1). चुनावी पूर्व सर्वेक्षण और एक्जिट पोल पहले की तरह बुरी तरह से फ्लाप और लगभग विपरीत रहे। लेकिन इलेक्ट्रोनिक्स मीडिया में चुनावी विश्लेषण के दौरान बढत व घटत बताते समय पहली बार यह घटित हुआ कि प्रथम डेढ घंटे में जिस तरह से एनडीए को दो तिहाई बहुमत की ओर बढ़ना बताया गया और तदनुसार उसका औचित्य व कारणों की समीक्षा भी की जाने लगी। लेकिन शाम होते होते सम्पूर्ण परिणाम आने तक परिस्थितियॉं एकदम बदलकर परिणाम विपरीत हो गये। इस कारण सुबह के प्रारंभिक तर्को को बेमानी ठहराकर उन्हीं व्यक्तियों द्वारा अब विपरीत तर्क दिए जाने तथा परिणाम को ठीक बताने के प्रयास किये गये। शायद इसीलिए कहा गया है कि ‘‘जो जीते वही सिकंदर ...........’’
2). ‘‘भाजपा की धरोहर अटल, आडवाणी एवं मुरली मनोहर के नेतृत्व ने जहांॅ पार्टी को 2 से 120 तक पहंॅुचाया और नरेन्द्र मोदी को प्रारंभिक दिनों की राजनीति में मजबूती प्रदान की। परन्तु प्रधानमंत्री पद पर मोदी के सत्ताशीन होने के बाद जिस तरह से इन तीनो नेताओं को (अटल जी की अस्वस्थ्यता के कारण) साइडलाईन किया उसी का फल आडवाणी जी के जन्म दिवस के अवसर पर उक्त चुनाव परिणाम के रूप में मिला’’ ..............ऐसा कुछ व्यंगकारो ने कथन किया है?
3). लालू प्रसाद यादव एक घोषित सजायाफ्ता अपराधी है एवं अन्य कई भ्रष्टाचार के प्रकरणों में अभियोगी भी है। उनके एक ईमानदार, स्वस्थ्य छवि, व विकास पुरूष कहलाने वाले नीतीश कुमार के साथ मिलने के जो परिणाम आये हैं वे इस तथ्य को पुनः रेखांकित करते है कि यदि सही व्यक्ति गलत व्यक्ति का साथ लेगा तो उसका नुकसान होगा और गलत व्यक्ति द्वारा सही व्यक्ति का सहारा लेने पर फायदा होगा। साथ ही परस्पर लड़ने के बजाय यदि एकत्रित होकर चुनाव लडा जाय तो उसमें विजयी होने की सम्भावना ज्यादा रहेगी। जैसा कि पिछले चुनाव की अपेक्षा 8.31 प्रतिशत ज्यादा वोट मिलने के बावजूद दो विपरीत ध्रुवों वाले ‘‘महागठबंधन’’ के सामने ‘‘भाजपा’’ को हार का सामना करना पडा।
4). यह चुनाव दो तरह के विपरीत संकेत एक साथ इंगित करता है जो चुनाव प्रणाली की कमी को दर्षाता है। जहॉ स्पष्टतः सीटों की संख्या की दृष्टि से भाजपा की भारी हार परिलक्षित होती है वहीं पर वोटो की संख्या की दृष्टि से भाजपा की भारी जीत प्रतीत होती है। वह इस अर्थ में कि भाजपा ने सत्ता से बाहर रहने के बावजूद पिछले चुनाव की अपेक्षा इस चुनाव में 8.31 प्रतिषत अधिक वोट प्राप्त किये जो भाजपा के पक्ष में परिर्वतन के वोट कहे जा सकते है।
5). यह चुनाव इस बात को भी इंगित करता है कि यदि आपको अपनी जीत सुनिष्चित करना है व उसमें निरंतरता बनाये रखना है, तो आपकी जीत का आधार आप की स्वयं की मजबूत नींव ही हो सकती है। दूसरे की कमजोर पिच को अपनी जीत का आधार मानने से विरोधी की कमजोर पिच के सुधर जाने की स्थिति में आप विजय से दूर होते जायेगे क्योकि आप की स्वयं की पिच मजबूत नहीं है।
6). भाजपा के मार्गदर्षक मंडल ने चुनाव परिणाम पर जो साझा बयान जारी किया वह भी इस चुनाव के तथ्यों से मेल नहीं खाता है क्योकि भाजपा हारी नहीं है, बल्कि सीटों के आंकडों की लड़ाई में विपक्ष अवष्य जीत गया हैं। भाजपा में किसी एक व्यक्ति के जिम्मेदारी स्वीकार करने की परंपरा भी नहीं रही है। जनसंघ से लेकर भाजपा तक व अन्य समस्त पार्टियां (सिवाय कम्यूनिष्टों के) में यह प्रथा कभी नहीं रही। अभी तक भारतीय राजनीति का यह मान्य स्वीकृत सिद्धान्त रहा है कि जीत का श्रेय मुखिया को एवं हार पर अपयष का भार सामूहिक नेतृत्व को दिया जाता है। दूसरी बात ‘‘जंॉच कमेटी में वे लोग नहीं होने चाहिए जो नीतिकार व भागीदार रहे’’ यह भी गलत है। क्योकि एक बहुत अच्छा क्रिकेट खिलाडी भी जो बहुत समय तक खेल से दूर रहा हा उसे यदि एकाएक अम्पायर बना दिया जाये तो वह भी एक अच्छा अम्पायर साबित नहीं हो पाता है। बिहार में यदि पार्टी की हार व तथ्यों सही का पता लगाना है तो उन लोगो को भी शामिल किया जाना आवष्यक है जो नीतिकार व भागीदार थे तभी इस पर सम्पूर्ण सार्थक चर्चा हो सकेगी। कोैन सी नीति सही थी कौन सी नीति गलत थी, व निर्धारित नीतियो का कितना पालन किया जा सका इन सब तथ्यों का विष्लेषण चुनावों में शामिल लोगों के साथ मिलकर ही किया जा सकता है।
7). किसी भी भारतीय फिल्म की सफलता केवल हीरो पर निर्भर नहीं होती वरण उसमें विलेन का होना भी आवश्यक होता है। ठीक इसी प्रकार महागठबंधन में नीतीश हीरो के साथ लालू जैसा सशक्त विलेन भी था। जबकि भाजपा में केवल मोदी जी ही हीरो थे जिनका भाजपा ने इस प्रकार दुरूपयोग किया कि अन्जाने में वे हीरो न रहकर विलेन के रूप में प्रस्तुत करा दिये गए। चंूॅंकि (अ) उन्हे नीतीश से नहीं लालू से ज्यादा (ताष के खेल में हुकुम के इक्के का सामान्य दुर्री की काट के लिए दुरूपयोग तुल्य) मुखातिब होना पडा तथा (ब़) भाजपा ने अपना हीरो (होने वाला मुख्यमंत्री) घोषित ही नहीं किया था।
8). स्वाधीन भारत के इतिहास में पहली बार शायद देश के प्रधानमंत्री ने केवल एक राज्य में 30 से अधिक चुनावी सभाएंॅ की हैं।