शनिवार, 27 अगस्त 2011

दृढ़ इच्छाशक्ति कहॉ से लाए?



राजीव खण्डेलवाल:
                    राहुल गांधी ने लोकसभा में लम्बे अंतराल की चुप्पी के बाद लोकपाल बिल पर अपना रूख  लोकसभा में स्पष्ट किया। यद्यपि उन्होने अपना रूख स्पष्ट करने में बहुत देरी की जिसके लिए उन्होने कोई कारण नहीं बताया। सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी जिस व्यक्ति को देश का भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्राजेक्ट कर रही हो और हाल ही में कुछ सर्वे में भी देश के प्रधानमंत्री के रूप में सबसे अधिक स्वीकारिता राहुल गांधी के नाम पर बताई गई थी। जनता की यह उम्मीद गलत नही है कि किसी भी राष्ट्रीय मुद्दे पर खासकर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जहां पूरा देश आंदोलित हो चुका है उस पर राहुल गांधी का चुप्पी साधना निश्चित रूप से एक आश्चर्यजनक घटना थी। अंतत: राहुल गांधी ने जो विचार व्यक्त किये उससे असहमत नहीं हुआ जा सकता है। मुख्य रूप से राहुल गांधी ने तीन बाते कही। एक अन्ना ने भ्रष्टाचार के विरोध में देश को राष्ट्रव्यापी रूप से आंदोलित किया जिसके लिए वे साधुवाद के पात्र है। दूसरा प्रभावी लोकपाल बिल आना चाहिए जिसके लिए जनलोकपाल बिल से एक कदम आगे जाकर लोकपाल को चुनाव आयोग के समान संवैधानिक ढांचा देने की वकालत की तीसरा एक कानून बनाने से भ्रष्टाचार समाप्त नहीं होगा, अंतिम बात लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को कमजोर न करने की थी। राजनैतिक हल्को में जो सबसे चर्चित टिप्पणी राहुल के बयान को लेकर रही वह लोकपाल को ''संवैधानिक संस्था" का रूप देने के मुद्दे पर रही। इसे सही मानते हुए भी कई राजनैतिक टीकाकारों ने उसे गलत समय पर मुद्दे से हटाने वाला कथन बताया। यदि सरकार आज अन्ना के तीन मुद्दों पर प्रस्ताव पारित करवा देती है तो वह लोकपाल का संवैधानिक दर्जा देने के राहुल गांधी के मुद्दे को राजनीति से ग्रस्त होने के आरोपों से बच जायेगी। राहुल गांधी ने एक और महत्वपूर्ण बात  कही की आज ठोस दृढ़ राजनैतिक इच्छाशक्ति की भी आवश्यकता है।
                          सबसे महत्वपूर्ण बात मेरी नजर में जो है वह दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता। किसी भी समस्या का समाधान सिर्फ कानून बनाकर लागू करके नहंी किया जा सकता है जब तक न केवल उसको लागू करने की तंत्र की दृढ़ इच्छाशक्ति हो बल्कि नागरिकगण भी स्वप्रेरणा से मजबूत दृढ़ इच्छाशक्ति के रहते स्वयं पर उस कानून को लागू करें। यह सिर्फ तर्क ही नहीं है बल्कि वास्तविकता है। इसका एक उदाहरण मैं आपको देना चाहता हूं। लोक जनप्रतिनिधित्व अधिनियम १९५१ (प्यूपिल्स रिप्रजेंटेशन एक्ट) १९५१ से आज तक लागू है। १२ दिसम्बर १९९० को जब टीएन शेषन मुख्य चुनाव आयुक्त बने तब लोगो ने पहली बार यह महसूस किया कि वास्तव में लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम कोई चुनावी कानून इस देश में लागू है जिसके अंतर्गत निपष्क्ष स्वच्छ व कम खर्चीले चुनाव कराये जा सकते है। टीएन शेषन जब आये थे तो उन्होने लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम में कोई नया संशोधन नहीं करवाया था या उन्हे कोई स्पेशल अधिकार नहीं मिल गये थे। कानून वही पुराना लागू था लेकिन उस कानून का अहसास प्रथम बार इस देश के 'मालिकोÓ (नागरिकों) को तभी हुआ। उसका एक मात्र कारण उस कानून