शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

मनमोहन सिंह "प्रधानमंत्री" कितने ईमानदार!


(राजीव खण्डेलवाल)

           माननीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी को वर्तमान में सबसे चर्चित चेहरे बाबा रामदेव और अन्ना हजारे द्वारा ईमानदार प्रधानमंत्री (व्यक्तित्व का नहीं) का फतवा दिया गया। मैने फतवा शब्द का प्रयोग इसलिए किया है इस देश में में बाबा व अन्ना का जो सम्मान, विश्वास, आकर्षण एवं प्रभाव है उसके कारण उनके कहे गये कथन का प्रभाव जन मानस पर फतवे से कम नहीं है। निश्चित रूप से यह वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए मनमोहन सिंह जी के लिए  न केवल गौरवान्वित करने वाला क्षण है बल्कि एक मील का पत्थर भी है। वास्तव में किन व्यक्तियों द्वारा किन परिस्थितियों में यह ''आभूषणÓÓ दिया गया, यह न केवल विचारणीय है बल्कि चिंतनीय भी है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में गुजरात में छात्रो द्वारा प्रारम्भ किये गये नव निर्माण आंदोलन जिसने बाद में जेपी की समग्र क्रांति के आंदोलन का रूप ले लिया, के बाद भ्रष्टाचार के खिलाफ राष्ट्र व्यापी व्यापक और प्रभावशाली मूहिम चलाने वाले व्यक्ति बाबा रामदेव और अन्ना हजारे ही है। अत: उनके द्वारा दिया गया यह अलंकरण यू ही साईड लाईन नहीं किया जा सकता है। इससे भी महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इन दोनो व्यक्तियों ने ऐसे शख्स को ईमानदारी का वह ताज दिया जिनके बाबत कहा जाता है कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में इससे भ्रष्ट सरकार कोई और नहीं हुई जिसके की वे मुखिया होकर प्रधानमंत्री है। भ्रष्टाचार का मुद्दा कई सदियों पुराना है लेकिन मनमोहन सिंह जी के नेतृत्व में जिस तरह भ्रष्टाचार के कांडो की संख्या तेजी से बढ़ी और उनका आकार आसमान की ऊंचाई की ओर बढ़ा वह निसंदेह अपने उच्चतम स्तर पर है। यदि घोटालों की गिनती की जाए तो एक लम्बी श्रंखला बन जाएगी। २जी स्पेक्ट्रम कांड, राष्ट्र्रमंडल खेल आयोजन कांड, निजी क्षेत्र की गैस कम्पनी रिलायंस पर उंगली उठाने वाली केग की रिपोर्ट जैसे न जाने कितने ही घोटाले है जिनका आकार अब सैकड़ो हजारो करोड़ में न होकर लाखो करोड़ में होता है। एक जमाने में हर्षद मेहता कांड जो लगभग छ: हजार करोड़ का था को सबसे बड़ा स्केम माना गया था। इसके बावजूद यदि प्रधानमंत्री जी ईमानदारी का तमगा पाते है और ऐसे व्यक्तियों द्वारा जो घोषित और कार्य रूप में भ्रष्टाचार के विरूद्ध देश की नब्ज को सम्भाले हुए है निर्देशन दे रहे है तो वह एक आश्चर्य मिश्रित सत्य है। इसका भी विश्लेषण किया जाना आवश्यक है।
