्ना अनशन पर बैठे थे और जैसे जैसे कारवा बढ़ता जा रहा था तब उनके रूख और व्यवहार में जो परिवर्तन आ रहा था वह सामान्य व्यक्ति के लिए तो स्वाभाविक था लेकिन 'अन्ना' जैसे के लिए नहीं। 'अन्ना' का समझौता होने क ी पूर्व रात्रि में कहा गया कथन कि अगले चौबीस घंटे में सरकार को झुकना होगा ''दम्भ'' को प्रदर्शित करता है। उनके द्वारा मसौदा समिति में ५० प्रतिशत की भागीदारी, और अध्यक्ष पद पर दावेदारी बाद मे सह अध्यक्ष की मांग, उनके सहयोगियों का यह कथन कि अब हम जीत गये बातचीत के अंत में सरकार के प्रस्ताव पर उनका जवाब कि अगले दिन अनशन समाप्ति पर निर्णय देंगे लेकिन बाद में देर रात्रि अगले दिन सुबह १० बजे अनशन समाप्ती की घोषणा। तत्पश्चात पहिले अधिसूचना जारी हो फिर अनशन समाप्त होगा, ये समस्त तथ्य ऐसे है जो उनके व्यक्तित्व मेें निखार नहीं लाते है। लेकिन इसके विपरीत प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सरकारी अधिसूचना जारी न करने की सरकार के मत को अन्ना द्वारा स्वीकार करने के बावजूद कपिल सिब्बल को अधिसूचना जारी करने के निर्देश देकर अन्ना के अनशन के समाप्ति पर खुशी जाहिर करते हुए इसे लोकतंत्र की जीत बताते हुए इसे लोकतंत्र के लिये शुभ बताया जिससे निश्चित रूप से प्रधानमंत्री ने अपना बड़प्पन दिखाकर अपने कद को तुलनात्मक रूप से ऊंचा उठाया। यही बड़प्पन अन्ना भी दिखा सकते थे क्येांकि यह युद्ध का मैदान नहीं जहां जीत या हार का प्रश्र हो। यह एक मुद्दे की मांग थी जिसे सरकार ने स्वीकार किया जो उसका कार्य और कर्तव्य था। अन्ना का यह बयान भी बेहद आपत्तिजनक है कि हमने ''काले अंग्रेजो'' की नींद उड़ा दी है। यह बयान उनकी शान के न केवल खिलाफ है बल्कि सोनिया व मनमोहन सिंह को अन्ना द्वारा लिखे गये पत्र की भावना के भी प्रतिकूल है। 
                          सरकार के पास जिस रूप में लोकपाल विधेयक लम्बित था वह वास्तव में बहुत मजबूत व प्रभावी नहीं था। इसलिए 'अन्ना' ने लोकपाल विधेयक की उन कमियों को दूर कर जन लोकपाल विधेयक के रूप में सरकार के पास भेजा था। जब अन्ना को उपवास के माध्यम से सरकार को किसी बात पर मजबूर करना ही था जैसे की सरकार अंतत: हुई तब अन्ना हजारे ने इस बात पर क्यों जोर नहीं दिया कि जिस रूप में हमने जन लोकपाल बिल आपको दिया है उसे वैसा का वैसा ही स्वीकार किया जाये और यदि इसके कोई प्रावधान गलत है तो उसे विशेषज्ञ समिति के माध्यम से जनता के  बीच लाया जाए। बजाय इसके कि लोकपाल विधेयक का निर्माण करने के लिए ५० फीसदी भागीदारी के साथ संयुक्त मसौदा समिति की मांग नागरिक समिति की नियत पर उंगली उठाने का मौका देती है। यदि सरकार की नीयत पर शंका की जाती है तो वह शंका आज भी बरकरार है। यदि आपको जन बल के दबाव के आगे गड़बडी करने की हिम्मत सरकार की नही होगी, यह विश्वास है तो समिति में भागीदारी के बिना भी जन लोकपाल विधेयक को कानून बनाने का दबाव सरकार पर सीधे डाला जा सकता था। इससे यह आशंका पैदा होने का कोई अवसर नही होता  कि अन्ना के सहयोगी किसी न किसी रूप में सत्ता की भागीदारी चाहते है। वास्तव में सत्ता का आकर्षण ही अलग होता है और इसलिए सत्ता की तुलना वेश्या से भी की जाती रही हैर्। सत्र्ता  का मतलब सिर्फ सरकार की सत्ता से ही नहीं र्है सत्र्ता  हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से जुड़ी हुई है और उससे दूर रहना सामान्य व्यक्ति के लिए बहुत आसान नहीं है। 
