(आंदोलन से अराजकता तक!!)
इस समय सभी जगह ''आप'' ही ''आप'' की चर्चा है। 'आप' सर्वाधिक मीडिया में छाये हुये है क्योकि 'आप' अरविंद केजरीवाल है। वैसे भी हमारे सम्य समाज में शिष्टाचार में पहले ''आप'' ही कहा जाता है। ''पहले आप'' ''पहले आप'' के चक्कर में आदमी स्वयं भी कई बार चाह कर भी कुछ नही कर पाता है। लेकिन इस समय केजरीवाल ''आ(प)(पे)'' से बाहर होकर 'मै'' की ओर चल पडे है। ''आम'' आदमी पार्टी का गठन होने के बाद से ''आप'' अब एक आम आदमी का सूचक बन गया है। सामान्य शिष्टाचार मे ''आप'' एक मृदु भाषी, औपचारिक शब्द माना जाता है। लेकिन शायद केजरीवाल अपने कडक स्वभाव के चलते व औपचारिकता पर विश्वास न करने के कारण ''आप'' की जगह 'मै' की ओर जा रहे है। उनके दो दिनो से लगातार आ रहे सम्बोधन बयानो में जिस तरह से शब्दो के बाण छोडे जा रहे है उससे तो यही प्रतीत होता है कि वे अब बिल्कुल भी औपचारिक नही रह गये है। यद्यपि आज भी वे अपने को ''आप'' का सबसे बडा स्तम्भ मानते है। लेकिन प्रतिदिन ही नही, बल्कि क्षण क्षण में तेजी से पल पल उनके बदलते हुए कदम और स्टेंड सिर्फ एक बात की ओर ही इंगित करते है वह यह कि वे ''मै'' की ओर जा रहे है। आज कल उनके कथन में ''मै'' का वह पूर्ण घमंड दिख रहा है जहां वे सिर्फ और सिर्फ अपने कथन और कृत्य को ही सही ही नही, बल्कि सर्वश्रेष्ठ मान रहे है। दूसरे अन्य समस्त व्यक्ति,संस्था,राजनैतिक पार्टी को उन्ही मुद्दो पर पूर्णतः दंभपूर्वक खारिज कर रहे है। उनकी सिर्फ मैं (स्वयं) की स्वीकारिता को मानने के हठ से मुझे इस समय कांग्रेस के तत्कालीन कोषाध्यक्ष सीताराम केसरी के संबंध मे कहा गया यह कथन बार बार याद आ रहा है कि ''न खाता न बही केसरी जो कहे वही सही ''। यह सब इसलिए होते जा रहा है कि वे ''मै'' बनते जा रहेे है। इसीलिए शायद ''मै'' हंू आम आदमी की टोपी की जगह आज केजरीवाल के लिये 'मै' हू एक मात्र सही आदमी के खिताब की टोपी लगाया जाना ज्यादा उचित होगा।
बात इस समय पुलिस महकमे की कार्यप्रणाली और भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर है जिस पर यह पूरा बखेडा उठा हुआ है। पुलिस महकमा केवल दिल्ली मे ही नही बल्कि पूरे देश में अन्य किसी महकमे की तुलना मे ज्यादा भ्रष्टाचारी है। यह बात कहने की आवश्यकता न तो केजरीवाल को है और न ही किसी को सिद्ध करने की जरूरत है। जे.पी. आंदोलन, वीपी सिह के आंदोलन, असम का 'आस'ू आंदोलन इत्यादि भ्रष्टाचार और व्यवस्था विरोधी आंदोलन की सफलता के बावजूद पुलिस प्रशासन मे कोई मूलभूत सुधार आया हो, न तो ऐसा कोई आभास होता है, और न कोई दावा करता है। फिर दिल्ली सरकार के अधीन पुलिस विभाग के आ जाने से क्या वह भ्रष्टाचार विहीन हो जायेगी ? यह सोचना मूर्खो का काम होगा। गणतंत्र भारत के गणतंत्र दिवस की पूर्व सप्ताह पर चार पुलिस कर्मचारियो के खिलाफ केजरीवाल की कार्यवाही करने की केंद्र सरकार से मांग जिसके लिये वे 10 दिन