- आखिर इस देश के राजनीतिक पटल पर दिन प्रतिदिन हो क्या रहा है? किस तेजी से हो रहा है? जो शायद एक सामान्य नागरिक की कल्पना से परे है। लेकिन यह हमारा भारत देश है जहॉं सब कुछ असंभव भी संभव है। अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है जब अन्ना आंदोलन से उत्पन्न आदर्श स्कूल से निकले छात्र आदर्श प्राध्यापक बनकर देश की जनता को आदर्श वाद का पाठ पढाने लगे और जनता ने भी उन्हे अपनी इस शिक्षा का ''आदर्श गुरू'' मान कर गुरू दक्षिणा के रूप में ऐतहासिक बहुमत दिल्ली विधान सभा चुनाव में दिया। लेकिन हे भगवान! उनका यह विश्वास इतनी जल्दी विश्वासधात में बदल जायेगा व इस तेजी से उपर से नीचे की ओर गिरने की इतनी गहराई तक विश्वास पर चोट पहुचेगी, इसकी कल्पना करना भी सामान्य रूप से सामान्य सोच की दृष्टि से संभव नहीं है। इस विश्वासधात को तोडते हुये तथाकथित आदर्श वादियो ने एक क्षण भी इस बात को नहीं सोचा कि इस आदर्शवाद का पाठ पढने वाले लोगो में कोमल नन्ही नन्ही राजनीति के नये बच्चे भी हैं जिन के कोमल दिल पर हुये इस विश्वासधात का क्या असर होगा इसकी जरा सी भी चिंता उन्होने नहीं की। बल्कि बेशर्म होकर देश के आम राजनीतिज्ञांे के समान धिसे पिटे तर्क देकर स्वयं को आदर्शवादी साबित करने पर तुले हुये है। शायद इसीलिए यह कहा गया है कि राजनीति के हमाम में हम सब नंगे है। लेकिन 67 सीटो के मजबूत कवच के आवरण के बावजूद 'आप' का राजनैतिक हमाम में नंगा हो जाने से शायद देश में नैतिक मूल्यो के पुनरोत्थान पर ही प्रश्न चिन्ह लग गया है?
- जबसे सरकार बनाने के प्रयास के स्ंिटग का प्रकाशन हुआ है उस पर आप नेताओ की प्रतिक्रिया भी विश्वासधात के समान ही मन को घायल करने वाली प्रतिक्रिया है। कुमार विश्वास का यह कथन है कि राजनीति में आये है तो भागवत कथा करने नहीं आये है सरकार बनाने के कैसे भी प्रयास करने में गलत क्या है? अन्य आप नेताओ के कथन कि उन्होने सिर्फ सरकार बनाने का नैतिक प्रयास भर किया है, उसमें गलत क्या है? वस्तुतः अब आपके नेताओं को नैतिक शब्द से दूर ही रहना चाहिए क्योकि अब 'आप' नेता ऐसे ''पारस'' बन गये है जिनके स्पर्श मात्र से नैतिकता की परिभाषा भी बदल कर अनेैतिकता की हो जायेगी। जब आप पार्टी का गठन हुआ था तब यह कहा गया था कि वह खरीद-फरोक्त, बेइमानी ,भष्ट्राचार की राजनीति से दूर सिद्धान्तो व नैतिक मूल्यो की राजनीति शुरू करने जा रही है। 'कुमार' '(अ)विश्वास' द्वारा बार बार यह कहा गया कि यदि पार्टी अपने मूल्यो व सिद्धान्तो से हटती है तो मैं पार्टी छोड दूगा। कुमार विश्वास को अब अपने नाम से ''विश्वास'' शब्द हटा लेना चाहिए
