राजीव खण्डेलवाल:
राहुल गांधी ने लोकसभा में लम्बे अंतराल की चुप्पी के बाद लोकपाल बिल पर अपना रूख लोकसभा में स्पष्ट किया। यद्यपि उन्होने अपना रूख स्पष्ट करने में बहुत देरी की जिसके लिए उन्होने कोई कारण नहीं बताया। सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी जिस व्यक्ति को देश का भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्राजेक्ट कर रही हो और हाल ही में कुछ सर्वे में भी देश के प्रधानमंत्री के रूप में सबसे अधिक स्वीकारिता राहुल गांधी के नाम पर बताई गई थी। जनता की यह उम्मीद गलत नही है कि किसी भी राष्ट्रीय मुद्दे पर खासकर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जहां पूरा देश आंदोलित हो चुका है उस पर राहुल गांधी का चुप्पी साधना निश्चित रूप से एक आश्चर्यजनक घटना थी। अंतत: राहुल गांधी ने जो विचार व्यक्त किये उससे असहमत नहीं हुआ जा सकता है। मुख्य रूप से राहुल गांधी ने तीन बाते कही। एक अन्ना ने भ्रष्टाचार के विरोध में देश को राष्ट्रव्यापी रूप से आंदोलित किया जिसके लिए वे साधुवाद के पात्र है। दूसरा प्रभावी लोकपाल बिल आना चाहिए जिसके लिए जनलोकपाल बिल से एक कदम आगे जाकर लोकपाल को चुनाव आयोग के समान संवैधानिक ढांचा देने की वकालत की तीसरा एक कानून बनाने से भ्रष्टाचार समाप्त नहीं होगा, अंतिम बात लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को कमजोर न करने की थी। राजनैतिक हल्को में जो सबसे चर्चित टिप्पणी राहुल के बयान को लेकर रही वह लोकपाल को ''संवैधानिक संस्था" का रूप देने के मुद्दे पर रही। इसे सही मानते हुए भी कई राजनैतिक टीकाकारों ने उसे गलत समय पर मुद्दे से हटाने वाला कथन बताया। यदि सरकार आज अन्ना के तीन मुद्दों पर प्रस्ताव पारित करवा देती है तो वह लोकपाल का संवैधानिक दर्जा देने के राहुल गांधी के मुद्दे को राजनीति से ग्रस्त होने के आरोपों से बच जायेगी। राहुल गांधी ने एक और महत्वपूर्ण बात कही की आज ठोस दृढ़ राजनैतिक इच्छाशक्ति की भी आवश्यकता है।
सबसे महत्वपूर्ण बात मेरी नजर में जो है वह दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता। किसी भी समस्या का समाधान सिर्फ कानून बनाकर लागू करके नहंी किया जा सकता है जब तक न केवल उसको लागू करने की तंत्र की दृढ़ इच्छाशक्ति हो बल्कि नागरिकगण भी स्वप्रेरणा से मजबूत दृढ़ इच्छाशक्ति के रहते स्वयं पर उस कानून को लागू करें। यह सिर्फ तर्क ही नहीं है बल्कि वास्तविकता है। इसका एक उदाहरण मैं आपको देना चाहता हूं। लोक जनप्रतिनिधित्व अधिनियम १९५१ (प्यूपिल्स रिप्रजेंटेशन एक्ट) १९५१ से आज तक लागू है। १२ दिसम्बर १९९० को जब टीएन शेषन मुख्य चुनाव आयुक्त बने तब लोगो ने पहली बार यह महसूस किया कि वास्तव में लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम कोई चुनावी कानून इस देश में लागू है जिसके अंतर्गत निपष्क्ष स्वच्छ व कम खर्चीले चुनाव कराये जा सकते है। टीएन शेषन जब आये थे तो उन्होने लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम में कोई नया संशोधन नहीं करवाया था या उन्हे कोई स्पेशल अधिकार नहीं मिल गये थे। कानून वही पुराना लागू था लेकिन उस कानून का अहसास प्रथम बार इस देश के 'मालिकोÓ (नागरिकों) को तभी हुआ। उसका