रविवार, 24 जून 2012

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम-1956 की धारा 6 में संशोधन से उत्पन्न खतरे!


               आज जब मैं एक क्लाइंट की अचल सम्पत्ति की समस्या के संबंध में हिन्दू सक्सेशन एक्ट का अध्ययन कर रहा था तब यह महसूस हुआ कि उक्त धारा में जो संशोधन किया गया है उसके दूरगामी प्रभाव क्या हो सकते है। जब मैं अपने सहयोगी वकील के साथ इस सम्बंध में चर्चा कर रहा था तो उनका यह वाक्य क्या आप हिन्दू है? हिन्दुत्व पार्टी को बिलंाग करते है और इस इश्यू पर आप लोगो ने कोई स्टैण्ड नहीं लिया। इस एक वाकये ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। आईये पहले हम उक्तानुसार उक्त संशोधन के प्रभाव के परिणाम का आकलन करे तभी हम उसकी सही विवेचना कर सकते है।  
               धारा 6 में किये संशोधन के बाद और उच्चतम न्यायालय के इस सम्बंध में हुए निर्णय से यह स्थिति स्पष्ट हो गयी है कि अभिभावक द्वारा छोड़ी गई अचल सम्पत्ति पर लड़के व लड़कियां दोनो वैध उत्तराधिकारी होकर बराबरी के उत्तराधिकारी है। पुरूष व महिला में कोई विभेद नहीं किया जाना चाहिए व महिलाओं व पुरूष के बराबर अधिकार प्राप्त है यह कानूनी मान्यता है लेकिन सामाजिक मान्यता भी होनी चाहिए। इसीलिए वर्तमान में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं की बराबरी की भागीदारी के लिए सरकारी व गैरसरकारी स्तर पर तेजी से प्रयास किये जा रहे जिनके परिणाम भी आ रहे है। लेकिन इसके क्या दुष्परिणाम होने की संभावना है उपरोक्त संशोधन सें उत्पन्न स्थिति के प्रभाव के साथ इसे देखना व विवेचना करना आवश्यक है। मूलतः महिलाओं के बराबर के अधिकार की स्थिति कोई गलत नहीं है। लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब हम अपने समाज में गठित पारिवारिक स्थिति की ओर देखते है। 
               सामान्य रूप से हमारी सामाजिक प्रणाली में यह चलन सदियों से चला आ रहा है कि सम्पत्ति पर पिता की मृत्यू के बाद उनके जितने पुत्र उत्तराधिकारी होते है उनका नाम राजस्व रिकार्ड में चढ़ाये जाते है व उनको बराबरी का हिस्सा मिलता है। जिस कारण लड़कियों का हिस्सा भी लड़को को मिल जाता है। जो लड़कियां अविवाहित होती है उनका नाम भी सामान्यतः राजस्व रिकार्ड में नहीं चढ़ता है। यदि चढ़ता भी है तो वास्तविक अर्थ में वे हिस्सेदार होती नहीं है और न ही उनमें अपने हिस्से लेने की कोई भावना उत्पन्न होती है। लड़कियों की शादी होने के बाद भी उनका हिस्सा कानून के अनुसार तो बना रहता है लेकिन वे भी सामान्य रूप से अपने उस अधिकार का कभी उपयोग नहीं करती है और वास्तविक धरातल में वे अपना अधिकार छोड़ देती है या वह छोड़ा हुआ सरीका ही होता है क्योंकि वे अपने जीवन में इस अधिकार का उपयोग शायद ही कभी करती हो। यह स्थिति पूर्व में जब लड़कियों में पढ़ाई का प्रतिशत कम था परिवार रूढ़ीवादी परिस्थितियों से ग्रस्त होने के कारण विद्यमान थी। लेकिन धीरे-धीरे आज शिक्षा के कारण महिलाओ की प्रत्येक कार्य में बराबरी की भागीदारी का अभियान चलाने के कारण महिलाएं भी घर से बाहर निकलने लगी, नौकरी, सामाजिक कार्य में योगदान इत्यादि माध्यम से सार्वजनिक रूप से कार्य करने आगे आ रही है। तब भी हमारी जो पारिवारिक संरचना है उसमें सामान्य रूप से आज भी पढ़ी लिखी लड़कियां भी सम्पत्ति में अपने अधिकार का उपयोग प्रायः नहीं करती है। चुंकि आज कानून में स्पष्ट रूप से उक्त अधिकारो की यह उत्तराधिकारी की व्यवस्था की गई है इसलिए इसके दुरूपयोग होने की सम्भावनाएं