राजीव खण्डेलवाल:
कल देर रात तक चली संसद में अंतत: एक तरफ तो लोकपाल एवं लोकायुक्त बिल पारित कर दिया गया लेकिन दूसरी तरफ लोकपाल को संवैधानिक दर्जा देने वाला संवैधानिक संशोधन विधेयक अस्वीकार कर दिया गया। अभी कुछ दिन पूर्व ही मैने 'अन्नाÓ द्वारा उठाये गये मुद्दे ''असली संसद कौनसी है?ÓÓ मे संसद की सार्वभौमिकता का विवेचन किया था। लेकिन कल संसद में जो कुछ हुआ उससे लगता है, मुझे अपने विचारों में परिवर्तन करना पड़ रहा है। अन्ना ने जो कल पुन: कहा कि यह जनसंसद दिल्ली की संसद से बड़ी है ऐसा लगता है कि शाब्दिक अर्थो में न जाकर यदि उक्त कथन का व्यावहारिक अर्थ निकाला जाये तो अन्ना की बात में दम लगता है।
सरकार द्वारा प्रस्तुत लोकपाल बिल के विभिन्न मुद्दो पर संसद बूरी तरह से बॅटी हुई है यह बात कोई छुपी हुई नहीं है। बिल के अधिकतर प्रावधानों पर न केवल विपक्ष बल्कि सरकार के विभिन्न सहयोगी दल भी अपनी असहमति जता चुके है। लेकिन लोकपाल को संवैधानिक दर्जा देने के प्रस्ताव जो कांग्रेस पार्टी के रोल मॉडल राहुल गांधी ने पिछले अगस्त में लोकसभा में हुई बहस के दौरान प्रस्तुत किया था पर लगभग समस्त दल अन्ना सहित सहमत थे उस तरह विरोध में कोई भी पक्ष नहीं था जिस तरह लोकपाल बिल पर थे। वह इसलिए भी क्योंकि लोकपाल को संवैधानिक दर्जा देने से लोकपाल को मजबूती ही मिलती है जो कि मजबूत लोकपाल बनाने के लिए समस्त राजनैतिक पार्टियां (उनके अन्दर की राजनीति को वे लोग ही जाने) व अन्ना की सिविल सोसायटी भी सार्वजनिक रूप से चाहती है। लेकिन सबसे आश्चर्य की बात यह है जिस मुद्दे पर समस्त राजनैतिक दलों में लगभग सहमति थी वह संविधान संशोधन विधेयक तो पारित नहीं हो पाया लेकिन जिस लोकपाल बिल पर विभिन्न राजनैतिक पार्टियों में विभिन्न मुद्दो पर गलाफाड़ विरोध था वह लोकपाल विधेयक सरकार के अल्पमत में होने के बावजूद भारी बहुमत से पारित हो गया। इसलिए अन्ना की उक्त उक्ति कि जनसंसद दिल्ली की संसद से बड़ी है मायने रखती है। यह कहा जा सकता है कि लोकपाल को सवैधानिक दर्जा देने के लिए संविधान संशोधन विधेयक के लिए २/३ बहुमत की आवश्यकता होती है जो सरकार के पास नहीं थी जैसा कि कांग्रेस पार्टी के समस्त वक्ता, महावक्ता कह रहे है। लेकिन सरकार और उनके मैनेजर्स को यह बात जनता को अवश्य बतलानी होगी कि उनके श्रेष्ठतम उच्चतम नेता राहुल गांधी के सपने के उस प्रस्ताव पर उनको लोकपाल बिल पारित होने में मिले वोटो से भी कम वोट क्यों मिले जबकि उक्त मुद्दे पर उससे ज्यादा व्यापक सहमति समस्त दलों की थी। राजनीति का यही पेंच है। कांग्रेस के १६ सांसद अनुपस्थित रहे और ९ सांसदो ने वोट नहीं डाला। जब कांग्रेस के सांसद ही अपने नेता के प्रति न तो गंभीर रहे, न तो उत्तरदायी है और न हीं वफादार हैं तब कांग्रेस का भाजपा पर आरोप लगाना एक बचकानी हरकत ही है।
संसद में कल बहस के दौरान समस्त पार्टी के सांसदों ने संसद की सार्वभौमिकता को बनाये रखने की वकालत एक मत से की। लेकिन उन्ही सांसदों ने उक्त संविधान संशोधन विधेयक पर जिनपर उन्हे कोई आपत्ति नहीं रही अपने कथनानुसार मत डाल नहीं सके। यह दोहरा आचरण ही अन्ना को बार-बार यह कहने की शक्ति प्रदान करता है कि जन संसद दिल्ली की संसद से बड़ी है। इसलिए इस मुद्दे पर अन्ना पर उंगली उठाने से पहले सांसदो को अपने गिरेबारन में झांकना होगा और अपनी कथनी और करनी के बीच व्याप्त दूरी को कम करना होगा तभी वो अपनी सार्थकता सिद्ध कर सकेंगे।
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)
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