(राजीव खण्डेलवाल)
सिविल सोसायटी और मंत्रिमण्डल समिती के बीच अंतिम दौर की बातचीत के बाद लोकपाल बिल के निर्माण के लिये बनी समिति की न केवल बैठकों के दौरान बल्कि अंतिम बैठक के बाद भी अन्ना हजारेे ने सरकार को चेतावनी देते हुये यह धमकाने का प्रयास किया गया कि यदि लोकपाल बिल पर उनकी मांगो को नही माना गया तो वे 16 अगस्त सेे पुन: आमरण अनशन पर बैठेगें।
लोकपाल बिल पर बनी उक्त संयुक्त समिति के पूर्व अन्ना हजारे द्वारा प्रस्तावित लोकपाल बिल के संबध में अपना 40 सुत्रीय मुददा सरकार के समक्ष पेश किया गया था । 32 मुद्दो पर दोनो पक्षो के बीच पुर्णत सहमति बनी जो बातचीत के वातावरण के देखकर कम उपलब्धि नही है । बैठक का जो वातावरण रहा वह वास्तव मे दोनो पक्षों द्वारा इस तरह से खडा किया गया कि यह लगने लगा कि युद्ध के भय की नोक पर अमेरीका दादागिरी के साथ विभिन्न राष्ट्रो के साथ शान्ति के लिये बातचीत करता है । उसी तरीके से टेबल पर, शांति के साथ बैठकर दोनो पक्ष बातचीत करना चाहते थे। एक तरफ सरकार लगातार जहां सिविल सोसायटी के सदस्यों को बेपरदा करने का प्रयास करती रही और उनके अस्तित्व को गैर संवैधानिक बताकर उनके औचित्य पर ही प्रश्नवाचक चिन्ह लगाकर बातचीत करती रही। वही दूसरी ओर अन्ना द्वारा लगातार 16 अगस्त से अनशन पर बैठने की धमकी की नोक पर सिविल सोसायटी बातचीत में शामिल होती रही है । क्या ऐसे वातावरण में स्वस्थ बातचीत और उत्साहवर्घक परिणाम आना सम्भव थे ? इसके बावजूद 40 में से 32 मांगें सरकार ने उक्त सिविल सोसायटी की मानी जिसके अस्तित्व को वह लगातार नकारती रही थी तो यह सिविल सोसायटी की कम उपलब्घि नही है । सिविल सोसायट्री कोई संवैधानिक संस्था नहीं है जो उसके द्वारा प्रकृट किये गये विचार को अंतिम रूप से मानने के लिये सरकार बंधनकारी थी या लोकपाल बिल के संबध मे उनके विचार अंतिम व बंधनकारी होगें या सर्वमान्य होगे । यदि सिविल सोसायटी के लोगों का यही विचार था तो बातचीत का कोई औचित्य ही नहीं था क्योंकि टेबिल पर बातचीत करने का मतलब ही यही होता है कि अब हम समस्त मुददो पर परस्पर एक दूसरें के पक्ष को समझ कर सहमति दे व जिन मुददो पर परस्पर सहमती नहीं बन पा रही है उसे अग्रिम कार्यवाही हेतु अन्य संबंधित पक्षों के लिये छोड दें। किसी भी पक्ष को इस आधार पर की सिर्फ उसकी बात ही सही है दुसरे पक्ष पर अपने विचार लादनें का अधिकार नही है। लेंकिन यहां पर अन्ना हजारें स्वयं यह स्पष्ट कर चुके थे कि हमारे द्वारा जो जनलेाक पाल बिल प्रस्तुत किया गया है उसे संसद में पेश किया जाकर ं उस पर राजनैतिक पार्टियो कें सांसदो द्वारा बहस कर संसद द्वारा लिए गए निर्णय को हम मानने के लिये बाध्य होगें । इसलिये जिन 8 मुख्य मुददो पर सरकार व सिविल सोसायटी पर सहमती नहीं बन रही थी तो दोनों पक्षो को इस बात पर सहमती देंनी चाहिए थी कि इन मुददो पर राजनैतिक र्पाटियों के स्तर पर विचार विर्मश कर ं कैबिनेट में चर्चा कराकर आम राय के आधार पर संसद में बिल पेंश किया जायेगा । तब अतंत: पारित विधेंयक को हृद्वय सें स्वीकार करना होगा । संसद का निर्णय बंधनकारी होता है और उसमें कोई भी परिवर्तन स्वयं संसद ही कर सकती है ।
इसलिये अन्ना का उक्त विषय पर अनशन पर जाने का हठ करना किसी भी रूप में उचित नही है क्योंकि कोई भी व्यक्ति या संस्था न तो इस दुनिया में एब्सोल्यूट (ablolute) है और न ही उनके विचार सम्पूर्ण रूप से सही हो सकते है । अन्ना को इस बात के लिये उचित नही ठहराया जा सकता है कि उन्होनें जन लोकपाल बिल कें रूप में जो विचार दिये है वे सौ प्रतिशत जनता के हित में सौ प्रतिशत रूप से सही है । असहमती का स्वर लेाकतांत्रिक सस्था का एक आवश्यक तत्व है जहा मोनोपाली (monarchy) नहीं होती है । इसलिये जिस हेठी का परिचय सरकार अन्ना के अस्तित्व - औचित्य को दे रही है वही हेठी का परिचय भी अन्ना लगातार अनशन की धमकी दे कर लोकतंत्र मे दी गई बोलने की स्वतंत्रता की सीमा का उल्लघॅंन कर -कर रहे है। धमकी देकर अनशन करना न तो उचित है और न ही उपयोगी है। इसलिये अन्ना लोकपाल बिल पर निर्णय होने तक निर्णायक भुमिका निभाने वाले राजनैतिक दल और उनके संासदों पर इतना दबाव बनाये कि वे लोकपाल बिल मे मूल मुददेा को मानें और यदि सरकार 15 अगस्त तक लेाकपाल बिल संसद में ंपेश नही करती है या करने के बाद यदि लंगडा -लूला लोकपाल बिल पारित किया जाता है तब अन्ना को दमदारी से आमरण अनशन पर पुन, बैठने का सवैंधानिक अधिकार प्राप्त होगा ।
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)
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