भी बढ़ती जा रही है। महिलाओं को जो विशेषाधिकार दिये जा रहे है उसके दुष्परिणाम में ही अब हमाने सामने आने लगे है। आज हम समाचार पत्रों के या अपने आसपास कई बार देखते है कि महिलाएं बलातकार, छेड़छाड़, मोलेसाटी आदि यौन अपराध मामले में उनके दिये विशेषाधिकार का दुरूपयोग या तो अपने आत्मा सुरक्षा के लिए (सहमति होते हुए पकड़े जाने पर) या ब्लेकमेलिंग के लिये करने लगी है। हाल मे ही बैतूल में चर्चित एक प्रकरण इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
               सामान्य स्थिति में जब सम्पत्ति का बटवारा होता है उसी समय लड़के और लड़कियों में बराबर बटवारा किया जाए तो उसमें कोई समस्या नहीं है। लेकिन आज भी वर्तमान परिस्थितयों में सामान्य रूप से लड़कियों को हिस्सा नहीं दिया जाता है और खासकर शादी शुदा महिलाओं को तो दिया ही नहीं जाता है। लेकिन ससुराल में लड़कियों जाने के पश्चात ससुराल पक्ष के बनते बिगड़ते रिस्तों के कारण लड़कियां (एवं उनके उत्तराधिकारी) अपने पति एवं ससुराल पक्ष के दबाव के बाद 10-20-50 या इस से भी अधिक साल बाद भी आपने उक्त वास्तविक सम्पत्ति के अधिकार की मांग कर सकती है। तब उन वैध उत्तराधिकारी लड़को को जिन्हे संम्पत्ति उस समय मिली थी उसमें से उनको हिस्सा देने में दिक्कते पैदा हो सकती है। चुंकि उस समय उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत हो यह जरूरी नहीं होता है। इसलिए इस स्थिति मं सुधार लाने के लिये यह आवश्यक है कि जब लड़कियों की शादी हो जाती है तब उन्हे सम्पत्ति के अधिकार से वंचित किया जाना चाहिए। यदि शादी के कारण वे एक अधिकार से वंचित हो रही होती है तो दूसरी तरफ शादी के कारण वे अपने पति की सम्पत्ति की अधिकारी भी हो जाती है। अंतर सिर्फ इतना है कि उन्हे यह अधिकार पति की मृत्यु के बाद ही प्राप्त हो सकता है। यदि खानदानी सम्पत्ति पति को उत्तराधिकार में प्राप्त हुई है तो उस सम्पत्ति पर पत्नि को शादी के दिन से ही अधिकार प्राप्त हो जाता है। वैसे भी एक अभिभावक लड़की की शादी के समय दहेज के रूप में लड़के के अधिकार का अतिक्रमण करते हुए लड़की के सम्पत्ति के वैधानिक हिस्से से ज्यादा ही सामाजिक सुरक्षा एवं प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुये देता है। इस तरह सामान्यतः वह अपने दायित्व का पूर्ण करना भी महसूस करता है। विकल्प में यदि उक्त सुरक्षा तकनीति रूप से उचित नहीं लगता है तब इसके लिये एक समय सीमा का प्रावधान अवश्य किया जाना चाहिए ताकि उक्त समय सीमा के बाद सम्पत्ति के वैध पुरूष प्रतिनिधी पर तलवार न लटकती रहे और वे निश्चिंतता का जीवन जी सके अन्यथा सम्पत्ति पिता की मृत्यू के बाद उनके वैध वारिस जिन्हे सम्पत्ति प्राप्त होती है न केवल उन पर बल्कि पीढ़ी दर पीढ़ी तलवार लटकती रहेगी क्योंकि जब तक महिला उत्तराधिकारी अपने अधिकार को छोड़ नहीं देती है तब तक यह स्थिति बनी रहेगी। इससे सबसे बड़ी आशंका जो होगी वह परिवार टूटने की होगी, पारिवारिक झगड़े बढ़ेंगे। परिवार के बीच जो परस्पर समरसता बनी हुई है इसके भी नष्ट होने की सम्भावना बनी रहेगी।
               यदि इस स्थिति में हमने गंभीरता से विचार नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब इसके दुष्परिणाम इस सीमा तक हो सकते है कि हमें पुरूषो की सुरक्षा के लिए वहीं अभियान  चलाना पड़ेगा जो वर्तमान में महिलाओं के लिए किया जा रहा है अतः प्रकृति का यह साफ संदेश है, संतुलन बराबर बना रखे।
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है

