गुरुवार, 30 अगस्त 2012

माननीय जस्टिस कापड़िया का कथन बिल्कुल सही, भले ही देरी से!


उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस एच.एम. कापड़िया का यह कथन कि ‘‘जजों को देश नहीं चलाना चाहिए न ही उन्हे नीति बनानी चाहिए’’ बल्कि वे मात्र फैसला दे, भारत की न्यायपालिका के इतिहास में एक मील का पत्थर अवश्य सिद्ध होगा। पिछले कुछ समय से माननीय उच्चतम न्यायालय के विभिन्न विषयों पर जो निर्णय आ रहे थे उनके परिपेक्ष में उक्त कथन की आवश्यकता बहुत समय से महसूस की जा रही थी। यदि पाठकगण मेेरे पूर्व के लेखों को ध्यान में लाए तो मैने यही बात पूर्व में भी कुछ न्यायिक निर्णयों की समीक्षा-लेखा के दौरान की थी। वास्तव में उच्चतम न्यायालय का कार्य कानून की समीक्षा मात्र है उन्हे या तो वैध घोषित करें या अवैध। कानून निर्माण उनका कार्य नहीं है। कानून की कमियों की पूर्ति स्वयं न्यायपालिका कर रही है ऐसा निर्णयो से नहीं झलकना चाहिए। कानून को बनाने का कार्य विधायिका का है। ऐसी स्थिति में कोई और संस्था विधायिका या कार्यपालिका, न्यायपालिका को कानून बनाने से या न्यायपालिका द्वारा उक्त कमिंयो की स्वतः पूर्ति करने से (अवमानना के भय से) नहीं रोक पाती है तब खुद न्यायपालिका ही आत्म संयमित होकर इस तरह की प्रवृत्ति पर रोक लगा सकती है। यह पहल देश के माननीय मुख्य न्यायाधीश ने करके न केवल एक अच्छी शुरूआत की है बल्कि देश की न्यायपालिका को एक स्वच्छ व स्पष्ट संदेश भी दिया है। जब मुख्य न्यायाधीश ने अपना मत स्पष्ट रूप से प्रकट कर दिया है तो यह विश्वास है कि अब भविष्य में इस तरह की पुनरावृत्ति नहीं होगी। लेकिन इस तरह की स्थिति में अब यदि कार्यपालिका कानून की कमियांे की पूर्ती नहीं करती है जो न्यायपालिका अभी तक अपने निर्णयो द्वारा करती चली आ रही है तो नागरिको के मन में व्यवस्था के प्रति आक्रोश उत्पन्न हो सकता है। इससे अराजकता की स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है। पूर्व के निर्णयों मे भले ही न्यायालय के अधिकार क्षेत्र पर प्रश्नचिन्ह लगाया जाता रहा हों लेकिन जनभावना व उनके हितो के अनुरूप निर्णय होने के कारण आमजनो ने वे निर्णयो को विधायिका और कार्यपालिका के मनमाने तौर तरीके पर अंकुश की तरह मानते हुए उन्हे स्वीकार किया। खुद जस्टिश कापड़िया ने जो सोने का अधिकार, सुरक्षा के अधिकार, सम्मान पूर्वक जीने का अधिकार के उदाहरण ज्यूरिसपडेंस आफ कांस्टिट्यूशनल स्ट्रक्चर विषय पर व्याख्यान देते हुए दिया। इसमें उनकी साफ विनम्र व न्यायिक अहंकार-रहित सोच झलकती है। उच्चतम न्यायालय ने अभी कुछ समय पूर्व ही शेरो की घटती हुई संख्या के कारण टाइगर टूरिज्म पार्क एवं फारेस्ट क्षेत्र में विकसित पर्यटन केंद्रो में कुछ प्रतिबंध लगाये जिसमें हमारे प्रदेश का पचमढ़ी क्षेत्र भी शामिल है जिसके कारण पर्यटन उद्योग चौपट होने की नौबत आ गई हैं और कई लोग बेरोजगार भी हो गये है। यदि सरकार किसी भी विद्यमान कानून का उल्लंघन कर रही हो तो उसके लिये उसे अवश्य दंडित किया जाना चाहिए। यदि पर्यावरण की सुरक्षा के लिए कोई कानून की आवश्यकता है या कानून में कोई कमिया है तो न्यायपालिका उक्त कमियो की पूर्ति निर्णयो द्वारा स्वयं करने के बजाय उक्त कार्य को जनता, विधायिका, कार्यपालिका पर छोड़ देना चाहिये। तदानुसार विधायिका व कार्यपालिका यदि अपने दायित्व का पालन नहीं करती है तो जनता जनतंत्र का दबाव जो लोकतंत्र में एकमात्र हथियार है बनाकर सरकार को उस दिशा में कार्य करने के लिए प्रेरित कर सकती है। पर्यावरण या लुप्त होते शेरो की सुरक्षा किसी भी सरकार का मौलिक दायित्व होना चाहिए, और है। लेकिन उच्चतम न्यायालय ने सरकार के एक नीतिगत निर्णय के समान निर्णय देकर अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण ही किया था। यद्यपि वह देशहित में हो सकता है लेकिन क्या वह न्यायिक सीमा के अंतर्गत है यह एक सोचनीय प्रश्न हो सकता है। हाल ही में बैतूल से संबंधित जन संगठनों के सदस्यों को प्रताड़ित किये जाने के एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार को शिकायत निवारण प्राधिकरण गठन करने के निर्देश दिये है जो उपरोक्तानुसार अतिक्रमित अधिकार क्षेत्र का ही सूचक है। अतः माननीय मुख्य न्यायाधीश का उपरोक्त मत स्वागत योग्य है व इसकी खुले मन से प्रशंसा की जानी चाहिए कि एक न्यायाधीश ने अपने ही अतिक्रमित अधिकारों को जिनको जनता ने मान्य किया, स्वीकार किया यह कहकर कि वे संवैधानिक नहीं है खुद त्याग किया है, वह भविष्य में न्यायालय के निर्णय को और अधिक संवैधानिक बनाने में सार्थक सिद्ध़ होंगा।

