तथ्यात्मक,नैतिक,संवैधानिक,कानूनन,न्यायिक व प्रचलित परिपाटी के विरू़द्ध?
पिछले कुछ दिनो से नई दिल्ली मे भाजपा के नेतृत्व मे नई सरकार के गठन की चर्चा तेजी से पुनः सुखियों मे है। खास कर जब से मिडिया मे यह खबर लगातार छप रही है कि दिल्ली के उपराज्यपाल ने नई सरकार के गठन के संबंध मे हरी झड़ी देकर राष्ट्र्र्र्रपति शासन समाप्त करने की सिफारिश केन्द्रीय सरकार कोे भेजी है। अब तो उपराज्यपाल की राष्ट्रपति को भेजी गई चिट्टी भी मिडिया मे आ गई है।भारत एक मजबूत लोकतंात्रिक देश है। लेकिन राजनैतिक स्वार्थ के पूर्ति हेतु लोकतंांित्रक संस्थाये ,प्रणाली और अंगो को संविधान व कानून का तकनीकि जामा पहनाने का प्रयास किया जाकर, किस तरह से कमजोर किया जा सकता है, यह दिल्ली सरकार बनाने के प्रयासो के आइने मे देखा जाना चाहिये। जिसकीे बानगी को निम्नानुसार देखा-पढा जा सकता है।
''राष्ट्रपति शासन लागू होने के बाद या तो एक वर्ष के अन्दर नई सरकार का गठन हो या पुनः'' एक वर्ष की अवधि के लिये राष्ट्रपति शासन बढाऐ जाने का निर्णय,या विधानसभा भंग कर नये चुनाव का निर्णय उपराज्यपाल कीे सिफारिश पर केन्द्रीय सरकार संसद के दोनो संदनो द्वारा लिया जाना आवश्यक है। यह अकाट्य संवैधानिक कानूनी व्यवस्था दिल्ली राज्य के मामले में है। लेकिन वास्तव में क्या राज्यपाल अपना उक्त सवैंधानिक दायित्व निष्पक्ष रूप से निर्वहन कर रहे है ? वास्तव मंे क्या भाजपा के नेतृत्व मे अल्पमत की नई सरकार के गठन का प्रयास कर रहे है ? यदि वास्तव में ऐसा होने जा रहा है, तो उपराज्यपाल की यह सिफारिश संविधान पर एक हथौडा जैसी होगी। जिसकी मार से लोकतंत्र के एक भाग मे हल्की सी दरार जो लोकतंत्र के प्रहरी केे दिल मे दर्द पैदा कर देने वाली होेगी। दिल्ली मे जिस तरह की नई सरकार के गठन पर विभिन्न राजनेैतिक दलो ने आधिकारिक स्टैण्ड लिया है, वह न केवल विचित्र है, बल्कि देश के राजनैतिक इतिहास मे शायद यह पहली बार हो रहा है। जहॉ कोई भी राजनैतिक दल औपचारिक रूप से न तो सरकार बनाने के लिये आगे आया है और न ही सरकार बनाने का दावा किया गया है या कर रहा है, बल्कि मिडिया द्वारा सवाल पूछे जाने पर प्रत्येक राजनेैतिक दल ने अधिकृत रूप से सरकार बनाने के संबंध में दावे से प्रत्यक्ष रूप से इन्कार ही किया है। अंर्थात् प्रत्यक्ष रूप से समस्त राजनैतिक दलो का यह एक अधिकृत ऐजेन्डा है। लेकिन छिपा हुआ ऐजेन्डा क्या है यह सभी जानते है। वैसे ही जैसे कोई भी राजनैतिक दल या राजनेता स्वंय को भ्रष्टाचार का घोर विरोधी कहलाना पसन्द करता है लेकिन वास्तव में.....।
जब कोई भी राजनैतिक दल उपराज्यपाल के सामने प्रत्यक्ष रूप से आकर दावा प्रस्तुत नही कर रहा है।न ही किसी भी पार्टी का विभाजन होंकर सरकार बनाने के लिये अन्य दलो का बहुमत का दल नही बन सका है। अब ऐसी कौन सी स्थिति उत्पन्न हो गयी है कि महामहिम उपराज्यपाल को लगने लगा है कि भाजपा दिल्ली मे स्थायी सरकार बना लेगी। वह भी तब जब दिल्ली की तीनो महत्वपूर्ण पार्टियां भाजपा,काग्रेस व आप काआधिकारिक स्टैण्ड देखा जाये तो ये वे परस्पर घोर विरोधी रूख लेते हुये परस्पर समर्थन से लगातार इन्कार करने के साथ एक दूसरे पर खरीद फरोक्त व लालच का आरोप भी लगा रहे हैं। अब जब सबसे बडी पार्टी भाजपा की सदस्यो की सख्या 31 (अकाली दल सहित 32) से घटकर 28 हो गई है,और केन्द्रीय गृहमंत्री व भाजपा के वरिष्ठतम नेता राजनाथ सिह का यह बयान कि भाजपा जोड-तोड की राजनीति से सरकार नही बनाएगी, व भाजपा के प्रवक्ताओ द्वारा भी यह कहा गया है कि हम संविधान के बाहर जाकर कार्य नही करेगें।