राजीव खण्डेलवाल:
मुख्य चुनाव आयुक्त श्री वाय.एस. कुरैशी का हाल ही में उत्तर प्रदेश में हो रहे विधानसभा चुनाव के सम्बंध में हाथियों और मायावती की मुर्तियों को ढांकने का जो आदेश है उसकी विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न रूप सें विवेचना की जा रही है। उक्त आदेश के गुण:दोष पर जाये बिना, विभिन्न पार्टिया राजनैतिक दृष्टिकोण से अपने-अपने लाभ-हानि के हिसाब से उक्त आदेश की विवेचना कर उसे सही या गलत ठहरा रही है जिसके कारण मुख्य चुनाव आयुक्त के उक्त ओदश से उत्पन्न यक्ष प्रश्र गौण हो गया है।
मुख्य चुनाव आयुक्त ने मुर्तियों को ढॉकने के आदेश का जो मुख्य आधार बताया है वह यह कि सार्वजनिक जगहों पर शासकीय धन इन मूर्तियों की स्थापना में लगा है जिस पर कुछ राजनैतिक पार्टियों ने आपत्तियां उठायी है। इस कारण उसे आदर्श चुनाव आचार संहिता का उलंघन मानते हुए उस पर प्रतिबंध लगाया गया है। समानता के सिद्धांत के आधार पर हाथी चुनाव चिन्ह ढॉकने के निर्णय पर विचार करें तो यह स्पष्ट है कि चुनाव आयोग जिस बहुजन पार्टी को मिलने वाले तथाकथित फायदे के आधार पर मूर्ति ढॅकने का निर्णय लिया वास्तव में उससे तो बीएसपी को और ज्यादा फायदा हो गया क्योंकि लोग अब ज्यादा ध्यान से उक्त हाथियों की ढॅकी हुई मूर्तियों को देखने जायेंगे। (मानवीय स्वभाव है कि यदि किसी व्यक्ति को किसी बात के लिये रोका जाता है तो वह उसे ज्यादा करने का प्रयास करता है) दूसरी बात यदि सार्वजनिक क्षेत्र और सरकारी पैसा के (दुरू) उपयोग का प्रश्र है तो दूसरे अन्य राष्ट्रीय नेता और चुनाव चिन्ह के बारे में भी क्या ऐसी ही स्थिति है? पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर माननीय अटल जी तक कई सरकारी योजनाएं उनके नाम से चल रही है। क्या चुनाव आयोग उनपर भी प्रतिबंध लगायेगा? सरकारी योजनाओं से 'नल' घर-घर में लगे है जो की 'राष्ट्रीय लोकदल' का 'चुनाव चिन्ह' है। मध्यप्रदेश शासन ने स्कूली छात्र छात्राओं को उनकी सुविधा के लिए मुफ्त में सायकल प्रदान की है जो कि समाजवादी पार्टी का चुनाव चिन्ह है। यदि चुनाव आयोग ऊपर की हुई सूण्ड की हाथी मूर्ति और नीचे की ओर सूण्ड वाली हाथी (जो बीएसपी का चुनाव चिन्ह है) के बीच के अंतर को नहीं समझ पा रहा है तो वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और भारतीय झण्डे को एक क्यों नहीं समझ लेता? इसमें तीनों रंग तो मेल खाते है लेकिन अशोक चक्र को छोड़कर वे लगभग एक समान है। दूर से भी एक समान ही दिखते है बल्कि आज भी गांव में दोनो झण्डों में अंतर कर पाना ग्रामींण आदिवासियों के लिये सम्भव नहीं होता है। क्या इस आधार पर चुनाव आयोग भारतीय राष्ट्रीय कांगे्रस के चुनाव चिन्ह झण्डे पर प्रतिबंध लगायेगा? इससे यह सिद्ध है कि चुनाव आयोग ने उक्त आदेश पारित करने के पूर्व उसके दूरगामीं परिणामों पर जाये बिना आदेश पारित कर दिया जिस पर उपरोक्त परिपेक्ष में पुर्नविचार किया जाना आवश्यक है।