बुधवार, 22 अगस्त 2012

सोनिया क्या न्यायपालिका का प्रतिरूप बन गई ?

फोटो: newindianexpress.com

राजीव खंडेलवाल: असाम हिंसा की घटना पर सोनिया गांधी के पीड़ितो को सहलाने गई असाम दौरे के दौरान यह बयान कि दोषियों को कड़ी सजा मिलनी चाहिए यह प्रश्न उत्पन्न करता है कि यह कड़ी सजा देगा कौन? जो कुछ असाम में घटित हुई इसकी सर्वत्र आलोचना हुई है। जिस प्रदेश से देश का प्रधानमंत्री प्रतिनिधित्व करता हो वहॉ अचानक यह शर्मनाक घटना का होना एक कलंक है। घटना के संबंध में बोडो आंदोलन से जुड़े व्यक्ति जो सरकार में शामिल है पर आरोप प्रत्यारोप लगे है। समय पर केंद्र सरकार की सेना की टुकड़ी का न पहुंचना भी आलोचना का शिकार बना हुआ है। इस सम्पूर्ण घटना में अपराधियों को पहचानकर सजा दिलाने की जिम्मेदारी या तो प्रदेश सरकार की है या केंद्र की सरकार की है। दुर्भाग्य से दोनो जगह उस कांग्रेस की सरकार है जिसकी मुखिया सोनिया गांधी है। सोनिया गांधी ने यह कथन नहीं किया कि उन्होने केंद्रीय सरकार या राज्य सरकार को उक्त घटनाओं में शामिल अपराधियों को पकड़कर तुरंत कार्यवाही करने के निर्देश प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को दिये है। कांग्रेस पार्टी की सरकार होने के कारण न केवल राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के नाते बल्कि यूपीए के मुखिया होने के नाते भी उन्हे कड़ी कार्यवाही के निर्देश देना चाहिये थे। इसके विपरीत उन्होने उनको सजा मिलनी चाहिए ऐसी इच्छा अपनी व्यक्त की उसी प्रकार जिस प्रकार माननीय न्यायालय कई प्रकरणों में कानून के प्रावधानों की कमी के कारण या उनका पालन प्रशासनिक तंत्र द्वारा न किये जाने के कारण उनके पास सीधे कार्यवाही के अधिकार न होने के कारण अपने निर्णयो में वे इस तरह के निर्देशो का उल्लेख करते है कि सरकार को या प्रशासनिक अधिकारियों को इस तरह के कार्य करने चाहिए या तथाकथित कमियों को दूर करने के लिए आवश्यक कदम उठाने चाहिए। इस तरह वे सरकार से ऐसे कदम उठाने की उम्मीद करते है जो यद्यपि आदेश नहीं होता है। वैसे ही विचार सोनिया गांधी ने व्यक्त किये जिसके पीछे कोई बल या इच्छा शक्ति का न दिखना से वह सिर्फ मात्र विचार ही प्रतीत होते है। इसके विपरीत न्यायालयों की इस प्रकार की प्रतिक्रियाओं में तो एक प्रकार का न्यायिक डर सम्मिलित होने के कारण उसका सरकार या प्रशासनिक तंत्र पर कुछ प्रभाव अवश्य पड़ता है। क्या सोनिया गांधी उक्त घटना पर राजनैतिक सोच से हटकर देश की एकता के लिए तुरंत समस्त आवश्यक कार्यवाही करने के कड़े निर्देश प्रधानमंत्री व असम के मुख्यमंत्री को देकर व कार्यान्वित करवाकर इसकी प्रतिक्रिया में देश के विभिन्न प्रांतो में फैल रही हिंसक व पूर्वोत्तर के लोगो के घटनाओं के पलायन को रोक कर देश की एकता को मजबूत और स्थिर बनाकर रखना होगी भविष्य उनकी ओर इस आशा की टकटकी से ही देख रहा है। 
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