बुधवार, 20 जून 2012

अंतरात्मा की आवाज! नई पहचान



Photo: http://janoktidesk.blogspot.in/

राजीव खण्डेलवाल:-
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने अंततः अंतरात्मा की आवाज पर देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद राष्ट्रपति का दोबारा चुनाव लड़ने से मना कर दिया। इस प्रकार अंतरात्मा की आवाज की यह नई पहचान है। आपका याद होगा वर्ष 1969 में तत्कालीन     प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी ने कांग्रेस जिसे तत्समय ‘सिंडिकेट’ के नाम से जाना जाता था के अधिकृत उम्मीदवार डॉ. नीलम संजीव रेड्डी के विरूद्ध डॉ. वेंकट वराह गिरी को चुनाव में अंतरात्मा की आवाज पर उतारकर इलेक्ट्राल कॉलेज से जिताने की अपील की थी तब वेंकट गिरी को इलेक्ट्रोल कॉलेज के सदस्यों ने इस अंतरात्मा की अपील को स्वीकार कर उन्हे राष्ट्रपति के पद पर जिताकर निर्वाचित किया था। यह प्रथम अवसर था जब अंतरात्मा की आवाज का देशव्यापी व्यापक असर व प्रभाव दिखा। इसके बाद जब भी कोई अधिकारिक उम्मीदवार का विरोध करना होता है तब उसी पार्टी के लोग अंतरात्मा की आवाज पर उसका विरोध कर विरोधी उम्मीदवार को वोट देने की अपील करते है। अर्थात पूर्व में अंतरात्मा की आवाज का उपयोग चुनाव लड़ने के लिए या वोट डालने की अपील के लिये किया जाता था। अतः अंतरात्मा का अर्थ अधिकारिक स्थिति का सक्रिय विरोध। इसके पूर्व किसी भी व्यक्ति दल या दल ने अंतरात्मा की आवाज की शक्ति का उपयोग कर चुनाव लड़ने ने इंकार नहीं किया। जैसा कि डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने इस आधार पर चुनाव लड़ने से इंकार किया है जो इस दृष्टिकोण से प्रथम होने के कारण ऐतिहासिक है।
डॉ. कलाम एक निर्विवादित योग्य एवं आम जनता के निकट के व्यक्ति थे इसलिए डॉ. कलाम का चुनाव पूर्व में निर्विरोध हुआ था। ममता बनर्जी द्वारा उनसे राष्ट्रपति का चुनाव पुनः लड़ने के मुद्दे पर बात करने के बाद मुलायम सिंह यादव से बात के बाद उनकी उम्मीदवारी की घोषणा ममता-मुलायम द्वारा की गई। बावजूद, पूर्व राष्ट्रपति को वह समर्थन नहीं मिला जिसके वे अधिकारी थे। शायद उसका कारण ‘राजनीति’ ही थी। कुछ पार्टी सैद्धांतिक रूप से एक बार चुने गये व्यक्ति को दोबारा राष्ट्रपति बनाने के पक्ष में नहीं थी।  इसमें इस आशंका को बल मिलता है कि वास्तव में डॉ. कलाम ने ममता बेनर्जी को अपनी उम्मीदवारी की सहमति दी थी और यदि नहीं दी तो तत्काल उनके द्वारा मुलायम सिंह की प्रेस कांफ्रेस की धोषणा का खंडन क्यो नहीं किया गया सिवाय इस कथन के कि वे सही समय पर सही निर्णय लेंगे। इसके बावजूद डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी ओर से कोई इच्छा व्यक्त नहीं की थी। कुछ लोग यह कह सकते है अंतरात्मा की आवाज को सुनकर मना करने के बजाय उत्पन्न परिस्थ्तियों का अंकगणित उनके विरूद्ध होने के कारण डॉ. कलाम ने चुनाव लड़ने से इंकार किया क्योंकि उनके द्वारा प्रथम उपलब्ध अवसर पर उक्त बयान जारी नहीं किया गया।
इसलिए उन लोगो को जिन्होने प्रारंभ में कलाम जैसे व्यक्ति को चुनाव में उतारने की बात कही उनसे सहमति लिये बिना व उनको चुनने वाले इल्लोक्ट्रोल कॉलेज के समर्थन की संभावनाओं का सही आकलन किये बिना उनके नाम की घोषणा कर अनावश्यक रूप से अपने राजनैतिक हित के लिए उन्हे विवादित बना दिया।
अतः भविष्य में इस बात का ध्यान अवश्य रखा जाना चाहिए लाभ हानि के  दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर राष्ट्रीय व्यक्तित्व को विवादित कर गोटियॉं चलाना न केवल एक राष्ट्रीय अपराध है बल्कि स्वस्थ राजनीति के विपरीत भी है।
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

