शुक्रवार, 17 जून 2011

'प्रणव दा' का बयान सही! पर निशाना और कहीं! क्या सही-क्या गलत?




राजीव खण्डेलवाल
देश के शैडो प्रधानमंत्री कहे जाने वाले केंद्रीय सरकार के नम्बर दो स्थिति के वित्तमंत्री दादा प्रणव मोशाय का विगत दिवस दिया गया यह बयान बहुत ही गौर करने लायक है कि एक तो देश की संवैधानिक व्यवस्था को ध्वस्त करने का प्रयास किया जा रहा है, दूसरा देश में आपातकाल जैसी स्थिति है। वास्तव में प्रणव दादा का यह कथन पूर्णत: सत्य है। लेकिन क्या वास्तव में उनकी यह स्वीकारोक्ति है या आरोप? उनका यह कथन उस स्थिति के समान ही है जहां एक व्यक्ति एक गिलास आधा भरा हुआ देखता है, जबकि दूसरा व्यक्ति उसी गिलास को आधा खाली कहता है। यहां तो दोनो के अपने-अपने तर्क हो सकते है कि गिलास आधा भरा है या खाली। लेकिन प्रणव मुखर्जी का देश की वर्तमान स्थिति के संदर्भ में दिये गए उक्त बयान के दो अर्थ निकालने के बावजूद वास्तविकता यही है कि प्रणव मुखर्जी कुतर्क के सहारे उपरोक्त आरोप को बल देने का दुस्साहसी प्रयास कर रहे है। उनमें इतना साहस नहीं है कि वह इन हालातों के लिए स्वयं की  सरकार की जिम्मेदारियों को स्वीकारें।
प्रणव मुखर्जी संवैधानिक व्यवस्था को ध्वस्त करने की बात जब कहते है तब उनका यह तर्क है कि जनता के लिए निर्णय लेने का अधिकार (फिर चाहे वह हित का हो या अहित का) सिर्फ चुनी हुई बहुमत की सरकार को ही है। पॉच सिविल सोसायटी के व्यक्ति जो जनता के द्वारा न तो चुने गये है और न ही चुनकर आ सकते है उनको कोई अधिकार अपने विचार और निर्णय को चुनी हुई सरकार पर थोपने का नहीं है। तकनीकी रूप से बात सही होते हुए भी कानून, संविधान, और लोकतंत्र के स्थापित मापदंड और मूल्यों के विपरीत होने के कारण उक्त तर्क अमान्य हैं। इसीलिए जब लोकशाही वास्तव में किताबी लोकतंत्र पर हावी हो जाती है। सड़ते गलते हुए चुने हुए प्रतिनिधियों (क्योंकि जो तंत्र को सड़ा गला रहे है उन्हे क्या कहा जाये) के ऊपर हावी होती है तब प्रणव मुखर्जी व सरकार को बिना किसी सत्ता के होते हुए भी सिविल सोसायटी की सत्ता का लोहा मानना पड़ता है। सिविल सोसायटी की सत्ता (शक्ति) जो वास्तविक लेाकतंत्र का प्रतीक बन गई है उससे बराबरी की बातचीत का प्रस्ताव करना प्रणव ने स्वीकार किया। न्याय का यह सर्वमान्य सिद्धांत है कि न केवल वास्तविक न्याय होना चाहिए बल्कि न्याय हो रहा है यह भी दिखना चाहिए (नॉट ऑनली जस्टिस बी डिलिवर्ड बट जस्टिस शुल्ड बी सीम्स टू बी डिलिवर्ड) इसी प्रकार लोकतंत्र चुने हुये प्रतिनिधियों द्वारा चुनी हुई सरकार द्वारा ही चलाई जाना चाहिए। लेकिन वास्तविक रूप से वे सिर्फ जनता के हितो के लिए ही अपने कर्तव्यों का पालन करें ऐसा न केवल जनता को (जिसके द्वारा वे चुने जाते है) महसूस होना चाहिए, दिखना चाहिए वरन विश्वास भी होना चाहिए। जब लोकतंत्र के इस चुने हुए तंत्र और उनको चुनने वाली जन-तंत्र के बीच में अविश्वास की खाई पैदा हो जाती है तब जनता को ही आगे आकर उस खाई को पाटने का प्रयास करना होता है। क्योंकि इस स्थिति को निर्मित करने वाले जिम्मेदार व्यक्ति तो