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राजीव खण्डेलवाल:
इस समय पूरे देश में रिटेल सेक्टर में विदेशी सीधा निवेश (एफडीआई) पर चर्चा हो रही है। एफडीआई कितना कारगर है या नहीं इस पर मैं यहॉं चर्चा नहीं करूंगा। इससम्बंध में पूरे देश में इलेक्टानिक, प्रिंट मीडिया सहित अनेक फोरम पर चर्चा हो रही है। परन्तु मैं इसके कुछ अनछुए पहलुओ पर देश के प्रबुद्ध नागरिको का ध्यान अवश्य आकर्षित करना चाहता हूं।
देश की राजनीति का यह एक स्थायी कल्चर हो गया है कि जब भी इस देश में कोई भी नई योजना, आयोजना, कार्ययोजना, नियम, कानून, सिद्धांत के विचार लाकर यथास्थिति में परिवर्तन करने का प्रयास किया जाता है तब उसके गुणदोष पर पक्ष-विपक्ष द्वारा विचार किये बिना, परिवर्तन लाने वाला पक्ष उसे पूर्णत: उचित ठहराता है और विरोधी पक्ष इसे पुर्णत: अनुचित। वास्तव में इस प्रकार का व्यवहार न तो सही है न उचित है और न ही देश के आगे बढऩे के लिए सही संकेत देता है। इस परिस्थिति पर गहन विचार विमर्श की आवश्यकता है। वास्तव में जब भी काई नई योजना या नीति की घोषणा सरकार द्वारा की जाती है तो वह न तो अपने आप में पूर्ण होती है, न हीं पूर्ण हो सकती है और न ही यह संभव है, बल्कि इसमें आलोचना का अवसर हमेशा विद्यमान रहता है। लेकिन न तो योजना लागू करने वाले आलोचना सुनने के लिए तैयार रहते है और न ही विपक्षी लोग आलोचना करते समय उसके विद्यमान गुणवत्ता का समर्थन किये बिना उस योजना के बारे में बिना सोचे मात्र उसकी आलोचना की चिंता को दिखाने की कोशिश करते है। इस कारण से वह विषय, मुद्दा, नीति जनता के बीच लाने का प्रयास तो एक तरफ रह जाता है और मात्र परस्पर विरोध की आड़ में वह विषय जिस से समाज के, देश के विकास को जो गति मिल सकती है (जिसके लिए वह लाया जाता है) वह धरा का धरा रह जाता है। किसी भी योजना या नीति के पक्ष-विपक्ष दोनो पक्ष होते है जिसे हमें स्वीकार करना चाहिये। इसके अतिरिक्त जब उसे लागू करने की अवस्था आती है तब भी वर्तमान व्यवस्था में व्याप्त लालफीताशाही व भ्रष्टाचार के कारण उसे पूर्णत: लागू करना संभव नहीं हो पाता है। इस कारण उसके वे परिणाम हमें नही मिलते है जिसकी उम्मीद में वह नीति बनाई जाती है। यह हमारी नीतिगत कमजोरी ही नहीं बल्कि हमारी व्यवस्था की भी विफलता है जिसपर भी गहन मंथन की आज आवश्यकता है।
एफडीआई भारत के लिए कोई नया विषय नहीं है पिछले कई सालों से भारत में विभिन्न क्षेत्रो में एफडीआई के माध्यम से निवेश हुआ है। चाहे दुपहिया उद्योग का मामला हो, कार उद्योग या अन्य अनेक क्षेत्र हो जिसमें एफडीआई का निवेश होने के कारण न केवल उद्योगों की प्रगति हुई बल्कि संबंधित टेक्नॉलॉजी भी भारत में आई है जिसके आधार पर भारत नें अपनी स्वयं की टेक्नॉलाजी को विकसित भी किया है। जहां तक खुदरा व्यापार में एफडीआई के आने के कारण लाभ या हानि का प्रश्र है इसपर विचार करने के पूर्व मैं दोनो पक्षों को याद दिलाना चाहता हूं कि लगभग २० वर्ष पूर्व वर्ष १९९१ में जब भारत ने सर आर्थर डंकन प्रस्ताव के माध्यम से वल्र्ड ट्रेड ट्रीटी पर दस्तखत किये थे तब उसको लागू करने