लोकतंत्र को बचाने के लिए, लोकतंत्र में सीधे भागीदारी करने का गैर राजनैतिक संत का निर्णय कितना उचित?

                            टीम अन्ना ने इस घोषणा के साथ कि देश के लिए ‘राजनैतिक विकल्प’ देना जरूरी है और बिना सत्ता में आये वे राजनैतिक विकल्प देंगें अनशन समाप्त करने की घोषणा कर दी। मतलब अन्ना अभी तक जिस वर्तमान राजनीतिक तंत्र की लगातार आलोचना कर रहे थे अन्ना उसमें अपने समर्थको की भागीदारी कराकर उक्त तंत्र का भाग बनेंगे। वास्तव में यह एक लोकतांत्रिक एवं लोकतंत्र को मजबूत करने वाला निर्णय है। इसलिए कि लोकतंत्र में कोई भी तंत्र (सिस्टम) पूर्ण (एब्सोल्यूट) नहीं होता है। हम एक बेहतर तंत्र (सिस्टम) की कल्पना करते है और देश को सर्वश्रेष्ठ तंत्र देने का प्रयास करते है। कोई भी तंत्र अपने आप मंे गलत नहीं होता है। लेकिन उस तंत्र के जो अंश होते है जिसे मिलकर वह तंत्र बनता है, जो उसको कार्यान्वित करने के लिए जिम्मेदार होते है और जिनके लिए वह तंत्र बनाया जाता है उनकी सामुहिक कमिया ही उस तंत्र को खराब करती है। अन्ना अब तक यह कहते रहे कि यह तंत्र वर्तमान में जो है जिसका केंद्र बिंदू ‘संसद’ है। यह वह संसद है जहां 15 मंत्री भ्रष्ट है 166 से अधिक सदस्य अपराधी है। इनसे न तो स्वच्छ शासन की उम्मीद कर सकते है और न ही उनसे भ्रष्टाचार के विरूद्ध कड़ा कानून की उम्मीद की जा सकती है। 
                            अन्ना ने इसके पूर्व वर्तमान संसद को नकारकर ग्राम सभा की रायशुमारी की बात पर जोर दिया। लेकिन अब उन्हे इस बात का अहसास अवश्य हो गया होगा कि संसद चाहे कैसी हो कानून वही बना सकती है। इसलिये संसद को चाहे जितनी गाली दी जाये, आलोचना की जाय, जब तक उनके मन मुताबिक संसद का गठन नहीं हो पाएगा तब तक जन लोकपाल बिल पारित नहीं हो पायेगा। वर्तमान संसद के संसंद सदस्यों पर जनमत के दबाव के द्वारा जनलोकपाल बिल पर उनको सहमत करने में असफल होने के कारण ही उनके पास उक्त निर्णय के अलावा शायद कोई चारा बचा ही नहीं था। वे आखिरी सांस तक ‘लोकतंत्र’ में अपने विश्वास से डगर नहीं होना चाहते है इसलिए मजबूरी में लिया गया यह निर्णय उनकी हार के रूप में न देखा जाए बल्कि लोकतंत्र के पहियों को मजबूती प्रदान करने व स्वच्छता प्रदान करने के रूप में देखा जाना चाहिए।
अब जब अन्ना व उनकी टीम व समर्थक इस लोकतंत्र के मंदिर संसद में प्रवेश करने के लिये जनता के बीच जायेगी। तब उन्हे वे सब बुराइयों का सामना करना पड़ेगा जिसकी आलोचना वे अभी तक करते आ रहे है। इन बुराईयो का सामना करने पर उन्हे बुराईयो से लड़ना पड़ेगा। जब अन्ना जैसा व्यक्तित्व राजनीति के कीचड़ से युक्त समस्त ‘बुराइयो से लड़ेगा’ व जन जनार्दन के सहयोग से यदि वह विजय प्राप्त कर पायेगा तो ही राजनीति को इस कीचड़ से दूर कर स्वच्छ कर पायेगा। 
                            यदि यह प्रयोग सफल हो गया तो सच मानिये देश प्रगति की ओर अग्रसर होता हुआ पुरानी सोने की चिड़िया के रूप में प्रसिद्धि पा सकता है बशर्ते जनता भी उतनी ही ताकत व क्षमता से अन्ना के इस दिशा में बड़े हुये कदम का ताल ठोककर साथ दें।