दूसरी बात हमारे देश में जो भीड़ तंत्र है उसका यह प्रभाव होता है कि आदमी अपने स्वविवेक को खो देता है क्योंकि भीड़ में इतना आकर्षण होता है कि वह भीड को सत्ता का साधन मानकर स्वयं को सत्ता का सबसे बड़ा केंद्र मानने लगता है। अन्ना हजारे का अनशन समाप्ति के बाद इसे दूसरी आजादी का प्रारम्भ कहना इसी भीड़ तंत्र का प्रभाव है। आजादी इतनी सस्ती नहीं है। वास्तव में इस देश को दूसरी आजादी की आवश्यकता है क्योकि परिस्थितिया इतनी खराब है। लेकिन क्या इसे हम दूसरी आजादी कह सकते है। यह गम्भीर प्रश्र है और इसका जवाब गम्भीरता से देना होगा। पूरे देश में अन्ना के साथ इस देश की जनसंख्या का जो वह भाग जो अपने विचार व्यक्त करने की क्षमता रखता है। (लगभग ५० प्रतिशत) का अधिकांश भाग (लगभग ९० प्रतिशत) अन्ना के साथ इस मुद्दे के लिए बिना किसी बुलावे के खड़ा हेा गया  अर्थात देश की जम्हूरियत जाग गई लेकिन हमें इस पर विचार करना पड़ेगा कि वास्तव में  देश की जम्हूरियत किस उद्देश्य के लिए जागी है। क्या इसे सही दिशा देने की जरूरत है? और यदि वह दिशा दे दी गई तब इसे दूसरी आजादी को प्रारंभ कहा जा सकता है। महत्वपूर्ण प्रश्र यह पैदा होता है कि जो लोग पूरे देश में अन्ना के साथ खड़े हुए क्या वे वास्तव में भ्रष्टाचारियों को दंडित करना चाहते है भ्र्रष्टाचार को कम, समाप्त, करना चाहते है, उसके विरूद्ध खड़ा होना चाहते है और अंतत उसके लिए एक स्वयं की आहुति देने के लिए तैयार है। यदि इसका उत्तर प्रत्येक भारतीय ने दे दिया तो निश्चित रूप से दूसरी आजादी की क्रांति खड़ी हो जाएगी। ये करोड़ो हाथ जो खड़े हुऐ इसमें कितने ऐसे लोग थे जो दिल पर हाथ रखकर ईश्वर के सामने शपथ ले सकते है कि न तो वे भ्रष्ट है और न ही भ्रष्टाचार में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहयोगी है। क्योंकि भ्रष्टाचार का मतलब यह नहीं है कि रिश्वत का लेन-देन। जो भी भ्रष्ट आचरण कर रहा है वह भ्रष्ट है। और भ्रष्ट आचरण का मतलब कानून के विरूद्ध काम करना। माननीय अन्ना यह एक चूक कर गये जब वे जंतर मंतर मे आये हजारो लोगो को इस बात की शपथ दिला सकते थे कि आज से हम किसी भी प्रकार का भ्रष्ट आचरण नहीं करेंगे और अपने जीवन को कानून की सीमाओं में रहकर जीने का पूर्ण सफल प्रयास करेंगे। फिर यह सिद्धांत छोडऩा होगा कि कानून की नजर में वह हर व्यक्ति निरअपराध है जब तक वह कानूनन् अपराधी घोषित नहीं होता। मेरे कुछ पत्रकार दोस्तो ने अन्ना हजारे के अनशन के दिन मुझे सलाह दी थी कि आप भी उनके समर्थन में बैठे क्योंकि आप भी सामाजिक कार्यो में अग्रणी रहते है यद्यपि मैंने उन्हे कहा कि मैं बैठूंगा लेकिन मैं साहस नहीं कर पाया। यद्यपि मेरा राजनैतिक और सामाजिक जीवन पूर्णत: बेदाग रहा है इस संबंध में कोई भी चुनौती स्वीकार करने के लिए मैं तैयार हूं। इसके बावजूद मैं आयकर, वाणिज्यिक कर के वकालत के जिस व्यवसाय में हूं उसमें कही न कहीं मैं अप्रत्यक्ष रूप से भ्रष्टाचार में सहयोगी हूं और इसलिए मेरा मन, मेरा