शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2014

माननीय उच्चतम न्यायालय की ऐतिहासिक भूल!

दिल्ली में अल्पमत सरकार बनाने की सम्भावनाओं की तलाश!
   
       माननीय उच्चतम न्यायालय ने ’’आम आदमी पार्टी‘‘ की दिल्ली विधानसभा भंग कर तुरंत चुनाव कराने की याचिका पर सुनवाई करते हुए जो निर्देश और विचार व्यक्त किये, वे निश्चित रूप से न तो संवैधानिक उचित व सही प्रतीत होते है और न ही राजनैतिक रूप से परिपक्व दिखाई पड़ते है। बल्कि यह ‘‘दल बदल विरोधी कानून’’ का उलंघन करने वाली प्रवृत्ति को बढ़ावा देने के समान है। 
माननीय उच्चतम न्यायालय ने जो यह कहा कि दिल्ली में किसी राजनैतिक दल के बाहरी समर्थन से सरकार बन सके, ऐसी संभावनाए उपराज्यपाल तलाश रहे है। उपराज्यपाल के इन प्रयासो की न केवल सराहना की जानी चाहिए बल्कि इसके लिए उन्हे कुछ और समय भी दिया जाना चाहिए। मेरे मत में यह सुझाव  उच्चतम न्यायालय के अधिकार क्षेत्र के परे है। इस बात पर न तो कोई विवाद है, न कोई शंका है और न ही कोई कानूनी अस्ष्पटिता है कि विधानसभा में सरकार बनाने के लिए नेता को बुलाने का एकमात्र अधिकार उस राज्य के राज्यपाल/उपराज्यपाल को है। उपराज्यपाल के सरकार बनाने के निमंत्रण को जरूर बाद में उच्चतम न्यायालय में चुनौती देकर उसकी न्यायिक समीक्षा की जा सकती है जैसा कि पूर्व में कई मामलो में हो चुका है। लेकिन उसके पूर्व उपराज्यपाल के किसी संभावित निर्णय पर किसी तरह का न्यायिक निर्देश या न्यायिक हस्तक्षेप उचित नहीं है। 
दिल्ली विधानसभा के परिणाम घोषित होने के पश्चात् कानूनी व स्थापित परम्पराओं का अनुकरण कर उपराज्यपाल ने प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते भाजपा को सरकार बनाने का निमंत्रण दिया था। यह निमंत्रण इस सुदृढ़ विश्वास के साथ निहित था कि भाजपा सरकार बनाने के बाद विधानसभा में बहुमत सिद्ध करने में सफल होगी तभी वह निमंत्रण स्वीकार करेगी। लेकिन तब भाजपा के विधायक दल के तत्कालीन नेता हर्षवर्धन ने इस आधार पर ही सरकार बनाने से इनकार कर दिया था कि ’’सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद उसे जनता ने सरकार बनाने का जनादेश ही नहीं दिया है।’’ उन्होने विधानसभा में बहुमत सिद्ध करने का दावा भी ही नहीं किया। इसलिए उपराज्यपाल ने दूसरी बड़ी पार्टी ‘‘आप’’ जिसे कांग्रेस ने एकतरफा बिना शर्त बिना मांगे लिखित समर्थन दे दिया था, को सरकार बनाने का निमंत्रण दिया। वैसे यह अलग बात है कि वही भाजपा दिल्ली से चलकर महाराष्ट्र आते तक सबसे बड़ी पार्टी होने को जनादेश मानकर सरकार बनाने का दावा कर सरकार बनाने जा रही है।   
अतः यह स्पष्ट है कि उपराज्यपाल ने दिल्ली में कभी भी अल्पमत सरकार बनाने का न्योता नहीं दिया। वास्तव में संविधान में कोई ऐसी व्यवस्था ही नहीं है कि कोई भी दल अल्पमत में होने के बावजूद सरकार बनावे। वास्तव में जब कोई दल या गठबंधन बहुमत की संख्या बल से दूर रहता है और तब जब उसे सरकार बनाने का निमंत्रण राज्यपाल या उपराज्यपाल द्वारा दिया जाता है तो इसी आशा एवं विश्वास के साथ दिया जाता है कि वह सरकार बनाने के बाद निर्धारित समयावधि में विधानसभा के अंदर अपना बहुमत सिद्ध कर देगे। ऐसे में वह बहुमत की ही सरकार होती है। उसे अल्पमत की सरकार कहना उचित नहीं होगा। बहुमत सिद्ध करने में असफल रहने पर उसे इस्तीफा देना होता है। कई बार ऐसा भी हुआ कि सरकार गठन के निमंत्रण के समय तक बहुमत का स्पष्ट आकड़ा होने के बावजूद विश्वास मतदान के दिन तक पहुचते विश्वास मत पाने  में असफल भी रहे है।   
