आखिर महँगाई कब तक? थमेगी?कम होगी?खत्म होगी?
हाल मे हुये देश में आम चुनाव में ''यूपीए'' सरकार के विरूद्ध अन्य मुददो के साथ प्रमुख मुद्दा 'महँगाई' का ही था। इससे परेशान होकर ही नरेन्द्र मोदी के उक्त मुद्दे पर आकर्षित करने वाले आश्वासन देने वाली भाजपा की मोह माया मे फंसकर जनता ने विराट रूप से बढती हुई महँगाई की विराट समस्या से निजात पाने हेतू विराट बहुमत की प्रथम बार गैर कांग्रेसी सरकार को सत्तारूढ कर ठोस कदम उठाया। लेकिन जनता क्या अपने को ठगा हुआ तो महसूस नही कर रही है़ ? क्योकि देश की जनता तत्काल परिणाम चाहती है। 'महँगाई'के मुददे पर 'यूपीए' सरकार ने भी 100 दिन के अन्दर महँगाई को नियंत्रित करने की बात कही थी। इसके पूर्व इंदिरा गांधी भी 'गरीबी हटाओ' के नारे से सत्ता पर आरुढ़ हो चूकी थी। लेकिन क्या हुआ ?
आखिर यह महंगाई 'कब' और 'कैसे' थमेगी, कम होगी। इसके लिए आम जनता की नजर में यह जानना अत्यंत आवश्यक है कि आखिर 'महँगाई' कहते किसे है? महँगाई का शाब्दिक अर्थ सामान्य बोलचाल की भाषा मे महँगा बिकने वाला माल या महंगी मिलने वाली सर्विस हो सकती है। यदि एक लाख की कोई चीज बाजार में बिकती है और उसको खरीदने की हमारी क्षमता एक लाख बीस हजार रूपये की है, तो क्या यह 'महँगाई' कहलायेगी। लेकिन इसके विपरीत यदि कोई चीज बाजार में 100रूपये की है जिसके लिये हमारे पास मात्र 50 रूपये है तो क्या वह महँगाई कहलायेगी, विवेचना का प्रश्न यही है। आर्थिक दृष्टिकोण से महँगाई का संबंध आपके क्रय करने की क्षमता से है न कि माल के महंगे होने से है। क्येाकि यदि आपकी क्रय क्षमता महंगे माल को खरीदने के लिये पर्याप्त है तो उसे 'महँगाई का वह डंक नही महसूस होगा व ''महंगाई डायन खाय जात है'' (फिल्म पीपली लाइव) का गीत नही गुनगुनाना पडेगा। लेकिन हमारे देश मे क्या वास्तव मे यही स्थिति है? शायद नही। वास्तव मे महँगाई का असर कम करने के लिये देा तरफा रास्ते अपनाये जाना चाहिए। एक व्यक्ति की क्रय क्षमता बढाकर अर्थात उसकी आय बढाकर व दूसरा माल की लागत व बाजार मूल्यं कम करके। लेकिन आय बढाने की भी एक सीमा होती, इसलिए लागत को कम करके ही महँगाई का स्थायी निदान किया जा सकता है। अंग्रेजी की एक कहावत का हिन्दी अर्थ यह है ''प्रश्न यह नही है कि आपकी आय क्या है, प्रश्न यह है कि आप बचाते क्या है, क्योकि अधिक बचत ही अधिक 'आय' है।''
महँगाई की वास्तविकता को कानूनी चोला भी पहनाया जा चुका है, जहंा सरकारी कर्मचारियो को महँगाई भत्ता दिया जाता हैं व समय समय पर उसे बढाया भी जाता है। अर्थात महँगाई निरन्तर बढने वाली वास्तविकता है जिसे प्रत्येक सरकार ने स्वीकार कर उससे निपटने के लिए नौकरी पेशा लोगों को महँगाई भत्ता देकर दूसरी ओर कुछ विशेष आर्थिक रूप से पिछडे वर्गो को सब्सीडी देकर महंगाई से निपटने का