अभी हाल ही में सम्पन्न हुए 13 वे राष्ट्रपति चुनाव में प्रणव मुखर्जी आशा के अनुरूप ही नहीं बल्कि उससे भी अधिक वोट प्राप्त कर जीतने में सफल हुए। उनके प्रतिद्वद्वी पी.ए. संगमा जो अपनी जीत हेतु किसी चमत्कार की उम्मीद रख रहे थे, वह नहीं हो पाया। लेकिन एक दुर्भाग्यपूर्ण चमत्कार अवश्य इस चुनाव में देखने को मिला वह यह कि ‘इलेक्ट्राल कॉलेज’ के पंद्रह आदरणीय, माननीय, सम्माननीय सांसद सदस्य एवं 49 विधायकों के वोट अवैध घोषित किये गये। देश में गणतंत्र स्थापित हुए 62 वर्ष हो गये और प्रथम आम चुनाव 1952 में हुआ था। प्रथम राष्ट्रपति का चुनाव 2 मई 1952 को हुआ तब से लेकर आज तक दोनों सदनों संसद व विधानसभा के सदस्यगण (सांसद व विधायकगण) राष्ट्रपति के ‘इलेक्ट्राल कॉलेज’ के सदस्य होकर मतदान करते चले आये है।
60 वर्ष से अधिक समय व्यतीत हो चुका है यदि इसके बावजूद इस देश के लाखों नागरिकों के ‘वैध’ वोट पाकर चुने हुए जनप्रतिनिधि अभी तक अपना ‘एक’ ‘वैध’ ‘मत’ देने की तमीज नहीं सीख पाए है तो क्या उन्हे अपने गरिमामय पद पर बने रहने का नैतिक अधिकार है? उपरोक्त स्थिति को देखते हुए निश्चित ही उनका यह कानूनी अधिकार भी संविधान में आवश्यक संशोधन कर समाप्त किया जाना चाहिए। यह उन असंख्य मतदाताओं का भी अपमान है जिन्होने चुनकर इन संसद सदस्यों को भेजा। इसमें तो कुछ संसद सदस्य तो ऐसे भी है जिन्होने पहली बार राष्ट्रपति चुनाव में अपने मत का प्रयोग किया हो ऐसा नहीं है। लाखो ’वैध’ मत प्राप्त करने वाले व्यक्ति को अपना स्वयं का मत सही प्रदत्त करने की अक्ल नहीं है तो यह लोकतंत्र का उपहास ही कहा जाएगा। संसद जब ऐसे लोगो से युक्त होती है तभी अन्ना टीम और बाबा रामदेव को यह कहने का साहस एवं नैतिक अधिकार मिलता है कि ‘यह कैसी संसद’? जहां एक सौ पैसठ से भी अधिक अपराधी प्रवृत्ति के लोग है जिनके खिलाफ विभिन्न न्यायालयों में मुकदमें चल रहे है। जिन पंद्रह सदस्यों के मत सही रूप में उपयोग नहीं किये जाने के कारण अवैध घोषित हुए उनके कारण टीम अन्ना को वर्तमान संसद पर पुनः उंगली उठाने का अवसर मिलेगा। अतः पूर्व में संसद के बाबद उन्होने जो बात कही थी वह वर्तमान परिस्थिति को देखते हुए गलत नहीं कही जा सकती है।
अतः एक बार जनप्रतिनिधि को चुनकर हमें आंख मूंदकर नहीं बैठ जाना चाहिए और न ही जनप्रतिनिधियों को निर्बाध रूप से निरंतर अपने विशेषाधिकारों का उपयोग करने का अधिकार होना चाहिए। उन पर निश्चत ही कुछ प्रतिबंध आवश्यक रूप से होने चाहिए कि यदि वे अपने अधिकार का प्रयोग जनता के हितो के विपरीत करे, या अपने अधिकारो का उपयोग करने में अक्षम हो तो उनके विशेषाधिकार समाप्त हो जाने चाहिए। अन्ना टीम की मंशा भी शायद यही है। 15 सांसदों की उपरोक्त विफलता केवल देश के लोकतंत्र के लिए ही शर्मनाक घटना नहीं है, बल्कि इससे विदेशों में भी राष्ट्र का सिर नीचा हो जाता है।
यह विडम्बना ही है कि 60 वर्ष के परिपक्व होते लोकतंत्र में हम ऐसे प्रतिनिधि नहीं चुन पाए जिन्हे खुद के मताधिकार का सही प्रयोग नहीं आता है। यह तो देश का सौभाग्य है कि इस तरह के मताधिकार प्रयोग करने के अवसर सांसदो को राष्ट्रपति चुनाव के अलावा शायद ही है। अन्यथा ऐसे सांसदो के बल पर तो देश के लोकतंत्र का गुड़-गोबर होना निश्चित है। संसद के अधिवेशन में विधेयक को पारित करते समय इलेक्ट्रानिक बटन से ‘हां’ या ‘ना’ दबाकर मत देना होता है, जहां सांसदों को अपने ‘दिमाग’ का प्रयोग शायद ही करना होता है। संसद सदस्य, विधायको के मत अवैध घोषित होने का कारण उनका अनपढ़ होना नहीं है! क्योंकि वे बाकी की अन्य सारी ‘कलाओं’, भ्रष्टाचार से लेकर.........! में काफी निपुण होने के कारण पढ़े लिखे नजर आते है। यह स्थिति निश्चय ही इन अयोग्य राजनीतिज्ञो को ‘वैध’ मत देकर जनप्रतिनिधि बनाने वाली जनता के लिए चिंतनीय है।