पिछले दो दिनों से सम्पूर्ण मिडिया में स्वाभाविक रूप से चीन के राष्ट्रपति के दौरे की चर्चा है।नरेन्द्र मोदी हमेशा कुछ न कुछ ऐसा कार्य अवश्य करते ह,ैं जो किसी न किसी अर्थाें एवं संदर्भों मे ऐतिहासिक होते हैं।ं चाहे गोधरा कांड के बाद उनका मुख्यमंत्री के रूप में सफलता पूर्वक पन्द्रह साल का सफर या उनके नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी को 2014 के आम चुनावों में स्वतंत्रता के बाद मिली ऐतिहासिक अभूतपूर्व सफलता या फिर उनका पडोसी देशो सहित सार्क देशों के राष्ट्र्राध्यक्षों की उपस्थिति में ऐतिहासिक शपथ ग्रहण समारोह। भारत में चीन के राष्ट्रªपति का यह प्रथम दौरा नही ंथा,बावजूद इसके, यह दौरा इस अर्थ में ऐतिहासिक हो गया कि भारत के प्रधानमंत्री के जन्म दिवस पर शायद पहली बार विश्व की पांच सबसे बडी ताकतों में से एक चीन के राष्ट्र्रपति की उपस्थिति ने उन क्षणो को ऐतिहासिक बना कर मोदी के मुकुट पर चार चॉद लगा दिये। मोदी वैसे भी अपने आतिथ्य और मिजाज पुरसी के लिये अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति लिये हुये है।
अधिकाशंतः राजनैतिक क्षेत्रों व आलोचकों की दृष्टि मे शी जिनपिंग ं(चीन के राष्ट्र्र्रपति) की मुलाकात को ऐतिहासिक बताया जा रहा हैं। और ऐसा क्यों न कहा भी जाय,जब देश के विकास के विभिन्न व्यापक क्षेत्रों मे कुल 15 समझौते (साबरमती में हुये समझौतों को मिलाकर) दोनों राष्टा्रे के बीच सम्पादित हुये है। लेकिन इन ऐंतिहासिक समझौतों की सफलता की छाया मेें हमारा ध्यान राष्ट्र्र के आत्म सम्मान का सबसे अधिक महत्वपूर्ण मुद्दा सीमा विवाद की ओर नही जा पाया। भारत चीन सीमा पर चीन द्वारा लगातार सीमा का उल्लंघन किया जा रहा है। लेकिन शायद हमारा नेतृत्व बातचीत के टेबल पर इनके मद्देनजर आत्म सम्मान को लौटाने के लिये कोई ठोस बातचीत न करके अपने ही मंुह का जायका खराब नहीं करना चाहता है।
एक नागरिक की हैसियत से मेरी नजरें भारी भरकम 15 समझौंतों के पुलिंदें में उस समझौते को ढूंढते-ढूंढतें पथरा गई हैं जहां सीमा विवाद के सम्बध में वास्तविक तथ्यों के साथ हमारी सीमा के हितांे ंकी रक्षा के लिये भी कोई लिखित समझौता हुआ हों? किसी भी विदेशी राष्ट्र्राध्यक्ष के साथ 15 समझौतांे मे देश की सुरक्षा और सीमा विवाद से जुडे समझोैते का न होना निश्चित रूप से उस पाटर्ी्र के प्रधानमंत्री के लिये प्रश्न वाचक चिन्ह लगाते हैं जो हमेशा चीन और पाकिस्तान से सीमा के मुददे पर दो टूक निर्णय लेने में विश्वास रखती रही है, और इस बात का आक्षेप लगाती रही हैं कि इस मुद्दे पर देश हित में कांग्रेस की सरकार ने कोई निर्णय नहीं लेकर हमेशा त्यागा ही है। मोदी जी ने चीन की घुसपैठ पर चिन्ता जताकर व एल0ए0सी0 के सत्यापन की बात कह कर अपने कर्तव्य की इति श्री कर ली।शी जिनपिंग ं(चीन के राष्ट्र्रपति) ने यह कहकर भारतीय प्रधान मंत्री का मनोबल बढाया कि सीमा विवाद हमारे सबंधों के आडे नहीं आयेगा।चुनावी भाषणों के दौरान पाकिस्तान और चीन को ललकारने वाले मोदी जी का वह जोश इन दो दिनों मे कहां खो गया ?शायद साबरमति की झील में जाकर ठण्डा हो गया हैं।
एक तरफ तो डायनिंग टेबल पर भोजन के साथ चर्चा हो रही है, और दूसरी ओर उसी समय चीन सीमा पर उधम करने से बाज नहीं आ रहा है। ल़द्धाख चुमार की विडियो को मिडिया बातचीत की टेबल के साथ-साथ दिखा रहा है।देश की जिस युवा मत की बदौलत मूल रूप से मोदी इस गददी पर पहॅंुचे हैं, उसे मोदी ने वास्तव मे निराश ही किया हैं। क्या वार्ता चालू होने के पूर्व भारत सरकार द्वारा चीन को इस बात की वास्तविक रूप से कडी चेतावनी नही ंदी जा सकती थी कि यदि सीमा पर लगातार उलंध्घन करने व भडकाने का कार्य किया जाता रहेगा तो वार्ता रद्द हो सकती हैं। यह साहस यदि हम बातचीत के टेबल में नही ंदिखा सके तो यह भी शंकास्पद हो जाता हैं कि हम आवश्यकता पडने पर दुस्साहस दिखाने का प्रयास कर सकेेगे।
नेहरू जी के समय मे नारा लगाया जाता था कि''हिन्दी चीनी भाई-भाइ'र्' तो क्या अब हम ''हमारी भूमि आई-गई''की दिशा में बढ रहे हैं।चाहे मामला तिब्बत का ही लें या अरूणाचल का मामला लंे,भारत के पक्ष में और सैनिक हितांे पर एक भी आश्वासन/वादा चीन के राष्ट्र्रपति द्वारा नही दिया गया है, ऐसी स्थिति में क्या हम इस बात की गलती नही करते जा रहे हैं कि लगातार चल रहे सीमा उल्लधंन के बावजूद चीन को अपना श्रेष्ठतर मित्र मानते रहें।मुझे यह लगता है जब भी देश की सीमा का मामला आता है तो देश की सरकारे बगले झांकने लगती हैं और जनता कों बरगलाने के लिये सिर्फ बातांें का जमा-खर्च ही परोसा करती हैंं।अगर हमें मातृभूमि की एक एक इंच भूमि की सुरक्षा करनी हो,और उसे अक्क्षुण्ण बनाए रखना हो तो देश के नागरिकों को विशेषकर युवाओं को सामने आना होगा।