प्रयास करती आ रही है। लेकिन महँगाई की यह वास्तविकता यही पर समाप्त नही हो जाती है। यदि हमे इसका स्थायी, दूरगामी निराकरण करना है, तो हमे महँगाई के उन अनसुलझे पहलू पर जाना होगा जहां से वह पैदा होती है। महँगाई के बहुत से अनेक कारण हो सकते है जो शोध का विषय हो सकते है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण कारक है, जो हमारी नजरो के सामने से प्रत्येक समय गुजरता है जिसकी चकाचौंद मे हमारा दिमाग शायद कुछ सोच ही नही पाता है, वह माल को बाजार मे बेचने के लिए ''बाजारू'' बनाने के लिये उसके विज्ञापन पर होने वाला असीमित खर्च है। जो अंततः उपभोक्ता से ही वसूल किया जाता है। आज कोई भी उत्पाद जिसका देश मे उत्पादन हो रहा है, उसकी उत्पादक लागत से लेकर बाजार मूल्य तक, जब वह माल बाजार मे, काश्मीर से कन्याकुमारी तक उपभोक्ता के हाथ में पहुंचता है तब उसका बाजार मूल्य, लागत मूल्य से सामान्यता कई गुना ज्यादा हो जाता है। इस बात को समझने के लिये हमे इस बात का ध्यान देना होगा कि इस कई गुना बढ़े बाजार मूल्य में कई प्रकार के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कर के साथ व्यापारियो के अनेकानेक कई स्तर की कई कडियो से गुजरने के कारण उस पर होने वाले खर्च के साथ सबसे बडा खर्च जो विज्ञापन पर होने वाला खर्च है। क्या आपने कभी नमक को मार्केटेबल (बाजारयोग्य) बनाने के लिए विज्ञापन के लिए करोडो रूपये खर्च की कल्पना की थी। क्या इस देश में पानी भी बिकेगा, इसकी कल्पना थी। मुझे नही मालूम कि भविष्य में पानी, नमक के साथ साथ 'हवा' भी ''बाजार'' मे बिकेगी ? क्योकि इस प्रकृति का इतना शोषण हो चुका कि 'शुद्ध' हवा लेने के लिए बचा ही क्या है ?
क्या सरकार का यह दायित्व नही है कि विज्ञापन मे जो अनाप-शनाप अनुत्पादिक खर्च हो रहा है, उस पर रोक लगाई जाय। इससे माल की बाजार कीमत को कम कर भी ''मार्केटेबल'' (जिसके लिये विज्ञापन खर्च का औचित्य बताया जाता है) बनाकर उपभोक्ता तक पहुचाने का प्रयास किया जा सकता है महत्वपूर्ण बात महँगाई के इस मुददे में यह भी है कि बाजार मूल्य से उत्पादक को बढेे हुए मूल्यो का फायदा नही मिलता है जिसके कुछ हिस्से का वह हकदार अवश्य है, क्येाकि वह 'निर्माता' है। उत्पाद का बढ़ा हुआ मूल्य, उत्पादन और उपभोक्ता के बीच की बिचोलियो की कई स्तर की कडियों के मुनाफे से गुजरता हुआ विज्ञापन के महंगे खर्चे से मार खाता हुआ उपभोक्ता तक पहुंचता है। इसमें कानूनी ,नैतिक और आत्म संयम तीनो बंधन तत्वो की आवश्यकता हैं। मुनाफाखेारी के कारण बदनाम बिचोलियो की कडियो को कम करके इन पर अंकुश लगाकर न केवल उत्पाद का बाजार मूल्य कम किया जा सकता है बल्कि शेष बची अतिरिक्त व्यवसाइयो की कडियांे को उत्पादन में लगाकर देश के उत्पादन में वृद्धि भी की जा सकती हैं। सरकार