भ्रष्टाचार की समस्या का निवारण मात्र जनलोकपाल कानून नहीं बल्कि ‘दोहरे चरित्र’ की समाप्ति की आवश्यकता

                  अन्ना का ‘जनलोकपाल बिल’ को कानून बनाने के लिए चल रहा आंदोलन के दौरान ही जनता के बीच यह साफ हो चुका था कि मात्र जनलोकपाल कानून बनने से भ्रष्टाचार की समस्या का न तो निवारण होगा और न ही उस पर प्रभावी अंकुश लग पायेगा। समस्या कानून की न होने की नहीं, लागू होने की नही है बल्कि उसको लागू करने वाले व्यक्तियों के दोहरे चरित्र होने के कारण उनकी की दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव का होना है।
                  यदि हम अन्ना के 16 महीने के आंदोलन के दौर पर विचार करे तो यह हमारे सामने एक बहुत ही साफ चित्र सामने आता है वह यह कि इस आंदोलन में शामिल या प्रभावित होने वाला प्रत्येक वर्ग चाहे वह संसद हो, सरकार हो, अन्ना टीम हो, समस्त राजनैतिक पार्टीयां हो, नेता हो, अभिनेता हो, बुद्धिजीवी वर्ग हो या आम जनता हो, सबका दोहरा चरित्र कमोवेश एक दूसरे के सामने आ गया है। यह देश की चिंता का विषय है। यदि हम आज व्यक्ति/संस्था के दोहरे चरित्र की बात करते है तो दोहरे चरित्र का यह मतलब कदापि नहीं है कि यदि किसी व्यक्ति ने एक समय कोई स्टेण्ड लिया और वह अनुभव के आधार पर परिस्थितिवश हालत बदलने के कारण अपने स्टैण्ड में बदलाव लाता है। एक साथ ही कथनी व करनी में अंतर ही दोहरा चरित्र है। 
                  बात पहिले अन्ना की ही कर ले। अन्ना एवं उनकी टीम द्वारा सदा से ही लगातार यह कहा जा रहा था कि यह एक गैर राजनैतिक जन-आंदोलन है व वे कभी भी इस राजनैतिक कीचड़ में नहीं पड़ेंगे। इसी राजनीतिक कीचड़ के कारण वर्तमान संसद 166 से अधिक आरोपित सांसदो से घिरी हुई है। मुझे ख्याल आता है जब अन्ना का प्रथम बार आंदोलन हुआ था तो उमाजी जो उनको समर्थन देने गई थी तब उन्हे मंच पर चढ़ने नहीं दिया था जबकि उमाजी राजनीतिज्ञ के साथ-साथ साध्वी व प्रखर आध्यात्मिक वक्ता भी है। लेकिन राजनीति की ‘बू’ से उस समय अन्ना को इतनी ज्यादी चिढ़ थी कि उसकी छाया से भी उन्होने परहेज रखा। लेकिन वही अन्ना उस विलासराव देशमुख जो एक भ्रष्ट आरोपित केंन्द्रीय मंत्री थे (बाद में जारी 15 भ्रष्ट केन्द्रीय मंत्री की लिस्ट में भी उनका नाम शामिल था) प्रधानमंत्री की चिट्ठी को सार्वजनिक मंच पर आदर पूर्वक उनके हाथो से स्वीकार करते हुए वह चिट्ठी पढ़ी गई तब अन्ना को उनसे परहेज करने आवश्यकता महसूस नहीं पड़ी जैसा कि तृतीय स्टेज के आंदोलन में उन्होने भ्रष्ट मंत्रियो से मिलने से इनकार तक की बात कही थी। इससे अन्ना का दोहरा चरित्र परिलक्षित होता है। राजनीति से घृणा करने वाले अन्ना का राजनैतिक विकल्प देने की घोषणा करना भी दोहरे चरित्र का उदाहरण है। यहा कुछ लोग इसे अपने पूर्व स्टेंड का बदलना भी कह सकते है। 
                  राजनैतिक विकल्प की घोषणा के साथ अन्ना एवं अरविंद केजरीवाल द्वारा कोई चुनाव न लड़ने की घोषणा एवं कोई पद ग्रहण न करने का कथन भी दोहरे चरित्र का उदाहरण है इस अर्थ में कि वे एक ओर सक्रिय चुनावी राजनीति में अच्छे लोगो को आने की सलाह भी दे रहे लेकिन वे स्वयं उन अच्छे लोग से अधिक अच्छे होने के बाद सक्रिय राजनीति में भाग लेने से इंकार रहे है। जो आचरण एवं कार्य दूसरे को करने के लिए कह रहे है यदि वे स्वयं उसको अंगीकृत नहीं करते है तो यह दोमुही बाते ही कही जायेगी।
                  जनलोकपाल बिल के लिए अंतिम सांस तक अनशन करने की बात करने के बाद अचानक बिना उद्वेश्य की प्राप्ति के या बिना किसी उपलब्धि के अनशन समाप्त करना। इसके पूर्व अनशन में तो उन्हे सरकार की तरफ से कुछ न कह आश्वासन भी मिला था। यह दोहरे चरित्र के साथ जनता के विश्वास को एवं तोड़ना भी है। देश आंदोलनकारी व जनता को एक माला में पिरोने का आव्हान करने वाली अन्ना टीम स्वयं एकमत न होकर समय-समय पर उनके अलग-अलग स्वर प्रस्फुटित हो रहे थे जो अन्ना टीम के विरोधाभासी आचरण का प्रतीक है।
                  बात जहां तक संसद एवं विभिन्न राजनैतिक दलों की है जिन्होने संसद में सर्वसम्मति से ऐतिहासिक रूप से अन्ना के मुद्दो पर सहमति देकर स्वीकार कर जो ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित कर प्रधानमंत्री ने अन्ना को सेल्यूट किया। इसके बाद क्या हुआ? जब बिल पेश हुआ व उस पर विभिन्न राजनैतिक दलो ने जो विचार व्यक्त किये थे वे घोर अवसरवादी होते हुए दोहरे चरित्र के ही प्रतीक थे। बात अभिनेताओ की भी कर ली जाये वैसे वे डबलरोल में काम करने के अभ्यस्त है। (अनुपम खेर जैसे व्यक्तियों को छोड़ दिया जाए तो)
                  बात मीडिया की भी कर ली जावे। यदि वास्तव में इलेक्ट्रानिक मीडिया नहीं होता तो यह आंदोलन इतना प्रभावी नहीं दिखता। यह इस बात से भी समझा जा सकता है कि आंदोलन का आव्हान पूरे देश में किया गया था। लेकिन भीड़ मात्र रामलीला मैदान या जंतर मंतर में दिखी क्यो? टीआरपी के चक्कर में मीडिया ने दोहरा आचरण दिखाया।
                  अंत में जनता की बात आती है जो स्वयं दोहरे चरित्र से ग्रसित है जो ही समस्या का मूल कारण है। जनता ने अन्ना टीम के आव्हान पर यह टोपी पहन मैं भी अन्ना तू भी अन्ना। क्या ये टोपी धारी (बाकी लोगो को तो छोड़ ही दिया जाये) इन 16 महीनो में ‘अन्ना’ बन जाने से भ्रष्टाचार से मुक्त हो गये है? बड़ा प्रश्न है?