एक बात और कुछ पूर्व चुनाव आयुक्त और पर्यवेक्षकों ने कहा है कि यह चुनाव आयोग का पहला आदेश नहीं है पूर्व में भी ऐसे आदेश निकले है। जैसा कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल जी के प्रधानमंत्री काल में राष्ट्रीय राजमार्ग पर लगे दूरी बताने वालें खम्बों पर लगी अटल जी की फोटो को ढक दिया गया था। सवाल पूर्व में दिये गये आदेशों का नहीं है बल्कि आदेशों की वैद्यता, सामयिकता और उद्देश्यों की प्राप्ती का है। मायावती की मूर्ति के मामले में भी इसी तरह के आरोप लगाये गये और यह कहा गया कि सरकारी धन से, सरकारी जगह पर जिंदा व्यक्ति ने स्वयं अपनी मूर्ति का निर्माण किया। जहां तक सरकारी धन के उपयोग का प्रश्र है चाहे वह मायावती की मूर्ति का हो या हाथी की मूर्तियों का विभिन्न फोरमों द्वारा सुप्रीम कोर्ट तक उक्त मामला द्वारा जा चुका है और अंतत: विभिन्न रूकावटों के बाद सुप्रीम कोर्ट ने न तो उक्त मूर्तियों को तोडऩे के आदेश दिये न ही उसपर किसी तरह की कोई कार्यवाही के निर्देश दिये गये। वैसे भी जीवित व्यक्ति की मूर्ति का सवाल कोई नया नहीं है। दक्षिण में तो यह प्रचलित ही है। 'एमजी रामचंद्रन' 'के कामराज' इसके उदाहरण है। मुझे हाल ही में लोकसभा के विशेष सत्र में लोकपाल बिल पर हुई की बहस के समय शरद यादव का यह कथन बार-बार याद आता है जो काफी प्रासंगिक है। उन्होने कहा था कि ''इस देश में यह दुर्भाग्य है कि व्यक्ति के मरने के बाद ही उसके गुणों का गुणगान किया जाता है, उसका सम्मान करते है। जीवित व्यक्ति भी अपने जीवन काल में अच्छा काम करता है तब भी उसकी बढ़ाई प्रशंसा होनी चाहिए।'' यदि उस दृष्टि से यदि कोई व्यक्तित्व इस राष्ट्र में ऐसा है जो ऐसा कृत्य करता है जिससे जनता प्रभावित होकर उसकी मूर्ति बनाती है तो उसका स्वागत होना चाहिए। दुर्भाग्य की बात है कि मायावती की मूर्ति जनता ने उनके कार्यो से प्रभावित होकर नहीं बनाई बल्कि स्वयं मायावती ने सरकारी खर्च पर सरकारी जमीन पर बनाई जो घोर आपत्तिजनक व अनैतिक है।
अब उस यक्ष प्रश्र पर विचार किया जावे जो मुख्य चुनाव आयुक्त के आदेश से उत्पन्न हुआ है जिसका उल्लेख मैने प्रथम पेरा में किया था। इस बात में कोई शक नहीं है कि चुनाव आचार संहिता लागू हो जाने के बाद चुनाव आयोग अपने आप को अधिकारों से पूर्ण होकर निरंकुश मान लेता है। स्वच्छ और निष्पक्ष चुनाव करवाने के लिए वह शासन-प्रशासन और व्यक्ति के दैनांदिक कार्यो पर प्रतिबंध लगाने में ही अपने अहम की तुष्टी समझता है। चुनाव आयोग चुनाव को प्रभावित करने वाले नीतिगत विषयों पर, निर्णय पर प्रतिबंध लगाते समय वे उक्त तथ्य को भूल जाते है कि वास्तव में वे निर्णय एक सामान्य प्रशासनिक शासन की दैनांदिक प्रक्रिया का ही एक भाग है। एक पांच साल के लिये चुनी हुई सरकार जब तक वह सत्ता पर आरूढ़ है कोई भी राजनैतिक निर्णय लेने में वह संवैधानिक रूप से सक्षम है। यदि वह निर्णय गलत, असंवैधानिक या अनैतिक है, तो दूसरे