वाले सरकारी पक्ष ने सुनहरे भारत का सपना देश के नागरिको को दिखाया था और इसका विरोध करने वाले पक्ष ने इसकी तुलना 'ईस्ट इंडिया कंपनी' के आगमन से कर आर्थिक रूप से पराधीन भारत की आशंका जाहिर की थी। क्या दोनो पक्षों से यह नहीं पूछा जाना चाहिए हूं कि भारत आज दोनो स्थितियों मे कहा खड़ा है? ये हमारे राजनेताओं की आदत सी हो गई है कि किसी भी स्थिति को मात्र अपने राजनैतिक दृष्टिकोण से देखने के कारण उसे अपनी ओर अधिकतम सीमा तक खीचना देश के आर्थिक विकास के लिए ठीक नही है। यदि डंकन प्रस्ताव की याद करें तो न तो भारत आज वैसा कमजोर हुआ और न ही भारत सोने की चिडिय़ा हुआ जैसा कि दावा तत्समय दोनो पक्षो द्वारा किया गया था। आईये खुदरा व्यापार में एफडीआई के कारण होने वाले प्रभाव के सम्बंध में हम समझ ले जिसपर पूरे देश में हो हल्ला हो रहा है। एफडीआई पूर्णत: गलत नहीं है क्योंकि हमारे देश के आर्थिक ढांचे को देखते हुए देश के विकास के लिए पूंजीगत निवेश की अत्यधिक आवश्यकता है जिसकी पूर्ती कुछ हद तक एफडीआई द्वारा हो सकती है। परन्तु देश की आर्थिक सामाजिक स्थिति व देश की आर्थिक विकास की रीढ़ की हडड़ी हमारे किसान और व्यापारी बंधुओं की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखकर उनके हितो के लिए यदि निश्चित प्रतिबंध नहीं लगाये जाते है तो उससे हानि हो सकती है। इसलिए एक तो इसके निवेश की सीमा का प्रतिशत कम होना चाहिए, दूसरे उनकी संख्या तय होनी चाहिए, तीसरे माल की जगह की शहर से दूरी की न्यूनतम सीमा भी तय होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त इंफ्रास्टक्चर पर खर्च न केवल ५० प्रतिशत से अधिक होने चाहिए बल्कि वह वास्तव में हुआ है या नहीं इसकी प्रभावी निगरानी जॉच एजेंसी भी होना चाहिए। इस सबके बावजूद एफडीआई के बारे में जो गलत प्रचार है कि बिचोलिये का व्यवसाय खत्म हो जाएगा व वे बेराजगार हो जायेंगे यह सरासर गलत है। यदि उपरोक्त प्रतिबंधों के साथ रिटेल में एफडीआई आता है तो निश्चित रूप से उपरोक्त आशंका निर्मूल होगी। मैं आपको एक उदाहरण देना चाहता हूं। शहर में सामान्यतया थोक खरीदी करने वाले व्यक्ति सस्ते माल के लिए बड़ी थोक दुकान से माल किराना खरीदते है। इसके बावजूद हमारी जो नेक्स्ट डोर शॉप (बाजू की दुकान) होती है उसी से डेली कन्ज्यूम होने वाली वस्तुओं की भी खरीदी की जाती है। अब यदि एफडीआई के तहत कोई मॉल वाल-मार्ट शहर में खुलता है तो थोक की खरीदी उक्त थोक विक्रेता के बजाय वालमार्ट से (सस्ती होने पर) खरीदी जायेगी लेकिन प्रतिदिन की खरीदी नेक्स्ट डोर शॉप से ही होगी अर्थात वालमार्ट के आने से होलसेल व्यवसाई पर मार अवश्य पड़ेगी परन्तु रिटेलर पर नहीं। इसलिए शरद यादवजी का यह कथन की दो करोड़ बिचोलिये लोग बेरोजगार हो जाएंगे गलत है। एक और बात है कि जब भी नई प्रणाली लायी जाती है तो कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। इस नीति के द्वारा हमें शुद्ध ताजा व सस्ता माल मिले, इंफ्रास्टक्चर खड़ा हो ताकि सब्जियां व अन्य वस्तुए सड़े गले नहीं। अत: एक बेहतर फायदे के लिए एक तत्कालिक नुकसान होता है तो वह हमें