आत्मबल मुझे उतना साहस नहीं दे पाया और मैं अनशन पर नहीं बैठ सका। जंतर मंतर पर जितने लोग अन्ना के साथ खड़े थे क्या वे अपने दिल पर हाथ रखकर कह सकते है कि वे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कभी भी किसी भी प्रकार से भ्रष्ट आचरण से नहीं जुड़े रहे है। मैने अपने नगर के कुछ लोगों को अन्ना के समर्थन में खड़ा होते हुए देखा है लेकिन शायद बिरले ही होंगे जो यह कह सकते है कि उनसे किसी भी रूप में प्रत्यक्ष या अप्रत्क्ष रूप से कभी भी भ्रष्ट आचरण नहीं किया और शायद यही स्थिति उन करोड़ो हाथों की है जो खड़े हुए। लेकिन अन्ना हजारे को इस बात का श्रेय जरूर दिया जाना चाहिए कि उन्होने एक स्थिति पैदा कि की एक नागरिक यह विचार मंथन करके कि वह आज भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए अपने आत्मबल को कितनी मजबूती प्रदान करके स्वयं को भ्रष्टाचार से कितना दूर रख सकता है। क्योंकि भ्रष्टाचार दो व्यक्ति के होने पर ही होता है। जैसा कि ताली दो हाथो से बजती है एक हाथ से नहीं। और इसलिए यदि एक पक्ष, हाथ स्वयं को कानून की सीमा के अन्दर अनुशासित रख ले तो निश्चित रूप से दूसरा पक्ष अकेला भ्रष्टाचार नहीं कर पाएगा। मैं सोचता हूं और प्रार्थना करता हूं कि वह दिन ईश्वर मेरे जीवन में भी शीघ्र लाये जब मैं इतना आत्मबल पैदा करलूं कि मेरे व्यवसाय में इस अप्रत्यक्ष सहयोग को समाप्त कर सकू तो उस दिन अन्ना के साथ खड़े होने का साहस कर सकूंगा।
                                दूसरी बात जो अन्ना ने कही कि प्रत्येक प्रदेश में संगठन बनाने की जैसा कि मैं पूर्व में भी कह चुका हूं और पूरे देश ने देखा है और अन्ना ने भी महसूस किया है कि बिना किसी संगठन के भी एक व्यक्ति आत्मबल के आधार पर जनता के मन को छू जानेवाली बात कहता है करता है तो पूरा देश उनके पीछे खड़ा हो जाता है। संगठन बनाना अपने आप में बुरी बात नहीं है। पर जब आदमी संगठन बनाता है तो वही सत्ता की लड़ाई प्रारम्भ हो जाती है और इसलिए देश में आज कई देशव्यापी मजबूत संगठन के खडे़् होने के बावजूद वे भी आज तक कई ज्वलनशील मुद्दे होने के बावजूद उन्माद की वह लहर नहीं पैदा कर सके जो अन्ना ने किया। जब तक आप मुद्दो की लड़ाई जो जनता के ह्दय के भीतर तक तक छू जाती है लड़ेंगे बिना किसी संगठन के देश आपके पीछे खड़ा मिलेगा ऐसा विश्वास कीजिए। और जो देश आज आपके पीछे खड़ा हुआ है उसे सही दिशा दीजिए। 
                                इसलिए आज इस बात का संकल्प लेने की आवश्यकता है कि हम अपने जीवन के चारो तरफ फैली किसी भी परिस्थितियों में भी भ्रष्टाचार को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग नहीं देंगे। तब यह देश की दूसरी आजादी होगी क्योंकि सभी समस्याओं की जड़ में मूल यही कारण है और इसीलिए गायत्री परिवार का यह विचार कि हम सुधरेंगे तो युग सुधरेगा सटीक व सामयिक है।

शत्-शत् नमन वंदन: अन्ना हजारे


दूसरो पर पथ्थर फेंकने से पहले जरा अपने भी झांक कर देखो यारों।