                             प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सोनिया गांधी के प्रति पूर्णत: समर्पित है। उनकी स्वामीभक्ति पर कोई भी उंगली नहीं उठाई जा सकती है। इसमें उनकी पूर्णत: ईमानदारी प्रकट होती है। प्रधानमंत्री एक विद्वान अर्थशास्त्री है और आर्थिक प्रबंधन के प्रति उनके कमिटमेंट के प्रति भी वे भी पूर्णत: ईमानदार है भले ही उससे परिणाम निकल रहे हो या दुष्परिणाम। प्रधानमंंत्री की व्यक्तिगत छवि भी एक ईमानदार व्यक्ति की है और न तो उनपर कोई ऐसा व्यक्तिगत आरोप लगा है जिसके द्वारा उन्होने उससे कोई फायदा उठाया हो। न ही उनकी संपत्ति जो उन्होने लोकसभा में घोषित की है में ऐसा कोई बढ़ावा हुआ है जिसमें भ्रष्टाचार की बू आती हो। प्रधानमंत्री ने अपनी लाचारीपन को भी बड़ी ईमानदारी से अपने भाषणों में स्वीकार किया है। इतनी सारी 'ईमानदारी' होने के बावजूद इतने सारे हुए स्केण्डल्स जिसमें उनके मंत्रिमंडल के अनेक सदस्य फंसे यह कैसे सम्भव हुआ? कई मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा और कईयों पर मुकदमें चल रहे है और कई जेल के अंदर अभी भी बंद है। हमारा देश एक लोकतांत्रिक देश है जहां मंत्रिमंडल का सामुहिक उत्तरदायित्व का सिद्धांत है। अर्थात मंत्रिमंडल की सामुहिक जिम्मेदारी होने के कारण प्रधानमंत्री हर मंत्री के मंत्री के हैसियत से किये गये कार्यो के लिए जिम्मेदार है। मनमोहन सिंह जी ईमानदारी पूर्वक कृपया राष्ट्र को यह बताएं, साथ ही अन्ना हजारे और बाबा रामदेव भी इस बात को परिभाषित करे कि मनमोहन सिंह की ईमानदारी के बावजूद उनकी नाक के नीचे टूजी स्केण्डल से लेकर कई बड़े-बड़े स्केण्डल्स कैसे हो गये। प्रधानमंत्री ने इन पर स्व प्रेरणा से कोई कार्यवाही नही की। इनपर तब कार्यवाही की गई जब उच्चतम न्यायालय का डण्डा सीबीआई पर पड़ा अैार सीबीआई को उच्चतम न्यायालय के डंडे से बचने और अपनी बची खुची साख को बचाने के लिए इन आरोपियों को जेल भेजने की कार्यवाही करनी पड़ी। तभी प्रधानमंत्री को अपनी और जग हसॉई न हो इस कारण मंत्रियों से इस्तिफे लिए गये, उनको बर्खास्त करने का साहस नहीं दिखा पाये जो एक ईमानदार प्रधानमंत्री का कर्तव्य था। यदि वास्तव में प्रधानमंत्री उनकीनाक के नीचे प्रधानमंत्री कार्यालय में हो रहे भ्रष्टाचारों से अनभिज्ञ थे तो भारत राष्ट्र क्या ऐसे प्रधानमंत्री के हाथों में सुरक्षित है जिसके हाथो में देश के सीमा की सुरक्षा, सुरक्षातंत्र व विभिन्न गोपनीय सूचनाएं होती है। व्यक्तिगत रूप से ईमानदार होने के बावजूद क्या हम इन्हे राष्ट्र के प्रति ईमानदार कह सकते है? और यदि नहीं तो उनके कुर्सी पर बने रहने का क्या औचित्य है? यदि वे इनोसेंस प्रधानमंत्री है तो क्या अक्रर्मणय प्रधानमंत्री नहीं कहलाएंगे क्योकि जो कार्य की अपेक्षा उनसे की जाती है उसमें देश की सुरक्षा से लेकर अपने चारो तरफ के वातावरण के प्रति सजग, सचेत और संजीदगा रहना उनका कर्तव्य है जो लोगो की अपेक्षा भी है लेकिन वे उसमें असफल रहे।
                      भ्रष्टाचार का मतलब सिर्फ पैसो के लेनदेन से ही नहीं है बल्कि हर वह कार्य जो नैतिकता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है वह भ्रष्टाचार है। ४-५ जून की रात्री की रामलीला मैदान की घटना को दूर्भाग्यपूर्ण लेकिन आवश्यक बताने वाले मनमोहन सिर्फ का यह बयान क्या उनकी ईमानदारी को दर्षित करता है? वास्तव में वे तब ईमानदार कहलाते जब न केवल उस घटना की कड़ी भत्र्सना करते बल्कि उसके लिए देश की जनता से माफी भी मांगते। प्रधानमंत्री अपने कर्तव्यो के प्रति कितने ईमानदार है यह बात माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा बार-बार उनके प्रति की गई टिप्पणीयों से लक्षित होती है। फिर चाहे अनाज सडऩे का मामला हो या अन्य मामले हो।
