बुधवार, 1 जून 2011

क्या प्रधानमंत्री एवं मुख्य न्यायाधीश को लोकपाल बिल के दायरे में लाना उनके विवेक पर नहीं छोड़ देना चाहिए?


लोकपाल मसौदा तैयार करने के लिए गठित की गई लोकपाल बिल मसौदा समिति की सम्पन्न हुई पांचवी बैठक में इस मुद्दे पर विवाद पैदा हो गया है कि प्रधानमंत्री व उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को लोकपाल बिल के दायरे में लाया जाए अथवा नहीं। बाबा रामदेव ने भी एक बयान में उक्त संवैधानिक संस्थाओं को लोकपाल बिल के दायरे में न लाने के संकेत व्यक्त  कर एक स्वस्थ और राष्ट्रीय बहस छेड़ दी है। वास्तव में यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण संवेदनशील और एक अंतत: नई दिशा तय करने वाला बिन्दू है जिस पर कोई भी अंतिम निर्णय पर पहुंचने के पूर्व एक गहन, सार्थक, सारगर्भित व राष्ट्रवादी बहस होना आवश्यक हो गई है। 
वास्तव में भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है जहां अप्रत्यक्ष प्रणाली से सबसे प्रभावशाली व्यक्ति प्रधानमंत्री का चुनाव होता है। इसके विपरीत विश्व का सबसे ताकतवर व्यक्ति अमेरिका का राष्ट्रपति होता है जो प्रत्यक्ष तरीके से चुना जाता है। इसलिए भारत के प्रधानमंत्री की स्थिति कुछ अलग है। हमारे संविधान में कुछ सर्वोच्च महत्वपूर्ण संवैधानिक पद है जिनमें राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, उच्चतम न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश, कंट्रोलर एवं ऑडिटर जनरल, सीवीसी एवं लोकसभा स्पीकर, डिप्टी स्पीकर राज्यपाल के पद प्रमुख है। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का पद लोकपाल बिल के अंतर्गत नहीं आये इस पर कोई विवाद फिलहाल किसी पक्ष को नहीं है जो लोकपाल बिल के निर्माण में लगे हुए है। शायद इसका कारण यही हो सकता है कि संवैधानिक रूप से सर्वोच्च पद होने के बावजूद पावर -सत्ता- की शक्ति न होने के कारण उक्त पदों पर बैठे व्यक्ति की भ्रष्टाचार की संभावनाएं लगभग धूमिल है। लेकिन बाकि शेष पदों के साथ यह स्थिति नहीं है। हमारे संविधान की एक और विशेषता है कि लोकतंत्र के तीनों अंग न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका अपने आप में पूर्णत: स्वतंत्र होने के बावजूद संविधान में इतना लचिलापन है कि ये तीनों अंग एक दूसरे पर प्रभावशाली अंकुश भी लगा सकते है। संसद अपने क्षेत्र में सर्वोच्च है जिसका काम कानून बनाने का है लेकिन संसद द्वारा बनाये गये कानून की समीक्षा का अधिकार न्यायपालिका को है जिसने पूर्व में कई कानून को संविधान के प्रतिकूल होने के कारण अवैध घोषित किया है। इसी प्रकार न्यायपालिका अपने क्षेत्र में सर्वोच्च है और उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और माननीय न्यायाधीशगण कार्यपालिका और विधायिका के प्रति उत्तरदायी न होने के बावजूद संसद को उनके कदाचरण पर महाभियोग लगाने का अधिकार है। इसी प्रकार कार्यपालिका जो जनता के प्रति सीधे जिम्मेदार है उस पर न्यायपालिका व विधायिका का प्रभावी अंकुश है। क्या इसी प्रकार की व्यवस्था मुख्य लोकपाल के सम्बंध में नहीं की जा सकती? यह एक गंभीर प्रश्र है। क्योकि जिस तरह लेाकपाल बिल बनाने के लिए विचार व्यक्त किये जा रहे है, उसमें तो एक तानाशाह लोकपाल का ही निर्माण होने की आशंका है, जैसा कि कुछ विचारको, लेखको ने विगत समय अपने लेखों के माध्यम से व्यक्त भी किये है। मुख्य लोकपाल आयुक्त सर्वशक्तिमान होना चाहिए यह विवाद का विषय बिल्कुल नहीं है क्योंकि उन पर अन्य संवैधानिक महत्वपूर्ण पदों पर अंकुश की जिम्मेदारी और दायित्व आयेगी। लेकिन यह सर्वशक्ति अधिनायकवाद में नही बदले निरंकुशता में नहीं बदले इसके लिए यह आवश्यक होगा कि मुख्य लोकपाल पर भी नियंत्रण के लिए विधायिका और न्यायपालिका का कोई ऐसा संयुक्त उपक्रम ईजाद किया जाए जिसका संवैधानिक डर लोकपाल के मन में बना रहे ताकि वे न तो कोई मनमानी कर सके और न ही अप्रत्यक्ष रूप से वे भ्रष्टाचारी हो सके या भ्रष्टाचार कर सके। क्योंकि जब शीर्षस्थ महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्थाओं की नकेल लेाकपाल के पास रहेगी तो सत्ता का वह पावर उन्हे भी आवश्यक रूप से भ्रष्टाचारी बना सकती है। क्योङ्क्षक कहा गया है-(Power corrupts the man & absolute power corrupts absolutely)

