राजीव खण्डेलवाल:
‘‘श्री’’ ‘‘श्री’’ ‘‘रविशंकर’’ गुरू महाराज जी केवल भारत के ही नहीं वरण् विश्व के एक बहुत बड़े ख्याति प्राप्त आध्यात्मिक गुरू हैं। सामान्यतः ‘‘श्री’’ एक सम्मान सूचक संबोधन होता है जो एक नागरिक को सम्मान प्रदान हेतु बोला जाता हैं। जब एक ‘श्री’ के साथ दूसरा ‘श्री’ भी जोड़ा जाय तो वह सम्मान महासम्मान व श्रद्धा बन जाता हैं। ‘श्री श्री’’ की इस महत्ता व गुणवत्ता से कतई इंकार नहीं किया जा सकता है। आध्यात्मिक गुरू, कानून के आधार एवं शक्ति बल के आधार पर नहीं बल्कि स्वयं के नैतिक बल एवं अपने शिष्यों के नैतिक बलों की धरोहर के आधार पर स्वतः की आध्यात्मिक वाणी कीे ताकत से विश्व में शांति, भाईचारा, सामाजिक समरस्ता, समग्रता के विकास व समानता की भावना को हित ग्राहियों (शिष्यों) के बीच फैलाकर व उसे सिंचित कर उनमें सब आवश्यक तत्वों को पल्लवित होने देने का फायदा देकर उनको मजबूत बनाने का का प्रयास करते हैैं।
हाल ही में आर्ट आफ लिविंग संस्था के संस्थापक ‘‘श्री श्री जी’’ का वैश्विक आध्यात्मिक सांस्कृतिक सम्मेलन हुआ। संख्या, विराट स्वरूप व भव्यता, सांस्कृतिक सद्भाव और विभिन्न सांस्कृतिक पहचान की दृष्टि से यह एक उच्च कोटी का सफल आयोजन हुआ, इस तथ्य से कोई भी इंकार नहीं कर सकता हैं। आध्यात्मिक शक्ति के पुंज ‘‘श्री श्री’’ विचारों से भी विवादों से लगभग परे रहे हैं। लेकिन प्रश्न तब उत्पन्न होता हैं जब ऐसे श्रद्धेय आध्यात्मिक गुरू के नेतृत्व में होने वाला कार्यक्रम भी नियम/कानून के उल्लंघन के आरोप सिद्ध पाये जाकर जुर्माने से आरोपित हुए। स्थिति तब और भी विचित्र बन गई जब देश व अंतर्रार्ष्ट्रीय जनता को दिशा दिखाने वाले गुरू (पल भर के लिये स्वयं सत्यमेव के रास्ते से जरा हटकर) ऐसे आरोपित ‘‘जुर्माना भरने के बजाय जेल जाना पसंद करंेगे’’ जैसे कथन कह जाते हैं।
भारत में, भारतीय दंड़ संहिता से लेकर अनेक ऐसे अधिनियम लागू है जिनकी धारा उपधारा, क्लाज, नियम के उल्लंघन पर सजा का प्रावधान हैं, जो मुख्यतः तीन प्रकार की है। प्रथम फाईन (जुर्माना) दूसरी सेन्टेन्स (जेल) एवं तीसरी ‘‘जुर्माना व सजा दोनों’’। ‘‘श्री श्री’’ गुरू जी की संस्था द्वारा कार्यक्रम के प्रायोजन के संबंध में राष्ट्रीय हरित न्ययाधिकरण (एन.जी.टी.) ने अपने नोटिस के प्रत्युत्तर व बहस पर विचार करने के बाद आर्ट आफ लिविंग संस्था पर ढाई करोड़ का जुर्माना आरोपित किया।