अन्ना के आंदोलन का बहीखाताः क्या पाया! क्या खोया!

             जनता के सामने राजनैतिक विकल्प प्रस्तुत करने के इरादे के साथ अन्ना द्वारा सांय 5 बजे से अनशन समाप्ति की घोषणा पर मीडिया में यह सुर्खिया कि एक बड़े जन आंदोलन की मौत/ हत्या, हो गई छायी रही। वास्तव में उक्त आंदोलन के समाप्त होने के प्रभाव एवं परिणाम की विवेचना किया जाना इसलिए आवश्यक है कि यह भविष्य की देश की राजनीतिक दिशा को तय करने में एक महत्वपूर्ण कारक होगा।
             सर्वप्रथम यह बात तो अन्ना को मालूम ही होनी चाहिये जब वह तीसरी बार जनलोकपाल के साथ एक मुद्दे 15 मंत्रियों के विरूद्ध एटीएस की जांच करने की मांग को और जोड़कर आंदोलन पर बैठे तो उन्हे उस सरकार से कोई उम्मीद नहीं होनी चाहिए, करनी चाहिये जिससे पूर्व में लगातार उनकी बात असफल हो चुकी हो, बावजूद इस तथ्य के देश की संसद व प्रधानमंत्री ने उन्हे ऐतिहासिक सेल्यूट ठोका था। इस कारण से तीसरे स्टेज के इस अनशन का यह परिणाम तो लाजिमी ही था। अन्ना को ही इस बात का जवाब देना है कि वे इस स्थिति के बावजूद आशा लिये अनशन पर क्यों बैठे? लेकिन यदि हम इस जन-आंदोलन की 16 महीने की अवधि को संज्ञान मे ले तो यह मानना बड़ी भूल होगी कि इस आंदोलन की कोई उपलब्धि नहीं हुई। आइये आगे हम इस पर हम विचार करते है।
             सबसे बड़ी उपलब्धि तो इस आंदोलन की यही है कि यह स्वाधीनता के बाद राष्ट्रीय परिपेक्ष में पहला संगठन-विहीन जन-आंदोलन था, राजनैतिक आंदोलन नहीं। आसाम का ‘आसू (आल इंडिया स्टुडेंट यूनियन), का आंदोलन निश्चित रूप से एक गैर राजनैतिक सफल आंदोलन था जो बाद में राजनैतिक प्लेटफार्म में परिवर्तित हो गया। लेकिन यह देश का मात्र एक छोटे से प्रांत का आंदोलन था जो सिर्फ ‘आसाम’ के हितो व उद्वेश्य के लिए किया गया था। अतः उक्त जन-आंदोलन की तुलना इस राष्ट्रीय आंदोलन से नहीं की जा सकती है। 
             इस आंदोलन की प्रथम उपलब्धि यही है कि इसे एक राष्ट्रीय जन आंदोलन की मान्यता मिली यह कहना अतिश्योक्ति पूर्ण नहीं होगा। यदि जय प्रकाश नारायण के आंदोलन से इसकी तुलना की जाती है तो वह अनुचित है। जयप्रकाश नारायण का आंदोलन भ्रष्टाचार के विरूद्ध प्रथमतः ‘नवनिर्माण समिति गुजरात’ द्वारा प्रारंभ किया जाकर बिहार के छात्रो के शामिल होने के बाद जय प्रकाश नारायण के आव्हान के बाद समस्त गैर कांग्रेसी कम्यूनिष्ट राजनैतिक पार्टियो के भाग लेने के कारण वह आंदोलन जन आंदोलन न होकर जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में राजनैतिक पार्टियों के साथ समय के साथ-साथ आम आदमियों की भागीदारी होकर एक सम्पूर्ण क्रांति का आंदोलन बना था। जिसकी यह परिणाम हुआ कि आंदोलन में भाग लेने वाले समस्त राजनैतिक दल एवं गैर राजनैतिक व्यक्तित्वो का विलय जनता पार्टी निर्माण के रूप में हुआ जिसने तत्कालीन स्थापित राजनैतिक धरातल को जो सड़ गये लोकतंत्र का प्रतीक था को उखाड़ फेका था।