'भारत' क्रांति और क्रांतिकारियों का देश रहा है वर्ष 1857 में देश में प्रथम क्रांति का आगाज हुआ था जो गदर आंदोलन के नाम से जाना गया। तत्पश्चात् स्वतंत्रता के पूर्व असहयोग आंदोलन से लेकर कई आंदोलन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नेतृत्व से लेकर सुभाष चंद्र बोस, शहीद भगत सिंह जैसे लोगो के नेतृत्व में चलें जिसकी परिणीति अंतत: 15 अगस्त 1947 को भारत की स्वाधीनता के रूप में प्राप्त हुई। स्वतंत्र भारत के इतिहास में वर्ष 1974 में देश में जो आंदोलन छात्रों व युवाशक्ति ने जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में प्रारम्भ किया उसे स्वतंत्र भारत की प्रथम क्रांति कहा गया। तत्समय की शक्तिशाली प्रधानमंत्री (जिसे भारत पाक के 1971 के युद्ध के पश्चात देवी दुर्गा कहा गया था) ने सत्ता की ताकत का दुरूपयोग कर आपातकाल लागूकर देश के लोकतंत्र की आत्मा को खत्म करने का असफल प्रयास किया। जिसकी परिणीति अंतत: जनता द्वारा तत्कालीन सरकार को उखाडऩे में हुई तब श्री जयप्रकाश नारायण को दूसरे गांधी की संज्ञा दी गई थी। वैसे बलुचिस्तान के नेता खान अब्दुल गफ्फ ार खान की भी महात्मा गांधी से तुलना करते समय उनको भी सीमांत गांधी कहा गया था। बहुचर्चित सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के आमरण अनशन पर बैठने की घोषणा के मात्र तीन दिनों के भीतर ही पूरे देश में जिस तरह की प्रतिक्रिया व सद्भावना तथा छोभ की एकसाथ लहर फैली उसे देखकर इसकी तुलना जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से की जाने लगी जैसा कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा की स्थितियां 1975 जैसी ही है।
............ 'भ्रष्टाचार' कोई नया मुद्दा नहीं है। शताब्दियों से चला आ रहा एक ऐसा रोग है जो 'व्यवस्था' को घुन लगाकर कमजोर करते चला आया है। लेकिन हाल के ही वर्षो में खासकर यूपीए सरकार के द्वितीय कार्य काल में जिस तरह से भ्रष्टाचार सैकड़ो और हजारों करोड़ो से आगे बढ़कर लाखो कराड़ो में एक नही कई-कई घोटालो में गूज रहा है जिसकी गूंज प्रत्येक मानव मन पटल पर हो रही है। तब ऐसे वक्त पर अन्ना हजारे द्वारा उठाया गया कदम जनता के मन में तेजी से असर कर गया और वह उनके पीछे खड़ी होती नजर आ रही है और 'कारवॉ' बढ़ता जा रहा है। इस तरह स्पष्ट है कि अन्ना हजारे ने सरकार के उपर इतना नैतिक बल स्वयं का और जनता के बल का पैदा कर दिया कि अंतत: सरकार को उनके सामने झुकना पड़ा और उनकी पांच में तीन महत्वपूर्ण मांगे स्वीकार करने से 'जन लोकपाल विधेयक' को कानून बनाने का रास्ता खुलने का मार्ग प्रशस्त होता जा रहा है। यद्यपि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर समस्त राजनैतिक पार्टिया, संस्थायें और आम नागरिक एकमत है कि हमारा राजनैतिक, सामाजिक व व्यक्तिगत जीवन भ्रष्टाचार विहीन होना चाहिए। लेकिन मात्र यह एक ''सिद्धांत'' ही रह गया है। प्रश्न यह है कि भ्रष्टाचार उत्पन्न कैसे होता है? हमारे अपनेे बीच के लोगो में से ही दो व्यक्ति खड़े होते है जिसमें से एक व्यक्ति भ्रष्ट आचरण की मांग करता है और दूसरा उसकी पूर्ति करता है और इस प्रकार भ्रष्टाचार पैदा हो जाता है। अत: प्रश्न मात्र सिर्फ  भ्रष्टाचार रोकना या भ्रष्टचार को समाप्त करना ही नहीं है बल्कि उस मानसिकता को बदलना है जो भ्रष्टाचार पैदा करता है। 