पक्ष को चुनाव में उक्त तथ्य (अनैतिक पक्ष) को जनता के समक्ष लाकर जनता के वोट द्वारा ही उसे हराकर गलत सिद्ध करना चाहिए। न कि आचार संहिता की आड़ में चुनाव आयोग का उपरोक्तानुसार दुरूपयोग होना चाहिए। वास्तव में राजनैतिक दल ''घोषणा पत्र'' के आधार पर जनता के बीच वोट मांगने जाते है जो प्रत्येक राजनैतिक दल को समान रूप से प्राप्त है। तब सत्ताधारी राजनैतिक दल का मुख्यमंत्री या मंत्री कोई नीतिगत घोषणा क्यों नहीं कर सकता यह समझ से परे है। यदि सत्ता में होने के कारण वह कोई ऐसी नीति की घोषणा करके मतदाताओं को तत्कालिक प्रलोभन देकर अपने पक्ष में करने का प्रयास करता है जिसके आधार पर चुनाव आयोग उक्त घोषणा को प्रतिबंधित करने का आवश्यकता महसूस करता है। तब शेष दल इस मुद्दे को लेकर इस आधार पर जनता के पास क्यों नही जाते है कि जिस दल ने लगभग पौने पांच साल (आचारसंहिता लागू होने के पूर्व तक)उक्त नीतिगत निर्णय लेने के लिए कोई सार्थक कदम नहंी उठाये है वह मात्र एक छलावा है। अत: उसे इस आधार पर ही कि इससे उनकी विश्वसनीयता और कम होती है उसे अस्वीकार क्यों नहीं कर देना चाहिए? लेकिन मुझे खयाल आता है कि चुनाव आयोग के इस प्रतिबंध के डर के कारण मध्यप्रदेश में पिछली विधानसभा में सात उपचुनाव, नगर पालिका, नगर पंचायतो व मंडी के चुनाव होने के कारण ज्यादातर समय नीतिगत निर्णय लिये बगैर ही बीत गया और वह सरकार जिसे जनता ने पांच साल के लिए चुना था वह जनहित में पूरे समय निर्णय नहीं ले सकी।
वैसे भी एक चुनी हुई सरकार को अपने विवेक से सरकारी संशाधनों को उपयोग करने का अधिकार है। यदि वे उक्त संशाधनों के उपयोग जनहित में नहीं है तो उक्त मुद्दे पर उनका विरोध करने वाले लोग जनता के बीच उक्त मुद्दो के साथ क्यों नहीं जाना चाहते है। क्या उन्हे जनता की बुद्धी व विवेक पर विश्वास नहीं है? या उन्हे स्वयं की बुद्धि पर विश्वास नहीं है कि वह जनता को इस मुद्दे पर संतुष्ट कर सके। उनके पास तीसरा विकल्प भी है यदि सरकार कोई असंवैधानिक या गैरकानूनी निर्णय ले रही है तो न्यायालय के द्वार खुले है। लेकिन सरकारी पैसे का दूरूपयोग का आरोप जो लोग लगा रहे है वे सब भी उससे उन्मुक्त कहा है? इसलिए ज्यादा अच्छा यह होगा कि जनता के बीच उक्त मुद्दे को ले जाकर जनता के मत से निर्णय रूकवाया जाये ताकि भविष्य में इस तरह के बेहुदा और खजाना लुटाने वाला निर्णय देश में कोई भी लोकतांत्रिक सरकार जनतंत्र के नाम पर नहीं कर सके। इतना माद्दा व विश्वास उस शख्स में होना चाहिए जो उक्त बात का विरोध कर रहा है।
अंत में निर्णय जनतंत्र में जनता को ही करना है। वही अंतिम रूप से शिरोधार्य है। हम सब जनता को इस दिशा में जाग्रत करने का प्रयास अनवरत रूप से करते रहे यही कहा जा सकता है।
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(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)
badhiya lekh
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