इस प्रकार उक्त संस्था द्वारा आयोजित कार्यक्रम विधान-नियम की नजर में गैर कानूनी तुल्य बन जाता हैैं। फाईन जमा कर देने भर से उसका वैधानिक गैर कानूनी स्वरूप बदल नहीं गया है। यद्यपि गैर कानूनी होने के बावजूद वह कार्यक्रम तय समयानुसार हो सका तो केवल इसलिये चॅूकि ट्रिब्यूनल ने कार्यक्रम को रोकने के आदेश नहीं दिये थे। ऐसा भाषित होता हैं कि विश्व के सबसे बड़े आध्यात्मिक गुरू की संस्था द्वारा आयोजित कार्यक्रम पर जुर्माना आरोपित हो जाने से उसकी वैधानिक नैतिकता पर धब्बा लग जानेे के कारण ही उसमें (देश की शासन व्यवस्था के सर्वोच्च महामहिम) राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने भाग नहीं लिया। शायद राष्ट्रपति ने उक्त कार्यक्रम में भाग न लेकर उस कार्यक्रम की नैतिकता पर अप्रत्यक्ष रूप से प्रश्न चिन्ह ही ल्रगा दिया? अपितु राजनीति के चलते, राजनैतिक फायदे के मद्ेदनजर प्रधानमंत्री मोदी वैसा ही दृढ़ इच्छा शक्ति नहीं दिखा पाये। चूॅकि कार्यक्रम ‘‘स्थल’’ वहीं था यमुना नदी के तट जिस पर पर्यावरण केा होने वाली क्षति को देखते हुये ट्रिब्यूनल ने जुर्माना आरोपित किया था।
इस घटना ने भारतीय संस्कृति की इस अवधारणा को पुनः रेखांकित भी किया है कि कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं होता है, चाहे वह विश्व के आध्यात्मिक गुरू ही क्यों न हो। सिर्फ और सिर्फ ईश्वर ही पूर्ण हैं। लेकिन ईश्वर के आस-पास पहंुचने का सबसे महत्वपूर्ण साधन भी गुरू ही होता है। क्योकि वह लगभग पूर्ण होता हैं और इसीलिए तो वह सामान्य मानव से ज्यादा पूज्यनीय होता हैं। ‘‘श्री श्री’’ की इसी धारणा को इस कार्यक्रम से किंचित ठेस पंहुची हैं। इस प्रसंग का भविष्य में खयाल रखा जाना चाहिये। यद्यपि देश में गुरू, महात्मा, पीले वस्त्रधारी संत तो अनेकानेक, अनगिनत है, लेकिन गैर विवादितो की संख्या इतने बड़े कुंभ में गिनती करने लायक मात्र ही हैं। क्या आने वाला ‘‘कुंभ’’ जनता को ऐसी कंुभकरणीय नींद से जगाकर नैतिकता की धारा प्रवाहित कर सकेगा? इसी प्रश्न के साथ? उम्मीद करने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं है!
हाल ही में आर्ट आफ लिविंग संस्था के संस्थापक ‘‘श्री श्री जी’’ का वैश्विक आध्यात्मिक सांस्कृतिक सम्मेलन हुआ। संख्या, विराट स्वरूप व भव्यता, सांस्कृतिक सद्भाव और विभिन्न सांस्कृतिक पहचान की दृष्टि से यह एक उच्च कोटी का सफल आयोजन हुआ, इस तथ्य से कोई भी इंकार नहीं कर सकता हैं। आध्यात्मिक शक्ति के पुंज ‘‘श्री श्री’’ विचारों से भी विवादों से लगभग परे रहे हैं। लेकिन प्रश्न तब उत्पन्न होता हैं जब ऐसे श्रद्धेय आध्यात्मिक गुरू के नेतृत्व में होने वाला कार्यक्रम भी नियम/कानून के उल्लंघन के आरोप सिद्ध पाये जाकर जुर्माने से आरोपित हुए। स्थिति तब और भी विचित्र बन गई जब देश व अंतर्रार्ष्ट्रीय जनता को दिशा दिखाने वाले गुरू (पल भर के लिये स्वयं सत्यमेव के रास्ते से जरा हटकर) ऐसे आरोपित ‘‘जुर्माना भरने के बजाय जेल जाना पसंद करंेगे’’ जैसे कथन कह जाते हैं।