............... बात सरकार द्वारा अन्ना हजारे की तीन प्रमुख मांग मानने के बावजूद शेष दो मांगो पर अन्ना हजारे के समर्थको के अड़े रहने की है। शेष जो दो मांगे है एक अन्ना हजारे को लोकपाल बिल का निर्माण करने वाले समिति का अध्यक्ष बनाया जाए। दूसरी समिति की मंत्री द्वारा घोषणा के बजाय केन्द्रीय सरकार द्वारा गजट में उसकी अधिसूचना जारी की जाए। जहां तक समिति के अध्यक्ष का सवाल है खुद अन्ना हजारे ने इसके लिए मना किया है। लेकिन उनके सहयोगी स्वामी अग्निवेश व अनिल केजरीवाल ने जो बयान दिये है उसमें उन्होने दूसरे किसी व्यक्ति के अध्यक्ष बनाने की मांग की है। जब एक न्यूज चैनल के पत्रकार ने स्वांमी अग्निवेश से यह पूछा कि लोकतंत्र में एक चुनी हुई सरकार है तो कानून बनाने का काम उस सरकार का है और कमेटी का अध्यक्ष कोई उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश क्यों नहीं हो सकता तब उन्होने जो जवाब दिया वह न केवल विचारणीय और चिंतनीय है बल्कि उसमें ही यह परिणाम भी छुपा है कि वास्तव में यह आंदोलन देश को किस दिशा की ओर ले जाएगा। स्वांमी अग्निवेश का यह कथन कि लोकतंत्र जब लोगो की इच्छा के अनुसार काम नहीं करता है तब जनता को आगे आना होता है। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के प्रश्न पर अनिल केजरीवाल ने कहा- शांतिभूषण, प्रशांत भूषण से लेकर कई नामाचीन व्यक्ति इसके अध्यक्ष हो सकते हैं पर सरकार के किसी भी भाग के किसी व्यक्ति को इसका अध्यक्ष बनाया जाए हमे स्वीकार नहीं है1 न्यायपालिका सरकार का भाग नहीं है बल्कि वह तो आजकल स्वयं सरकार को नियंत्रित कर रहीं है। ''न्यायिक सक्रियता'' की चर्चा आज हर जगह है। यह वही न्यायपालिका है जिसका सहारा लेकर स्वयं स्वामी अग्निवेश ने कई लोकहित याचिका दाखिल कर आवश्यक निर्देश दिलाये। फिर वह चाहे बंधुआ मजदूर का मामला हो या कोई और। यद्यपि आज श्री केजरीवाल ने उच्चतम न्यायालय के रिटायर्ड मुख्य न्यायाधीश जी.एस. वर्मा एवं न्यायाधीश संतोष हेगड़े के नाम का प्रस्ताव किया है जिसे केंद्रीय सरकार को स्वीकार कर लेना चाहिए। 
.......................हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम एक व्यवस्था के अंतर्गत जी रहे है। हम लोकतंत्र में रह रहे है तो उसमें चुनी हुई सरकार ही जनता के प्रति उत्तरदायी होती है। उसकी यह जिम्मेदारी हैं कि वह जनहित में बिल लाये, कानून बनाये और पालन करवाये। लोकपाल बिल का बनाना सरकार का दायित्व है और जब सरकार इसमें असमर्थ हो जाए तो अन्ना हजारे जैसे व्यक्तित्व को इस तरह का कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। लोहिया कहते थे जिन्दा कौम पांच साल का इंतजार नहीं करती है। लेकिन जब हम किसी व्यवस्था के अंतर्गत काम करते है तो हमारे पास दो ही विकल्प होते है। या तो हम व्यवस्था को ही बदल दे या हम उस व्यवस्था को इतना मजबूर कर दे कि वह व्यवस्था खुद ही अपने कार्य करने की प्रकृति को बदल कर सुधार ले। यह एक उपयुक्त अवसर है जब अन्ना हजारे को इस बात की भी मांग करना चाहिए कि जनता को अपने प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार (राईट टू रिकॉल) होना चाहिए ताकि जो जन प्रतिनिधि काम न कर सके उन्हे जनता एवं संवैधानिक ढांचा द्वारा प्रदत्त कानूनी अधिकार के अधीन वापस