सहन करना चाहिये है। फिर एक बात और यदि हम बिचोलियो की बेरोजगारी के नाम पर निंदा करने देना चाहते है जिसके कारण जहां उत्पादक को माल के उत्पादन पर उचित मुनाफा नहीं मिल रहा है वही हमारा उपभोक्ता जिसके लिए उक्त उत्पादन किया जाता है उसको कई गुना उंचे भाव पर क्रय करना पड़ रहा है इसका कारण कई स्तर पर बिचोलियों का होना ही है। मुझे याद आता है जब कम्प्यूटर युग आया था तब भी लोगो ने उस समय उसका विरोध इस आधार पर किया था की इससे बेरोजगारी बढ़ेगी लेकिन हम देखते है कि आज हम कम्प्यूटर बिना अधूरे है। गैर उत्पादक (अनप्रेडिक्टिव) रोजगार कम होकर उत्पादक रोजगार के अवसर बढ़े है। बैंको व इंसोरेंश के क्षेत्र में एफडीआई आने के बावजूद भारतीय बैंक या इंशोरेंस कम्पनी लडख़ड़ाई नहीं है। वर्ष १९६९ में बैंको के राष्ट्रीयकरण के बात देश के ग्रामींण स्तर पर बैंको की शाखा खुलने से ग्रामींण जनता की त्रण की जरूरत की कुछ सीमा तक पूर्ति होनी के कारण तत्समय प्रचलित साहुकारी व्यवसाय के बंद होने कीआशंका के कारण बहुत से लोग बेरोजगार हो गये तो क्या बेरोजगारी की आशंका के कारण साहुकारी व्यवसाय चलने देना चाहिए था। इसी प्रकार जब ऑटो रिक्शे रोड पर चलाये गये तो क्या रिक्शे, टांगे वाले बेरोजगार नहीं हो गये? तब हमने क्या ऑटो चलाना बंद कर दिया? कहने का तात्पर्य यह कि जब भी किसी वर्तमान व्यवस्था को बदला जाता है या बदलने का प्रयास किया जाता है तब इसका प्रतिरोध होना स्वाभाविक है लेकिन समय के साथ-साथ व्यवस्थाएं अपना विकल्प ढूंढ लेती है और लार्जर सिस्टम का एक पार्ट हो जाती है।
एक बात और क्या रोजगार के नाम पर बिचोलियो को मुनाफाखोरी करने देना उचित है? क्या उत्पादन मूल्य व उपभोक्ता मूल्य के बीच अन्तर कम नहीं होना चाहिए? ताकि एक तरफ उत्पादक को उसके लागत खर्च के अनुसार सही मूल्य मिले दूसरी तरफ उपभोक्ता को महंगाई से निजात पाने के लिए उसकी क्रयशक्ति के अनुरूप सस्ता माल मिले। यह वहीं वक्त है जब उत्पादक व उपभोक्ता के बीच की चैनल को कम किया जाए यदि ये चैनल्स ही रोजगार देने की एकमात्र व्यवस्था है तो फिर हम इन चैनल्स के आगे और ५-१० बिचौलिये को जोड़कर उन्हे रोजगार देकर उपभोक्ताओ को क्यों और महंगा माल नहीं दे देते? वास्तव में हम इसके गुण-दोष पर संवाद न कर मात्र विवाद कर रहे है जिस कारण इस मुद्दे से जुड़े अनछुए पहलू पर विचार करने के लिए मजबूर किया है कि क्यो सरकार नें उत्पादन मूल्य से उपभोक्ता मूल्य तक पहुंचने तक में विज्ञापन जैसा अंधाधुंध गैर उत्पाद व्यय (जो वास्तविक उत्पादन मूल्य से कई गुना हो रहा है) कर माल के कीमत की कई गुना महंगी क्यों होने दिया जा रहा है? क्या उसपर कोई नियंत्रण की आवश्यकता नहीं है? जिससे माल का मूल्य कम होकर उपभोक्ता को सस्ता माल मिल सके। वास्तव समय की यह मांग है कि आज इस पहलू पर भी एक वृहद नीति की आवश्यकता है जिस पर न केवल सरकार बल्कि बड़े औघोगिक घराने भी आत्ममंथन करें।
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(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)
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