सत्ता के मद में मदहोश होकर इतने अंधे हो जाते है कि उन्हे वह खाई नहीं दिखती है और वे अपने कर्तव्यों से विमुक्त हो जाते है। इसलिए उपरोक्त भावनाओं से परिपूर्ण यदि हम पूरे परिदृश्य को देखे तो यह स्पष्ट है कि सत्तारूढ़ एवं विपक्ष दोनो दलो से निराशा मिलने के कारण ही जनता ने सिविल सोसायटीज के रूप में तीसरे पक्ष में अपना न्याय का पक्ष देखने की कोशिश की है और इसलिए कश्मीर से कन्याकुमारी तक, रंक से राजा तक जाति, धर्म की सीमा से परे, समस्त जनों का अभूतपूर्व सहयोग व समर्थन मिला है। यह सन् १९७४ के गुजरात से प्रारम्भ हुए नवनिर्माण आंदोलन जो बिहार में जाकर अंत में जेपी आंदोलन में परिवर्तित हो गया से भी अधिक विशिष्ट महत्ता लिए हुए है। इसलिए यदि हमें लोकतंत्र के वास्तविक स्वरूप को बचाना है लोकतंत्र का वास्तविक फायदा प्रत्येक नागरिक को पहुंचना है तो इस जन आंदोलन का सफल होना अत्यंत आवश्यक है। 
              संवैधानिक व्यवस्था को ध्वस्त करने का आरोप लगाने वाले प्रणव दा इस बात का जवाब दे कि आपातकाल के दौरान संविधान में ४२ वा संशोधन करके नागरिको के संवैधानिक अधिकारो की हत्या कर उनकी पार्टी की सरकार ने कौन सा संवैधानिक कर्तव्य निभाकर संविधान को मजबूत किया? इसके पूर्व ३९ वा संशोधन द्वारा प्रधानमंत्री के चुनाव को न्यायालय के क्षेत्राधिकार से परे करने प्रधानमंत्री को तानाशाह बनाने का कार्य कांग्रेस सरकार ने ही किया था जिसे बाद में उच्चतम न्यायालय ने अवैध घोषित कर दिया था। वर्ष १९७१ के भारत पाक युद्ध के बाद हुए भावनात्मक चुनाव में ४४ प्रतिशत वोट पाकर ६८ प्रतिशत सीटे (३५२) व इंदिरा गांधी की हत्या के बाद वर्ष १९८४ में हुए चुनाव में भावनात्मक लहर के चलते ४९ प्रतिशत वोट ७८ प्रतिशत सीटे (७८ प्रतिशत) संसद में प्राप्त कर बहुमत (५० प्रतिशत) के समर्थन के अभाव में भी संविधान की इस कमी का फायदा उठाकर शासन किया लेकिन संविधान की इस (५० प्रतिशत से अधिक का बहुमत) महत्वपूर्ण कमी पर ध्यान देकर आवश्यक सुधार कर  संविधान संशोधन विधेयक क्यों नहीं लाया? आपातकाल में ''कमिटेड ज्यूडिसरीÓÓ का नारा देकर कांग्रेस ने संविधान की किस संस्था को मजबूत किया? शाहबानो प्रकरण में उच्चतम न्यायालय के निर्णय को निष्प्रभावी बनाने के लिए संविधान संशोधन कर संविधान को मजबूत किया या वोट की राजनीति के चलते अल्पसंख्यक वर्ग को खुश किया। ५ जून की रात्री को रामलीला मैदान दिल्ली निहत्थे सोये हुए अनशनकारियों पर लाठी चार्ज करके जम्हूरियत को जगा कर लोकतंत्र को मजबूत करने का कार्य भी? प्रणव दा आपकी सरकार ने ही किया है। इस तरह से यदि आप लोकतंत्र को मजबूत करते रहे तो निश्चित मानिये भविष्य में न लोक रहेगा और तंत्र।