- बहुत पुरानी नहीं है जब एक वर्ष पूर्व 2014 में दिल्ली के विधान सभा चुनाव के परिणाम के पश्चात केजरीवाल ने कसम खा खाकर और ख्ूाब पानी पी पी पीकर कंाग्रेस की आलोचना करते हुये यह घोषणा की थी कि हम सरकार बनाने के लिए न तो काग्रेस का समर्थन लेगे और न देगे अर्थात् वास्तविक धरातल पर कंाग्रेस की न केवल छाया से वरन् सुगंध/दुर्गंध से बहुत दूर रहने का परहेज करने का संकल्प लिया था। जब राष्ट्रपति शासन के दौरान भाजपा ने सरकार बनाने का प्रयास किया तो वही आप पार्टी ने निरतंर यही आरोप लगाया कि भाजपा 'आप' व काग्रेस पार्टी के विधायको को मंत्री पद व पैसे का लालच देकर खरीद फरोक्त कर सरकार बनाने का प्रयास कर रही है जिसे किसी भी स्थिति में सफल नहीं होने देगे। इसके लिए उन्होने आी स्ंिटग का सहारा लिया जो उनके लिए भस्मासुर सिद्ध हो गया। जब दिल्ली विधानसभा की ऐसी स्थिति थी कि कोई भी पार्टी दूसरी पार्टी के समर्थन या उनके तोडे बिना सरकार नहीं बना सकती थी तब कुमार विश्वास का यह कथन कि हम राजनीति में भागवत कथा करने थोडे आये है उनकी सत्ता की लालसा को स्पष्ट प्रदर्शित करता है। भाजपा का सरकार बनाने का प्रयास 'पाप' कैसे हो गया व 'आप' द्वारा सरकार बनाने का अवसर खोजना पवित्र व पुण्य कैसे हो गया? आप पार्टी के इस कृत्य के बाहर आने के बाद से ही दिल्ली की ही नहीं बल्कि देश की जनता ठीक उसी तरह से ठगा महसूस कर रही है जैसे जम्मू कश्मीर में भाजपा ने जब पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनाने के लिये अपनी राष्ट्रीय अस्मिता व पहचान धारा 370 को ही छोड दिया। इसीलिए शायद यह मुहावरा अस्तित्व में है कि इधर खाई है तो उधर कुऑ। आखिर जनता जाये तो जाये कहॉ। उन्हे तो दोनो पाटो के बीच पिसना है। ऐसी स्थिति में इस बात की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है कि जब जनता एक पाट के शासन की बात करने लगे जिसमे तानाशाही की बू की पूरी संभावना हो सकती है। इसलिए कम से कम इस देश को बनाये रखने के लिए अब किसी जयप्रकाश या 'अन्ना' की प्रतिक्षा किये बिना देश के नागरिको को स्वंय आगे आना होगा तभी स्वर्णिम भारत की कल्पना की जा सकती है, वास्तविक्ता तो दूर की कोडी वाली बात है।
सोमवार, 16 मार्च 2015
‘आप’ के ‘‘महाभारत’’ सें ‘‘राजनीति के हमाम’’ में ‘आप’ भी .......हो गई है?
बुधवार, 4 मार्च 2015
कश्मीर में पी. डी.पी. बीजेपी सरकार का गठनः जनादेश का अपमान कब तक होता रहेगा!