को लागू करने वाला तंत्र का मुखिया टीएन शेषन की दृढ़ इच्छाशक्ति थी जिसके कारण वही कानून के द्वारा उन्होने एक बेहतर चुनाव कराये जो इसके पूर्व मात्र एक कल्पना ही थे और पूर्व दूसरे मुख्य चुनाव आयुक्त नहंी करवा पाये थे। उसके बाद के भी चुनावों में दृढ़ इच्छाशक्ति में कुछ कमी आने के कारण वैसे चुनाव नहीं हो पाये। अत: यह स्पष्ट है कि यदि दृढ़ इच्छाशक्ति है तो ही कानून के सहारे समस्या सुलझाई जा सकती है अन्यथा नहीं। यही भाव क्या लोकपाल बिल पारित होने के उपरान्त होगा। इसकी सफलता इसी दृढ़शक्ति पर निर्भर रहेगी। जैसा कि मैंने पूर्व में कहा कि लोकपाल की दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ-साथ यदि जनता की भी दृढ़शक्ति उतनी ही ठोस हो जाए तो फिर वह कानून, लोकपाल का कानून बहुत तजी से कार्य करेगा। क्योकि जब जनता जिनके बीच में ही भ्रष्टाचार करने वाले व्यक्ति शामिल है वे अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के कारण  यदि यह प्रण लेते है कि वे न तो रिश्वत लेंगे और न ही देंगे। यदि उनकी इच्छाशक्ति और मजबूत हो जाती है तो वे यह भी सोच सकते है कि वे दूसरे व्यक्क्तियों की भी न रिश्वत लेने-देंगे। सच मानिये तब फिर न केवल लोकपाल बिल प्रभावशाली रूप से परिणाम देगा बल्कि भविष्य में ऐसी स्थिति आ सकती है जब इस तरह के कानून होने की आवश्यकता ही समाज में महसूस नहीं होगी। यही बात आज रामलीला मंच पर प्रथम बार कोई लोकप्रिय प्रभावशाली व्यक्तित्व ने की थी जो प्रसिद्ध फिल्मी कलाकार आमीर खान थे। व्यक्तिगत लेवल पर कुछ लोगो ने जरूर यह विचार व्यक्त किये थे कि वे आगे से अपने जीवन में न तो रिश्वत लेंगे और न ही देंगे। लेकिन अन्य प्रभावशाली व्यक्तित्व की इस तरह की प्रभावी अपील शायद ही पंच पर हुई हो लेकिन अंत में श्रीमति किरण बेदी ने इसी तरह की अपील की है। आज अन्ना को इस बात के लिये साधुवाद दिया जाना चाहिए कि उन्होने लोगो का मेंटल स्टेटस इस बात के लिए तैयार कर दिया है कि वे भ्रष्टाचार के खिलाफ मानसिक रूप से तैयार हो रहे है। जब 'मन' एक स्थिति के लिए तैयार हो जाता है तब उस समय 'मन' को कोई बात स्टाईक (स्ट्राईक) की जाए तो वह बहुत प्रभावशाली होती है। अन्ना को इस बात के लिए उन हजारो लोंगो का आव्हाहन किया जाना चाहिए कि वे अपने साथ उन लोगो को शपथ दिलाए कि वे न तो आगे भ्रष्टाचार करेंगे और न करने देंगे जैसा कि आमीर खान ने आज मंच से अपील की। इसी तरह प्रतिदिन देश के आध्यात्मिक गुरूगण अपने-अपने भक्तों, शिष्यों के बीच अपने आश्रम में, शिविर में उन्हे अपने-अपने ईस्ट (ईश्वर) की शपथ दिलाकर भ्रष्टाचार के विरूद्ध शपथ दिलाए तो वह लोगो कि इच्छाशक्ति को दृढ़ करने में सहायक होगी। इस तरह से देश बगैर आंदोलित हुये बिना भी किसी भी समस्या का निवारण करने में सक्षम होगा। क्योंकि देश की लगभग ८० प्रतिशत से अधिक जनता धार्मिक आस्था के कारण किसी न किसी आध्यात्मिक गुरूओं से प्रभावित होने के कारण उनके कथनों को मानती है। मैं इसी उम्मीद के साथ अन्ना जी से अपील करता हूं कि वे अनशन समाप्त करने के बाद प्रतिदिन रामलीला ग्राउण्ड में यदि लोगो को भ्रष्टाचार न करने की शपथ दिलाए तो यह बहुत बड़ी मूहिम होगी और देश उनको नमन करेगा। 

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

क्या 'भ्रष्टाचारी' भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज नहीं उठा सकता?