             प्रणव दा का दूसरा मुख्य आरोप राष्ट्र में इमरजेंसी जैसी हालात के पैदा होने की है जो वास्तव में अक्षरश: सही है, लेकिन इसके लिए जिम्मेदार कौन है? यदि आप वर्ष १९७५ के आपातकाल की याद करें तो आपको याद होगा जेपी आंदोलन से उत्पन्न आग की तपस को तत्कालीन कांग्रेसी सरकार जिसका नेतृत्व लोह महिला इंदिरा गांधी कर रही थी अपनी सत्ताच्युत होने के डर की आशंका मात्र से उन्होने जनता के संवैधानिक अधिकारों का गला घोटकर लोकतंत्र की हत्या कर इमरजेंसी लागू कर कुछ समय के लिए अपनी सत्ता बनाये रखी। इसकी प्रतिक्रिया किस रूप में आई वह पूरे विश्व ने देखा है। आज वर्तमान सरकार जिस बेशर्मी, ढीठपन, हेठी, निरंकुशता, अत्याचार, दमन के साथ (ऐसा कोई अलंकार नहीं है जो सरकार पर लागू न होता हो) कार्य कर रही है उसका एकमात्र कारण विकल्पहीनता व जनता की लाचारी की तथाकथित स्थिति की और सत्ता में मदहोश होना है। लेकिन प्रणव दा को इस बात को समझ लेना चाहिए कि अब स्थिति उतनी आसान नहीं है कि सरकार आपातकाल लगाने की सोच भी सके। शायद प्रणव दा के मन में यह बात होगी की रामलीला मैदान में हमने जनता के ऊपर सफलता पूर्वक बुलडोजर चलाया लेकिन वे इस बात को भूल रहे है कि आदमी के शरीर पर जब डंडा मारा जाता है तो उसके तीव्र दर्द का अहसास उसे कुछ समय पश्चात ही होता है। ठीक इसी प्रकार उक्त घटना की प्रतिक्रिया से भी केंद्रीय सरकार नहीं बच पायेगी यह बात ध्यान में रखना चाहिए।
                 प्रणव दा की लाईन में ही कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी का यह बयान भी गौरे काबिल है कि अन्ना हजारे गैर निर्वाचित तानाशाह है। गैर-निर्वाचित तानाशाह निर्वाचित-तानाशाह से ज्यादा अच्छा है क्योंकि निर्वाचित व्यक्ति जनता का नौकर और सेवक होकर उसके कर्तव्य के विपरीत तानाशाही कर अत्याचार रहा है। जबकि जनता के प्रति कोई कानूनी बंधनकारी उत्तरदायित्व ओढ़े बिना जैसा की निर्वाचित व्यक्तियों के ऊपर है गैर निर्वाचित व्यक्ति यदि तानाशाह है तो वह इसलिए ज्यादा अच्छा है क्योंकि निर्वाचित प्रतिनिधि सरकार की सत्ता के कारण तानाशाह है जबकि गैर निर्वाचित अन्ना हजारे एक तो जनता की सत्ता के कारण तानाशाह है दूसरे जनता के अधिकारो के लिए लड़ रहे है। इसलिए जन जनार्दन (जनता) की सत्ता सरकारी सत्ता से बड़ी होती है यह बात खुद सरकार द्वारा उठाया गया लोकपाल बिल कमेटी के निर्माण के कदम से चाहे वह मजबूरी में ही उठाया गया कदम क्यो न हो, सिद्ध होता है। प्रणव दा के उक्त बयान पर राष्ट्रव्यापी बहस की आवश्यकता है ताकि उक्त आंदोलन की सत्यता, प्रमाणिकता व उसकी जिम्मेदारी यदि जनता तय करती है तो सच मानिये प्रणव दा आपने जो आशंका व्यक्त की है भले ही उसके पीछे आपका निहित अर्थ कोई दूसरा हो लेकिन संवैधानिक संस्था को मजबूत करने का राष्ट्र धर्म निभाने का एक मौका आपको अवश्य मिल जाएगा जिसका उपयोग करना आपके विवेक पर निर्भर होगा।
             एक बात और प्रणव दा जनता आपसे पूछना चाहती है जो व्यक्ति फिर वह चाहे अन्ना हो या बाबा रामदेव, जब-जब भ्रष्टाचार के विरूद्ध प्रभावी कार्यवाही की मांग सरकार से की जाती है तब तब कोई प्रभावी कदम उठाने के विपरीत आवाज उठाने वालो के विरूद्ध ही निम्र स्तर तक दुष्प्रचार किया जाकर सीबीआई से लेकर विभिन्न संस्थाओं का दुरूपयोग कर, उन्हे प्रताडि़त करने का असफल प्रयास किया जाता है। शायद आपका यह कार्य भी संवैधानिक व्यवस्था को सुद्रढ़ करने की परिधि में ही आता होगा?