- अन्ततः कश्मीर में ''लोकप्रिय सरकार'' का गठन हो ही गया व राज्य में लागू ''राज्यपाल शासन'' समाप्त हो गया। आम चुनावो के बाद जब भी नई सरकार का गठन होता है तो उसे ''लोकप्रिय सरकार'' ही कहा जाता है। लेकिन जम्मू - कश्मीर प्रदेश में जो सरकार का गठन हुआ है, क्या उसे लोकप्रिय सरकार कहा जा सकता है़? क्या यह जनादेश का सम्मान है? पिछले कुछ समय से जिस तरह से आम चुनाव के बाद सरकारो का गठन हो रहा है उसमें जनादेश के सम्मान के नाम पर सत्ता में भागीदारी के उद्वेश्यो से हीे सरकारो का गठन हुआ है, जो वास्तव में जनादेश के विपरीत गठित हुई है।
- बात 2014 के दिल्ली चुनाव से कर ले जहॉ पर किसी भी पार्टी या गठबंधन को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। लेकिन परस्पर एक दूसरे के विरूध सैद्धधातिक व राजनैतिक रूप से लडने वाली राजनैतिक पार्टीयॉ 'आम' व कंाग्रेस ने जनादेश की भावनाआंे के विपरीत सरकार का गठन किया। इसके बाद महाराष्ट्र के चुनाव हुये जहॉ भी किसी भी पार्टी या गठबंधन को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ, वहॉ पर भी जनादेश के निर्णय के विरूद्व चुनाव में एक दूसरे के विपरीत लडने वाली पार्टीयॉ भाजपा व शिवसेना ने सत्ता में भागीदारी के उद्वेश्य से गठबंधन सरकार में शामिल हुई।
- यही इतिहास जम्मू-कश्मीर में भी दोहराया गया। खूब पानी पी-पी कर एक दूसरे को अंराष्ट्रीय घोषित करने की सीमा तक आलोचना करने वाली भाजपा और पी.डी.पी को जनादेश ने सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं दिया। सबसे बडी पार्टी होने के बावजूद भाजपा ने दिल्ली में सरकार का गठन नहीं किया। आप के द्वारा काग्रेस के बिना मॉगे एक तरफा सहयोग से सरकार बनाते समय भाजपा ने खूब पानी पी पीकर ''आप'' को जनादेश के विपरीत सरकार बनाने के लिये कंाग्रेस से हाथ मिलाने पर जमकर कोसा। लेकिन अब वही भाजपा जम्मू-कशमीर में सबसे बडी पार्टी न होने के बावजूद वह पार्टी जिसके विरूद्व वह चुनावी मैदान में लडी थी जिसके सिद्वांत भाजपा के अस्मिता व पहचान बनाने वाले सिद्वांतो से ढ-36-झ है के साथ हाथ मिला रही है। वहॉ पर उसने सिद्वांतो की तिलांजली देकर राष्ट्रहित में नहीं? बल्कि सिर्फ और सिर्फ सत्ता के आर्कषण के मोह में बंधकर सरकार का गठन किया जो जम्मू -कश्मीर के नागरिको द्वारा दिये गये मतो पर एक करारा तमाचा है।
- राज्यपाल शासन लागू होना इस बात का धोतक है कि जनादेश सरकार बनाने के लिये किसी पार्टी को नहीं मिला था। इसके लिये दूसरा विकल्प यही था कि सरकार गठन के लिये आवश्यक बहुमत के आकडे के मुद्वे को लेकर समस्त राजनैतिक पार्टीयॉ पुनः जनादेश के लिये जनता से वास्तविक जनादेश प्राप्त करती जैसा कि आप ने बाद में दिल्ली में किया। या सबसे बडा राजनीति दल पी.डी.पी सरकार का गठन करती व अन्य समस्त पार्टीयॉ सबसे बडी पार्टी के सरकार केा गठन में सकारत्मक सहयोग प्रदान कर स्वस्थ विपक्ष का दायित्व निभाती। उसी प्रकार जैसा कि भाजपा ने दिल्ली में पूर्ण बहुमत प्राप्त न होने के बाद सबसे बडी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस का लिखित समर्थन की चिठ्ी के बाद यह घोषणा की थी कि ''आम आदमी पार्टी'' सरकार बनाये व भाजपा विपक्ष में रहकर जनता के हित में एक जिम्मेदार रचनात्मक विपक्ष का रोल अदा रोल अदा करेगी। क्या रचनात्मक विपक्ष के रोल में एक पार्टी