कई बार ऐसी परिस्थितियां हो सकती है कि विधानसभा की कुल निर्वाचित संख्या का बहुमत किसी दल या गठबंधन के पास न हो। लेकिन इसके बावजूद वे विधानसभा में कुछ परिस्थतियों में अपना बहुमत सिद्ध करने की स्थिति में होते है। कुछ दल विधानसभा में मतदान के समय अनुपस्थिति रह कर सरकार बनाने के लिए आवश्यक बहुमत सिद्ध करने में मदद कर सकते है। इस तरह से सदन में उपस्थित विधायक संख्या में से बहुमत प्राप्त कर सरकार अपना विश्वास सिद्ध कर देती है, और सदन की कुल विद्यमान संख्या की तुलना में अल्पमत में होने के बावजूद बहुमत हासिल कर लेती है। 
इससे यह सिद्ध है कि जो भी सरकार बनेगी वह बहुमत की ही होगी, अल्पमत की नहीं।  यह भी कहा गया कि देश में पूर्व में भी अल्पमत सरकारे चली। 1991-96 में पी.वी. नरसिम्हराव की सरकार को अल्पमत की सरकार कहा जाता रहा है। परन्तु यह राजनैतिक रूप से ही कहा जाता रहा। राष्ट्रपति के निर्देश पर बहुमत सिद्ध करने के लिये या जब-तब उन्हे वित्त विधेयक पर बहुमत सिद्ध करने की आवश्यकता पड़ी, तब-तब उन्होने अपना बहुमत सिद्ध किया। इसलिए सरकार 5 साल चली।
माननीय उच्चतम न्यायालय का यह मत कि किसी राजनैतिक दल के बाहरी समर्थन से अल्पमत की सरकार बनने की सम्भावना तलाशी जानी चाहिए। यह न तो नैतिक सुझाव है और न ही संवैधानिक। माननीय उच्चतम न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में भी नहीं है कि वे  ऐसा कथन कहे । कोई राजनैतिक दल ‘सरकार में शामिल होकर’ समर्थन देता है या ‘बाहर से देता है’ यह राजनैतिक दल का विवेक व विशेषाधिकार है। वह विधानसभा में अनुपस्थित रहकर भी समर्थन दे सकता है। जब दिल्ली में ‘‘कांग्रेस’’ और ‘‘आप’’ पार्टी के नेतृत्व ने बार-बार यह घोषित किया और यह स्टेण्ड लिया कि वह भाजपा को सरकार बनाने के किसी भी मूहिम का समर्थन नहीं करेगी और विधानसभा में उसका विरोध करेगी। तब इस स्थिति को देखते हुए विशेषकर जब भाजपा की 
सदस्य संख्या पहली बार निमंत्रण प्राप्त करने के बाद आज की स्थिति में तुलनात्मक रूप से घटकर कम हो गई है। इस स्थिति में, जब भाजपा सहित किसी पार्टी ने सरकार बनाने का  अभी तक दावा नहीं किया, तब माननीय उच्चतम न्यायालय का सरकार बनाने की सम्भावनाओं को तलाशने के लिए उपराज्यपाल को 12 दिन का समय दिया जाना, क्या कानूनी रूप से दल-बदल को प्रोत्साहन देने जैसा नहीं होगा ? दिल्ली की राजनैतिक परिस्थितियां अगर देखी जाये तो वहां सरकार तभी बन पायेगी जब किसी पार्टी के विधायक गण दल बदलकर सरकार बनाने के लिए समर्थन दे। या वैधानिक रूप से पार्टी में से दो तिहाई से अधिक की संख्या में विधायक टूटकर पार्टी के विभाजन को कानूनी रूप देकर नया गुट बनाकर सरकार बनाने में सहयोग करे, जो अभी तक घटित नहीं हुआ है। इसलिए उच्चतम न्यायालय का विचार पार्टी विभाजन को बढ़ावा देने वाला कदम प्रतीत होता है। 
वास्तव में उपराज्यपाल को इस बात पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए कि भाजपा ने डॉ हर्षवर्धन के केंद्रीय मंत्री बनने के बाद अभी तक अपने विधायक दल का नया नेता नहीं चुना है। अर्थात भाजपा तकनीकि रूप से स्वयं आगे आकर सरकार बनाने की इच्छुक नहीं लगती है, जो उसके प्रदेश अध्यक्ष उपाध्याय के बयान व लगातार यह कथन है कि गवर्नर को पहले बुलाने तो दीजिए, फिर विचार करेंगे, से स्पष्ट है। इस स्थिति में भाजपा राजनैतिक लाभ-हानि देखकर यदि सरकार बनाने से इनकार कर देती है तो तब क्या उपराज्यपाल का उपहास नहीं होगा?  तब भाजपा यह कह सकती है कि उसने सरकार बनाने का न तो दावा किया और न ही पूर्व में कभी सरकार बनाने के लिए हामीं भरी व सत्ता लोलूप नहीं है व वह नये जनादेश के लिये जनता के बीच जाना चाहती है। ऐसी अप्रिय स्थिति से बचने के लिए उपराज्यपाल को तब तक सरकार बनाने के लिए कोई भी निमंत्रण नहीं देना चाहिए जब तक कि कोई पार्टी या गठबंधन सरकार बनाने का दावा पेश नहीं करे। 