अत: यह स्पष्ट है कि प्रणव दा का उक्त बयान उस कहावत को ही सिद्ध करता है कि उल्टा चोर कोतवाल को डाटे।

(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

क्या सरकार मुद्दो से जनता का ध्यान हटाने मे सफ ल तो नही हो रही है?


 राजीव खण्डेलवाल


भ्रष्टाचार, कालाधन, विदेशो से कालेधन की वापसी और लोकपाल के महत्वपूर्ण मुद्दो पर विगत कुछ समय से बाबा रामदेव और अन्ना हजारे द्वारा जो राष्ट्र जागरण मुहिम चलायी जा रही है उससे पूरा देश आदोंलित हो चुका है। इसकी गर्मी से न केवल सरकार के हाथ पावं फूल गये बल्कि घबराहट मे इन दोनो संतो के समक्ष सरकार लगभग समर्पण (सरेंडर) की स्थिति मे दिखी।  लेकिन अचानक पांच तारीख की रात्रि मे हुए अमानुषिक अत्याचार की घटना ने अनशन उत्पन्न परिस्थितियों के दृश्य व परिवेश को ही बदल दिया। यह एक बहुत ही चिंताजनक स्थिति की ओर इंगित करता है। प्रत्येक नागरिक को इस संबंध में सावधानी पूर्वक गंभीरता से चिंतन, मनन व विचार करने की आवश्यकता है। 
केंद्रिय सरकार जिस चालाकी, क्रूरता और लाचारीपन के संयुक्त प्रयासो से उत्पन्न हुई स्थितियो का जवाब दे रही है उससे तो यही लगता है कि वह अपने मूल (छिपे हुए) उद्देश्य मे सफ ल हो रही है। चार तारीख को सरकार पूर्णत: नतमस्तक की स्थिति मे थी जब उसने बाबा की सभी मांगे मानकर अपनी लाचारी प्रर्दशित की। लेकिन यह स्थिति वैसी ही थी जिस प्रकार अन्ना हजारे के अनशन से उत्पन्न संकट को तात्कालिक रूप से अप्रभावी  बनाने के लिये सरकार ने अन्ना की मांगे मानी। लेकिन उसके तत्काल बाद न  केवल अन्ना वरन् उनके सहयोगी पर तेजी से हमले करना प्रांरभ कर दिये ताकिमजबूत लोकपाल बिल न आ पाये। इसके लिये केन्द्रीय सरकार लगातार अडंगे व रूकावटे डाल रही है जिसकी कड़ी में प्रणव मुखर्जी का आया हुआ आज का बयान सरकार के उद्देश्यों को स्पष्ट कर देता है। यह हम सब देख रहे है। उसी प्रकार बाबा रामदेव  के सत्याग्रह से उत्पन्न संकट को तत्कालिक रूप से निष्प्रभावी बनाने के लिये एक तरफ  बाबा से बातचीत कर उनकी मांगे मानने का उन्हे विश्वास दिलाती रही और दूसरी ओर से अपनी ही पार्टी के प्रभावशाली महासचिव दिग्विजय सिंह के माध्यम से निकृष्ठ निम्र तरीके से बाबा को ''महिमामंडितÓÓ करते रहे। बाबा की मांग को मानने के बाद  केन्द्रीय सरकार ने पुन: अपना असली रूप दिखाना प्रांरभ किया और मघ्यरात्री मे निहत्थे सोयो हुये भुखे, प्यासे, अनशनकारियो पर जो अत्याचार का तांडव रचा गया उसे संविधान की कोई भी खंड, भारतीय दंड सहिंता, दंड प्रकिया संहिता की कोई भी धारा व मानवाधिकार का कोई भी अध्याय उक्त कृत्य को किसी भी रूप में न्यायसंगत नही ठहरा सकता है। उस दिन सरकार द्वारा घटित घृणित कृत्य से माफी मांगने के विपरीत सरकार और उसके इशारे पर कुछ व्यक्ति और भी बेशरमी भरे तरीके से उसे उचित ठहराने का प्रयास कर रहे है।  