शनिवार, 16 जून 2012

‘प्रणव दा’ की उम्मीदवारी! आम सहमति की भावना को बढ़ाने का एक अवसर?


Photo: ibtimes.co.in

‘प्रणव दा‘ के नाम का देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद राष्ट्रपति के लिए यूपीए उम्मीदवार के रूप में घोषणा के साथ ही जिस तरह से राजनैतिक और पत्रकार जगत में जो समर्थन आ रहा है, उससे आम सहमति का एक नया वातावरण बनता हुआ दिख रहा है जो वर्तमान क्लिष्ट राजनैतिक वातावरण को देखते हुए एक सुखद स्थिति का घोतक है। यह स्थिति क्या इस बात के लिए प्रेरित नहीं करती है कि देश के राजनैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक लोग इस बात पर गहनता से विचार करे कि देशहित की विभिन्न समस्याओं को सुलझाने के लिए अपने-अपने दृष्टिकोंण को छोड़कर क्या उनपर आम सहमति से विचार कर कार्य नहीं किया जा सकता है? यह एक गम्भीर मुद्दा है जिसे आज की उत्पन्न इस परिस्थिति ने हमें सोचने पर मजबूर किया है। ‘प्रणव दा‘ की जीत निश्चित है आम सहमति का दायरा यदि और आगे बढ़ा तो वे निर्विरोध भी निर्वाचित हो सकते है। लेकिन यह आम सहमति का जो मुद्दा परिस्थितिवश उत्पन्न हो रहा है उसका उद्देश्य क्या मात्र ‘प्रणव दा’ को देश के शीर्ष पद पर पहुंचाना ही है? या इसका उपयोग हम देश के व्यापक हित में कर सकते है। जिस प्रकार प्रणव दा की मात्र एक ‘गुण’ उनकी योग्यता (क्वालिफिकेशन) राजनैतिक सार्वजनिक स्वीकारिता ने उन्हे उक्त सर्वोच्च पद पर नियुक्ति के लिए आम सहमति के निकट ला दिया है। क्या इन उत्पन्न परिस्थितियों का लाभ अन्य समस्याओं पर भी राजनैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में काम करने वाले लोग राष्ट्रहित में आम सहमति नहीं बना सकते है, प्रश्न यह है। 

