जस्टिज मारकंडेय काटजू के खुलासे से उठते यक्ष प्रश्न?
प्रेस काउंसिल आफ इंडिया के चेयरमेन व उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मारकंडेय काटजू ने हाल ही मे मद्रास हाइकेार्ट मे एक जज को पदेान्नत कर अतिरिक्त न्यायाधीश बनाने मे व उनके सेवा कार्यकाल को प्रथम एक वर्ष व बाद में पुनः दो वर्ष बढाने व अन्ततः स्थायी करने के मामले मे जो खुलासा किया है, उससे देश की न्यायपालिका एवं कार्यपालिका के उच्चतम स्तर पर उंगली उठने लगी है।
भारत विश्व का सबसे बडा सफल लोकतांत्रिक देश है। यह लोकतंत्र, स्वतंत्र न्यायपालिका, कार्यपलिका, विधायिका, एवं प्रेस के चार पहियों पर टिका है। देश के इतिहास मे यह शायद पहली बार हुआ है जब न्यायपालिका में पदस्थ रहे एक उच्च व्यक्ति ने लोकतंत्र के एक मजबूत स्तम्भ ''मीडिया'' के माध्यम से लोकतंत्र के अन्य तीनो महत्वपूर्ण स्तम्भ विधायिका, कार्यपालिका, एवं न्यायपालिका की स्वतंत्रता व निष्पक्षता पर उपरोक्त खुलासा कर एक प्रश्न चिन्ह लगा दिया है, जो लोकतंत्र के लिये कहीं घातक सिद्ध न हो जाये ? चिन्ता का विषय यही है।
एक भ्रष्ट आचरण से आरोपित जज अशोक कुमार जिनके खिलाफ केन्द्रीय जॉंच ऐजेन्सी आई.बी. ने भ्रष्टाचार के सबूत दिये हो, उनको पदोन्नति देकर, न केवल मद्रास हाइकोर्ट का अतिरिक्त जज बनाया, बल्कि उन्हे एक्स्टेन्शन देकर स्थायी जज भी बना दिया गया। इसमें तत्कालीन अवधि से संबंधित देश के उच्चतम न्यायालय के तीन तत्कालीन मुख्य न्यायाधीशो सहित प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को जस्टिस काटजू ने आरोपित किया है। पी. एम. ओ. द्वारा कुछ दलित सांसदो द्वारा लिखे गये पत्र के आधार पर उक्त जज के बारे मे कार्यवाही करने बाबत कानून मंत्री को लिखा गया पत्र, शायद जस्टिस काटजू के आरोप की पुष्टि ही करता है।
अब यहां सबसे बडा प्रश्न जो उत्पन्न होता है वह यह कि क्या इस खुलासे से उच्चतम न्यायालय के सर्वोच्च व्यक्ति की स्वतंत्रता व निष्पक्षता पर आंच नही आ गई है ? साथ ही विधायिका के सर्वोच्च प्रभावशाली व्यक्ति तत्कालीन प्रधानमंत्री की प्रसिद्ध ईमानदारी भी शक के घेरे मे नही आ गई है ?
उच्चतम न्यायालय का ंपांच सदस्यीय कॉलेजियम जिसके प्रमुख मुखिया मुख्य न्यायाधीश होते है तथा उच्च एवं उच्चतम न्यायलय में न्यायाधीशो की नियुक्ति इस कॉलेजियम द्वारा ही की जाती है। ऐसी स्थिति मे एक आरोपित भ्रष्ट जज जिसके खिलाफ केन्द्रीय खुफिया एजेन्सी आई.बी. ने सबूत प्रस्तुत किये हों, को इस आधार पर कि वह दलित वर्ग से है व तमिलनाडू की तत्कालीन सत्तारूढ पार्टी की ''इच्छा'' का प्रतीक है, उनके खिलाफ कोई कार्यवाही करने के बजाय प्रधानमंत्री के दबाव मे आकर उन्हे पहले एक वर्ष तथा पुनः देा वर्ष एक्स्टेंशन देने के दोषी क्या अन्ततः उच्चतम न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश नही माने जावेगे? जैसा कि जस्टिस काटजू ने आरोपित किया है।
यदि जस्टिस काटजू की बात सही है तो उनके खुलासे से देश के आम नागरिक के बीच क्या यह संदेश नहीं जायेगा कि कार्यपालिका व विधायिका, उच्चतम न्यायालय पर अपने प्रभाव का दबाव डालकर, न्यायालय के किसी भी क्षेत्र को किसी भी सीमा तक प्रभावित कर सकती है ? इस आशंका के बादल का छटनॉ न्यायपालिका की निष्पक्षता बने रहने के लिए अत्यंत आवश्यक है।
बात तत्कालीन प्रधानमंत्री डां. मनमोहन सिंह की ईमानदारी की भी कर ली जावे। ईमानदारी का यह मतलब कदापि नही है कि आर्थिक लेनदेन को ही भ्रष्टाचार कहा जाय। जो व्यक्ति कानून,अपने सिद्धांतो, नैतिक मूल्यो, नियम व प्रचलित नियमो (कस्टमरी कानून) के विरूद्ध कार्य करता है, वह भी भ्रष्ट आचरण का अपराधी है। उक्त मामले मे डां. मनमोहन सिंह, ने अपने राजनैतिक हित साधने हेतु (शायद सरकार बचाने के लिए डी. एम. क.े के दबाव में आकर) एक आरोपित भ्रष्ट जज, जिसके खिलाफ आई. बी. के द्वारा भष्ट्राचार के सबूत प्रस्तुत किये जाने के बावजूद कानून मंत्री को उस व्यक्ति के हितार्थ कार्यवाही करने के लिए प्रधानमंत्री कार्यलय द्वारा पत्र लिखने से निश्चित रूप से मनमोहन सिंह भी व्यक्तिगत दबाव द्वारा गलत फायदा देने के आरोप से मुक्त नही हो सकते है।
देश की न्यायपालिका व कार्यपालिका के सर्वोच्च स्तर पर यदि उनकी स्वतंत्रता व निष्पक्षता, संदिग्ध है? तो देश की सम्पूर्ण व्यवस्था का क्या हाल होगा, इसकी कल्पना मात्र ही की जा सकती है।
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)
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