जिस ताकत के साथ पांच तारिख की रात्रि की घटना पर राष्ट्रिय चैनलो पर बहस चल रही है वहवास्तव मे बहस का मुद्दा बिल्कुल नही है। वास्तव मे तो न केवल उक्त घटना का प्रतिकार किया जाना चाहिये था बल्कि हर क्षेत्र से उसकी घोर भत्र्सना की जानी चाहिये थी। लेकिन उसके विपरित उक्त घटना पर राष्ट्रीय बहस चलाकर सरकार अपने उक्त उद्वेश्य मे सफ ल होती दिख रही है कि भ्रष्टाचार कालाधन और लोकपाल के मुद्दे पर से जनता का ध्यान बंाट कर आज उक्त अनैतिक गैरकानूनी घटना के औचित्य पर बहस हो रही है। 
कुछ  बाते दिनांक पांच तारीख की रात्रि घटना पर कर ली जावे। जिस तरह सरकार द्वारा यह कहा जा रहा है की धरने की अनुमति का का बाबा रामदेव द्वारा दुरूपयोग किया गया जिस कारण से अनुमति रद्द की जाकर तुरंत आवश्यक कार्यवाही की गई जो दुर्भाग्यपूर्ण लेकिन आवश्यक थी जैसा की प्रधानमंत्रीजी ने भी कहा है। वास्तव मे यह उस भ्रामक प्रचार का हिस्सा है जहा एक झूठ यदि सौ बार कहा जाये तो वह सच लगने लगता है की मिथ्या धारणा पर आधारित है। सर्वप्रथम सरकार  को  इस बात के लिये बाबा को धन्यवाद देना चाहिये की बाबा ने अनशन के लिये अनुमिति मांगी। वास्तव मे कोई भी आंदोलन अनशन, धरना सत्याग्रह के द्वारा किया जाता है। यदि इन शब्दो का अर्थ देखा जाये तो इन सब मे जो निहित अर्थ, भाव है उससे ''विरोधÓÓ का स्वर ही निकलता है न कि 'सहमतिÓ का।  इसलिये इस विरोध के लिये उस सरकार से जिसके विरूद्ध आंदोलन करना चाहते है उसी से अनुमति मांगना न तो उचित है और न ही आवश्यक। क्योकि शांति पूर्वक अहिंसक अनशन के द्वारा विरोध व्यक्त करना हमारा संवैधानिक अधिकार है, जो धारा 144 के लागु होने पर उसका उलंघन होते हुये भी यह संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार है। जब हम किसी मुद्दे पर सरकार द्वारा ध्यान न देने की स्थिति में जनता का ध्यान आक र्षित करते है तो वह हम अनुमति-सहमति के माध्यम  से नही बल्कि विरोध के माध्यम से ही (जो कि हमारा संवैधानिक अधिकार है) कर सकते है बशर्ते वह विरोध का तरीका पुर्णत: अहिंसावादी हो भड़काने वाला न हो उत्तेजक न हो। यहां पर बाबा लगातार अंहिसा की बात करते रहे। किसी प्रकार की उत्तेजना की बात नही की और लगातार यह घोषणा करते रहे की न हम मरने आये है न मारने आये है अर्थात हमारा अनशन आमरण अनशन