यदि वास्तव में आज उत्पन्न हुई परिस्थितियों को व्यापक दृष्टिकोण में देखा जाए और राष्ट्रहित में देश के विभिन्न क्षेत्रों मेें काम करने वाले व्यक्ति देश के विभिन्न मुद्दो पर आम सहमति गढ़े, बनाये, पालन करे, करवाये तो निश्चित रूप से वे आम सहमति के माध्यम से देश के आम नागरिको के जीवन स्तर को सुधारने में सहायक सिद्ध होंगे। इसलिए यह आम सहमति की आशा जो देश के सर्वोच्च पद के लिए उत्पन्न हो रही है इसे सिर्फ वही तक नहीं छोडे़ बल्कि उसे उक्त सर्वोच्च पद से एकदम विपरीत नीचे की ओर मोड़ कर देश के निम्नतम निर्धन वर्ग के उत्थान के लिए आम सहमति बनाने की दिशा में प्रयास करेंगे तो देश खुशहाल हो जाएगा। इतना तो कम से कम हो ही जाएगा की अनावश्यक मुद्दो पर बहस में जो हमारी शक्ति खर्च होती है उस शक्ति को हम बचा पाएंगे जिसका उपयोग देश के विकास में कर पाएंगे। 
नियती का खेल देखिए ‘प्रणव दा’ जिनका इस देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचना लगभग तय हो गया हैं। उन्होंने पूर्व में देश के वित्तमंत्री के पद पर आसीन रहकर वर्तमान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को आरबीआई के गवर्नर पद पर नियुक्त किया था। इस प्रकार वे एक नौकरशाह (वर्तमान प्रधानमंत्री) के मंत्री के रूप में बॉस थे। नियति ने पलटी खाई और डॉ. मनमोहन सिंह वित्तमंत्री के रूप में प्रणव मुखर्जी के साथ एक सहयोगी मंत्री के रूप में काम करने लगे। नियति ने एक और पलटी खाई डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के रूप में चुने गये और प्रणव मुखर्जी वित्त मंत्री के रूप में उनके अधीन कार्य करने लगे। और अब नियति ने पुनः पलटी खाई और अब वे राष्ट्रपति चुने जाने के बाद अपनी सर्वोच्चता पुनः स्थापित करेंगे और डॉ. मनमोहन सिंह उनके अधीन कार्य करेंगे। नियति का यह खेल देशहित में आम सहमति के मुद्दे पर भी संभव है, बशर्ते दृढ़ इच्छाशक्ति की कमी न हो।
‘प्रणव दा’ को ढेरो ‘शुभकामनाएं’ इस भावना के साथ कि जिस तरह वह आम सहमति की सीढ़ी पर चढ़कर देश के सर्वोच्च पद पर सुशोभित होना चाहते है वे राष्ट्रपति के रूप में आम सहमति का रूख अख्तियार कर अपनी संवैधानिक सीमा में रहते हुए देश के ‘आम’ आदमी को ‘खास’ बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देंगे इस संदेश के साथ कि देश का राष्ट्रपति सिर्फ रबर स्टॉम्प नहीं है जैसा कि जुमला लोगो के मुह में अक्सर आ जाता है?
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

बुधवार, 13 जून 2012

‘‘ब्लेक-ब्लॉक्ड मनी बिकॅम्स करप्ट मनी‘‘?

