राजीव खण्डेलवाल:
अंततः 44 वर्ष से अधिक समय से लंबित लोकपाल बिल लोकसभा मंे पारित हो गया। ‘अन्ना’ के ‘अनशन’ के ‘दबाव’ व दिल्ली में ‘आप’ की अप्रत्याशित जीत के चलते जिस तरह से बिल राज्यसभा में प्रस्तुत कर कल पारित किया गया था। उससे इस बात की सम्भावना पूरी बलवती हो गयी थी कि अब लोकसभा में पारित होकर निकट भविष्य में राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होकर लोकपाल कानून का असली जामा पहन लेगा। लोकसभा में बिल पारित होते ही एक तरफ जैसे ही अन्ना समर्थकों ने खुशी जाहिर की और अन्ना ने राहुल गांधी सहित सभी पार्टियों को (समाजवादी पार्टी को छोड़कर) बधाई भेजी वह प्रतिक्रिया असहमझ थी। लेकिन इसके विपरीत केजरीवाल टीम के कुमार विश्वास ने इसे जिस तरह आज का काला दिन कहा यह भी कम आश्चर्यजनक कथन नहीं था। कुछ समय पूर्व तक एक साथ खड़े रहे अन्ना व केजरीवाल टीम के व्यक्ति आज विपरीत दिशा में खड़े होकर उनके द्वारा उपरोक्तानुसार कहा गया कथन राजनीति के उस अर्द्धसत्य को पूनः स्थापित करता है जिसमें रहने वाला हर व्यक्ति इससे इनकार करता है।
यहां न तो अन्ना पूरी तरह सही है न ही वे अपने प्रतिक्रिया में सही थे और न ही कुमार विश्वास या केजरीवाल की टीम का लोकपाल के बिल के सम्बंध में की गई टिप्पणियां। लेकिन वास्तविक राजनीति का यही अर्द्धसत्य है। यदि पिछले वर्ष उस दिन को याद किया जाये जिस दिन लोकसभा में सर्वसम्मति से ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित कर प्रधानमंत्री ने चिट्ठी रामलीला मैदान में अनशन कर रहे अन्ना हजारे के पास भेजकर यह अनुरोध किया था कि वे संसद में व्यक्त की गई भावनाओं के अनुरूप अपना अनशन समाप्त करें। इस पर विचार और विश्वास कर जो तीन मुद्दे अन्ना ने उठाये थे उनको आधार मानकर लोकसभा ने सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया था, पर विश्वास कर अपना अनशन तोड़ा था। उन तीन मुद्दो का इस पारित लोकपाल बिल में न तो कोई हवाला है और न ही उस दिशा में जाने का कोई संकेत है। इसके बावजूद यदि अन्ना ने इस बिल का स्वागत किया है तो उसका एकमात्र कारण यही है कि 44 वर्ष से जो लोकपाल इस देश का कानून नहीं बन पाया वह कम से कम इस देश का कानून तो बन ही गया है। जिस प्रकार इस देश में 100 से अधिक संविधान संशोधन हो चुके है और विभिन्न कानूनों में संशोधन होते रहते है। उसी तरह इस बिल में भी भविष्य में सुधार सक्रीय रहकर व आंदोलन व अन्य तरह के दबाव के रहते उसकी संभावना बनी रहेगी। ठीक इसी प्रकार केजरीवाल की टीम कुमार विश्वास का इसे काला दिन कहना भी पूर्णतः सही नहीं है। उनका यह कथन तो सही है कि यह अन्ना द्वारा प्रस्तुत जनलोकपाल से मेल नहीं खाता लेकिन लोकसभा में पारित होने के बाद राज्यसभा में जब विचार हेतु प्रस्तुत किया गया। तब ‘‘संसद की प्रवर समिति’’ द्वारा दी गई 16 सिफारिशों में से 15 सिफारिशों को केन्द्रीय सरकार के द्वारा स्वीकार किया जाकर जब राज्यसभा में यह बिल रखा गया तो निश्चित रूप से यह बिल जनलोकपाल न होने के बावजूद जनलोकपाल के काफी नजदीक था। कुमार विश्वास को इसे यह कहकर स्वीकार करना चाहिए था कि शेष मुद्दों पर जनजागरण और आंदोलन करके अन्ना के अधूरे कानून को पूरा करके जनलोकपाल बिल पारित कराया जाएगा। हमारे देश का यही सबसे बड़ा गुण है कि यहां प्रत्येक बात उपरोक्तानुसार ‘अर्द्धसत्य’ होते हुए भी सम्बंधित पक्ष सिर्फ स्वयं को ही सत्य होने का दावा करते है। यह अर्द्धसत्य कब सत्य की दिशा की ओर आगे बढ़ेगा, भारतीय राजनीति का यही एक प्रश्नवाचक चिन्ह है? जिसका जवाब भविष्य ही दे सकता है।