भी नही है। सरकार द्वारा दी गई अनुमति को रद्द करने के पूर्व आयोजक को कोई कारण बताओं सूचना पत्र नहीं दिया गया। अनुमति रद्द करने के जो तथाकथित कारण बतलाए गये कानूनी व वास्तविक धरातल पर बिलकुल भी औचित्यपूर्ण नहीं है। अनशन स्थल से अनशनकर्ताओं को एक समय बद्ध समय भी चले जाने के लिये नहीं दिया गया। इस प्रकार इस निहत्थे पूर्णत: शांतिपूर्ण आंदोलन को केंन्द्रीय सरकार ने जिस दमनचक्र के द्वारा  कुचलने का प्रयास किया है उसका एकमात्र कारण न केवल बाबा और सत्याग्रहियों को सबक सिखाने का दु:साहस दिखाना है, बल्कि जनता का ध्यान मुख्य मुद्दो से हटाकर आंदोलन को कमजोर करना है जिसमे सरकार की चाले सफ ल होती दिख रही है। इसलिये अभी यदि जनता को इस आंदोलन को आगे बढ़ाना है तो इसके लिये बिना विचलित हुये, पूरे देश में हमें सत्याग्रह अनशन पर दृढ़ प्रतिज्ञा के साथ बैठना होगा। जन-मानस को सत्यागह के लिए लिये अनुमति लेने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि सरकार की नजर में इस सत्यागृह से किसी कानून का उलंघन होता है तो गिरफ्तारिया देकर देश की जेल भरने के लिये हमें तैयार रहना होगा, क्योकि यह सरकार बातचीत की भाषा न तो समझती है न मानती है और न मानना चाहती है सिवाय निर्लज्ज होकर अपनी स्वयं की पीठ थपथपाने मे लगी है। इससे भी बात यह है कि यदि यह जन आंदोलन असफल हो गया तो भविष्य में कोई भी अहिंसात्मक शांतिपूर्ण आंदोलन करने का साहस नहीं जुटा पायेगा।
आंदोलन का दूसरा पहलू यह भी है कि जिस सहिष्णुता, सहनशीलता का परिचय बाबा ने दिया सरकार ने उसे उनकी कमजोरी मानकर उन पर पांच तारीख की रात्री में आक्रमण करने का दुस्साहस किया जिस बाबा ने मनमोहन सिंह को देश का ईमानदार प्रधानमंत्री बतलाया जबकि वे स्वतंत्र भारत के इतिहास का सर्वकालीन सबसे अधिक संख्या एवं आकार में हुए विभिन्न घोटालों की सरकार के मुखिया है। उसे बाबा द्वारा ईमानदार प्रधानमंत्री कहना उनके स्वच्छ आंतरिक मन व सहृदयता को दिखलाता है। इसके विपरीत दिग्गी राजा द्वारा उन्हे ठग घोषित करना पार्टी के दोहरे पन का बेशरम प्रदर्शन है। इसलिए यदि पिछले कुछ दिनों में घटित घटनाओं पर गौरपूर्वक विचार करे तो यह स्पष्ट आशंका पैदा हो रही है कि क्या देश तानाशाही लोकतंत्र की ओर तो नहीं जा रहा है? जिसका उत्तर उत्तरदायी नागरिकों के दृढ़ता पूर्वक खड़े होने पर ही निर्भर है। 
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

बुधवार, 1 जून 2011

क्या प्रधानमंत्री एवं मुख्य न्यायाधीश को लोकपाल बिल के दायरे में लाना उनके विवेक पर नहीं छोड़ देना चाहिए?