इस आंदोलन की दूसरी बड़ी उपलब्धि यह रही कि इसने भ्रष्टाचार के मुद्दो को आम मानस पटल तक पहुॅचाकर झकझोर दिया। वे नागरिक भी जो भ्रष्टाचार से लाभान्वित है उनके सुर भी भ्रष्टाचार के विरूद्ध उठने लगे। लेकिन यह आधी सफलता है क्योंकि इसके बावजूद वे समस्त नागरिक स्वयं भ्रष्टाचार से विरक्त नहीं हो पा रहे है।
             तीसरी बड़ी बात अन्ना के इस आंदोलन से उठती है वह यह कि आंदोलन समाप्त नही हुआ है लेकिन निश्चित ही आंदोलन का स्वरूप बदला है। अर्थात जन-आंदोलन राजनैतिक आंदोलन में बदला जा रहा है। (अन्ना एवं उनकी टीम आगे किस नाम से जाने जायेंगे यह अभी गर्भ मे है।) लोकपाल से आगे जाकर विभिन्न जन समस्याओं के लिए आंदोलन की आवश्यकता के कारण आंदोलन तो समाप्त नहीं होगा क्योकि समस्याएॅ समाप्त नहीं होगी। इस आंदोलन की एक ओर उपलब्धि से इंकार नहीं किया जा सकता वह यह कि मध्यम वर्ग जो मूक दर्शक बना रहता था प्रखर होकर घर व अपने कार्य से बाहर निकल कर आंदोलन में शामिल हुआ व स्व-प्रेरणा से आंदोलन को चलाने के लिये आर्थिक सहयोग भी प्रदान किया।
             बात जब बही-खाते की है तो जमा के साथ खर्च की भी चर्चा करना आवश्यक है। सबसे बड़ा नुकसान आंदोलन के अचानक समाप्त होने की घोषणा से जो हुआ है वह यह कि जनता की अपेक्षाए, विश्वास की हत्या नहीं तो मौत अवश्य हुई है। यदि प्राकृतिक मौत होती तो भी कोई दिक्कत नहीं थी। दूसरे इस आंदोलन ने समस्त लोगो के दोहरे चरित्र को उजागर किया है जिसका विस्तृत विवरण के लिए पृथक लेख की आवश्यकता होगी। तीसरा बड़ा नुकसान अन्ना की स्वयं की विश्वसनीयता पर एक हल्का सा प्रश्नवाचक चिन्ह भी लगा है जो लगातार राजनीति से दूर रहने की बात कहने के बाद उनका राजनैतिक विकल्प की शरण लेना है। यदि परिस्थितिवश व देशहित में यही एकमात्र विकल्प है तो यह उनकी मजबूरी, लाचारी को भी दर्शाता है। चौथा जो सबसे बड़ा खतरा भविष्य में बना रहेगा वह यह कि यदि यह आंदोलन दूसरे रूप में भी सफल नहीं हो पाया तो जो एक रिक्तता पैदा होगी वह स्थिति को ‘बद’ से ‘बदतर’ कर देगी।
             इसलिए अंत में ईश्वर से यही प्रार्थना की जा सकती है कि अन्ना जैसे व्यक्तित्व बार-बार पैदा नहीं होते है अतः जो कुछ अन्ना अभी हमारे बीच बचे है उनसे ही इस देश की वर्तमान ‘गति’ का उद्धार हो जाये अन्यथा भविष्य में शायद इतना भी संभव नहीं होगा।