राजनीति का उपरोक्त अर्द्धसत्य सिर्फ उपरोक्त घटना से ही परिदर्शित नहीं होता है बल्कि दिल्ली में हुए आम चुनाव में आप पार्टी जिस प्रकार से पल-पल अपना रूख बदल रही है इससे भी राजनीति का यह ‘अर्द्धसत्य’ सत्य सिद्ध होता है। पिछले कुछ वर्षो के राजनैतिक पटल में कांग्रेस ने दिल्ली में सरकार बनाने के मुद्दे पर जनता के स्वीकार योग्य ऐसा पासा फेंका जिसकी उम्मीद ‘आप’ को जरा सी भी नही थी। ‘आप’ की 18 मांगो पर कांग्रेस के जवाब का तड़का क्रिकेट में गुगली फेंकने के समान था। जो आम लोगो के लिये तो अर्द्धसत्य है लेकिन दोनों पार्टी इस गुगली को अपनी विजय मान रही है। इसके जवाब में अरविंद केजरीवाल ने जोश में होश खोते हुए सरकार बनाने के मुद्दे पर यह कह कि इस मुद्दे पर जनता के बीच जाकर पूछना चाहते है, तब उन्हे इस बात का भी स्पष्टीकरण देना होगा कि एक बार जनता ने पॉच साल ‘आप’ को चुन लिये जाने के बाद आप किन-किन मुद्दो पर जनता के बीच जायेंगे? किन-किन मुद्दो को विधायक दल की बैठको के बीच में निपटायेंगे? सरकार बनाने पर किन-किन मुद्दो पर मुख्यमंत्री निर्णय लेंगे? किन-किन मुद्दो को आप पार्टी के संरक्षक के रूप में निपटायेंगे? यह भी स्पष्ट करना होगा। इस तरह क्या ‘आप’ प्रजातंत्र को मजाक की स्थिति में तो नहीं पहुंचा देंगे? या ‘आप’ यह भी कहने का भी साहस करेंगे की आप पार्टी का विधायक दल का नेता भी जनता ही चुने, न की चुने हुए विधायक। क्योंकि केजरीवाल के मन में बसे हुए लोकतंत्र में यह एक आदर्श व्यवस्था होगी जब विधायकगण केजरीवाल के दबाव के चलते अपना नेता न चुने। यह अवसर केजरीवाल ने दिल्ली की जनता को उसी प्रकार देना चाहिए जिस प्रकार सरकार बनाने लिये वे जनता के बीच ‘‘जाते हुए’’ दिखना चाहते है। यह भी राजनीति का अर्द्धसत्य ही हैं। यह बात समझ से परे है कि राजनीति का हर व्यक्ति राजनीति के इस अर्द्धसत्य को स्वीकार करके सत्य की ओर क्यों नहीं बढ़ना चाहता है? वास्तव में जिस दिन हमारे दिल में यह भावना दृढ़ रूप से आ जाएगी कि हम भी राजा हरिशचंद्र के समान सत्य की ओर बढ़ने का प्रयास करेंगे तभी लोग अर्द्धसत्य को राजनीति का मात्र ‘‘अर्द्धसत्य’’ ही मानकर उस यथार्थ को उसी रूप में स्वीकार कर सत्य की ओर चलेंगे तो ही देश का कल्याण होगा क्योंकि तभी राजनीति का भी कल्याण होगा। क्योंकि दूर्भाग्य से यह देश राजनीति से चलता है।
यहां न तो अन्ना पूरी तरह सही है न ही वे अपने प्रतिक्रिया में सही थे और न ही कुमार विश्वास या केजरीवाल की टीम का लोकपाल के बिल के सम्बंध में की गई टिप्पणियां। लेकिन वास्तविक राजनीति का यही अर्द्धसत्य है। यदि पिछले वर्ष उस दिन को याद किया जाये जिस दिन लोकसभा में सर्वसम्मति से ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित कर प्रधानमंत्री ने चिट्ठी रामलीला मैदान में अनशन कर रहे अन्ना हजारे के पास भेजकर यह अनुरोध किया था कि वे संसद में व्यक्त की गई भावनाओं के अनुरूप अपना अनशन समाप्त करें। इस पर विचार और विश्वास कर जो तीन मुद्दे अन्ना ने उठाये थे उनको आधार मानकर लोकसभा ने सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया था, पर विश्वास कर अपना अनशन तोड़ा था। उन तीन मुद्दो का इस पारित लोकपाल बिल में न तो कोई हवाला है और न ही उस दिशा में जाने का कोई संकेत है। इसके बावजूद यदि अन्ना ने इस बिल का स्वागत किया है तो उसका एकमात्र कारण यही है कि 44 वर्ष से जो लोकपाल इस देश का कानून नहीं बन पाया वह कम से कम इस देश का कानून तो बन ही गया है। जिस प्रकार इस देश में 100 से अधिक संविधान संशोधन हो चुके है और विभिन्न कानूनों में संशोधन होते रहते है। उसी तरह इस बिल में भी भविष्य में सुधार सक्रीय रहकर व आंदोलन