एक और आवश्यक वस्तु पर जैसे रेत को ''नीलामी'' प्रक्रिया से विक्रय कर खजाना भरती है, जिससे कि इसकी वास्तविक मूल्य के कई-कई गुना बढ़ जाता है। इसके विपरीत शराब जिसका उपभोग अभिजात्य वर्ग द्वारा किया जाता है को ''लाटरी'' प्रणाली से विक्रय करती है जबकि वास्तव में उसे सरकारी आय बढ़ाने एवं सामाजिक बुराई को कम करने हेतु उसकी ''नीलामी'' करनी चाहिए व रेत को लाटरी प्रक्र्रिया से विक्र्रय कर उसका मूल्य कम करना चाहिए।
इस देश मे, व्यक्ति जब अपनी दिनचर्या शुरू करता है तो उसे ''विधायिका ''द्वारा बनाये गये सैकडो कानूनो से होकर गुजरना पडता है। घर से बाहर निकलते हीे ''सार्वजनिक स्थल पर थूकना मना है,'' यह हमारे देश का कानून है। जब आप चौपाया गाडी मे बैठते है तो उसमे प्राथमिक उपचार बाक्स व 'सीट बेल्ट' लगा होना कानूनन् जरूरी है । जब आप कोई गैर कानूनी या अनैतिक कार्य करते है तो उसे भी हमारे देश में मात्र वैधानिक चेतावनी लिखकर किया जा सकता है, और यह भी एक कानून है। जैसे सिगरेट पीनंे के लिये। जब हमारे देश में इस सीमा तक कानून बने है (कितना पालन होता है यह प्रश्न अलग है) तब विज्ञापन खर्च कोे कम करने के लिए कोई कानून क्यो नही, बन सकता है? क्यो नही बनना चाहिए? इसका जवाब नवनिर्वाचित सरकार को आम नागरिको को देना होगा। आप जानते है सहकारी बैंको में ऋण के भुगतान के मामलो मे सामान्यता ब्याज मूल धन से ज्यादा नही वसूल किया जाता है। तब इस तरह का प्रतिबन्ध विज्ञापन खर्च पर क्यो नही लगाया जाता जो कि एक अनुत्पादिक खर्च है, प्रश्न यह है। जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार से लेकर अन्य मूलभूत संवैधानिक अधिकार भी निर्बाध नही है तब विज्ञापन खर्च पर संवैधानिक प्रतिबंध क्यो नही लगाया जा सकता है। मै यह आशा करता हंू आम लोगो सहित बुद्धिजीवीयो व अर्थशास्त्रीयो की इस दिशा मे सोचने की अत्यंत आवश्यकता है वे इस संबंध में मुहिम बनाकार यदि कोई सुझाव पेश करते है तो वह सबके हित मे,देश हित में होगा।
हाल मे हुये देश में आम चुनाव में ''यूपीए'' सरकार के विरूद्ध अन्य मुददो के साथ प्रमुख मुद्दा 'महँगाई' का ही था। इससे परेशान होकर ही नरेन्द्र मोदी के उक्त मुद्दे पर आकर्षित करने वाले आश्वासन देने वाली भाजपा की मोह माया मे फंसकर जनता ने विराट रूप से बढती हुई महँगाई की विराट समस्या से निजात पाने हेतू विराट बहुमत की प्रथम बार गैर कांग्रेसी सरकार को सत्तारूढ कर ठोस कदम उठाया। लेकिन जनता क्या अपने को ठगा हुआ तो महसूस नही कर रही है़ ? क्योकि देश की जनता तत्काल परिणाम चाहती है। 'महँगाई'के मुददे पर 'यूपीए' सरकार ने भी 100 दिन के अन्दर महँगाई को नियंत्रित करने की बात कही थी। इसके पूर्व इंदिरा गांधी भी 'गरीबी हटाओ' के नारे से सत्ता पर आरुढ़ हो चूकी थी। लेकिन क्या हुआ ?