राजीव खण्डेलवाल

विगत कुछ समय से अन्ना और उसकी टीम पर केन्द्र सरकार और कांग्रेस पार्टी द्वारा लगातार हमले किये जा रहे है कि अन्ना और उनके साथी भ्रष्टाचार में स्वयं लिप्त रहे है। इसलिए भ्रष्टाचार के विरूद्ध इन्हे आवाज उठाने का कोई अधिकार नहीं है। वास्तव में जब भी किसी भी सरकार के विरूद्ध कोई व्यक्ति, संस्था या पार्टी आवाज उठाती है और उसेआंदोलन के स्वरूप तक ले जाती है। तो सरकार का प्रयास यह होता है कि उस व्यक्ति या संस्था को इतना बदनाम कर दो की उसकी नैतिक स्वीकारिता जनता के बीच नहीं रहे और वह आंदोलन टाय टाय फिस हो जाए। अन्ना और उसकी टीम पर आरोप लगाने का सरकार का उद्देश्य भी यही है।

कांग्रेस पार्टी और खासकर उनके प्रवक्ता मनीष तिवारीजी यह स्पष्ट करें कि उन्होने अन्ना पर उपर से लेकर नीचे तक भ्रष्टाचार में लिप्त होने का आरोप लगाकर क्या वह उनके भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन करने का कानूनी हक छीनना चाहते है या नैतिक हक छीनना चाहते है? और दोनो ही स्थितियों में वे अपने गिरेबान में झांके तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि उन्हे न तो कानूनी और न ही नैतिक रूप से अन्ना और उनकी टीम पर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर उंगली उठाने का अधिकार है। मनीष तिवारी कीबात को यदि सिर्फ तर्क के रूप में मान्य भी की जाए कि अन्ना भ्रष्टाचारी है तो भी उन्हे कानूनी रूप से किसी भी दूसरे जगह हो रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने का नागरिक अधिकार प्राप्त है। यदि एक 'अपराधीÓ के सामने कोई दूसरा अपराध हो रहा है तो उसकी गवाही अन्य परिस्थितियां और गवाहो के साथ स्वीकार योग्य है। इस देश की वर्तमान संसद में लगभग साठ से अधिक सांसदो के खिलाफ विभिन्न अपराधिक प्रकरण चल रहे है, पूर्व में स्टिंग आपरेशन हुए है वे भी जनता का समर्थन पाकर संसद में चुने जाकर कानून निर्माण में लगे हुए है। तब कोई नैतिकता की बात नहीं आती। इसी प्रकार यदि कांग्रेस पार्टी अन्ना को भ्रष्ट मान भी रही है तो भी उसके बावजूद जनता ने उनको देशव्यापी समर्थन भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल बिल के माध्यम से दिया है। अर्थात न तो जनता अन्ना व उसकी टीम को भ्रष्ट मान रही है और न ही किसी कानूनी प्रक्रिया के तहत वे भ्रष्टाचार के आरोपी बनाये गये, सिद्ध होना तो दूर की बात है। इसलिए अन्ना के पास जितना कानूनी बल है, उतना ही नैतिक बल भी है इसलिए सरकार में घबराहट के लक्षण है। चूंकि अन्ना निडर है और उन्होने सरकार को खुली चेतावनी दी है कि वे उनके खिलाफ कोई भी जॉच करा ले, एफआईआर दर्ज करा लें वे सबका स्वागतपूर्वक सामना करने को तैयार है इसलिए सरकार की घबराहट और झल्लाहट क्षण प्रतिक्षण बढ़ती जा रही है जिसके यह परिणाम है कि सरकार संवैधानिक दायित्वों को निभाने के बजाय इस प्रकार के दुष्प्रचार कर जनता के बीच अन्ना के विरूद्ध एक घृणा पैदा करने का असफल प्रयास कर रही है।