मंगलवार, 28 अक्टूबर 2014

देश की राजति मे आर. एस. एस. की बढती स्वीकार्यता! दूसरा प्रचारक मुख्यमंत्री बना!

                          
                  
  •        हरियाणा विधान सभा चुनाव मे भारतीय जनता पार्टी को मिली ''अप्रत्याशित'' सफलता ने देश के राजनैतिक पंडितों को ही आश्चर्य चकित नही किया, बल्कि नरेन्द्र मोदी के बाद दूसरी बार संघ प्रचारक रहे मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री बनाकर राजनैतिक गतिविधियो पर तीक्ष्ण नजर रखने वाले क्षेत्रो को भी आश्चर्य मिश्रित गहरी सुखद मनः स्थिति मे डाल दिया। यदि असम गण परिषद के असम आंदोलन से उत्पन्न नेता प्रफुल्ल महंत को छोड दिया जाय तो शायद देश के राजनैतिक इतिहास मे नरेन्द्र मोदी के बाद यह दूसरी घटना होगी जहॉ कोई व्यक्ति पहली बार विधान सभा का चुनाव लड़कर जीत कर सीधे मुख्यमंत्री के पद पर आसीन हुये है। वैसे यदि पीछे जाया जाय तो अटलबिहारी वाजपेयी जनसंघ  के जमाने में संघ के एक वर्ष के   प्रचारक रहकर प्रचारक की छाप से मुक्त होकर  राष्ट्रीय राजनीति के छितिज पर लम्बें समय तक राष्ट्र नेता  बने रहकर अन्ततः देश के प्रधानमंत्री भी बने। संघ का यह दर्शन-शास्त्र रहा है कि वह केवल व्यक्ति के ही नहीं बनाता है वरन् व्यक्तिव को गढता है जिससे आत्म विश्वास से परिपूर्ण सुदृढ और कर्मठ व्यक्ति का निर्माण होता हैं। एक ''चाय वाला'' संघ के व्यक्तित्व निर्माण के कारण सीघे मुख्यमंत्री से होता हुआ प्रधानमंत्री बन गया तो दूसरा सामान्य कपडा व्यवसायी मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुॅच गया। गुजरात दंगो के आरोपो से धिरे होने के कारण राजनीति में अछूत  संघ-स्वयं सेवक नरेन्द्र मोदी आज चुनावी राजनीति में ''पारस'' बन गये है । ये इस बाते को सिद्ध करते है कि 'संघ' की 'कथनी' और 'करनी ' मे 'अंतर' नहीं हैं। अतंर है तो सिर्फ समय के इंतजार का है जो आज के समय भागदौड़ के दौर मे लोग करना ही नही चाहतेे है।
  • राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ मूलतः एक सांस्कृतिक संगठन है जो देश की गौरवशाली संस्कृति के संरक्षण व विकास के लिये जो भी आवश्यक कदम उठाने हों, चाहे फिर वह धामर््िाक, सामाजिक, राजनैतिक या अन्य किसी भी क्षेत्र मे ही क्यों न हो, बेहिचक लगातार उठाते रहा है ।  