आखिर यह महंगाई 'कब' और 'कैसे' थमेगी, कम होगी। इसके लिए आम जनता की नजर में यह जानना अत्यंत आवश्यक है कि आखिर 'महँगाई' कहते किसे है? महँगाई का शाब्दिक अर्थ सामान्य बोलचाल की भाषा मे महँगा बिकने वाला माल या महंगी मिलने वाली सर्विस हो सकती है। यदि एक लाख की कोई चीज बाजार में बिकती है और उसको खरीदने की हमारी क्षमता एक लाख बीस हजार रूपये की है, तो क्या यह 'महँगाई' कहलायेगी। लेकिन इसके विपरीत यदि कोई चीज बाजार में 100रूपये की है जिसके लिये हमारे पास मात्र 50 रूपये है तो क्या वह महँगाई कहलायेगी, विवेचना का प्रश्न यही है। आर्थिक दृष्टिकोण से महँगाई का संबंध आपके क्रय करने की क्षमता से है न कि माल के महंगे होने से है। क्येाकि यदि आपकी क्रय क्षमता महंगे माल को खरीदने के लिये पर्याप्त है तो उसे 'महँगाई का वह डंक नही महसूस होगा व ''महंगाई डायन खाय जात है'' (फिल्म पीपली लाइव) का गीत नही गुनगुनाना पडेगा। लेकिन हमारे देश मे क्या वास्तव मे यही स्थिति है? शायद नही। वास्तव मे महँगाई का असर कम करने के लिये देा तरफा रास्ते अपनाये जाना चाहिए। एक व्यक्ति की क्रय क्षमता बढाकर अर्थात उसकी आय बढाकर व दूसरा माल की लागत व बाजार मूल्यं कम करके। लेकिन आय बढाने की भी एक सीमा होती, इसलिए लागत को कम करके ही महँगाई का स्थायी निदान किया जा सकता है। अंग्रेजी की एक कहावत का हिन्दी अर्थ यह है ''प्रश्न यह नही है कि आपकी आय क्या है, प्रश्न यह है कि आप बचाते क्या है, क्योकि अधिक बचत ही अधिक 'आय' है।''
महँगाई की वास्तविकता को कानूनी चोला भी पहनाया जा चुका है, जहंा सरकारी कर्मचारियो को महँगाई भत्ता दिया जाता हैं व समय समय पर उसे बढाया भी जाता है। अर्थात महँगाई निरन्तर बढने वाली वास्तविकता है जिसे प्रत्येक सरकार ने स्वीकार कर उससे निपटने के लिए नौकरी पेशा लोगों को महँगाई भत्ता देकर दूसरी ओर कुछ विशेष आर्थिक रूप से पिछडे वर्गो को सब्सीडी देकर महंगाई से निपटने का प्रयास करती आ रही है। लेकिन महँगाई की यह वास्तविकता यही पर समाप्त नही हो जाती है। यदि हमे इसका स्थायी, दूरगामी निराकरण करना है, तो हमे महँगाई के उन अनसुलझे पहलू पर जाना होगा जहां से वह पैदा होती है। महँगाई के बहुत से अनेक कारण हो सकते है जो शोध का विषय हो सकते है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण कारक है, जो हमारी नजरो के सामने से प्रत्येक समय गुजरता है जिसकी चकाचौंद मे हमारा दिमाग शायद कुछ सोच ही नही पाता है, वह माल को बाजार मे बेचने के लिए ''बाजारू'' बनाने के लिये उसके विज्ञापन पर होने वाला असीमित खर्च है। जो अंततः उपभोक्ता से ही वसूल किया जाता है। आज कोई भी उत्पाद जिसका देश मे उत्पादन हो रहा है, उसकी उत्पादक लागत से लेकर बाजार मूल्य तक, जब वह माल बाजार मे, काश्मीर से कन्याकुमारी तक उपभोक्ता के हाथ में पहुंचता है तब उसका बाजार मूल्य, लागत मूल्य से सामान्यता कई गुना ज्यादा हो जाता है। इस बात को समझने के लिये हमे इस बात का ध्यान देना होगा कि इस कई गुना बढ़े बाजार मूल्य में कई प्रकार के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कर के साथ व्यापारियो के अनेकानेक कई स्तर की कई कडियो से गुजरने के कारण उस पर होने वाले खर्च के साथ सबसे बडा खर्च जो विज्ञापन पर होने वाला खर्च है। क्या आपने कभी नमक को मार्केटेबल (बाजारयोग्य) बनाने के लिए विज्ञापन के लिए करोडो रूपये खर्च की कल्पना की थी। क्या इस देश में पानी भी बिकेगा, इसकी कल्पना थी। मुझे नही मालूम कि भविष्य में पानी, नमक के साथ साथ 'हवा' भी ''बाजार'' मे बिकेगी ? क्योकि इस प्रकृति का इतना शोषण हो चुका कि 'शुद्ध' हवा लेने के लिए बचा ही क्या है ?
