- विगत दिवस दिल्ली में तुर्कमान गेट चौक पर रात रोडरेज में जिस तरह कुछ लोगो के समूह ने एक बेटे के सामने उसके पिता को पीट-पीट कर मार डाला और 'भीड'-'तंत्र' उसे जिस निहायत लाचारी व ''शराफत'' से देखता रहा ,वह निहायत दिलदहला देने वाली घटना ,हमारे विभिन्न तंत्रो पर कई प्रश्नवाचक चिन्ह लगा रही है जो घटना से दूरस्थ लोगो को मानवीय संवेदनाआंे के साथ बैचन कर रही है।
- हम भारतीय वैसे तो अपने आप को बडा स्वाभिमानी ,सामाजिक और परोपकारी दिखने वाला व्यक्ति मानते हैं। लेकिन यह घटना शायद हमारे व्यक्तित्व का दोहरापन ही है। हमने कई बार यह देखा है कि जब किसी अकेले व्यक्ति को चार गुण्डों बदमाशो द्वारा मारने पीटने से लेकर चाकू मारने, गोली मारकर हत्या करनेे तक की घटना हमारे सामने घटित हो जाती है तब हमारी मर्दानगी सहित समस्त गुण भय से काफूर हो जाते है व हम एक दर्शक मात्र रह जाते हैं। यदि बहुत साहसी युवा कोई होता तो वह घटना को मोबाईल में कैच कर उसे ब्रेकिंग न्यूज के लिए दे देता। लेकिन स्वयं आगे आकर उस व्यक्ति के साथ होने वाली घटना को ब्रेक करने का प्रयास नहीं करता है। इसके विपरीत यदि कोई साइकिल चालक या पैदल चलने वाला व्यक्ति किसी बडे़ वाहन से टकरा जाता है, तब वही जनता अपने अंदर का पौरूष दिखाकर उस बडे वाहन वाले व्यक्ति पर पिल पडती है। फिर चाहे भले ही बडे़ वाहन वाले व्यक्ति का कोई दोष न भी हो और वह मानवीय संवेदना वश स्वयं घायल होने के बावजूद, दूसरे व्यक्ति को मानवीय सहायता देने का प्रयास भी कर रहा हो।
- यह अनुभव मैं आप लोगो के साथ इसलिए शेयर कर रहा हूॅ क्योकि जिस दिन दिल्ली में यह घटना घटी उसी दिन मेरा भाई अजय खण्डेलवाल भोपाल से बैतूल आ रहा था। होशंगाबाद के पास एक मासूम सी बच्ची मेरे भाई की गाडी से हल्के से स्वयं टकरा गई जिससे उसे हल्की सी चोट आ गई। मेरे भाई ने उसको गाडी में बिठाकर अस्पताल पहॅुचाने का प्रयास किया। तभी दूर खडी छोटी सी भीड भाई पर अपना पौरूष जमाने का प्रयास करने लगी। कहने का मतलब यह है कि भीड भी निरीह व्यक्ति के सामने अपना पौरूष दिखाती है और बलशाली के सामने चूहा बन जाती है। आखिर हम इतने संवेदनहीन क्यो हो गये है? इस अंत हीन दुख भरे प्रश्न् का उत्तर खंगालने के लिए हमें चारो तरफ नजर दौडानी होगी, वास्तव में हमारी संवेदनाये अंतरमुखी होकर इतनी कम जोर पड़ गई हैं कि हम संवेदना को ही भूल जाते है। यदि कभी ऐसी घटना हमारे परिवार के साथ दुर्भाग्यवश हो जाये तो हमारे दिल पर क्या बीतेगी ?
- क्या यह 'तंत्र' का दोष नहीं है ? जिस तंत्र में हम रहते है ,जीते है वहॉं कोई शरीफ व्यक्ति ऐसे मामलों में सामने आकर अपना सामाजिक कर्तव्य व मानवीय दायित्व निभाना नहीं चाहता है क्योकि हमारे तंत्र की जॅंाच प्रक्रिया से लेकर ,न्याय प्िरक्रया इतनी दूषित हो गई है कि अभियोजन पक्ष ,अभियोगी बन जाता है और अभियोगी ,अभियोजन। अर्थात् हमारी वर्तमान तंत्र प्रक्रिया में अपराधी की तुलना में उसको सजा दिलाने वाले व्यक्ति को आत्म सम्मान ताक पर रखकर बेवजह ज्यादा तकलीफ झेलनी पडती है।
- जहॉ हम एक ओर अपराधी/आतंकवादी तक के मानव अधिकार की चिन्ता करके प्रगतिवादी कहलाने का गर्व महसूस करते हैं वही एक आम व्यक्ति को क्या दूसरे आम व्यक्ति से मानवीय संवेदना के मानवाधिकार की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए? आखिर यह मानवाधिकार क्या है? यह कानून या संविधान द्वारा प्रदत्त मूल नागरिक अधिकार नहीं है ,तथा ऐसा कहीं वर्णित भी नहींे है बल्कि मान्यता प्राप्त यह वह अधिकार है जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार चार्टर (1948) में मान्यता दी गई है व जिसे न्यायालयो ने भी मूल अधिकार के समान मान्यता दी है। ऐसी स्थिति में मानवीय दृष्टिकोण के मद्देनजर मानवीय संवेदनाओं के मानवाधिकार को मान्यता क्यों नहीं मिलनी चाहिए? इस पर खास ंकर उस विशिष्ट प्रबंध वर्ग को गौर करने की आवश्यकता है जो हमेशा ''मानवाधिकार की'' ''अन्याय पूर्ण सीमा तक'' वकालत करते आ रहे है। भ्रष्टाचार के लोभ में जॉच एजेंसियों के द्वारा किए जाने वाली परेशानियों तथा विभिन्न कारणों से न्याय प्रक्रिया में हो रही देरी व कमियों के कारण इतनी विपरीत स्थिति पनप गई है कि एक ओर हम पढ लिख कर शिक्षित होकर 21वी सदी में जाने का झण्डा लेकर उत्सर्ग हो रहे लोगो की मानवीय संवेदनाएॅं मानवाधिकार को अक्षुण्य रखने की ओर अग्रसर रहने की बजाय, हमारी संवेदना का हा्रस होकर ऐसे निम्नस्तर पर जा पहुॅची है जिससे यदि हम उबर नहीं पाये तो जीवन के अनेक क्षेत्रों में किये जाने वाले विकास का कोई फायदा नहीं होगा। क्योकि मानवीय संवेदनाये जीवन के हर क्षेत्र के हर पहलू को प्रमाणिक रूप से परिणाम रूप में प्रभावित करती हैं। मैं यह मानता हूॅ कि मानवीय संवेदनाओं का सीधा संबंध नैतिक मूल्यों से है। इसीलिए नैतिकता का पाठ प्रत्येक नागरिक को स्वयं पढना और उसके द्वारा दूसरो को भी पढाया जाना अत्यावश्यक है। जयहिंद
मंगलवार, 14 अप्रैल 2015
मानवीय संवेदनाएं समाप्त होने के कगार पर ?
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