उसकी इसी पहचान को समाप्त करने के उद्वेश्य से स्वंय को स्वंय द्वारा प्रगतिशील कहे जाने वाले कुछ तत्वों ने दूंिषत मानसिकता से सांप्रदायिकता का आरोप लगाकर संघ को एक साप्रदायिक संगठन चिन्हित करने का अनवरत् (लेकिन अन्ततः असफल) प्रयास पिछले कई वर्षा से किया हैं जिसके प्रमुख लोगों मे से एक दिग्विजय सिह भी हैं। लेकिन हाल ही के लोकसभा और विधान सभा के चुनावी परिणामों ने संघ पर लगाये जाने वाले इन आरोपों को सिरे से नकार दिया है। इसे आगे इस तरह से समझा जा सकता है। 
  • राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ न तो कभी चुनाव लडता है और न ही चुनावी राजनीति मे विश्वास रखता है, लेकिन अनवरत -राष्ट्र सेवा के कार्याें मे जुटा रहता है। संघ के इन्ही अधिकतर सिध्दान्तों को भाजपा ने भी अपनाया हैं ऐसा भाजपा या संघ का ही मानना नही है बल्कि खुद विरोधी भी  भाजपा पर यहीं आरोप लगाते है । भाजपा के घोषणा पत्र मे संघ के अधिकतर सिध्दान्त समाहित है जिनके आधार पर उनके द्वारा लोकसभा का चुनाव लडा गया। यदि संघ का कोई स्वंय सेवक भाजपा का प्रत्याशी है तो वह स्वंय को सर्व प्रथम संघ का स्वंय सेवक मानता है और फिर पार्टी का कार्यकर्ता नेता या अन्य कोई वजूद। अर्थात एक प्रचारक भाजपा के कार्यकर्ता/नेता के रूप में चुनावों मे जाता हैं तो उसका स्वंय सेवक के रूप मे वजूद जनता के बीच विद्वमान  रहता हैं फिर चाहे नरेन्द्र मोदी हो या खट्टर जिन्होने अपने प्रचारक व्यक्तित्व को कभी नही छुपाया बल्कि सीधे जनता से वोट मांगे और परिणाम आपके सामने हैं।इन परिणामों से यही साबित होता हैं कि जनता ने राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ पर लगे आरोपों को नकार दिया हैं।
  • अतः अब तो कम से कम आलोचकोे को जमीनी सत्यता को स्वीकार कर आरेाप लगाना बंद कर (उन्हे) देश हित में संघ द्वारा किये जाने वाले व्यक्तिव निर्माण कार्य मे जुड जाना चाहिये या  उन्हे संघ नाम से परहेज है तो वे स्वंय स्वतंत्र रूप से देश निर्माण कार्य मे जुड जाये ताकि वे स्वंय अपने आप को भी देश की प्रगति और निर्माण मे एक भागीदार बना सके।

                                              (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष हैं) 
                   




शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2014

‘शान्ति‘ का नोबेल पुरस्कार मिलने पर‘सत्यार्थी‘ का मान-अभिमान,लेकिन देश का ....?