‘कालाधन’ और ‘भ्रष्टाचार’ दो ऐसे शब्द है जिनका उपयोग देश के राजनीतिक लोग परस्पर एक दूसरे पर आरोप लगाते समय एवं गैर राजनीतिक लोग भी विभिन्न फोरमों में चर्चा के दौरान धड़ल्ले से करते है। बाबा रामदेव ने फिर हुंकार भरी है कि देश के बाहर जमा कालाधन वापस देश में लाकर देश को खुशहाल बनाएंगे। बार-बार लगातार प्रभावी आंदोलन करने के बावजूद इस दिशा में उन्हे कुछ खास सफलता नही मिल सकी है। इससे भी बड़ा महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या कालाधन वापिस आ जाने पर देश खुशहाल हो जायेगा व क्या जन लोकपाल कानून बनने पर भ्रष्टाचार समाप्त हो जावेगा। सिर्फ अनशन पर बैठना, रैली करना, आंदोलन करना और आरोप प्रत्यारोप लगना तथा भ्रष्टाचार विरोधी कानून बनाने से न तो इस देश मेें भ्रष्टाचार कम हुआ है न ही आगे कम होगा। इससे एक वातावरण बनाने में तो सहायता मिल सकती है लेकिन इसमें अंतिम सफलता तभी मिल सकती है जब हम इसके जड़ में जाकर जहां भ्रष्टाचार व कालाधन पैदा होता है पर उक्त बने हुए वातावरण के प्रभाव के द्वारा चोट न करे। बाबा का देश के बाहर का कालाधन व अन्ना का भ्रष्टाचार का मुद्दा पृथक-पृथक होने के बावजूद पारस्परिक संबंधित है, क्योंकि भ्रष्टाचार ही मूल रूप से कालेधन का जन्मदाता है। 
बात कालेधन को वापस लाने की है जैसा बाबा रामदेव कहते है। इस देश का कितना कालाधन बाहर है इसका कोई प्रामाणिक आकड़ा किसी के पास नहीं है। उक्त कालाधन बाबा किस प्रकार भारत मंे वापस ला सकते है इसकी भी कोई स्पष्ट प्रभावशाली व्यवहारिक एवं संभव कार्य योजना जनता के सम्मुख प्रस्तुत नहीं गई है। तर्क के लिए मान लिया जाए अरबो खरबो रूपये का कालाधन देश के जो बाहर है बाबा के आंदोलन से उत्पन्न शक्तिपुंज की ऊर्जा के प्रभाव से देश में आ भी जाये तो देश का भला किस प्रकार होगा यह एक गंभीर विषय है। देश की वर्तमान समस्या अर्थ (धन) की किल्लत नहीं है बल्कि जो भी उपलब्ध धन है वह ऊपर से लेकर नीचे तक आवश्यकतानुसार जरूरतमंद लोगो को पूरा का पूरा पहुंच जाये यह समस्या है। इस देश की जनता को ध्यान है कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने यह कहा था कि विभिन्न योजना के लिए जो पैसा ऊपर से नीचे जाता है उसमें से मात्र 15 प्रतिशत धन ही वास्तविक हितग्राहियों तक पहुचता है शेष पैसा भ्रष्टाचार में चला जाता है।
बाबा रामदेव को इस बात का ध्यान रखना होगा कि राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल से लेकर आज तक भ्रष्टाचार बढ़ा है कम नहीं हुआ है अर्थात 1 रूपये का 15 पैसा भी अब नहीं मिल रहा है। इसलिए यदि अरबो खरबो का कालाधन देश में वापिस आ भी गया तो वह जनता के बीच विभिन्न योजनाओं के माध्यम से उत्पादन के माध्यम से वर्तमान सिस्टम में सुधार लाये बिना यदि वितरित किया जाएगा तो उसका भी वही हाल होगा। अर्थात मात्र 10-12 प्रतिशत पैसा ही वास्तविक लोगो को मिल पाएगा। शेष धन भ्रष्टाचार को बढ़ाने में ही सहायक सिद्ध होगा। अतः हमारा तथाकथित पैसा जो कालाधन के रूप में बाहर रखा है वह देशी भ्रष्टाचारियो के चंगुल से दूर होने के कारण ही बचा हुआ है उसे लाने की जल्दबाजी क्यो? पहले बाबा व अन्ना देश में ऐसा वातावरण क्यों नहीं बनाते कि देश के वर्तमान सिस्टम में ऐसे चमत्कारिक परिवर्तन हो जाए कि लोगो की बेईमानी की प्रवृत्ति व भावनाएं बदलकर लोग ईमानदारी को ओढ़ ले ताकि कम से कम इस धन का सही बटवारा हो सके। जब हम 85 प्रतिशत भ्रष्टाचार की बात करते है तो उसके दो अर्थ निकलते है कि देश का 85 प्रतिशत वर्ग भ्रष्टाचारी हो गया है या 85 प्रतिशत पैसा मात्र कुछ लोगो के बीच एकत्रित हो गया है। जब हमारे देश में लाखो करोड़ो रू. में सैकड़ो घोटाले हो रहे है जिससे यह सिद्ध होता है कि यह भ्रष्टाचार का 85 प्रतिशत पैसा मात्र 15 प्रतिशत लोगो के बीच ही जा रहा है। यदि बाबा-अन्ना अपने इस मुहिम में असफल हो जाते है, इस देश के लोगो को ईमानदार नहीं बना सकते है तो कम से कम भ्रष्टाचार का समाजवादी में विकास हो जाए ताकि 85 प्रतिशत जनता को समान रूप से लाभ पहुचे। 
संक्षिप्त में हर आन्दोलन का अगला कदम रचनात्मक कदम होता है जो उस आंदोलन से उत्पन्न प्रभाव व उर्जा का उपयोग कर उसे एक रचनात्मक मोड़ देकर उस उद्वेश्य को प्राप्त करता है जिसके लिए आंदोलन किया गया था। यह सोच फिलहाल उन नेताओं में नहीं दिख रही है। कहने का मतलब यह है कि वास्तव में देश के नागरिको को बलात मात्र नैतिक शिक्षा देने की आवश्यकता है। बाबा व अन्ना को अपनी हर सभा में विचार गोष्ठी में शिविर में एक नैतिक शिक्षा का शिविर अवश्य लगाना चाहिए जिसमें वे नैतिक शिक्षा का पाठ न केवल जनता को दे बल्कि उनकी उक्त शिक्षा देने वाली टीम को भी (जिनका नैतिक स्तर पढ़ने वालो से तुलनात्मक रूप से उंचा है।) तब तक पढ़ाए जब तक कि उन्हे यह विश्वास नहीं हो जाता है कि परिस्थितियों में गुणात्मक परिवर्तन हो गया है। मैं सोचता हूं कि यही देशहित में होगा।
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

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