की अल्पमत सरकार को जनादेश के अनुसार जनता के हित में साधने तक चलाने के लिये सहयोग का मंत्र शामिल नहीं हो सकता है? इसके बावजूद सिर्फ और सिर्फ सत्ता की भागीदारी हेतू सरकार का गठन कर राजनीति के सिद्वांतो की परिभाषा को ही आज बदल दिया गया है। हिन्दूस्तान में कब ऐसी राजनैतिक परिस्थितियॉ उत्पन्न होगी जब राजनीति की परिभाषा सर्वकालीन प्रत्येक स्थिति में एक ही होगी। यदि ग्लास में आधा पानी भरा हो, तो ग्लास आधा भरा हैे या आधा खाली है, ऐसी अलग अलग राजनैतिक व्याख्या कब खत्म होगी, प्रश्न यही है? जनता का विवेक हमेशा सर्वश्रेष्ठ होता है जिस पर उंगली नहीं उठाई जा सकती है।
- यदि दिल्ली में 2014 में किसी दल को बहुमत नहीं मिला तो उसके लिये दिल्ली की जनता को कसूरवार मत ठहराये। जनता ने जनादेश देकर यह संदेश देने का प्रयास किया कि सहमति का दायरा बढाया जाकर समस्त राजनैतिक पार्टीयॉ सबसे बडी पार्टी की अल्पमत सरकार को चलाये ताकि न तो निरंकुश बहुमत सरकार को निंरकुशता की ओर ले जा सके और बहुमत वाला विपक्ष सरकार पर प्रभावी नियंत्रण रख सके। इसके विपरीत जब सरकार पूर्ण बहुमत के अभाव में ज्यादा दिन नहीं चल पाई तो उसी जनता ने उसी 'आप' पार्टी को इतना ज्यादा बहुमत दे दिया कि न केवल निर्बाध रूप से सरकार चल सके बल्कि सरकार चलाने में रोडे अटकाने वालो को गहरा सबक भी सिखाया।
- जब इस देश की राजनीति में कई चीजे पहली बार हो रही हो, तब अल्पमत सरकार का गठन किया जाकर पॉच साल उन्हे क्यो नहीं चलाया जा सकता है, यदि सरकार जनहित में कार्य कर रही है। विपक्ष अपने इस नये रोल को क्यों नहीं स्वीकार करना चाहता है। यद्यपि सरकार पॉच साल के लिये चुनी जाती है लेकिन उसे घसीटने का भी दायित्व किसी भी पार्टी का नहीं है। यदि ऐसी स्थिति में सरकार बनकार गिरती है तो चुनावी विकल्प ही सामने मौजूद होता है जिसे जनता के विवेक पर छोडा जाना चाहिए। जब भाजपा ने पहली बार गठबंधन दलो के साथ मिलकर एन.डी.ए की सरकार बनाई थी तब धारा 370, कामन सिविल कोड इत्यादि मुद्वो पर उसका यह स्टेंड रहा कि उसके पास पूर्ण बहुमत नहीं है और उसकी गठबंधन की सरकार है। अतः गठबंधन की मजबूरियो के रहते वह अपने उन सिद्वांतो को लागू नहीं कर पा रही है जो उसकी अस्मिता व पहचान है। आज जब उसे लोकसभा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त हो गया है तो वह उन मुद्वो को लागू करने की सोच तो दूर बल्कि उन मुद्वो को तिलंाजली देेने जा रही है जो जम्मू -कश्मीर में सरकार गठन के बाद जारी न्यूनतम साझा कार्यक्रम से स्पष्ट है। इस प्रकार भाजपा ने मात्र एक ऐसे प्रदेश में सरकार के गठन के लिये उन राष्ट्रीय मुद्वे को ही तिलाजंली दे दी जो उस प्रदेश (जम्मू कश्मीर) से ही तालुक्क रखता है। यह अत्यन्त ही आर्श्चयजनक और असहनीय घटना है जो देश के करोडो लोगो के दिलो पर झटका है क्योकि मोदी तो 125 करोडो के प्रतिनिधि है।
- पी.डी.पी द्वारा सरकार गठन के 24 घंटे के भीतर ही जम्मू-कश्मीर के चुनाव के संबंध में पाकिस्तान को दिये गये धन्यवाद व अफजल गुरू के देहावशेष की मांगो से विषय की गहनता व गंभीरता इतनी ज्यादा बढ गई है कि देश हित में व अपने अस्मिता के बचाये रखने के लिये जम्मू -कश्मीर सरकार से भाजपा को बाहर हो जाना चाहिए। यही देश हित है, पार्टी का हित भी यही है।
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