  •      ''2014'' का नोबेल शान्ति पुरस्कार पाकिस्तान की मलाला युसूफ जई के साथ संयुक्त रूप से  मध्य प्रदेश के विदिशा मे पैदा हुये कैलाश सत्यार्थी को दिया गया, जिससे हर भारतीय का सिर गर्व से उॅचा हो गया। ''विशिष्ट'-'दिशा' (वि-दिशा) लिये हुये''कैलाश'('पर्वत) की उचाईयों तक पहुचने का उद्ेश्य लेकर सत्य का रास्ता अपनाते हुये (सत्यार्थी ) भारतीय कैलाश सत्यार्थी को संयुक्त रूप से पाकिस्तानी मलाला युसूफजई के साथ विश्व शान्ति का नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने पर भारतीय उपमहाद्वीप के इन दोनो नागरिको को हार्दिक-बधाइयॉ, वन्दन -अभिनन्दन। जहॉ किसी भारतीय को वर्ष 2009 के बाद नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ हैं वहीं मात्र 17 वर्ष की आयु में विश्व की सबसे कम उम्र की नोबेल पुरस्कार विजेता बनी। एक अशांत देश जो अपने पड़ोस में शान्ति भंग करने की लगातार हरकतें कर रहा है के नागरिक को शान्ति के लिये और वह भी महिला को पुरस्कार मिलना निश्चित रूप से बधाई व साहस का ही प्रतीक हैं। कैलाश सत्यार्थी द्वारा बचपन बचाओं आन्दोलन से अभी तक 80 हजार से अधिक बाल मजदूरों को बदहवासी से उबारकर बाल गुलामी व श्रम कानून विरोधी शक्तियों से उन्हे निकालकर, नये जीवन की राह मे ले जाकर साहसिक कार्य किया है। इसके लिये उन्हे नोबेल पुरस्कार मिलना निश्चित रूप से एक व्यक्ति की हैसियत से गौरव की बात है। 
  • सत्यार्थी ने अपना सम्पूर्ण जीवन निःस्वार्थ रहते हुए बाल-मजदूरी को खत्म करने के लिये सफलता पूर्वक लगाया, जिसका मूल्याकंन व अभिनन्दन पुरस्कार द्वारा ही किया जा सकता हैं। लेकिन क्या यह ''नोबेल '' सम्मान भारत देश के मुकुट को भी नोबेल (सुशोभित) करेगा? और क्या यह भारत का सिंर विश्व मे ऊॅचा उठायेगा ? नोबेल पुरस्कार की भव्यता, अतंर्राष्ट्रीय स्वीकारिता, मान्यता व सर्वोच्चता से दूर हटकर,यदि हम गहराई मे जाकर देश की उन परिस्थितियों जिन पर कार्य करने के कारण नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ हैं, की स्थिति का आकंलन करेगें, तो क्या भारत देश भी उतना ही खुश होगा? जितना कैलाश सत्यार्थी हुये हैं। यह गहरे चिन्तन,विवेचना, सोच व शोध का विषय हैं जिसकी मीमांसा करने से मै खुद को रोक नहीं पा रहा हॅू। 
  • इसके लिये सर्वप्रथम हमें यह जानना आवश्यक होगा कि''सत्यार्थी''और''मलाला''को किस विषय पर और कौन से कार्य करने के लिये नोबेल पुरस्कार मिला। महिला अधिकारों से मरहूम अशान्त पाकिस्तान में मलाला ने तालिबानियों जैसों के मध्य महिलाओ की शिक्षा व जागरूकता के लिये जीवन की परवाह किये बिना आवाज बुलन्द की। सत्यार्थी ने बाल मजदूरो व बाल अधिकारों के लिये ऐसे कार्य किये जिनसे उन्होने हमारे देश के (तंत्र) सामाजिक ताने-बाने को सुधारने का प्रयास किया। इस कारण वे बच्चे जो हमारे भविष्य के प्रतीक, भविष्य का देश हैं, जिनके युवा होते बाल कंधे  पर देश का भविष्य टिका हैं, उनकी भ्रूण हत्या न हो जाय उसे रोक कर समाज व अन्ततः देश के लिये उन्होने एक बहुत ही बडा सराहनीय कार्य किया है, जिसके लिये उन्हे प्राप्त प्रतिफल के वे निश्चित हकदार है। लेकिन जब हम एक देश की नजर से देखते है ंतो यही कार्ये मे निमित्त  भाव देश को शर्म से झुका देता हैं। यह नोबेल पुरस्कार हमारे देश के नागरिकों की मानवीय संवेदनाओं पर चोट पहुॅंचाता है।