क्या सरकार का यह दायित्व नही है कि विज्ञापन मे जो अनाप-शनाप अनुत्पादिक खर्च हो रहा है, उस पर रोक लगाई जाय। इससे माल की बाजार कीमत को कम कर भी ''मार्केटेबल'' (जिसके लिये विज्ञापन खर्च का औचित्य बताया जाता है) बनाकर उपभोक्ता तक पहुचाने का प्रयास किया जा सकता है महत्वपूर्ण बात महँगाई के इस मुददे में यह भी है कि बाजार मूल्य से उत्पादक को बढेे हुए मूल्यो का फायदा नही मिलता है जिसके कुछ हिस्से का वह हकदार अवश्य है, क्येाकि वह 'निर्माता' है। उत्पाद का बढ़ा हुआ मूल्य, उत्पादन और उपभोक्ता के बीच की बिचोलियो की कई स्तर की कडियों के मुनाफे से गुजरता हुआ विज्ञापन के महंगे खर्चे से मार खाता हुआ उपभोक्ता तक पहुंचता है। इसमें कानूनी ,नैतिक और आत्म संयम तीनो बंधन तत्वो की आवश्यकता हैं। मुनाफाखेारी के कारण बदनाम बिचोलियो की कडियो को कम करके इन पर अंकुश लगाकर न केवल उत्पाद का बाजार मूल्य कम किया जा सकता है बल्कि शेष बची अतिरिक्त व्यवसाइयो की कडियांे को उत्पादन में लगाकर देश के उत्पादन में वृद्धि भी की जा सकती हैं। सरकार एक और आवश्यक वस्तु पर जैसे रेत को ''नीलामी'' प्रक्रिया से विक्रय कर खजाना भरती है, जिससे कि इसकी वास्तविक मूल्य के कई-कई गुना बढ़ जाता है। इसके विपरीत शराब जिसका उपभोग अभिजात्य वर्ग द्वारा किया जाता है को ''लाटरी'' प्रणाली से विक्रय करती है जबकि वास्तव में उसे सरकारी आय बढ़ाने एवं सामाजिक बुराई को कम करने हेतु उसकी ''नीलामी'' करनी चाहिए व रेत को लाटरी प्रक्र्रिया से विक्र्रय कर उसका मूल्य कम करना चाहिए।
इस देश मे, व्यक्ति जब अपनी दिनचर्या शुरू करता है तो उसे ''विधायिका ''द्वारा बनाये गये सैकडो कानूनो से होकर गुजरना पडता है। घर से बाहर निकलते हीे ''सार्वजनिक स्थल पर थूकना मना है,'' यह हमारे देश का कानून है। जब आप चौपाया गाडी मे बैठते है तो उसमे प्राथमिक उपचार बाक्स व 'सीट बेल्ट' लगा होना कानूनन् जरूरी है । जब आप कोई गैर कानूनी या अनैतिक कार्य करते है तो उसे भी हमारे देश में मात्र वैधानिक चेतावनी लिखकर किया जा सकता है, और यह भी एक कानून है। जैसे सिगरेट पीनंे के लिये। जब हमारे देश में इस सीमा तक कानून बने है (कितना पालन होता है यह प्रश्न अलग है) तब विज्ञापन खर्च कोे कम करने के लिए कोई कानून क्यो नही, बन सकता है? क्यो नही बनना चाहिए? इसका जवाब नवनिर्वाचित सरकार को आम नागरिको को देना होगा। आप जानते है सहकारी बैंको में ऋण के भुगतान के मामलो मे सामान्यता ब्याज मूल धन से ज्यादा नही वसूल किया जाता है। तब इस तरह का प्रतिबन्ध विज्ञापन खर्च पर क्यो नही लगाया जाता जो कि एक अनुत्पादिक खर्च है, प्रश्न यह है। जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार से लेकर अन्य मूलभूत संवैधानिक अधिकार भी निर्बाध नही है तब विज्ञापन खर्च पर संवैधानिक प्रतिबंध क्यो नही लगाया जा सकता है। मै यह आशा करता हंू आम लोगो सहित बुद्धिजीवीयो व अर्थशास्त्रीयो की इस दिशा मे सोचने की अत्यंत आवश्यकता है वे इस संबंध में मुहिम बनाकार यदि कोई सुझाव पेश करते है तो वह सबके हित मे,देश हित में होगा।
राजीव खण्डेलवाल (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)
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