एक मात्र कारण उस कानून को लागू करने वाला तंत्र का मुखिया टीएन शेषन की दृढ़ इच्छाशक्ति थी जिसके कारण वही कानून के द्वारा उन्होने एक बेहतर चुनाव कराये जो इसके पूर्व मात्र एक कल्पना ही थे और पूर्व दूसरे मुख्य चुनाव आयुक्त नहंी करवा पाये थे। उसके बाद के भी चुनावों में दृढ़ इच्छाशक्ति में कुछ कमी आने के कारण वैसे चुनाव नहीं हो पाये। अत: यह स्पष्ट है कि यदि दृढ़ इच्छाशक्ति है तो ही कानून के सहारे समस्या सुलझाई जा सकती है अन्यथा नहीं। यही भाव क्या लोकपाल बिल पारित होने के उपरान्त होगा। इसकी सफलता इसी दृढ़शक्ति पर निर्भर रहेगी। जैसा कि मैंने पूर्व में कहा कि लोकपाल की दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ-साथ यदि जनता की भी दृढ़शक्ति उतनी ही ठोस हो जाए तो फिर वह कानून, लोकपाल का कानून बहुत तजी से कार्य करेगा। क्योकि जब जनता जिनके बीच में ही भ्रष्टाचार करने वाले व्यक्ति शामिल है वे अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के कारण यदि यह प्रण लेते है कि वे न तो रिश्वत लेंगे और न ही देंगे। यदि उनकी इच्छाशक्ति और मजबूत हो जाती है तो वे यह भी सोच सकते है कि वे दूसरे व्यक्क्तियों की भी न रिश्वत लेने-देंगे। सच मानिये तब फिर न केवल लोकपाल बिल प्रभावशाली रूप से परिणाम देगा बल्कि भविष्य में ऐसी स्थिति आ सकती है जब इस तरह के कानून होने की आवश्यकता ही समाज में महसूस नहीं होगी। यही बात आज रामलीला मंच पर प्रथम बार कोई लोकप्रिय प्रभावशाली व्यक्तित्व ने की थी जो प्रसिद्ध फिल्मी कलाकार आमीर खान थे। व्यक्तिगत लेवल पर कुछ लोगो ने जरूर यह विचार व्यक्त किये थे कि वे आगे से अपने जीवन में न तो रिश्वत लेंगे और न ही देंगे। लेकिन अन्य प्रभावशाली व्यक्तित्व की इस तरह की प्रभावी अपील शायद ही पंच पर हुई हो लेकिन अंत में श्रीमति किरण बेदी ने इसी तरह की अपील की है। आज अन्ना को इस बात के लिये साधुवाद दिया जाना चाहिए कि उन्होने लोगो का मेंटल स्टेटस इस बात के लिए तैयार कर दिया है कि वे भ्रष्टाचार के खिलाफ मानसिक रूप से तैयार हो रहे है। जब 'मन' एक स्थिति के लिए तैयार हो जाता है तब उस समय 'मन' को कोई बात स्टाईक (स्ट्राईक) की जाए तो वह बहुत प्रभावशाली होती है। अन्ना को इस बात के लिए उन हजारो लोंगो का आव्हाहन किया जाना चाहिए कि वे अपने साथ उन लोगो को शपथ दिलाए कि वे न तो आगे भ्रष्टाचार करेंगे और न करने देंगे जैसा कि आमीर खान ने आज मंच से अपील की। इसी तरह प्रतिदिन देश के आध्यात्मिक गुरूगण अपने-अपने भक्तों, शिष्यों के बीच अपने आश्रम में, शिविर में उन्हे अपने-अपने ईस्ट (ईश्वर) की शपथ दिलाकर भ्रष्टाचार के विरूद्ध शपथ दिलाए तो वह लोगो कि इच्छाशक्ति को दृढ़ करने में सहायक होगी। इस तरह से देश बगैर आंदोलित हुये बिना भी किसी भी समस्या का निवारण करने में सक्षम होगा। क्योंकि देश की लगभग ८० प्रतिशत से अधिक जनता धार्मिक आस्था के कारण किसी न किसी आध्यात्मिक गुरूओं से प्रभावित होने के कारण उनके कथनों को मानती है। मैं इसी उम्मीद के साथ अन्ना जी से अपील करता हूं कि वे अनशन समाप्त करने के बाद प्रतिदिन रामलीला ग्राउण्ड में यदि लोगो को भ्रष्टाचार न करने की शपथ दिलाए तो यह बहुत बड़ी मूहिम होगी और देश उनको नमन करेगा।