ं यह नोबेल पुरस्कार हमारे देश में बाल-मजदूरी, बाल गुलामी, बाल अधिकार व बच्चों का किस तरह का जीवन स्तर है, इनकी दुर्दशा को दर्शाता है। तदाःनुसार एक तरफ तो यह पुरस्कार इस स्तर को सुधारने वाले को एक ऐसा प्रमाण पत्र देता है जिसमें ''एक व्यक्ति'' का सिर अभिमान से ऊँचा उठ जाता है। लेकिन दूसरी ओर उसी के साथ देश के दिलो की धडकन इस बात को सोचने के लिये क्यों मजबूर नही होती है? प्रत्येक नागरिक की सोेच ऐसी कब होगी, जब सत्यार्थी जैसे व्यक्तियों को ऐसे काम करने की परिस्थितियाँ ही न मिले और हम ऐसे क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार पाने के हकदार कम से कम भविष्य मे तो न बने। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों मे देश में जो कमियाँ हैं, वह हमारे सामाजिक ताने-बाने (ढाँचे)ं मे अभी भी विद्यमान है। आज का शान्ति का यह नोबेल पुरस्कार इन कमियों पर कम से कम हमें यह सोचने के लिये अवश्य मजबूर करेगा। हम में से प्रत्येक नागरिक उन्हेें दूर करने के लिये अभी से पूरी ताकत के साथ सेवा भाव मे लग जायें ताकि भविष्य में फिर कभी किसी एक व्यक्ति या संस्था हम अधिकाशं नागरिकों के सोते रहने के कारण देश हित मे  बुराई को दूर करने के लिये फिर से किसी परिस्थितिजन अवसर  न मिल  पाये ताकि वह फिर किसी अन्य विषय पर नोबल पुरस्कार प्राप्त कर सके जिससे देश को नीचा देखना पडे।  
  • इस मीमांसा का यह कदापि अर्थ नही है कि सत्यार्थी ने जो कार्य किये हैं वह प्रशंसनीय नहीं हैं और ऐसा भी नही कि यह नोबेल पुरस्कार की प्रतिष्ठा पर कोई प्रश्न चिन्ह लगा दे।लेकिन इस देश के 100 करोड से अधिक वयस्क नागरिकों के लिये यह संदेश अवश्य है कि वे कम से कम अपना नागरिक कर्तव्य निभाकर हमारे अव्यवस्थित ढॉचे की समस्त कमियों को दूर करने हेतु तन-मन-धन से आज ही से जुट जायें।
  • यदि पुरस्कार भौतिक (सुब्रम्हमण्यम चन्द्रशेखर, सर सीवी रमन),रसायन  मेडिसिन जैसे क्षेत्रों मे कार्यं के लिये मिलता तो यह निश्चित रूप से व्यक्ति के साथ-साथ देश का गौरव आगे बढ़ाने जैसा होता। लेकिन यह पुरस्कार एक व्यक्ति के उसकी जीवटता साहस की निरन्तरता, परिपक्वता के साथ निःस्वार्थ भावों के साथ किये गये कार्य उसके निश्छल व्यक्तिव को प्रकट करते हैं। उनके लिये यह पुरस्कार सम्मान का प्रतीक तो हैं किन्तु हमारे देश का सिर इसलिये नीचे झुक जाता है क्योकि ंवह हमारे देश के निर्मल बालकांे की निम्नतर स्थिति को भी दर्शाता हैं। 
  • यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भारत सरकार ने नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी को देशहित में किये कार्यो के लिए कोई संज्ञान न लेकर पद्मश्री से भारत रत्न सहित अन्य राष्ट्रीय पुरस्कारों हेतु योग्य नहीं समझा अर्थात स्वयं सरकार भी............................।़
  • इसलिये शातिं का नोबेल समुचित नही। यदि वर्तमान नोबेल सूचि में समाज सुधारक के नोबेल  का प्रावधान न हो तो अपेक्षित है कि नोबेल निर्णायक मंडल इस विषय को भी सुची मे शामिल करने के प्रयास  करे ताकि भविष्य मे समाज सुधार का नोबल दिया जेा सके ताकि वास्तविक रूप मे शांितं के लिये किये जाने कार्य के लिये दिये जाने वाले नोबेल की महत्ता बनी रहे।  
  •           अतः ईश्वर से यही प्रार्थना हैं कि भविष्य में व्यक्तिगत उपलब्धियों के अतिरिक्त अन्य किसी भी सामाजिक स्तर के विषय पर मेरिट पर नोबेल पुरस्कार कमेटी हमें नोबेल देने मे हमारे  देश को असहाय व अनुपयुक्त पाये, यही देश के लिये नोबल होगा। 
  •  
  •                       (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष हैं)