प्रधानमंत्री, केंद्रीय सरकार के विभिन्न मंत्री और कांगेस पार्टी का बार-बार यही कथन कि अन्ना संविधानेत्तर लोकपाल बिल के मुद्दे पर गैरसंवैधानिक रूख अपनाये हुए है क्योंकि कानून बनाने का काम संसद का है जो संसद की स्थाई समिति को सौप दिया गया है और इसलिए अन्ना का अनशन गैर औचित्यपूर्ण है। कांगे्रस पार्टी और मंत्री भूल गये कि यद्यपि लोकतंत्र में संसदीय प्रणाली में जनता द्वारा प्रतिनिधि निश्चित अवधि (पांच वर्ष) के लिए चुने जाकर सरकार चलाते है। लेकिन संसदीय लोकतंत्र की इस व्यवस्था मात्र से ही लोकतंत्र के जनता के जनतांत्रिक अधिकार छिन नहीं जाते है। यदि कांग्रेस पार्टी का तर्क मान लिया जाए तो फिर विपक्षी पार्टियों को संसद में भी कोई विरोध नहीं करना चाहिए क्योंकि संसदीय लोकतंत्र बहुमत की राय से चलता है और जब जनता ने कांगे्रस को बहुमत देकर शासन करने का जनादेश दिया है तो फिर विपक्ष की क्या आवश्यकता है और न ही विपक्ष को संसद में सरकार की नकेल कसना चाहिए है? लोकतंत्र की यह व्यवस्था है कि सत्ता पक्ष (शासन) के साथ-साथ विपक्ष भी इसी लोकतंत्र का भाग है और विपक्ष होने के नाते सरकार की गैरसंवेदनशील अलोकप्रिय व जनअहितकारी नीतियों पर अंकुश लगाये और उसके लिए अपना सार्थक विरोध करें। उसी प्रकार पांच साल के लिए चुनी गई सरकार के अलोकप्रिय निर्णय के विरूद्ध नागरिक संगठनो को सरकार के विरूद्ध जनता के बीच जाकर आवाज उठाने का अधिकार भी यही संसदीय लोकतंत्र देता है। इसका उपयोग ही अन्ना हजारे और उसकी टीम कर रही है। जिसको देश के विराट बहुमत ने समर्थन देकर सही सिद्ध किया है। इसलिए कांग्रेस पार्टी और उसके मंत्री इस कुतर्क का सहारा नहीं ले कि अन्ना संसदीय लोकतंत्र के परे संसदीय संस्था को कमजोर करने का प्रयास कर रहे है। यहां लोहिया की पंक्ति की पुन: याद आती है कि ''जिंदा कौमें पांच साल तक चुप नहीं रह सकतीÓÓ। अन्ना ने यह बात सिद्ध की है कि भारत की कौम जिंदा कौम है। लोहिया ने जो कहा था वह आज भी सही और अन्ना का अगला कदम राईट टू रिकाल के लिए होना चाहिए ताकि सत्ताधारी पार्टी जनआंदोलन के खिलाफ उपरोक्त कुतर्क के आधार पर यदि आंदोलन को रोकने का प्रयास करेंतो ऐसे जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाकर माकूल जवाब दिया जा सके।

अंत में एक बात और इस दुनिया में कोई भी व्यक्तित्व पूर्ण नहीं है। कुछ कमियों के साथ अधिकतम अच्छाई या कुछ अच्छाईयों के साथ अधिकतम बुराईया है यह मानवीय लक्षण है। इसलिए भी यदि अन्ना में कोई बुराइयां है या कोई गलत कार्य किया है तो भी एक अच्छे उद्देश्य के लिये अच्छा कार्य करने से उक्त आधार पर उन्हे नहीं रोका जा सकता है बल्कि वे उक्त कार्य करके अपने को एक और अच्छा व्यक्ति बनने की दिशा में एक अच्छा उठाया गया कदम है यह सिद्ध करेंगे।

सोमवार, 15 अगस्त 2011

आंदोलन-परमिशन क्या परस्पर विरोधाभासी नहीं?



