विगत कुछ समय से बिहार के ‘‘सुशासन बाबू ’’ कहे जाने वाले ‘‘बाबू’’ नीतिश कुमार के शासन में बढ़ रही आपराधिक घटनाओं पर मीडिया से लेकर विभिन्न क्षेत्रो में गहरी चिंता व्यक्त की जा रही है। नीतिश बाबू के शासन को निशाना बनाते हुए ‘‘जंगलराज पार्ट-2’’ कहा जा रहा हैं। बहुत से इलेक्ट्रानिक मीडिया ने बिहार के जगंलराज के संबंध में बहस भी कराई। बिहार में पिछले कुछ समय से जिस तरह से राजनैतिक हत्याये, रोड रेज, अपहरण व अन्य आपराधिक घटनाये बढ़ी है, वे किसी भी शासन के लिये चिंता का विषय होना चाहिये। लेकिन केवल अपराधो के बढ़ते हुये आकड़ो से किसी भी प्रदेश के शासन को कुशासन या जंगलराज कहकर, क्या हम अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो सकते है? यह एक बड़ा मुद्दा आत्मावलोकन का हैं।
यदि बात केवल ऑंकड़ांे की ही की जाये तो उत्तर प्रदेश में अपहरण, हत्या, दंगे व मध्य प्रदेश में बलात्कार की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है। राष्ट्रीय अपराध लेखा केन्द्र (एन.सी.आर.बी) के अनुसार संज्ञेय (काग्निजेबल) अपराध में मध्य प्रदेश शीर्ष पर है। यौन अपराध के मामलो में भी मध्य प्रदेश सर्वोच्च स्तर पर हैं। इनकेे बावजूद मीडिया द्वारा सिर्फ एक प्रदेश को निशाना बनाकर जगंलराज की पदवी देना, क्या यह स्वस्थ्य एवं निष्पक्ष पत्रकारिता पर प्रश्न वाचक चिन्ह नहींे हैं?
मीडिया को इस बात को अवश्य समझना चाहिये कि कोई भी अपराधी अपराध करने के पूर्व स्थानीय प्रशासन को सूचित करके नहीं जाता है। परन्तु प्रत्येक घटना के बाद मीड़िया (अपराधियो की तुरंत गिरफ्तारी न होने पर) प्रशासन को प्रश्नांे की बौंछार से उधेड़ देता हैं। मीडिया को इस बात पर जरूर बहस करानी चाहिये कि हमारे शासन (चाहे किसी भी प्रदेश का हो) का अपराधियों पर इतना खौंफ व पकड़ होनी चाहिये कि वे आपराधिक घटनाओं को अंजाम देने से पहले सौ सौ बार अपराध करने से बचने की जरूर सोचे। कठोर कानून के साथ-साथ प्रशासन की ‘‘प्रशासनिक व्यवस्था दृढ़ता से बिना किसी राजनैतिक हस्तक्षेप के कानून लागू करने वाली हो’’, इस बात पर जरूर विस्तृत बहस चलानी चाहिये।
अपराधों की बढ़ती हुई घटनाओं का दूसरा पहलू भी उतना ही महत्वपूर्ण है। आपराधिक प्रवृत्ति के बढने के कारण ही अपराध की घटनाओं में वृद्धि हो रही हैं। जब व्यक्ति के नैतिक मूल्यों का ह्रास होता है तो वह व्यक्ति की आपराधिक प्रवृत्ति को बढावा देता हैं जिसकी परिणिति अंततः अपराध को अंजाम देने में होती हैं। अतः सामाजिक व शैक्षणिक स्तर पर इस तरह के कदम उठाये जाने चाहिये जो व्यक्ति के नैतिक मूल्यों को बढ़ाकर उन्हे अपराध करने से रोके जिससे इस समस्या का ज्यादा सटीक व स्थायी समाधान हो सकता है। क्या समस्या की यही मूल जड़ तो नहीं है? हमारा देश आध्यात्मिक देश है। हजारो आध्यात्मिक गुरू अनवरत् लाखों अनुयायियों को आध्यात्मिक शिक्षा के माध्यम से शिक्षित करते व सदाचार के गुणो का प्रवाह करते रहते है। यदि आध्यात्मिक शिक्षा में दृढता से अनैतिकता एवं अपराधों के प्रति घृणा का भाव एवं वितृष्णा पैदा करने का प्रयास किया जाये, तथा आध्यात्मिक गुरू इसे अपना ऐजेंडा बना लें तो समाज में निश्चित रूप से सुधार हो सकता है।