बुधवार, 1 अगस्त 2012

आखिर न्यूज चैनल्स कब देश के प्रति कुछ जिम्मेदारी समझेंगे?


राजीव खण्डेलवाल: 
                           देश के सात राज्य ‘नार्थन ग्रिड’ के फेल हो जाने के कारण बिजली गुल हो जाने से अंधेरे में डूब गये, सरकार भी ‘अंधेरे’ में हैं। देश का मीडिया इन दोनो अंधेरे से जनता को उजाले में लाने का कुछ कार्य कर सकता था। वह भी राष्ट्र के प्रति अपने दायित्व निभाने में असफल होकर अंधकार को और अंधेरे की ओर बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो रहा है। जब न्यूज चैनल्स यह समाचार देते है कि ट्रेनों के एसी कोच में बिजली न होने के कारण यात्रियों का दम घुटे जा रहा है (सामान्य कोच के यात्रियों का खयाल नहीं आया?)। सरकार कुछ नहीं कर रही है। क्या सरकार को इस घटना के होने की पूर्व कल्पना थी? क्या न्यूज चैनल्स आरोप प्रत्यारोप के बजाय जनता को इस अचानक हुई बिजली गुल होने की दुर्घटना से निपटने के लिए कुछ सकारात्मक सुझाव नहीं दे सकते है? यह सही है कि सरकार के पास हर स्थिति से निपटने के लिए एक आपात योजना अवश्य होनी चाहिए। इसकी चर्चा न्यूज चैनल्स बाद में भी कर सकते है। लेकिन तुरंत तो उनका दायित्व है कि आशंका के बादलों को हटाकर स्थिति का सामना करने के लिये सकारात्मक जानकारी व सुझाव दें। आजकल न्यूज चैनल्स न्यूज परोसने का कार्य नहीं करते है, बल्कि उनका ब्रेकिंग न्यूज पर ज्यादा ध्यान रहता है। न्यूज जितनी ज्यादा ‘ब्रेक’ होगी उतना ही ज्यादा उनका न्यूज चैनल ‘तेज‘ ‘फास्ट’ कहलाएगा और उनकी टीआरपी भी उतनी ही बढ़ेगी, ऐसा न्यूज चैनलों का मानना होता है। टीआरपी की भी एक अलग कहानी है जिसका आधार भी वैज्ञानिक न होकर जन सामान्य को न समझने वाला आधार है जिसके पीछे न्यूज चैनल दौड़ते है। अधिकांश दर्शक वर्ग भी उस पर विश्वास करता है। 
                           आज सुबह से बिजली फेल हो जाने का समाचार जिस प्रकार न्यूज चैनल दे रहे है। उसमें कुछ भी नयापन नहीं है। नार्थन ग्रिड का फेल होना मेकेनिकल गड़बड़ी है जो न तो सरकार की साजिश है और न ही सरकार उक्त स्थिति के लिए तैयार थी। इसलिए उसके परिणाम का सामना करने के लिए भी सरकार का तुरंत कार्यवाही करने के लिए तैयार न होना लाजमी था। स्थिति का जायजा लेने के बाद ही शासन-प्रशासन कुछ निर्णय लेने की स्थिति में होते है, जिसमें कुछ समय लगना स्वाभाविक है। लेकिन न्यूज चैनल्स उस आवश्यक, न्यूनतम, सामान्य लगने वाले समय को भी शासन-प्रशासन को देने को तैयार नहीं होते है। घटना घटते ही तुरंत खबर चलती है ‘जनता परेशान है और सरकार के द्वारा अभी तक कुछ नहीं किया जा रहा है।’ न्यूज चैनलो के भोपू शासन और प्रशासन की तीव्र गति से आलोचना में लग जाते है। यदि कोई हत्या हो गई है तो उनका यह समाचार ‘अभी तक अपराधी पकड़े नहीं गये है।’ यदि कोई एक्सिडेंट हो जाए तो उनका यह कथन ‘घायलों को अभी तक अस्पताल नहीं पहुचाया गया।’ यदि ट्रेन दुर्घटना हो जाए तो उनका यह कथन ‘कि राहत कार्य अभी तक प्रारंभ नहीं हुआ।’ आसाम जैसे कोई छेड़छाड़ की सामुहिक घटना हो जाए तो ‘अभी तक मात्र एक ही अपराधी पकड़ा गया।’ ऐसे अनेक बहुत से उदाहरण दिये जा सकते है जहां न्यूज चैनल्स ‘अभी तक’ पर ही जोर देते है जिन पर नेताओं के आरोप-प्रत्यारोप बयान भी आने शुरू हो जाते है। ये न्यूज चैनल्स, संवाददाता और एंकरिंग करने वाले शासन और प्रशासन को स्थिति से निपटने के लिए थोड़ा भी समय देने को तत्पर नहीं होते है। क्योंकि वे तेज चैनल कहलाने की होड़ में शासन प्रशासन से भी उतनी ही तेजी की एक्शन की उम्मीद करते है। तुरंत एक्शन होना चाहिए इसकी उम्मीद भी की जानी चाहिए लेकिन एक्शन लेने के लिए आवश्यक सामान्य समय की भी कल्पना चैनल वालो को करके शासन-प्रशासन को देना चाहिए। किसी भी चैनल द्वारा कोई भी घटना दुर्घटना पर उनकी भी कोई सकारात्मक जिम्मेदारी होती है उस पर उन्होने कभी विचार ही नहीं किया। आसाम छेड़छाड़ के प्रकरण में जनता के बीच वीडियो जारी होने एवं अंततः लगभग समस्त अपराधियों के गिरफ्तार होने के बावजूद कोई भी चैनल का कोई भी संवाददाता उन पकड़े गये अपराधियों के मोहल्ले में जाकर उन अपराधियों के पड़ोसियों से इंटरव्यू नहीं लिया। उनसे यह नहीं पूछा कि इतने दिन से ये अपराधी आपके पड़ोस में रहते थे, घुमते-फिरते थे, क्या आपको मालूम नहीं था? आपने पुलिस में सूचना क्यूं नहीं दी? ऐसा करके वे उन नागरिकों को भी अपनी जिम्मेदारी से विमुख होने की गलती का अहसास करा सकते थे। पत्रकारिता में खोजी पत्रकारिता महत्वपूर्ण होती है। इलेक्ट्रानिक चैनल स्टिंग आपरेशन के जरियें यह करते है। लेकिन ये स्टिंग ऑपरेशन भी ब्लेकमैल और कमाई के साधन बन जाते है। इस संबंध में यह आमचर्चा का विषय है कि संबंधित चैनल के स्वार्थ की पूर्ति हो जाये तो स्टिंग सिक्र्रेट बन जाता है अन्यथा वह ब्रेकिंग न्यूज बन जाता है। न्यूज चैनल्स सामान्य रूप से घटना और दुर्घटना के कारणों का पता लगाने का प्रयास क्यों नहीं करते है? जनता, शासन और प्रशासन प्रत्येक के उत्तरदायित्व को बोध कराने का प्रयास सकारात्मक रूप से क्यूं नहीं करते है? यह प्रश्न अक्सर कौंधता है। लोकतंत्र में मीडिया की बहुत ही प्रभावशाली और महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वह स्वयं भी यह बहुत अच्छी तरह जानता है। यदि मीडिया सकारात्मक नहीं है, तो वह निश्चिंत ही देश के विकास के आड़े आएगी। इसलिए मीडिया को सनसनीखेज घटनाओं को दिखाने के साथ अपनी सकारात्मकता भी सिद्ध करना चाहिए ताकि न केवल उनकी विश्वसनीयता, स्वीकारिता बनी रहे बल्कि वे समाज में चाहे वह राजनैतिक हो, सामाजिक हो, धार्मिक हो या अन्य कोई क्षेत्र हो अपनी सकारात्मक भूमिका का निर्वाह कर सके, जिसकी जनता उनसे अपेक्षा करती है और यही उनका देश के प्रति कर्तव्य भी है। 
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

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