तब किसी अन्य दल का समर्थन मिले बिना और जब किसी अन्य दलो के विधायक/विधायको का समूह भाजपा मे शामिल नहीं हुआ है व न ही भाजपा को समर्थन की वकालत कर रहे है, तब बिना खरीद फरोक्त व दल-बदल के बहुमत का जादुई आकडा 34 को कैसे पाकर सरकार बना सकती है, यह प्रश्न लोकतंत्र के रक्षको के मन में निरंतर आशंका उत्पन्न कर रहा है। भाजपा इस बात का खुलासा बिलकुल भी नही कर रही कि वह बहुमत कैसे पायेगी/जुटायेगी। ऐसी स्थिति मंे और ,जब पार्टी उपराज्यपाल के निमंत्रण के पूर्व तक बहुमत का दावा नहीं कर रही है। दिल्ली प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश उपाध्याय यह कथन है कि उपराज्यपाल का निमंत्रण मिलने के आधें घंटे के भीतर पार्टी अपना नेता चुन लेगी ,उक्त संदर्भ में संज्ञान लेने योग्य बयान है।
यदि हम पिछले पन्नो को पलटे जब दिल्ली विधानसभा के चुनाव हुये थे तब उपराज्यपाल ने भाजपा को सबसे बडी पार्टी होने के नाते सरकार बनाने का निमत्रणं दिया था। तब भाजपा द्वारा इस आधार पर सरकार बनाने से साफ इन्कार कर दिया गया था कि भाजपा के पास न तो सरकार बनाने के लिये पूर्ण बहुमत है और न ही जनता ने उन्हे सरकार बनाने का जनादेश दिया है,अतः वे विपक्ष मे बैठना ज्यादा पसन्द करेगें।तब उपराज्यपाल ने काग्रेस केे द्वारा एक तरफा आप पार्टी को दिये गये लिखित समर्थन की चिटठी के बाद ही आप पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल को(जिन्होने तब भी सरकार बनाने का दावा प्रस्तुत नही किया था) सरकार बनाने का निमत्रण दिया था। तब चौतरफा दबाव के आगे 18 सूत्रों के आधार पर अनिच्छा से सरकार बनाई गई थी।लेकिन तब उनके पास बिना मांगे पूर्ण बहुमत था। तब भाजपा ने भी यह कथन किया था कि विधानसभा में मुददो के आधार पर सरकार को समथर््ान देगे। इस प्रकार एक बहुमत की सरकार जिसके बहुमत के बाबत् उपराज्यपाल ने स्वंय के आकंडों की संतुष्टी के बाद ही सरकार का गठन किया था। आप पार्टी द्वारा लोकपाल के मुददो पर विधान सभा मे हार जाने के कारण बहुमत खो देने से केजरीवाल की सरकार को इस्तीफा देना पडा। तब से लेकर आज तक दिल्ली विधान सभा की स्थिति में सरकार बनाने के लिये आकडो की स्थिति मे कोई बुनियादी फर्क नही आया है।यदि कोई बदलाव आया है तो आप व काग्रेस दोनो पार्टीयां जो अब दो विपरीत कोनो मे खडी हो कर बहुमत से एकदम दूर हो गई।तब किस आधार पर उपराज्यपाल किसी भी दल को सरकार बनाने का न्यौता दे सकते है जब उनके पास केन्दीय्र सरकार को रिपोर्ट देने के समय तक किसी भी पार्टी का सरकार बनाने का औपचारिक दावा लंबित नही था,और न ही कोई पार्टी या गठबंधन प्रत्यक्ष रूप से बहुमत के करीब है।