भारत में, भारतीय दंड़ संहिता से लेकर अनेक ऐसे अधिनियम लागू है जिनकी धारा उपधारा, क्लाज, नियम के उल्लंघन पर सजा का प्रावधान हैं, जो मुख्यतः तीन प्रकार की है। प्रथम फाईन (जुर्माना) दूसरी सेन्टेन्स (जेल) एवं तीसरी ‘‘जुर्माना व सजा दोनों’’। ‘‘श्री श्री’’ गुरू जी की संस्था द्वारा कार्यक्रम के प्रायोजन के संबंध में राष्ट्रीय हरित न्ययाधिकरण (एन.जी.टी.) ने अपने नोटिस के प्रत्युत्तर व बहस पर विचार करने के बाद आर्ट आफ लिविंग संस्था पर ढाई करोड़ का जुर्माना आरोपित किया।
इस प्रकार उक्त संस्था द्वारा आयोजित कार्यक्रम विधान-नियम की नजर में गैर कानूनी तुल्य बन जाता हैैं। फाईन जमा कर देने भर से उसका वैधानिक गैर कानूनी स्वरूप बदल नहीं गया है। यद्यपि गैर कानूनी होने के बावजूद वह कार्यक्रम तय समयानुसार हो सका तो केवल इसलिये चॅूकि ट्रिब्यूनल ने कार्यक्रम को रोकने के आदेश नहीं दिये थे। ऐसा भाषित होता हैं कि विश्व के सबसे बड़े आध्यात्मिक गुरू की संस्था द्वारा आयोजित कार्यक्रम पर जुर्माना आरोपित हो जाने से उसकी वैधानिक नैतिकता पर धब्बा लग जानेे के कारण ही उसमें (देश की शासन व्यवस्था के सर्वोच्च महामहिम) राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने भाग नहीं लिया। शायद राष्ट्रपति ने उक्त कार्यक्रम में भाग न लेकर उस कार्यक्रम की नैतिकता पर अप्रत्यक्ष रूप से प्रश्न चिन्ह ही ल्रगा दिया? अपितु राजनीति के चलते, राजनैतिक फायदे के मद्ेदनजर प्रधानमंत्री मोदी वैसा ही दृढ़ इच्छा शक्ति नहीं दिखा पाये। चूॅकि कार्यक्रम ‘‘स्थल’’ वहीं था यमुना नदी के तट जिस पर पर्यावरण केा होने वाली क्षति को देखते हुये ट्रिब्यूनल ने जुर्माना आरोपित किया था।
इस घटना ने भारतीय संस्कृति की इस अवधारणा को पुनः रेखांकित भी किया है कि कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं होता है, चाहे वह विश्व के आध्यात्मिक गुरू ही क्यों न हो। सिर्फ और सिर्फ ईश्वर ही पूर्ण हैं। लेकिन ईश्वर के आस-पास पहंुचने का सबसे महत्वपूर्ण साधन भी गुरू ही होता है। क्योकि वह लगभग पूर्ण होता हैं और इसीलिए तो वह सामान्य मानव से ज्यादा पूज्यनीय होता हैं। ‘‘श्री श्री’’ की इसी धारणा को इस कार्यक्रम से किंचित ठेस पंहुची हैं। इस प्रसंग का भविष्य में खयाल रखा जाना चाहिये। यद्यपि देश में गुरू, महात्मा, पीले वस्त्रधारी संत तो अनेकानेक, अनगिनत है, लेकिन गैर विवादितो की संख्या इतने बड़े कुंभ में गिनती करने लायक मात्र ही हैं। क्या आने वाला ‘‘कुंभ’’ जनता को ऐसी कंुभकरणीय नींद से जगाकर नैतिकता की धारा प्रवाहित कर सकेगा? इसी प्रश्न के साथ? उम्मीद करने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं है!
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष हैं)
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