व अन्य तरह के दबाव के रहते उसकी संभावना बनी रहेगी। ठीक इसी प्रकार केजरीवाल की टीम कुमार विश्वास का इसे काला दिन कहना भी पूर्णतः सही नहीं है। उनका यह कथन तो सही है कि यह अन्ना द्वारा प्रस्तुत जनलोकपाल से मेल नहीं खाता लेकिन लोकसभा में पारित होने के बाद राज्यसभा में जब विचार हेतु प्रस्तुत किया गया। तब ‘‘संसद की प्रवर समिति’’ द्वारा दी गई 16 सिफारिशों में से 15 सिफारिशों को केन्द्रीय सरकार के द्वारा स्वीकार किया जाकर जब राज्यसभा में यह बिल रखा गया तो निश्चित रूप से यह बिल जनलोकपाल न होने के बावजूद जनलोकपाल के काफी नजदीक था। कुमार विश्वास को इसे यह कहकर स्वीकार करना चाहिए था कि शेष मुद्दों पर जनजागरण और आंदोलन करके अन्ना के अधूरे कानून को पूरा करके जनलोकपाल बिल पारित कराया जाएगा। हमारे देश का यही सबसे बड़ा गुण है कि यहां प्रत्येक बात उपरोक्तानुसार ‘अर्द्धसत्य’ होते हुए भी सम्बंधित पक्ष सिर्फ स्वयं को ही सत्य होने का दावा करते है। यह अर्द्धसत्य कब सत्य की दिशा की ओर आगे बढ़ेगा, भारतीय राजनीति का यही एक प्रश्नवाचक चिन्ह है? जिसका जवाब भविष्य ही दे सकता है।
राजनीति का उपरोक्त अर्द्धसत्य सिर्फ उपरोक्त घटना से ही परिदर्शित नहीं होता है बल्कि दिल्ली में हुए आम चुनाव में आप पार्टी जिस प्रकार से पल-पल अपना रूख बदल रही है इससे भी राजनीति का यह ‘अर्द्धसत्य’ सत्य सिद्ध होता है। पिछले कुछ वर्षो के राजनैतिक पटल में कांग्रेस ने दिल्ली में सरकार बनाने के मुद्दे पर जनता के स्वीकार योग्य ऐसा पासा फेंका जिसकी उम्मीद ‘आप’ को जरा सी भी नही थी। ‘आप’ की 18 मांगो पर कांग्रेस के जवाब का तड़का क्रिकेट में गुगली फेंकने के समान था। जो आम लोगो के लिये तो अर्द्धसत्य है लेकिन दोनों पार्टी इस गुगली को अपनी विजय मान रही है। इसके जवाब में अरविंद केजरीवाल ने जोश में होश खोते हुए सरकार बनाने के मुद्दे पर यह कह कि इस मुद्दे पर जनता के बीच जाकर पूछना चाहते है, तब उन्हे इस बात का भी स्पष्टीकरण देना होगा कि एक बार जनता ने पॉच साल ‘आप’ को चुन लिये जाने के बाद आप किन-किन मुद्दो पर जनता के बीच जायेंगे? किन-किन मुद्दो को विधायक दल की बैठको के बीच में निपटायेंगे? सरकार बनाने पर किन-किन मुद्दो पर मुख्यमंत्री निर्णय लेंगे? किन-किन मुद्दो को आप पार्टी के संरक्षक के रूप में निपटायेंगे? यह भी स्पष्ट करना होगा। इस तरह क्या ‘आप’ प्रजातंत्र को मजाक की स्थिति में तो नहीं पहुंचा देंगे? या ‘आप’ यह भी कहने का भी साहस करेंगे की आप पार्टी का विधायक दल का नेता भी जनता ही चुने, न की चुने हुए विधायक। क्योंकि केजरीवाल के मन में बसे हुए लोकतंत्र में यह एक आदर्श व्यवस्था होगी जब विधायकगण केजरीवाल के दबाव के चलते अपना नेता न चुने। यह अवसर केजरीवाल ने दिल्ली की जनता को उसी प्रकार देना चाहिए जिस प्रकार सरकार बनाने लिये वे जनता के बीच ‘‘जाते हुए’’ दिखना चाहते है। यह भी राजनीति का अर्द्धसत्य ही हैं। यह बात समझ से परे है कि राजनीति का हर व्यक्ति राजनीति के इस अर्द्धसत्य को स्वीकार करके सत्य की ओर क्यों नहीं बढ़ना चाहता है? वास्तव में जिस दिन हमारे दिल में यह भावना दृढ़ रूप से आ जाएगी कि हम भी राजा हरिशचंद्र के समान सत्य की ओर बढ़ने का प्रयास करेंगे तभी लोग अर्द्धसत्य को राजनीति का मात्र ‘‘अर्द्धसत्य’’ ही मानकर उस यथार्थ को उसी रूप में स्वीकार कर सत्य की ओर चलेंगे तो ही देश का कल्याण होगा क्योंकि तभी राजनीति का भी कल्याण होगा। क्योंकि दूर्भाग्य से यह देश राजनीति से चलता है।
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)
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