जहॉ तक सबसे बडी पार्टी भाजपा को पुनः निमंत्रण दने का प्रश्न है यह कदम राज्यपाल वर्तमान संदर्भ में दूसरी बार नहीं उठा सकते है। एक तो अन्य समस्त पार्टियो ने भाजपा के विरोध की ्घोषणा की है। दूसरे यह तो कोई टेस्ट क्रिक्रेट का खेल नही है जहॉ दूसरी पारी का अवसर मिलता है, जब फिर से ओपनर बेटिग करने आ जाता है। यह सरकार गठन की लगातार प्रक्रिया है जिसमें उपरोक्त तीनो विकल्पो मंे से प्रथम दो विकल्प के उपयोग के बाद सरकार बनाने का कोई दावा लंबित नहीं होने के कारण अंतिम विकल्प विधान सभा भंग का ही रह जाता हैं। यदि राज्यपाल यह मान रहे है कि विधान सभा के फर्श पर ही बहुमत का निर्णय होना चाहिये, व बात परम्परा की है तो फिर वे आप पार्टी के नेता को पूर्व परम्परा के आधार पर पुनः क्यो नहीं निमंत्रण दे देते है जिसने पहले भी क्राग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाकर विश्वास मत हासिल कर उपराज्यपाल के निमंत्रण के निर्णय को सही सिद्ध किया था। यदि एक निर्दलीय विधायक या जदयू विधायक उपराज्यपाल के समक्ष सरकार बनाने का दावा प्रस्तुत करते है तो क्या उपराज्यपाल उच्चतम न्यायालय के निर्देश के तहत जिसका हवाला उन्होने अपनी चिट्ठी मे किया है, सरकार बनाने के लिये उनको बुलायेगें ?े क्योकि बहुमत का निर्णय तो विधान सभा के फर्श पर ही होगा ?उपराज्यपाल का यह कृत्य किसी भी गैरकानूनी दल-बदल को बढावा देने वाला ही सिद्ध होगा ? ( कानूनी रूप से भी दल बदल हो सकता है) दो तिहाई सदस्यो के विभाजन के साथ दल बदल को भी कानूनी मान्यता प्राप्त है। लेकिन जो अभी तक हुआ नहीं है। सार यही है कि भाजपा परोक्ष रूप से राज्यपाल के माध्यम से क्रांग्रेस/आप पार्टी के विधायकों को मंत्री पद/लाभ के पद के द्वारा कारण दल-बदल कराने अनैतिक प्रयास करना होगा यदि उसे सरकार बनाने दे व बनाये रखना है तो।
उच्चतम न्यायालय के कई निर्णयों, परिपाटियों व प्रचलित परम्पराओें का उदाहरण उपराज्यपाल के भविष्य के गर्भ मे तकनीकि रूप से छुपे हुये निर्णय के लिये दिये जा रहे है। उन सभी मामलो मे किसी न किसी पक्ष द्वारा या तो बहुमत के दावे के साथ सरकार बनाने का दावा किया गया था या बहुमत के संबंध में सदस्यो की हस्ताक्षरयुक्त सूची प्रस्तुत की गई थी या सदस्यो की परेड़ कराई गई थी। यद्यपि सूची का सत्यापन विधानसभा के फर्श पर ही किया जाना था। यहॉ जब सूची ही प्रस्तुत नहीं की गई है और न ही कोई दावा किसी भी रूप में प्रस्तुत किया गया है, तब उसके विधान सभा के फर्श पर सत्यापन का प्रश्न ही पैदा नहीं होता है। वास्तव में प्रत्येक पार्टी अपने राजनैतिक चाले अपने राजनैतिक स्वार्थ के लिये चल रही है। शायद भाजपा राजनैतिक चालों के तहत अत्यधिक आलोचना की स्थिति में संभावनाओं के विपरीत उपराज्यपाल के निमंत्रण को अस्वीकार कर जनता के बीच इस संदेश के साथ चुनाव में जा सकती हे कि वह सत्तालोलुप नहीं है व वह जनादेश प्राप्त करना चाहती है। उपराज्यपाल को इन चालो से बचना चाहिऐ व संविधान की रक्षा करने का संवैधानिक दायित्व निभाना चाहिये।इसके लिये उनके पास एक मात्र विकल्प ही शेष है कि वे राज्य विधानसभा को भंग कर पुनःचुुनाव की सिफारिश केन्द्रीय सरकार से करने के लिये पुनःसिफारिश पत्र लिखे।
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष हैं)
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