इसके अतिरिक्त अपराधियों को सजा व कड़ी सजा न मिलना भी अपराध बढने का एक बड़ा कारक हैं। यद्यपि कानून सैंकडो हैं, कडे़ भी हैं, कड़ी सजा के प्रावधान भी हैं लेकिन त्वरित न्याय न होने के कारण व अभियोजन की ब्रिटिश जमाने से चली आ रही प्रणाली के रहते अधिकांश अभियुक्त दोष सिद्ध ही नहीं हो पाते हैं, अथवा न्याय मिलते-मिलते इतनी देरी हो जाती हैं कि वह ‘‘न्याय-अन्याय’’ के समान हो जाता हैं जैसा कि कहा गया हैं न्याय में देरी न्याय के इंकार के तुल्य हैं।
कानून व न्याय की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी पूर्ण रूप से शासन-प्रशासन की हैं। पूर्व में प्रशासन में सख्ती व सुधार लाने के लिये प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन भी किया गया था। लेकिन प्रशासन में आज इतना ज्यादा राजनैतिक हस्तक्षेप हो गया हैं जो कानून व्यवस्था बनाये रखने में एक महत्वपूर्ण रोड़ा बनता जा रहा हैं। अतः प्रशासन में राजनैतिक हस्तक्षेप न हो इस बात के लिये एक नई प्रशासनिक नीति एवं दृढ़ राजनैतिक इच्छा शक्ति की अत्यंत आवश्यकता हैं। अपराध बढने का एक अन्य पहलु अपराधियों को राजनैतिक सामाजिक संरक्षण, मान-सम्मान व पद प्राप्त हो जाना भी हैं। इससे उनके अपराध करने का हौसला और बढ़ता जाता है। ‘‘अपराध चाहे छोटा हो या बड़ा, अपराध तो अपराध ही है’’, समाज इस मूलभूत तथ्य को अंगीकृत कर ले व प्रत्येक अपराधी का सामाजिक बहिष्कार कर दे तो निश्चित रूप से अपराधों की संख्या में कटौती आयेगी। तभी अपराधियो को अपराध बोध का अहसास होगा व ‘‘अपराध बोध के अहसास’’ से ही आपराधिक प्रवृत्ति में कमी आयेगी जो अंततः अपराध की संख्या में कमी लायेगी। जब देशद्रोह के आरोप से लेकर हत्या, बलात्कार, डकैती, कालाबाजारी जैसे अपराधों से आरोपित व्यक्ति जमानत पर छूटकर आते है, तो समाज में उनका ऐसे भव्य स्वागत किया जाता है जैसे वे सीमा पर विजय प्राप्त कर आये हो। उदाहरण स्वरूप फिर चाहे जेएनयू के अध्यक्ष कन्हैया कुमार का मामला हो या मध्य प्रदेश व्यापम के संजीव सक्सेना का। इसी तरह के अन्य अनेक मामले हैं। चॅंूकि मानव एक सामाजिक प्राणी है इसलिए वह समाज के तिरस्कार को सामान्यतः सहन नहीं कर सकता हैं।
अंत में मीड़िया से यही अनुरोध है कि वे किसी आपराधिक घटना का प्रसारण व विश्लेषण करते समय प्रशासन की परिस्थितिजन्य सीमाओं का भी ध्यान रखे। उन्हे समाचार के माध्यम से बिना किसी विशिष्ट दिशा में ले जाएॅ स्वतंत्र निष्पक्ष व समय बद्ध सीमा में कार्य करने का अवसर अवश्य देवे। हां खोजी पत्रकारिता के अन्तर्गत यदि अपराध के संबंध में उनके पास कोई प्रमाण या साक्ष्य हो तो वे जरूर प्रशासन का ध्यान उस ओर आकर्षित करते रह सकते हैं।
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