मंगलवार, 7 अक्टूबर 2014

कांग्रेस द्वारा पैदा किये गये कीचड मे ही ‘‘कमल‘‘ ‘‘खिला‘‘-नरेन्द्र मोदी..

  प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हरियाणा मे एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुये कहा कि कांग्रेस ने जो कीचड फैलाया है उसके कारण ही कमल खिला हैं। उन्होने  आगे यह भी कहा कि जितना कीचड फैलेगा उतना ही कमल खिलेगा। मोदी अपने भाषणो मे तुकबन्दी और जूगलबन्दी के लिये माहिर माने जाते हैं जो श्रोताओ में एक तत्काल प्रभाव पैदा करती हैं और तालियांे की गडगडाहट से स्वागत भी होता हैं। वैसे भी हमारे राजनेताओ ंमें भाषण देकर पलटने की आदत पुरानी हैं। लेकिन मोदी इसके उलट बयान पलटने के बजाय  तुकबन्दी के चक्कर मे कई बार कुछ ऐसी बाते कह जाते हैं जहॉ उस बात से पलटे बिना ही उस बात का आगे का दूसरा अर्थ अनर्थ पैदा कर देता हें ऐसा है कि जैसा एक सिक्के के दो पहेलू होते है।ं
मोदी का यह कथन तुकबन्दी के हिसाब से सही है कि कमल कीचड मे ही खिलता है व इस तथ्य की कोई आलोचना भी नही कर सकता हैंे।कांग्रेस ने पूरे देश मे इतना कीचड फैलाया कि कई जगह जहांॅ कमल भी नही था वहॉ पर भी कमल खिल गया, यह बात भी सही हैं। मोदी लोक सभा के आम चुनाव मे जीत के बाद एक बात वे बार बार कहते है कि 125 करोड की जनता का उन्हे समर्थन मिला है। इसका मतलब यह है कि उन्हें सम्पूर्ण भारत का चाहे वह मतदाता भी न हो समर्थन प्राप्त न भी ही बाकी निरंक है उन्होने जनता से कांग्रेस मुक्त भारत की अपील भी की थी, और अब वे राज्यों मे भी कांग्रेस मुक्त राज्यो ंकी अपील कर रहे हैं।अब यदि मोदी की बात का आगे अर्थ निकाला जाय तो आगे लगातार कमल खिले रहने के लिये कीचड का होना आवश्यक है लेकिन जब कांग्रेस मुक्त भारत हो जावेगा तब कमल खिलने के लिये कीचड कौन फैलायेगा ? और यदि कीचड नहीं होगा तो ‘‘कमल‘‘का क्या होगा। इसलिये राजनेताओ को अपने चुटकले अंदाज और भाषणो मे तुकबन्दी करते समय इस बात पर अवश्य ध्यान देना चाहिये कि उनकी स्वंय की बाते उन पर कही स्वंय पर उलटी न हो जावें।वैसे मोदी जी इस समय कुछ ज्यादा ही उत्साह मे है और उनके रफतार की गति अधिक होने के बावजूद असामान्य है जो तात्कालिक रूप से प्रसिघ्दयां तो प्राप्त कर सकते है और तालिया भी पीट सकती हैें लेकिन स्थायी प्रभाव क्या होगा, यह वक्त ही बतलावेगा।

शनिवार, 4 अक्टूबर 2014

निर्मल भारत !स्वतंत्र भारत! स्वच्छ भारत!‘‘नरेन्द्र‘‘ का आव्हान....