बुलाया जा सके। लेकिन जब तक यह अधिकार संविधान का भाग नहीं बनता है तब तक हमारी जो व्यवस्था है उस व्यवस्था से ही काम लेना होगा। जब अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों ने जन लोकपाल विधेयक का मसौदा सरकार को दिया है और सरकार ने कहा है कि हम उसे अगले मानसून सत्र में लायेंगे तब विधेयक बनाने के लिये विधेयक निर्माण समिति की क्यों आवश्यकता है? और फिर उसमें अन्ना समर्थकों की 50 प्रतिशत भागिदारी क्यों आवश्यक है प्रश्न यह भी है। अनिल केजरीवाल का यह कथन अर्धसत्य है कि समिति गठन की मंत्री द्वारा घोषणा तब तक बेमानी है व महत्वहीन है जब तक केंद्रीय सरकार गजट द्वारा अधिसूचित नहीं करती है। यदि अन्ना हजारे व उनके सहयोगियों को सरकार की नीयत पर संदेह है, यह विश्वास नहीं है कि सरकार जो लोकपाल विधेयक का मसौदा लायेगी वह प्रस्तावित जन लोकपाल विधेयक के विचारो के अनुरूप होगा। तब वे उस समय भी आज जैसा कदम उठाकर सरकार पर वैसा ही दबाव बना सकते है जैसे आज बनाया है। वैसे केंद्रीय सरकार को उक्त मांग मानने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए। लेकिन जब आपने पांच मांगे सरकार से मांगकर उनके स्वीकार करने की दशा में कानून बनाने के लिये सरकार पर अंतत: विश्वास करने का संकेत दिया है तब प्रस्तावित समिति में बराबरी की भागीदारी और अध्यक्ष पर जोर देना क्या इस बात का द्योतक नहीं है कि वे भी अंतत: सत्ता सुख में किसी न किसी रूप में भागीदार होना चाहते है क्योंकि सत्ता का आकर्षण बड़ा गहरा होता है। अन्ना हजारे व उनको मिल रहे देश के कोने कोने से आये समर्थन का अंतत: एक भाग मात्र उद्वेश्य लोकपाल कानून बनाकर भ्रष्टाचार पर शिकंजा कसना है फिर चाहे प्रक्रिया कोई भी हो उसके लिये सरकार को एक अवसर तो प्रदान करना ही पड़ेगा। जेपी आंदोलन की अंतत: उपलब्धि क्या हुई। जेपी आंदोलन से निकले लालू यादव और अन्य नेता आज भ्रष्टाचार के सिरमौर है। इसलिए प्रश्न सिर्फ  व्यवस्था को पलटने का नहीं है। प्रश्न यह है कि जो व्यवस्था है उसके के चारो तरफ जनता की आवाज की इतना अंकुश बना रहे कि वह कोई गलती करने का साहस ही न कर सके और जिस दिन इतना दबाव जनता का बन जायेगा तो व्यवस्था अपने आप सुधर जाएगी। तब व्यवस्था बदलने की आवश्यकता नहंी होंगी। क्योंकि कोई भी व्यक्ति और व्यवस्था पूर्णत: न तो सही होती और न ही पूर्णत: गलत। हम क्या व्यवस्था को सुधारना चाहते है या बदलना चाहते है। क्योंकि इस बात की कोई ग्यारंटी नहीं है कि बदली हुई व्यवस्था भी सही रास्ते पर चलेगी। लालू यादव का उदाहरण  हमारे पास है। जयप्रकाश की क्रांति से पैदा हुआ नेता आज किस बात का प्रतीक है पूरा देश जानता है।
...................अन्ना हजारे को इस बात का बहुत बड़ा श्रेय अवश्य दिया जाना चाहिए कि स्वाधीन भारत में यह प्रथम बार हुआ है जब चुनी हुई सरकार ने अपने ही अधिकार (कानून बनाने का अधिकार) जो  संविधान ने दिया है में उन लोगो की भागीदारी जिन्हे संविधान कोई अधिकार प्रदत्त नहीं करता है, देना स्वीकार किया है। इसे लोहिया के उक्त कथन कि- जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करती है की भावना को मान्यता देने का एक प्रयास माना जा सकता है। जब मुद्दा सीधे जनता के सीधे हित से जुड़ा हो, जनता जिससे त्रृस्त हो चुकी हो। तब यदि कोई विवाद रहित प्रतिष्ठित अन्ना जैसे सामाजिक कार्यकर्ता उस मुद्दे को उठाता है तो तब बगैर किसी देशव्यापी संगठन के भी उसका प्रभाव पूरे देश के अधिकांश नागरिकों पर हो सकता है यह बात भी अन्ना हजारे ने सिद्ध की है।