लोकपाल मसौदा तैयार करने के लिए गठित की गई लोकपाल बिल मसौदा समिति की सम्पन्न हुई पांचवी बैठक में इस मुद्दे पर विवाद पैदा हो गया है कि प्रधानमंत्री व उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को लोकपाल बिल के दायरे में लाया जाए अथवा नहीं। बाबा रामदेव ने भी एक बयान में उक्त संवैधानिक संस्थाओं को लोकपाल बिल के दायरे में न लाने के संकेत व्यक्त  कर एक स्वस्थ और राष्ट्रीय बहस छेड़ दी है। वास्तव में यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण संवेदनशील और एक अंतत: नई दिशा तय करने वाला बिन्दू है जिस पर कोई भी अंतिम निर्णय पर पहुंचने के पूर्व एक गहन, सार्थक, सारगर्भित व राष्ट्रवादी बहस होना आवश्यक हो गई है। 
वास्तव में भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है जहां अप्रत्यक्ष प्रणाली से सबसे प्रभावशाली व्यक्ति प्रधानमंत्री का चुनाव होता है। इसके विपरीत विश्व का सबसे ताकतवर व्यक्ति अमेरिका का राष्ट्रपति होता है जो प्रत्यक्ष तरीके से चुना जाता है। इसलिए भारत के प्रधानमंत्री की स्थिति कुछ अलग है। हमारे संविधान में कुछ सर्वोच्च महत्वपूर्ण संवैधानिक पद है जिनमें राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, उच्चतम न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश, कंट्रोलर एवं ऑडिटर जनरल, सीवीसी एवं लोकसभा स्पीकर, डिप्टी स्पीकर राज्यपाल के पद प्रमुख है। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का पद लोकपाल बिल के अंतर्गत नहीं आये इस पर कोई विवाद फिलहाल किसी पक्ष को नहीं है जो लोकपाल बिल के निर्माण में लगे हुए है। शायद इसका कारण यही हो सकता है कि संवैधानिक रूप से सर्वोच्च पद होने के बावजूद पावर -सत्ता- की शक्ति न होने के कारण उक्त पदों पर बैठे व्यक्ति की भ्रष्टाचार की संभावनाएं लगभग धूमिल है। लेकिन बाकि शेष पदों के साथ यह स्थिति नहीं है। हमारे संविधान की एक और विशेषता है कि लोकतंत्र के तीनों अंग न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका अपने आप में पूर्णत: स्वतंत्र होने के बावजूद संविधान में इतना लचिलापन है कि ये तीनों अंग एक दूसरे पर प्रभावशाली अंकुश भी लगा सकते है। संसद अपने क्षेत्र में सर्वोच्च है जिसका काम कानून बनाने का है लेकिन संसद द्वारा बनाये गये कानून की समीक्षा का अधिकार न्यायपालिका को है जिसने पूर्व में कई कानून को संविधान के प्रतिकूल होने के कारण अवैध घोषित किया है। इसी प्रकार न्यायपालिका अपने क्षेत्र में सर्वोच्च है और उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और माननीय न्यायाधीशगण कार्यपालिका और विधायिका के प्रति उत्तरदायी न होने के बावजूद संसद को उनके कदाचरण पर महाभियोग लगाने का अधिकार है। इसी प्रकार कार्यपालिका जो जनता के प्रति सीधे जिम्मेदार है उस पर न्यायपालिका व विधायिका का प्रभावी अंकुश है। क्या इसी प्रकार की व्यवस्था मुख्य लोकपाल के सम्बंध में नहीं की जा सकती? यह एक गंभीर प्रश्र है। क्योकि जिस तरह लेाकपाल बिल बनाने के लिए विचार व्यक्त किये जा रहे है, उसमें तो एक तानाशाह लोकपाल का ही निर्माण होने की आशंका है, जैसा कि कुछ विचारको, लेखको ने विगत समय अपने लेखों के माध्यम से व्यक्त भी किये है। मुख्य लोकपाल आयुक्त सर्वशक्तिमान होना चाहिए