   प्रधानमंत्री ने 2 अक्टूबर को गांधी जयन्ती व शास्त्री जयन्ती के अवसर पर‘‘झाडू‘‘लगाकर स्वच्छता महाअभियान की शुरूआत कर और 3 अक्टूबर को आकाशवाणी के द्वारा देश की 95 प्रतिशत से अधिक जनता को अपने मन की बात कहकर ‘‘नरेन्द्र‘‘ (विवेकानन्द) बनने की ओर एक और सकारात्मक दृढ कदम उठाया हैं। देश का दुर्भाग्य ही यह है कि ‘‘मन‘‘‘मोहने‘‘ वाले कभी भी अपने नाम को सार्थक नहीं कर पाये व 10 वर्षं के लम्बे कार्यकाल मे ‘‘ंमन‘‘की बात ‘‘मन-मोहन‘‘नही कर सके जबकि‘‘नरेन्द्र‘‘ ने 100 दिनों से थोडा अधिक की   अवधि में ही अपने मन की बात ‘आकाश‘‘-‘वाणी के रूप में जनता के मन में उतार दी।
    स्वाधीनता आन्दोलन के अतिरिक्त गांधी जी की पहचान मुख्य रूप से दो कार्यो से होती रही है। एक‘‘अहिंसा‘‘ और दूसरा ‘‘स्वच्छता के प्रति दृढ कार्य विश्वास‘‘ व उसे सर्वप्रथम स्वंय पर लागू करना। इसी प्रकार लालबहादुर शास्त्री की पहचान भी मुख्यतः दो रूपों मे होती है।एक उनका नारा जय जवान जय किसान (जो बहुत प्रसिघ्द भी हुआ )और दूसरा देश में अनाज की बचत के लिये सप्ताह में एक दिवस का उपवास का आव्हान।इस उपवास के पीछे भी शरीर एवं आत्मा की शुध्द़ता व स्वच्छता का भाव स्वयंमेव ही जुडा हुआ है। देश की बहुसंख्यक जनता भी ‘‘जय जवान से जय किसान‘‘ के बीच मे लगमग शामिल हो जाती है। इस प्रकार 2 अक्टूबर को नरेन्द्र मोदी ने देश के नागरिको को देश की स्वच्छता अभियान मे सक्रिय रूप से शामिल होने का आव्हान कर दोनो महापुरूषो को समाहित कर लिया है।मोदी की एक खूबी यह भी रही है कि वे जब भी जनता के बीच किसी भी मुददे को लेकर प्रस्तुत होते है तो वे उसे जनता के मन मे इतना गहरा उतारने का प्रयास करते है कि वे जन-मुददे बनकर व वजनदार होकर उनके(मोदी के) स्वंय के मुददे (एजेन्डा)न रहकर वे सम्भावित राजनैतिक आलोचनाओ से बच जाते हैं। 
स्वच्छता अभियान केे प्रारम्भ मे ही मोदी ने उन आशंकाओ को भी व्यक्त कर दिया कि इस मुददे पर कोई‘‘राजनीति‘‘नहीं की जानी चाहियें। इसे राजनीति से दूर ही रखें। लेकिन यह देश राजनितिज्ञों का है, मोदी खुद राजनैतिक है,और हमारे राजनितिज्ञो के कण-कण, तन मन मे राजनीति समाहित है।ं आलोचना करना हमारा जन्म सिघ्द-राजनैतिक-मूलभूत-अधिकार है।ऐसी मान्यता के रहते राजनीति तो होनी ही है, चाहे वह देश को आगे ले जाने वाले अच्छे कार्य के लिये ही क्यों न होे। आलोचक तो आलोचना करेंगें ही और उस पर राजनीति भी करेंगें, जो दिख भी रही है।इसीलिये शायद किसी ने सत्य ही कहा है कि आलोचको का कभी स्मारक नहीं बनता है। शायद इसी सत्य को भॉपकर मोदी ने पूर्व मंें ही चेतावनी दे दी थी।
         वास्तव मे यदि देश को स्वच्छ करना है और बनाये रखना है तो हमे रोग का इलाज करने के बजाय रोग उत्पन्न ही न हो इस दृष्टि से कार्य करना होगा।अर्थात् स्वच्छता बनाये रखने के बजाय गंदगी ही न हो ,न पैदा करे, इसको प्राथमिकता देनी होगी। इसके लिये भौतिक साधन सेे ज्यादा आवश्यकता हमे अपने चरित्र,स्वभाव आौर आदतों को सुधारने की होगी । हम मे से प्रत्येक नागरिक यदि यह दृढ संकल्प ले लेता हे कि वह स्वंय न ही अपने घर मे और न सार्वजनिक स्थल पर कोई गंदगी करेगा और न ही फैलायेगा तो निश्चित रूप से स्वच्छता अभियान का 70-80 प्रतिशत कार्य बगैर किसी खर्च के सफल हो सकता है।ं तब फिर स्थानीय स्वायत संस्थाओं को सिर्फ इस बात का प्रबंध करना होगा कि दैेनिक व्यक्तिगत जीवन में व सार्वजनिक जीवन में जो कचरा पैदा होता हैं उसको एकत्रित करने से लेकर वर्गीकृत कर नष्ट करने का प्रबंध किस प्रकार से सुचारू रूप से हो सकता हैं ताकि वे नागरिक जो गंदगी न फैलाने की प्रतिज्ञा ले चुके है, उन्हे दिनचर्या से उत्पन्न प्राकृतिक गंदगी को नष्ट करने मे सहायता मिल सके।

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