........................ अन्ना हजारे की आज जयप्रकाश नारायण व महात्मा गांधी से तुलना की जा रही है1 निश्चित रूप से अहिंसात्मक रूप से अपने स्वयं के आत्मबल को मजबूत कर उक्त कृत गांधी जी की याद दिलाता है लेकिन गांधी जी ने साध्य की पवित्रता के साथ साध्य को प्राप्त करने के लिए साधन की सुचिता व पवित्रता पर भी उतना ही जोर दिया था जितना साध्य के लिए। इसलिए वे गांधी कहलाये यदि प्रारंभ में अन्ना हजारे के समर्थन में आगे आये जन संगठन व एंजीओ की ओर ध्यान दे तो कुछ एंजीओ किस तरह के है। उनके आय स्त्रोत किस तरह के है। एक आम नागरिक इस बात को जानता है (यह कोई आरोप नहीं है) स्त्रोत की पवित्रता का होना भी उतना ही अनिवार्य है।
........................ अत: वास्तविक प्रश्न जो अन्ना हजारे के इस अनशन से उत्पन्न हुआ कि वह क्या मुद्दो को उठाने के श्रेय का है या मुद्दो को सुलझाने का है। जब भ्रष्टाचार व विदेशों से कालाधन वापस लाने का मुद्दा पूरे जोर-शोर से कुछ दिनों पूर्व स्वामीं रामदेव ने उठाया और लाखो लोगो के हस्ताक्षर वाले ज्ञापन राष्टपति को सौंपा तो क्या उसमें एक हस्ताक्षर अन्ना हजारे जी के भी थे। न मुझे मालूम है और न ही जनता को मालूम है। आज जब अन्ना हजारे जी ने इसी मुददे को उठाकर पूरे राष्ट्र में एक लहर पैदा करदी है तो स्वामीं रामदेवजी का वैसा सक्रिय और सीधा सहयोग क्यों नहीं आया जैसा कि उन्होने अपने खुद के भ्रष्टाचार के विरूद्ध आंदोलन के समय किया था। जिस प्रकार गायत्री परिवार ने सम्पूर्ण देश में स्थित अपने समस्त शक्ति केंद्रो को इस मुद्दे को सहयोग करने के निर्देश दिये है। उसी प्रकार के निर्देश क्या बाबा रामदेव जी ने भी अपने पतंजली योग समिति एवं स्वाभिमान ट्रस्ट की समस्त इकाईयों को निर्देश दिये है। आज भी भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ाई के मुद्दे पर प्रत्येक व्यक्ति की सहमति है। बावजूद लड़ाई मुद्दे को सुलझाने की नहीं मुद्दा उठाने के श्रेय को लेकर है। जिस दिन देश में 'श्रेय' की राजनीति समाप्त होकर मुद्दा सुलझाने की नीति हो जाएगी उस दिन इस देश में शायद कोई समस्या ही नहीं होगी। अत: आईये हम अपना आत्मावलोकन करें और अपने मन को भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ाई लडऩे में मजबूत करें। क्योंकि जिस दिन भ्रष्टचार के मुद्दे पर देश के प्रत्येक नागरिक ने अपने मन को अपने विचार के अनुरूप दृढ़ता प्रदान कर दी उस दिन फिर शायद लोकपाल बिल लाने की आवश्यकता भी नहीं होगी। उस दिन अन्ना हजारे जैसे व्यक्ति को अपने जीवन को दाव पर लगाने की आवश्यकता भी नहीं होगी जिससे आज समूचा देश चिंतित है।  अंत में आज धरना स्थल पर टॉम अल्टर द्वारा पढ़ा गया यह कथन बड़ा महत्वपूर्ण है दूसरो पर पथ्थर फेंकने से पहले जरा अपने भी झांक कर देखो यारों।

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