यह विवाद का विषय बिल्कुल नहीं है क्योंकि उन पर अन्य संवैधानिक महत्वपूर्ण पदों पर अंकुश की जिम्मेदारी और दायित्व आयेगी। लेकिन यह सर्वशक्ति अधिनायकवाद में नही बदले निरंकुशता में नहीं बदले इसके लिए यह आवश्यक होगा कि मुख्य लोकपाल पर भी नियंत्रण के लिए विधायिका और न्यायपालिका का कोई ऐसा संयुक्त उपक्रम ईजाद किया जाए जिसका संवैधानिक डर लोकपाल के मन में बना रहे ताकि वे न तो कोई मनमानी कर सके और न ही अप्रत्यक्ष रूप से वे भ्रष्टाचारी हो सके या भ्रष्टाचार कर सके। क्योंकि जब शीर्षस्थ महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्थाओं की नकेल लेाकपाल के पास रहेगी तो सत्ता का वह पावर उन्हे भी आवश्यक रूप से भ्रष्टाचारी बना सकती है। क्योङ्क्षक कहा गया है-(Power corrupts the man & absolute power corrupts absolutely)

यह चर्चा वास्तव में इस बात की ओर इंगित करती है कि देश में विश्वास का संकट पैदा हो गया। आज हम जब प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश को लोकपाल बिल के अन्तर्गत लाने की बात कर रहे है तो निश्चित रूप से यह विश्वास का ही संकट है। आज हम मात्र पॉच व्यक्तियों जोकि पूर्णत: ईमानदार है की ओर हम विश्वास पूर्वक इंगित नहीं कर सकते है। क्योंकि सिविल सोसायटी के पॉच में से दो तीन सदस्यों पर तो उंगली उठ ही चुकी है। पूर्व कानून मंत्री शांतिभूषण पर तो उच्चतम न्यायालय ने स्टेम्प ड्यूटी मामले पर उंगली उठायी है। क्या यह स्थिति हमें इस बात पर सोचने पर मजबूर नहीं करती है कि लोकपाल बिल बनाते समय हम विश्वास के इस संकट का सामना कैसे करें और इसकी पूर्ति कैसे करें। यदि देश का बौद्विक वर्ग व इस दिशा में कार्य कर रहे विभिन्न महत्वपूर्ण व्यक्ति ुसामुहिक रूप से गहनता से विचार कर कोई ऐसा रास्ता निकालते है जो इस विश्वास के संकट को कम कर सके तो मैं सोचता हूं उससे बड़ा मानव धर्म और कोई नहीं होगा। तब इस लोकपाल विधेयक पर छिड़ी बहस प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश लोकपाल बिल के दायरे में आना चाहिए कि नहीं बेमानी हो जाएगी। वैसे बाबा रामदेव का इस मुद्दे पर कथन बहुत विचारणीय गम्भीर और वास्तविकता के निकट है कि ये दोनो पद बहुत सम्माननीय है एवं लोकपाल के दायरे में लाने से पद की गरीमा घट जायेगी।
वैसे मेरे मत में इस बिंदु का सर्वश्रेष्ठ आदर्श समाधान यही होगा कि हम लोकपाल बिल में ऐसा प्रावधान करे कि प्रधानमंत्री एवं उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का पद अनिवार्य रूप से उसके दायरे में न लाकर उनके विवेक पर छोड़ दिया जावे अर्थात पद ग्रहण करने की एक निश्चित सीमा -7 से 30 दिन- के अन्दर वे यह घोषणा करें कि उन पर उक्त अधिनियम लागु होगा अथवा नहीं। जिससे एक तो उन पर इतना ज्यादा नैतिक दबाव बन जायेगा कि वे स्वंय उसे लागू करने की घोषणा कर देंगे। उनके द्वारा घोषणा न करने की स्थिति में भी उन पर इतना नैतिक बल का दबाव हमेशा बना रहेगा कि वे ऐसे कोई कार्य नही करे ताकि फिर एक व्यक्ति लोकपाल ही नहीं बल्कि कोई भी नागरिक उनके चरित्र पर उंगली न उठा सके। यह स्थिति उसी प्रकार की है जब प्रारम्भ में कुछ जनप्रतिनिधियों ने अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा स्वेच्छा से की थी बाद में यह कानून बन गया था।

Popular Posts