यह चर्चा वास्तव में इस बात की ओर इंगित करती है कि देश में विश्वास का संकट पैदा हो गया। आज हम जब प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश को लोकपाल बिल के अन्तर्गत लाने की बात कर रहे है तो निश्चित रूप से यह विश्वास का ही संकट है। आज हम मात्र पॉच व्यक्तियों जोकि पूर्णत: ईमानदार है की ओर हम विश्वास पूर्वक इंगित नहीं कर सकते है। क्योंकि सिविल सोसायटी के पॉच में से दो तीन सदस्यों पर तो उंगली उठ ही चुकी है। पूर्व कानून मंत्री शांतिभूषण पर तो उच्चतम न्यायालय ने स्टेम्प ड्यूटी मामले पर उंगली उठायी है। क्या यह स्थिति हमें इस बात पर सोचने पर मजबूर नहीं करती है कि लोकपाल बिल बनाते समय हम विश्वास के इस संकट का सामना कैसे करें और इसकी पूर्ति कैसे करें। यदि देश का बौद्विक वर्ग व इस दिशा में कार्य कर रहे विभिन्न महत्वपूर्ण व्यक्ति ुसामुहिक रूप से गहनता से विचार कर कोई ऐसा रास्ता निकालते है जो इस विश्वास के संकट को कम कर सके तो मैं सोचता हूं उससे बड़ा मानव धर्म और कोई नहीं होगा। तब इस लोकपाल विधेयक पर छिड़ी बहस प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश लोकपाल बिल के दायरे में आना चाहिए कि नहीं बेमानी हो जाएगी। वैसे बाबा रामदेव का इस मुद्दे पर कथन बहुत विचारणीय गम्भीर और वास्तविकता के निकट है कि ये दोनो पद बहुत सम्माननीय है एवं लोकपाल के दायरे में लाने से पद की गरीमा घट जायेगी।
वैसे मेरे मत में इस बिंदु का सर्वश्रेष्ठ आदर्श समाधान यही होगा कि हम लोकपाल बिल में ऐसा प्रावधान करे कि प्रधानमंत्री एवं उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का पद अनिवार्य रूप से उसके दायरे में न लाकर उनके विवेक पर छोड़ दिया जावे अर्थात पद ग्रहण करने की एक निश्चित सीमा -7 से 30 दिन- के अन्दर वे यह घोषणा करें कि उन पर उक्त अधिनियम लागु होगा अथवा नहीं। जिससे एक तो उन पर इतना ज्यादा नैतिक दबाव बन जायेगा कि वे स्वंय उसे लागू करने की घोषणा कर देंगे। उनके द्वारा घोषणा न करने की स्थिति में भी उन पर इतना नैतिक बल का दबाव हमेशा बना रहेगा कि वे ऐसे कोई कार्य नही करे ताकि फिर एक व्यक्ति लोकपाल ही नहीं बल्कि कोई भी नागरिक उनके चरित्र पर उंगली न उठा सके। यह स्थिति उसी प्रकार की है जब प्रारम्भ में कुछ जनप्रतिनिधियों ने अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा स्वेच्छा से की थी बाद में यह कानून बन गया था।

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