                             अन्ना साहब और बाबा रामदेव जनता को यह बताये कि वे सिस्टम में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे है या व्यक्तिगत भ्रष्टाचार? अभी तक जितने भी बड़े स्केम हुए है वे मात्र व्यक्तिगत भ्रष्टाचार नहीं है यद्यपि उनसे व्यक्तिगत फायदा भी हुआ है लेकिन वास्तव में वे सिस्टम में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण ही इतना बड़ा रूप ले सके है। एक और बात जो है इन दोनो संतो की जो कार्य सूची है उसमें कोई भी कदम, बात, या एक्शन भ्रष्टाचार को खतम करने का नहीं है यदि बारीकी से देखे तो उनके समस्त कदम या मुद्दे भ्रष्टाचारियों को कड़क सजा दिलाकर न्याय के इस सिंद्धात पर कि अपराधियों को कड़क सजा मिलेगी तो वे अपराध करने से डरेंगे, की अवधारणा पर पर आधारित है लेकिन सजा की इस अवधारणा से वर्तमान में जो विभिन्न अपराधों के लिए सजा के प्रावधान है उसमें क्या काई कमी आई है, यह एक विश्लेषण का विषय है? कई देशो में फॉसी की सजा न होने के बावजूद हत्या के लिए हमारे देश में फासी की सजा होने के बावजूद हत्या में कितनी कमी आई है, यह शोध का विषय है? अन्ना हजारे लोकपाल बिल द्वारा  भ्रष्टाचारियों को कड़ा सजा दिलाने का और डर पैदा करने का प्रयास कर रहे है जो स्वागत योग्य तो है लेकिन भ्रष्टाचार को कम करने की दिशा में उठाया गया कारगर कदम नहीं है। वास्तव में विदेशो से कालाधन वापिस लाना एवं लोकपाल विधेयक बनाना में दोनो संतो के मुख्य मुद्दे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के है न कि भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त करने की दिशा के। लेकिन भ्रष्टाचार तभी कम हो पाएगा जब हम उस जगह पर सीधे चोट करेंगे जहां भ्रष्टाचार पैदा होता है। जिन परिस्थितियों से, कारणों से भ्रष्टाचार पैदा होता है। और यदि भ्रष्टाचार पर कड़ी सजा दिलाने के साथ-साथ यदि हमने इसको उत्पन्न करने वाले मूल तत्व पर चोट करने का सार्थक प्रयास अभी किया जिसके लिए इस देश की जनता का मन बन चुका है तो निश्चित मानिये जिसके बाबत यह कहा जाता है कि न तो वह खत्म किया जा सकता है और न ही कम किया जा सकता है उस दिशा में हम निश्चित रूप से आगे बढ़ेंगे। अन्ना और बाबा रामदेव को इस मूल को पहचानने और इस पर चोट करने की आवश्यकता है। सच मानिये न तो हर व्यक्ति ऐतिहासिक होता है और न ही इतिहास में हर समय ऐतिहासिक व्यक्ति या परिस्थिति पैदा होती है। यह मौका है अन्ना और बाबा के लिए यदि आज की परिस्थितियों ने उन्हे यह भार स्वीकार करने की जिम्मेदारी दी है तो उसको सफलता पूर्वक वहन करके भविष्य में ऐतिहासिक संत का दर्जा पाने का अवसर लें। 