के लिये रेल भवन के पास धरने पर बैठे है क्या राजनैतिक रूप से उचित व संवैधानिक रूप से नैतिक है ? केन्द्र सरकार द्वारा कार्यवाही करने या पुलिसियो को संस्पेड करने पर क्या पुलिस प्रशासन भ्रष्टाचार मुक्त हो जायेगा? आज सबसे बडा प्रश्न यही है? केजरीवाल ने उन चारो पुलिस कर्मियो के खिलाफ गृह मंत्री द्वारा कार्यवाही न करने के मुद्दे को इन तमाम आरोपो से जोड दिया है। यही पर केजरीवाल ''आम और ''आप'' से हटकर ''मै'' और आम राजनैतिक हो गये है। जिस तरह चार पुलिस कर्मचारियो के खिलाफ कार्यवाही की बात पर केजरीवाल मुद्दे ही मुददे जोडते जा रहे है चाहे फिर संविधान द्वारा प्रदत जीने के अधिकार की बात हो ,सत्याग्रह धरने की बात हो, पुलिस प्रशासन के भ्रष्टाचार की बात हो,जांच के बाद कार्यवाही करने पर घटना की जांच से क्या होगा की बात हो, र्इ्रमानदार पुलिस अफसरो को छुटटी लेकर आंदोलन में शामिल होने का आहवान की बात हो जनता को धरना स्थल पर आहवान करने की बात हो, 26जनवरी गणतंत्र दिवस परेड नहीे हो पायेगी, आदि अनेक वे तथ्य,जो केजरीवाल अपने भाषण में पुलिस प्रशासन के खिलाफ उठा रहे है। ये समस्त मुद्दे जो स्वतंत्र रूप मे संवैधानिक, राजनैतिक व नैतिक मुद्दे है, को पुलिस के विरूद्ध कार्यवाही के मुद्दे के साथ घालमेल कर केजरीवाल वास्तव में राजनीति को एक घातक दिशा की ओर ले जा रहे है। उन्हे उस सिद्धांत को समझना होगा जहां से उनका जन्म हुआ था जब अन्ना आंदोलन के दौरान उनका यह कथन था एक बार चुनकर आ जाने से जनप्रतिनिधी सर्वश्रेष्ठ नही हो जाते है बल्कि हमेशा वे जनता के प्रति उत्तरदायी रहते है। वे जनता के नौकर होते है। अन्ततः जनता ही श्रेष्ठ होती है। लोहिया के इस नारे के साथ कि जिंदा कौमंे पांच साल चुप नही बैठ सकती, उसे पांच साल चुप बैठने के लिए कहा नही जा सकता है। क्या यह सिद्धांत केजरीवाल स्वयं पर लागू नही करेगें? मै अभी भी केजरीवाल को वर्तमान मे उपलब्ध विकल्पो में सर्वश्रेष्ठ मानता हंू। लेकिन यदि विकल्प ''मैं'' की भावना, से ग्रसित होकर गल्तियों पर गल्तियां कर असफल होने लगेगा तो हमे परिवर्तन के लिए और किसी और 'वाल' की आवश्यकता पडेगी लेकिन हमारे पास आज तुरंत एक मजबूत दीवाल ( वाल-केजरी वाल) उपलब्ध नही है। केजरीवाल और मनीष सिसोदिया को इस बात को गंभीरता से सोचना होगा कि वे हर मुद्दो को राजनैतिक संवैधानिक या कानूनी विवाद का रूप न दे जैसा कि उनका यह कथन कि गृह मंत्री दिल्ली के चुने हुए मंत्री नही है और वे शिंदे के क्षेत्र मेे अव्यवस्था फैलाने आये है से परिलक्षित होता है। जिस संविधान का हवाला वे बार-बार देते है उसी संविधान के तहत सुशीलकुमार शिंदे भारतीय संसद के एक निर्वाचित सांसद चुने गये है। इस आधार पर ही केंन्द्रीय मंत्री मंडल मे उन्हे गृहमंत्री बनाया गया है जिसके तहत दिल्ली सहित वे पूरे देश के गृह मंत्री है। खासकर दिल्ली प्रदेश की सीधे कमान उनके हाथ में है क्योकि दिल्ली