पूरे देश में इस समय एक ही बात पर बहस हो रही है १६ तारीख को अन्ना हजारे का अनशन होगा कि नहीं? क्योंकि इसके लिए सिविल सोसायटी के लोगो ने अनशन की ''परमिशन" शासन व पुलिस कमीश्नर से मांगी जो देहली पुलिस द्वारा २२ शर्तो के साथ ''परमिशन" दी गई जिसमें से २० शर्ते पूर्व में अन्ना टीम स्वीकार कर चुकी है लेकिन आज १६ शर्तो की स्वीकृति का शपथ पत्र देने के बाद बची शेष शर्ते न मानने के कारण देहली पुलिस ने अभी तक स्वीकृति प्रदान नहीं की और इसलिए अन्ना के अनशन पर एक संदेह पैदा हो गया है। 

यह पूरा घटनाक्रम जो पिछले एक हप्ते से ''अनशन की परमिशन" के कारण पैदा हो रहा है वह यह है कि क्या विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में आंदोलन या अनशन के लिए ''परमिशन" की आवश्यकता है? जिस तरह से सरकार अन्ना टीम को 'परमिशन" के लिए झुला रही है और अन्ना टीम भी एक ऑफिस से दूसरे ऑफिस के चक्कर लगा रही है, क्या यह उनके संवैधानिक अधिकारों का हनन व आक्रमण तो नहीं है? इस पर भी अन्ना टीम को गहराई से लोकपाल के मुद्दे के साथ विचार और चिंतन करना आवश्यक हो गया है। अन्ना जैसे व्यक्तित्व जिसे पूरे देश का जनसमर्थन अनशन और आंदोलन के लिए प्राप्त हो रहा है, की तुलना में दूसरा अन्य व्यक्ति या संस्था जनता से जुड़े किसी अन्य मुद्दे (जनता के सामने अनेक समस्याएं है) पर आंदोलन करने की हिम्मत कैसे जुटाएगा प्रश्र यह भी उत्पन्न होता है। यह प्रश्र इसलिए भी महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि सरकार के मंत्री कालेधन के मुद्दे पर बाबा रामदेव के एक बहुत बड़े जन आंदोलन को पुलिस प्रशासन के बल पूर्वक उपयोग कर सफलता पूर्वक कुचलकर ''दम्भ" भर रही है। दम्भ भरने के कारण सरकार का हौसला अन्ना के इस आंदोलन को भी कुचलने के लिए बढ़ा हुआ है और इसलिए यह परमिशन का नौटंकी चल रही है। 
वास्तव में कोई भी ''आंदोलन" जिसका रूप धरना, अनशन, आमरण अनशन, अनिश्चितकालीन अनशन जुलूस, चक्का-जाम, अवज्ञा इत्यादि के रूप में होता है, तब किया जाता है जब सरकार नागरिकों और समाज से जुड़े किसी मुद्दे पर आम नागरिकों की इच्छा के विरूद्ध कार्य करती है। तब कोई व्यक्ति संस्था या पार्टी आम नागरिकों की बहुमत कीइच्छा के आधार पर उक्त मुद्दे को सरकार के समक्ष उठाती है। जब सरकार उसपर कोई ध्यान नहीं देती या विचार नहीं करती है या उस पर कोई कार्यवाही नही करती तब ही 'आंदोलन" की ''उत्पत्ति" होती है। जब 'आंदोलन" किया जाता है तब उसमें निहित अर्थ और प्राथमिक भावार्थ जो आंदोलनकर्ताओं के दिमाग में होता है कि वह सरकार की सामान्य गतिविधियों और मशीनरी पर अवरोध कर सरकार के मन में यह दहशत पैदा करें। यह डर पैदा करे कि यदि उनकी सही जरूरी मांगे जिसके पीछे जनता का एक बहुत बड़ा वर्ग खड़ा है और उसकी स्वीकार्यता को स्वीकार करता है वह सरकार के खिलाफ सड़क पर खड़ा हो जाएगा। अर्थात कोई न कोई नियम-कानून का उलंघन कर जनता का ध्यान आकर्षित कर सरकार का ध्यान आकर्षित होगा और आंदोलन को तीव्रता देकर सरकार के मन में दहशत पैदा करेगा। तभी उसकी जायज मांगो पर सरकार विचार करेगी। यही आंदोलन का मूल मंत्र है। अर्थात आंदोलन में कानून नियम का उलंघन निहितार्थ है और यह कानून नियम का उलंघन उसके संवैधानिक मौलिक और उसके मानवाधिकार के तहत है जिसे भी कानूनी कहा जा सकता है। अर्थात एक कानून का उलंघन दूसरे स्थापित कानून द्वारा किया जा रहा है इसलिए उसे उचित और जायज एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में माना गया है। इस देश में सरकारी मुलाजिमों द्वारा दफ्तरो में नियम के अनुसार कार्य करना भी आंदोलन का एक अस्त्र बन चुका है। इसलिए 'आंदोलन" में परमिशन के लिए जगह कहां है। परमिशन का मतलब हम उस संस्था, संगठन से इस बात की उम्मीद करें जिसके खिलाफ हम आंदोलन करने जा रहे है उसी से हम कहे कि वह स्वयं के खिलाफ आक्रमण करने की इजाजत दें। क्या यह उचित है? इसलिए अन्ना हजारे को परमिशन के इतर किस उ्देश्य के लिए किस स्थान पर वह आंदोलन करने जा रहे है इसकी सूचना सरकार, क्षेत्राधिकार में आने वाली पुलिस प्रशासन व जनता को मीडिया के माध्यम से दे इसके अतिरिक्त जिम्मेदारी कहां है और इसलिए वेे आंदोलन करने में सक्षम है। अन्ना की टीम को दिल्ली के पुलिस आयुक्त और मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल, गृह मंत्री पी चिदम्बरम और माननीय प्रधानमंत्री से यह पूछने का अधिकार है कि इस देश में स्वतंत्रता प्राप्ति से लेकर आज तक का क्या यह पहला आंदोलन है। यदि उत्तर नहीं है तो आज तक जितने आंदोलन हुए है उसके लिए क्या सरकार से या पुलिस से अनुमति प्राप्त की गई और अनुमति नहीं ली तो उन पर क्या कार्यवाही की गई। और यदि अनुमति दी गई तो क्या इस तरह की २२ सूत्रिय शर्त कभी पूर्व में लगाई गई। यदि नहीं तो क्या सरकार यह कहना चाहती है कि आज की जो वर्तमान राजनैतिक परिस्थितियां है या आंदोलनकारी ने यह स्थिति पैदा कर दी है जो १९७४ के आंदोलन से भी बूरी स्थिति है। सरकार इस बात का जवाब दे कि इस देश में समस्त राजनैतिक पार्टियों में लाखों की संख्या में दिल्ली में कई बार प्रदर्शन हुए है तब क्या उनपर इस २२ सूत्रिय इस तरह तो सत्ता की बाबत प्रस्ताव लिया गया यह भी जनता का बताए। राजनैतिक पार्टिया अपनी सुविधा के अनुसार जब राजनैतिक आंदोलन बिना किसी परमिशन के कर सकती है तो अन्ना के द्वारा क्यों नही है।  इन सब प्रश्रो का उत्तर एक ही है कि अन्ना अनशन की मंजूरी के लिये सरकार के सामने याचिकाकार के रूप में न कर जनता के सम्मान को झुकाये बिना अपने एक लोकतांत्रिक संवैधानिक और मानवाधिकार के तहत जेपी सचान आंदोलन प्रारम्भ करे। जनता उनके साथ है और सरकार की किसी भी कार्यवाही का जवाब देने में वह न केवल सक्षम है बल्कि जाग्रत भी हो चुकी है। 

इसलिए इस बात पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है कि 'मिशन" (अन्ना द्वारा उठाये गये मुद्दे मिशन ही है) के लिए क्या 'परमिशन" की आवश्यकता है। क्या सरकार से इस बात का प्रश्र नहीं पूछा जाना चाहिए की बगैर परमिशन के राष्ट्र विरोधी संगठन इस देश को कमजोर करने के लिये जो मिशन चला रहे है सरकार ने उनको रोकने के लिए क्या किया। क्या उनके मिशन को परमिशन दी गई और यदि नहीं तो सरकार पूरी ताकत का उपयोग कर प्रभावी रूप से उन्हे क्यों नहीं रोक पा रही है जो ताकत (सत्ता की) का उपयोग वह अपने देश के नागरिकों के खिलाफ आंदोलन को कुचलने के लिए करना चाहती है।  

अत: अन्ना से यही उम्मीद की जाती है कि वे पूरी शक्ति के साथ 'आंदोलन" प्रारम्भ करे पूरे देश की जनता का जन, बल, भाव उनके साथ है। 
जय अन्ना

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