शनिवार, 16 जून 2012

‘प्रणव दा’ की उम्मीदवारी! आम सहमति की भावना को बढ़ाने का एक अवसर?


Photo: ibtimes.co.in

‘प्रणव दा‘ के नाम का देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद राष्ट्रपति के लिए यूपीए उम्मीदवार के रूप में घोषणा के साथ ही जिस तरह से राजनैतिक और पत्रकार जगत में जो समर्थन आ रहा है, उससे आम सहमति का एक नया वातावरण बनता हुआ दिख रहा है जो वर्तमान क्लिष्ट राजनैतिक वातावरण को देखते हुए एक सुखद स्थिति का घोतक है। यह स्थिति क्या इस बात के लिए प्रेरित नहीं करती है कि देश के राजनैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक लोग इस बात पर गहनता से विचार करे कि देशहित की विभिन्न समस्याओं को सुलझाने के लिए अपने-अपने दृष्टिकोंण को छोड़कर क्या उनपर आम सहमति से विचार कर कार्य नहीं किया जा सकता है? यह एक गम्भीर मुद्दा है जिसे आज की उत्पन्न इस परिस्थिति ने हमें सोचने पर मजबूर किया है। ‘प्रणव दा‘ की जीत निश्चित है आम सहमति का दायरा यदि और आगे बढ़ा तो वे निर्विरोध भी निर्वाचित हो सकते है। लेकिन यह आम सहमति का जो मुद्दा परिस्थितिवश उत्पन्न हो रहा है उसका उद्देश्य क्या मात्र ‘प्रणव दा’ को देश के शीर्ष पद पर पहुंचाना ही है? या इसका उपयोग हम देश के व्यापक हित में कर सकते है। जिस प्रकार प्रणव दा की मात्र एक ‘गुण’ उनकी योग्यता (क्वालिफिकेशन) राजनैतिक सार्वजनिक स्वीकारिता ने उन्हे उक्त सर्वोच्च पद पर नियुक्ति के लिए आम सहमति के निकट ला दिया है। क्या इन उत्पन्न परिस्थितियों का लाभ अन्य समस्याओं पर भी राजनैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में काम करने वाले लोग राष्ट्रहित में आम सहमति नहीं बना सकते है, प्रश्न यह है। 

यदि वास्तव में आज उत्पन्न हुई परिस्थितियों को व्यापक दृष्टिकोण में देखा जाए और राष्ट्रहित में देश के विभिन्न क्षेत्रों मेें काम करने वाले व्यक्ति देश के विभिन्न मुद्दो पर आम सहमति गढ़े, बनाये, पालन करे, करवाये तो निश्चित रूप से वे आम सहमति के माध्यम से देश के आम नागरिको के जीवन स्तर को सुधारने में सहायक सिद्ध होंगे। इसलिए यह आम सहमति की आशा जो देश के सर्वोच्च पद के लिए उत्पन्न हो रही है इसे सिर्फ वही तक नहीं छोडे़ बल्कि उसे उक्त सर्वोच्च पद से एकदम विपरीत नीचे की ओर मोड़ कर देश के निम्नतम निर्धन वर्ग के उत्थान के लिए आम सहमति बनाने की दिशा में प्रयास करेंगे तो देश खुशहाल हो जाएगा। इतना तो कम से कम हो ही जाएगा की अनावश्यक मुद्दो पर बहस में जो हमारी शक्ति खर्च होती है उस शक्ति को हम बचा पाएंगे जिसका उपयोग देश के विकास में कर पाएंगे। 
नियती का खेल देखिए ‘प्रणव दा’ जिनका इस देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचना लगभग तय हो गया हैं। उन्होंने पूर्व में देश के वित्तमंत्री के पद पर आसीन रहकर वर्तमान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को आरबीआई के गवर्नर पद पर नियुक्त किया था। इस प्रकार वे एक नौकरशाह (वर्तमान प्रधानमंत्री) के मंत्री के रूप में बॉस थे। नियति ने पलटी खाई और डॉ. मनमोहन सिंह वित्तमंत्री के रूप में प्रणव मुखर्जी के साथ एक सहयोगी मंत्री के रूप में काम करने लगे। नियति ने एक और पलटी खाई डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के रूप में चुने गये और प्रणव मुखर्जी वित्त मंत्री के रूप में उनके अधीन कार्य करने लगे। और अब नियति ने पुनः पलटी खाई और अब वे राष्ट्रपति चुने जाने के बाद अपनी सर्वोच्चता पुनः स्थापित करेंगे और डॉ. मनमोहन सिंह उनके अधीन कार्य करेंगे। नियति का यह खेल देशहित में आम सहमति के मुद्दे पर भी संभव है, बशर्ते दृढ़ इच्छाशक्ति की कमी न हो।
‘प्रणव दा’ को ढेरो ‘शुभकामनाएं’ इस भावना के साथ कि जिस तरह वह आम सहमति की सीढ़ी पर चढ़कर देश के सर्वोच्च पद पर सुशोभित होना चाहते है वे राष्ट्रपति के रूप में आम सहमति का रूख अख्तियार कर अपनी संवैधानिक सीमा में रहते हुए देश के ‘आम’ आदमी को ‘खास’ बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देंगे इस संदेश के साथ कि देश का राष्ट्रपति सिर्फ रबर स्टॉम्प नहीं है जैसा कि जुमला लोगो के मुह में अक्सर आ जाता है?
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

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