भारतीय संविधान के तीन प्रमुख स्तम्भ है। विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका। संविधान में तीनों के कार्य क्षेत्र स्पष्ट रूप से परिभाषित हैं तथा उन्हें सीमंाकित भी किया गया है। संविधान लागू होने के 65 साल व्यतीत हो जाने के बावजूद तीनों संस्थाएॅं समय-समय पर एक दूसरे के कार्य क्षेत्र में हस्तक्षेप करने के आरोपो के साथ साथ सर्वोच्चता के मुद्दे पर भी बहस व विवाद करते रहती है, तथा प्रथक-प्रथक रूप से दूसरी संस्थाओं के साथ सांमजस्य के साथ परस्पर मान सम्मान का ध्यान रखते हुए कार्य करते चली आ रही है। लेकिन इतना सब होने के बावजूद न्यायिक सक्रियता (यह शब्द सर्व प्रथम उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी.एन. भगवती के द्वारा प्रकाश में लाया गया) के कारण न्यायपालिका ने कई बार ऐसे निर्णय दिये है जो प्रथम दृष्टया कार्यपालिका के क्षेत्र में अतिक्रमण प्रतीत होते हैं। लेकिन जनता के हित में होने के कारण अन्ततोगत्वा जनता ने उन निर्णयों को सर अंाखो पर रखकर स्वीकार किया है। तथापि न्यायिक क्षेत्र के बुद्धिजीवी वर्ग ने इस तरह कानून से परे जाने के आधार पर उक्त निर्णयों की आलोचना भी की हैं।
विगत तीन दिवस आये माननीय उच्चतम् न्यायालय के निर्णयों व आज उच्च न्यायालय दिल्ली के निर्भया मामले में आये निर्णय ने पुनः इस विवाद को न केवल सतह पर ला दिया बल्कि एक नया विवाद भी पैदा कर दिया। माननीय उच्चतम् न्यायालय ने ऐतिहासिक निर्णय देते हुये उत्तरप्रदेश के लोकायुक्त की नियुक्ति स्वयं कर उत्तर प्रदेश सरकार को उसे कार्याविन्त करने के आदेश दिये है जो स्पष्टतः कार्यपालिका का कार्य होने के कारण उच्चतम न्यायलय द्वारा प्राथमिक दृष्टि में कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण कहा जा सकता है। लेकिन यह निर्णय तब आया जब पूर्व में उत्तर प्रदेश सरकार को लोकायुक्त की नियुक्ति कंे संबंध में दिये गये निर्देश का उसने पालन नहीं किया तब उच्चतम् न्यायालय ने मजबूरी में उक्त नियुक्ति का आदेश पारित किया। इसके विपरीत लोक हित के विरूद्ध निर्भया कांड में उच्च न्यायालय द्वारा (‘‘आदेश की तारीख पर बालिग हो जाने के बावजूद चूॅकि यौन अपराध करने वाला आरोपी अपराध करते समय नाबालिग था’’) नाबालिक अभियुक्त की रिहाई को रोकने से इनकार कर दिया, चूॅंकि वैसा आदेश पारित करना कानूनन् सम्भव नहीं था। इस प्रकार यहॉं उच्च न्यायलय ने जनता की भावना के अनूरूप निर्णय नहीं दिया, जबकि पूर्व में कानूनन् सम्भव न होने के बावजूद कई ऐसे निर्णय दिये गये जो जन हित में थे। फिर चाहे वह सी.एन.जी का मामला हो, या ड़ीजल गाडी का मामला हो, या अन्य अनेक ऐसे मामले हुये हैं, जहॉ उच्चतम् न्यायालय द्वारा कानून के स्पष्ट प्रावधान न होने के बावजूद जनता की भावना के अनुसार जनहित में निर्णय दिये गये हैं। इस प्रकार न्यायालय द्वारा कार्यपालिका के क्षेत्र में बार बार हस्तक्षेप हो रहा है, क्योकि कार्यपालिका अपने कार्य क्षेत्र में अपने दायित्वो को पूरा करने में बारम्बार असफल हो रही है। इसीलिए इस कमी की पूर्ति न्यायिक सक्रियता के मद्ेदनजर न्यायालय जन हित में दिये गये अपने निर्णयो के द्वारा करने का प्रयास कर रही है। अब समय आ गया है कि इस महत्वपूर्ण मुद्दे हेतु उच्चतम संवैधानिक स्तर पर एक समिति बनाई जाय जो इस पर गंभीरता से विचार करे, ताकि भविष्य में इस तरह के निर्णय जन हित में आड़ में न आवे अन्यथा न्यायिक-सक्रियता न्यायिक आराजकता में बदल भी सकती है जिसकी कल्पना आज के शासन व न्यायिक वर्ग शायद नहीं कर पा रहे है।
अंत में लेख की समाप्ति करते करते एक संभ्रात और स्वच्छ छवि व उच्च सोच के नागरिक के समक्ष यह लेख लिख रहा था, के मुख से निकली गई बात को रेखांिकत करना आवश्यक मानता हूं, जो वास्तव में एक प्रश्न पैदा करती है ‘‘न्यायपालिका द्वारा इस तरह के आदेश जो प्राथमिक रूप से अधिनियम के दायरे के बाहर है, जनहित में होने के कारण जिन पर निर्णय वास्तव में मूल रूप से कार्यपालिका व विधायिका को लेना चाहिए था, इस कारण नहीं ले पा रहे है क्योंकि जनहित के बावजूद राजनीति का दंश उतर जाने के कारण उनके द्वारा राजनैतिक रूप से (शायद सम्भावित जन आक्रोश के कारण) निर्णय लेना संभव नहीं हो पा रहा था तो ‘‘क्या कहीं कार्यपालिका व न्यायपालिका के बीच इस हेतु कोई अलिखित गुप्त संधि तो नहीं है?’’