(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

अन्ना का अनशन हठ! कितना औचित्यपुर्ण?



(राजीव खण्डेलवाल)

सिविल सोसायटी और मंत्रिमण्डल समिती के बीच अंतिम दौर की बातचीत के बाद लोकपाल बिल के निर्माण के लिये बनी समिति की न केवल बैठकों के दौरान बल्कि अंतिम बैठक के बाद भी अन्ना हजारेे ने सरकार को चेतावनी देते हुये यह धमकाने का प्रयास किया गया कि यदि लोकपाल बिल पर उनकी मांगो को नही माना गया तो वे 16 अगस्त सेे पुन: आमरण अनशन पर बैठेगें।

लोकपाल बिल पर बनी उक्त संयुक्त समिति के पूर्व अन्ना हजारे द्वारा प्रस्तावित लोकपाल बिल के संबध में अपना 40 सुत्रीय मुददा सरकार के समक्ष पेश किया गया था । 32 मुद्दो पर दोनो  पक्षो  के बीच पुर्णत सहमति बनी  जो बातचीत  के वातावरण के देखकर  कम उपलब्धि नही है । बैठक का जो वातावरण रहा वह वास्तव  मे दोनो पक्षों द्वारा इस तरह से खडा किया गया  कि यह लगने लगा  कि युद्ध के भय  की नोक पर  अमेरीका दादागिरी के साथ विभिन्न राष्ट्रो के साथ शान्ति के लिये  बातचीत  करता है । उसी  तरीके से  टेबल पर, शांति के साथ बैठकर दोनो पक्ष  बातचीत करना चाहते थे। एक तरफ सरकार लगातार जहां सिविल सोसायटी के सदस्यों को बेपरदा करने का प्रयास करती रही और उनके अस्तित्व को गैर संवैधानिक बताकर उनके औचित्य पर ही प्रश्नवाचक चिन्ह लगाकर बातचीत करती रही। वही दूसरी  ओर अन्ना द्वारा लगातार 16  अगस्त से  अनशन पर बैठने की धमकी की नोक  पर  सिविल सोसायटी बातचीत में  शामिल होती रही है । क्या ऐसे वातावरण में स्वस्थ बातचीत और उत्साहवर्घक परिणाम आना सम्भव थे ?  इसके बावजूद 40 में से 32 मांगें सरकार ने उक्त सिविल सोसायटी की मानी जिसके अस्तित्व को वह लगातार नकारती रही थी तो यह सिविल सोसायटी की कम उपलब्घि नही है । सिविल सोसायट्री कोई संवैधानिक संस्था नहीं है जो उसके द्वारा प्रकृट किये गये विचार को अंतिम रूप से मानने के लिये सरकार बंधनकारी थी या लोकपाल बिल के संबध मे उनके  विचार अंतिम व  बंधनकारी होगें या सर्वमान्य होगे । यदि सिविल सोसायटी के  लोगों का यही विचार  था तो  बातचीत का कोई औचित्य ही नहीं था क्योंकि टेबिल पर बातचीत करने का मतलब ही यही होता है कि अब हम समस्त मुददो पर परस्पर एक दूसरें के पक्ष  को  समझ कर  सहमति दे व जिन मुददो पर  परस्पर सहमती नहीं बन पा रही है उसे अग्रिम कार्यवाही हेतु  अन्य  संबंधित पक्षों के लिये छोड दें। किसी भी पक्ष को इस आधार पर  की सिर्फ उसकी बात ही सही है दुसरे पक्ष पर अपने विचार लादनें का अधिकार नही है।  लेंकिन यहां पर अन्ना हजारें स्वयं यह स्पष्ट कर चुके थे कि हमारे द्वारा जो जनलेाक पाल बिल प्रस्तुत किया गया है उसे संसद में पेश किया जाकर  ं उस पर राजनैतिक पार्टियो  कें  सांसदो द्वारा बहस कर  संसद  द्वारा   लिए गए निर्णय को  हम मानने के लिये बाध्य होगें । इसलिये जिन 8 मुख्य मुददो पर सरकार व सिविल सोसायटी पर सहमती नहीं बन रही थी तो दोनों पक्षो को  इस बात पर   सहमती   देंनी चाहिए  थी कि इन मुददो पर राजनैतिक र्पाटियों  के स्तर पर  विचार विर्मश कर ं  कैबिनेट में चर्चा कराकर  आम राय के आधार पर संसद में बिल पेंश किया जायेगा । तब अतंत: पारित  विधेंयक को हृद्वय सें  स्वीकार करना होगा । संसद का निर्णय बंधनकारी होता है और उसमें कोई भी परिवर्तन स्वयं संसद ही कर सकती है । 

इसलिये अन्ना का उक्त विषय पर अनशन पर जाने का हठ करना किसी भी रूप में  उचित नही है क्योंकि कोई भी व्यक्ति या संस्था न तो  इस दुनिया में एब्सोल्यूट (ablolute) है और न ही उनके   विचार सम्पूर्ण रूप से सही हो सकते है । अन्ना को  इस बात के लिये उचित नही  ठहराया  जा सकता है कि उन्होनें जन लोकपाल बिल कें रूप में जो विचार दिये है वे  सौ प्रतिशत जनता के हित में सौ  प्रतिशत रूप से  सही   है । असहमती का स्वर लेाकतांत्रिक सस्था  का एक आवश्यक तत्व है जहा मोनोपाली (monarchy) नहीं होती है ।  इसलिये जिस हेठी का परिचय सरकार अन्ना  के अस्तित्व - औचित्य को दे रही है वही हेठी का परिचय भी अन्ना लगातार अनशन की धमकी दे कर लोकतंत्र मे दी गई बोलने की स्वतंत्रता की सीमा का उल्लघॅंन कर -कर रहे है। धमकी देकर अनशन करना न तो उचित है और न ही उपयोगी है। इसलिये अन्ना लोकपाल बिल पर निर्णय होने तक निर्णायक भुमिका निभाने वाले राजनैतिक दल और उनके संासदों पर इतना दबाव बनाये कि वे लोकपाल बिल मे मूल मुददेा को मानें और यदि सरकार 15 अगस्त तक लेाकपाल बिल संसद में ंपेश नही करती है या करने के बाद यदि लंगडा -लूला लोकपाल बिल पारित किया जाता है तब अन्ना को दमदारी से आमरण अनशन पर पुन, बैठने का सवैंधानिक अधिकार प्राप्त होगा ।


(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

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