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राजीव खण्डेलवाल:
विगत 17 दिनो से चला आ रहा ओंकारेश्वर बांध (इंदिरा सागर बांध) पर घोघल गांव के मात्र 51 ग्राम निवासियों की जल समाधी सत्याग्रह हर तरह से एक ऐतिहासिक छाप छोड़ गया। इंदिरा सागर डेम को 260 मीटर के ऊपर पानी भरने से डूब क्षेत्र में आये 29 गांव हैं जहां के खेत, घर, आबादी और रास्ते पानी से घिर रहे हैं। सम्बंधित गांवो के लोग उनके पुनर्वास की व्यवस्था किये बगैर डेम का जल स्तर बढ़ाने का घोर विरोध कर रहे थे।
वास्तव में आंदोलनो के इतिहास मे जल समाधी का इस तरह का यह शायद पहला आंदोलन हुआ है जहां 17 दिन तक लगातार नदी में आंदोलनकारी लोग लगभग पानी में डूबे रहे जिससे उनके शरीर गलने लग गया थे। ऐसा आंदोलन शायद ही पूर्व में कही देखने को मिला हो। दूसरा इस आंदोलन में कोई भी नामचीन व्यक्ति सीधा नहीं जुड़ा था। यद्यपि इस आंदोलन के मुद्दे पर पूर्व मे नामचीन नेत्री मेघा पाटकर शामिल हुई थी। यह आंदोलन इस मामले में भी ऐतिहासिक रहा कि यह नेतृत्व विहीन था जिसका कोई नेता नही था बल्कि समस्त भागीदारी आंदोलनकर्ता वास्तविक ‘नेता’ बने। हाल के आंदोलनो में चेहरा बने तथाकथित स्वयंसिद्ध बुद्धिजीवियों के चेहरो का भी इस आंदोलन में नितांत अभाव था जो इस आंदोलन को वास्तव में शुद्ध रूप से भारत के ग्रामींण परिवेश को पहचान को स्थापित करता है। वृद्ध ग्रामीण महिलाओं की बराबरी की भूंमिका ने भी इस आंदोलन को ऐतिहासिक बनाया। इस आंदोलन ने प्रथम बार यह सिद्ध किया कि राजनैतिक प्रभाव पैदा किये बिना भी आंदोलन सफल हो सकता है। दूसरे शब्दों में यह प्रथम सफल पूर्णतः गैरराजनैतिक आंदोलन सिद्ध हुआ।
मात्र 51 ग्रामवासियो के आंदोलन ने इतना दृढ़-नैतिक दबाव सरकार पर बना कि सरकार को आंदोलनकारियों की लगभग सभी मांगे अंततः माननी पड़ी जिसमें सबसे मुख्य मांग बांध की उंचाई 189 मीटर तक सीमित करना भी शामिल है। बांध की उंचाई के लिए मेघा पाटकर काफी समय से लम्बी लड़ाई लड़ रही है। अन्ना और बाबा के बड़े जन-आंदोलन के अंततः परिणाम रहित और दिशा भटकने वाले आंदोलन (गैर राजनैतिक से राजनैतिक) होने के बाद यह महसूस किया जाने लगा था कि इस देश में भविष्य में शायद ही कोई जन-आंदोलन उठ पाये। जनता की मूलभूत आवश्यक समस्याएं हल करने का वैधानिक एवं संवैधानिक दायित्व चुनी हुई सरकार का होता है जिसे सरकार जब अनसुनी कर देती है तब उसका कोई निराकरण शायद ही कोई आंदोलन से हो पाए ऐसी धारणा अन्ना आंदोलन के असफल होने के कारण बलवती होती जा रही थी। इस ‘जल आंदोलन’ ने यह उत्पन्न होते मिथक को गलत सिद्ध कर दिया है कि आंदोलन के लिए बहुत ‘मुंडियों’ की आवश्यकता होती है। वास्तव में कुछ ‘मुंडिया’ ही यदि निस्वार्थ बिना किसी प्रचार के लिए आडम्बरहीन होकर अपने कानूनी और सामाजिक हक के लिए लड़ते है तो अंततः वे अपनी ओर वृहत समाज, मीडिया और सरकार का ध्यान सफलता पूर्वक खीच लेते है जिसके परिणाम भी अंततः सकारात्मक आते है जो उक्त आंदोलन ने सिद्ध किया है। इसलिए ऐसे दृढ़ निश्चयी अपने शरीर को गलाकर कुछ प्राप्ति करने के आशा में लगे निमाड़ की भूमिं के उन जाबाज सत्याग्राहियों को मेरा साष्टांग नमन्। ऐसे सत्याग्राहियों का राष्ट्रीय सम्मान भी किया जाना चाहिए।
देश ही नहीं, समस्त जन आंदोलनकर्ता जल सत्यागाहियो से न केवल प्रेरणा ले बल्कि भविष्य में यदि वे भी देश की, समाज की समस्याओं के लिए आंदोलित होंगे तो उन्हे भी वैसी ही सफलता प्राप्त होगी यह विश्वास करें बशर्ते वही दृढ़, निस्वार्थ, प्रचार रहित, दृढ़ इच्छा शक्ति हो?
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