में कानून व सुरक्षा व्यवस्था का भार दिल्ली सरकार के पास न होकर उपराज्यपाल के माध्यम से केन्द्रीय सरकार के पास है जिसके अधिकार की मांग के लिये उनके द्वारा आंदोलन नही किया है। जो उक्त मांगो के लिये उठाये गये कदम के पूर्व किया जाना आवश्यक था। केजरीवाल का यह कथन कि धरना स्थल का चुनाव दिल्ली के मुख्यमंत्री तय करेंगे यह क्या शिंदे बतायेगा? शिंदे कहा बैठेगा वह मै बतलाउंगा ? लोकतंत्र के लिए बहुत ही खतरनाक अराजक सोच है। क्या कपिल सिब्बल व श्रीमति कृष्णा तीरथ जो दिल्ली से चुने हुये केन्द्रीय मंत्री है को छोडकर बाकी सब केन्द्रीय मंत्रियों का शासन दिल्ली पर चलाने के लिये उन्हे क्या दिल्ली से चुनाव लड़ना पड़ेगा ? क्या यही सिद्धांत (तकिया कलाम) दिल्ली की नगरपालिका के महापौरो द्वारा किसी जनहित के मुद्दे पर अरविंद केजरीवाल के लिये कहेगे तो क्या होगा ?केजरीवाल संवैधानिक व्यवस्था भंग न करे। जब एक चुनी हुई सरकार दिल्ली मे धरने पर बैठती है तो उससे निश्चित रूप से वह संवैधानिक संकट पैदा होता है जिसकी कल्पना हमारा संविधान नही करता है। स्वतंत्र भारत के गणतंत्र (लोकतंत्र) में सरकारे सुशासन चलाने के लिए चुनी जाती है आंदोलन या धरने पर बैठने के लिए नहीं। इससे बचने के लिये केजरीवाल जब बातचीत के समस्त हथियारो केा अपनाने के बाद असफल हो गये थे, तो उनके पास एक विकल्प यह भी था कि वे पूरी सरकार को धरने पर बैठालने के बजाय आम आदमी पार्टी के कार्यकार्ताओं के बैठालते तो ज्यादा उचित व स्वाभाविक होता। वैसे ही जिस कांग्रेस ने इस सरकार को बनाने की आधारशिला दी उसी कांग्रेस ने विधानसभा सत्र के दूसरे दिन से ही सरकार का विभिन्न मुददो पर विरोध कर राजनीति शुरू कर दी थी।
वास्तव में ''जनहित'' के मुद्दो पर क्या यदि दिल्ली सरकार की बात केन्द्रीय (सुपर) सरकार नहीं सुन रही है तो नैतिक रूप से संवैधानिक सरकार का दायित्व यही बनता है कि वह सरकार के दायरे से बाहर आकर अर्थात इस्तीफा देकर जनता का सरोकार बनकर जन आंदोलन, धरना करें तभी देश में वास्तविक क्रांति का आगाज होगा जिसकी अपेक्षा 'आम' लोगो के मन में उत्पन्न हो रही है।यहां यह उल्लेखनीय है कि पूर्व में भी कई बार केन्द्रीय व राज्य शासन के मंत्रियों ने मंत्रीमंडल से इस्तीफा देकर अपने मुद्दो को जनता के सामने रखा जो वह सरकार में रहकर नैतिक रूप से नहीं कर पा रहे थे। केन्द्रीय शासन के खिलाफ पूर्व मे भी राजकीय सरकारो ने विभिन्न मुद्दो पर भेदभाव करने के कारण हडताल,धरना प्रर्दशन किया था।(बिहार व मध्यप्रदेश की सरकार) लेकिन वे मात्र सांकेतिक थे। जैसे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री एक दिन के सांकेतिक भूख हडताल पर बैठे थे।
अंत मे मुझे सलमान खान की प्रसिद्ध फिल्म का नाम याद आ रहा है '' हम आप के है कौन'' शायद यह उद्हरण वर्तमान परिस्थिति में समयोचित होगा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें