बुधवार, 12 अक्टूबर 2016

‘‘सर्जिकल स्ट्राइक’’ से क्या ‘‘समस्या’’ ‘‘हल’’ हो जायेगी?

    1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के पश्चात् शायद यह पहला अवसर हैं जब देश का राजनैतिक नेतृत्व ने न केवल दृढ़ इच्छा शक्ति प्रदर्शित करते हुये सेना को सर्जिकल स्ट्राइक की अनुमति प्रदान की बल्कि वह सेना के पीछे पूरी ताकत के साथ खडा हुआ भी हैं। शायद इसीलिए 56 इंच सीने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व की न केवल देश में सर्वत्र भूरि-भूरि प्रशंसा की जा रही हैं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भी उनके इस कदम को अवाक व बेबाक मूक सहमति मिल रही हैं। युद्ध व सर्जिकल आपरेशन में अंतर होता हैं। इसीलिए ‘‘कारगिल’’ को तत्त्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा सेना को दिया गया समर्थन ‘‘सर्जिकल आपरेशन’’ न माना जाकर ‘छोटा युद्ध’ माना गया। इसीलिये उक्त सर्जिकल आपरेशन को वर्ष 71 के बाद की प्रथम कार्यवाही कहा गया है। ‘यूपीए’ के कुछ नेतागण एंव पूर्व रक्षा मंत्री शरद पंवार यह दावा कर रहे हैं कि यूपीए सरकार ने इससे पहिले भी चार बार सर्जिकल आपरेशन किये थे, जिसका उनके द्वारा ढिंडोरा नहीं पीटा गया हैं। यदि यह बात सत्य हैं जैसा कि एक समाचार पत्र ‘‘द् हिन्दु’’ ने 2011 में सर्जिकल स्ट्राइक की बात को तथ्यों के प्रमाण के साथ छापा हैं तो यूपीए सरकार भी और ज्यादा बधाई की पात्र हैं क्योंकि उसने तुलनात्मक रूप में मौन रहकर उक्त कार्य को अंजाम दिया था। यद्यपि इस बात पर भी ध्यान देने की आवश्यकता हैं कि सरकार ने सेना के माध्यम से बाकायदा पत्रकार वार्ता कर उक्त सर्जिकल स्ट्राइक की जानकारी दुनिया को दी जिसका एक खास मकसद पाकिस्तान शासको पर मानसिक दबाव ड़ालने के साथ-साथ विश्व जनमत को उक्त कार्यवाही के पक्ष में अनुमोदन करवाना भी एक पक्ष हो सकता हैं।  
जब से सर्जिकल स्ट्राइक हुआ हैं, इस देश में मीड़िया खासकर इलेक्ट्रानिक मीड़िया द्वारा राजनेताओं के बीच चलाई जा रही घातक बहस न केवल चिंतनीय हैं, बल्कि निंदनीय व दंड़नीय भी हैं। ‘‘सर्जिकल स्ट्राइक’’ को प्रत्येक भारतीय ने अंतर्मन से सराहा हैं। सेना को पूर्ण होश हवास में आंख मंूद कर, खुलकर समर्थन दिया हैं। लेकिन राजनीति के चलते विपक्ष द्वारा सेना का प्रांरभिक समर्थन करने के साथ-साथ एक ही संॉस में (दुर्भाग्वश देश का दुर्भाग्य ही यही हैं) कुछ इस तरह के बयान व प्रतिक्रियॉये दी गई जिससे यह आभास/प्रतीत होने लगा हैं कि वे देश के राजनैतिक नेतृत्व के साथ -साथ सर्जिकल स्ट्राइक पर भी प्रश्नवाचक चिन्ह लगा रहे हैं। वस्तुतः  विपक्ष ने शायद तुच्छ राजनीतिक भावना के तहत प्रतिक्रिया देते समय अनजाने में नहीं लेकिन अनचाहे कुछ इस तरह कि प्रतिक्रिया दे दी जिससे हमारे दुश्मन देश पाकिस्तान को हमारी राजनीति पर हमला करने का सुअवसर प्राप्त हो गया। उक्त मुद्दे पर मीड़िया ने स्वयं आगे आकर विभिन्न दलो व नेताओं की प्रतिक्रिया लेकर (लगभग 99 प्रतिशत) उसे पूरे विश्व में  प्रसारित किया गया। नगण्य लोगो ने ही स्वतः आगे आकर ट्विटर इत्यादि माध्यम से प्रतिक्रिया दी लेकिन स्वयं मीड़िया द्वारा उक्त आलोचनात्मक प्रतिक्रिया देने वालों कीे देश भक्ति पर ही प्रश्न चिन्ह लगाये जाने का प्रयास किया गया। क्या इस तरह की प्रतिक्रिया का प्रसारण कर उन्हें एक प्लेटफार्म देकर मीड़िया स्वयं की देशभक्ति पर भी प्रश्न वाचक चिन्ह नहीं लगवा रहे हैं? इस पर न केवल विचार करने की आवश्यकता हैं बल्कि इस पर अवश्य विचार करना चाहिए यदि मीड़िया अपने प्रोग्रामों में ऐंकर के माध्यम से इस तरह के वाद-विवाद बहस नहीं कराते तो इस तरह की फजीहत की नौबत तो नहीं होती। अतः क्या अब यह समय नहीं आ गया हैं कि जब देश दुश्मन देश द्वारा पोषित आंतकवादियों गतिविधियों से लड़ रहा हो, देश की सीमा पर लगातार सीज-फायर भंग किये जा रहे हैं, सर्जिकल आपरेशन हो रहे हो, युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न होने लगी हो तब क्या मीड़िया खासकर इलेक्ट्रानिक मीड़िया पर प्रभावशाली नियत्रंण रखने की आवश्यकता नहीं है? क्योंकि हम मीड़िया हाउस से आत्मानुशासन की उम्मीद तो खो चुके हैं (कुछ एकाध मीड़िया हाउस को छोड़कर)
इस एक सर्जिकल स्ट्राइक से यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि क्या यही प्रमाण पत्र एक साधन हैं, जिससे कश्मीर का मामला, पीओके का मामला या अंर्तराष्ट्रीय सीमा पर पाकिस्तान द्वारा लगातार किये जा रहे उल्लघंनांे के मामले या आंतकवादी घटनाओं के मामले सुलझ सकते है?ं यहां पर सर्जिकल आपरेशन और पूर्ण आपरेशन में अंतर क्या हैं यह समझ लेना भी जरूरी हैं। पूर्ण आपरेशन अर्थात् युद्ध। क्या पाकिस्तान के पापी शरीर का मात्र कुछ अंग ही खराब हैं जिनका सर्जिकल स्ट्राइक कर हमारी उपरोक्त उल्लेखित समस्त समस्याएॅं सुलझ जायेगी? उत्तर 100 प्रतिशत नहीं में हैं। इसका पूरा आपरेशन किया जाना नितांत आवश्यक हैं। तब हम स्वयं ही एक ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ का ढिंडोरा क्यों पीट रहे हैं, क्यो नहीं सुदृढ़ दीर्घायु नीति बनाकर समग्र आपरेशन की पूर्ण तैयारी करके समय बद्ध अवधि में पूर्ण आपरेशन सम्पन्न क्यों नहीं करते हैं? क्या अब पूर्ण आपरेशन का समय नहीं आ गया है? क्या हमारे देश के नेतृत्व को इस तरह की समस्या के निराकरण के लिये अमेरिका, जर्मनी, इजराईल, इंग्लैड़, रूस इत्यादि देशों द्वारा की गई कार्यवाही से दिशा-दर्शन नहीं मिलता हैं जिन्होंने अपने स्वाभिमान के खातिर तत्कालीन परिस्थिति के अनुसार ऐसी समस्याओं को सुलझाने के लिये संयुक्त राष्ट्र संघ की अनुमति लिये बगैर व परवाह किये बिना परिस्थितियों का यथार्थ अंाकलन कर दुश्मन देशों में जाकर विभिन्न तरीकों के गुरिूल्लावार, सर्जिकल आपरेशन व आवश्यकतानुसार युद्ध कर समस्या को सुलझाया। हम एक तरफ तो पूर्ण कश्मीर हमारा हैं जिसमें पीओके भी शामिल हैं के लिये संसद में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित करते हैं, इस प्रस्ताव के क्रियांन्वयन के लिये विगत 78 सालों में हमारे द्वारा कोई भी सार्थक, प्रभावी कदम नहीं उठाया गया? यदि एक सर्जिकल स्ट्राइक सिद्ध रामबाण माना जा रहा हैं तत्पश्चात् तब भी पाकिस्तान के द्वारा सीमाओं का लगातार उल्लंघन क्यों हो रहा हैं जिसमें हमारे सैनिक शहीद होते जा रहे है। यदि एक सर्जिकल स्ट्राइक से रोग का इलाज नहीं हो पा रहा हैं तो कई सर्जिकल आपरेशन लगातार करके आवश्यकतानुसार एक पूर्ण आपरेशन अर्थात् ‘‘आक्रमण’’ करके समस्या का अंतिम समाधान क्यों नहीं निकाला जाता हैं? हम क्यों शत्रु देश के आक्रमण रूपी आंतकवादी कार्यवाहीयों का इंतजार कर मात्र उसे विफल करने की सीमा तक ही प्रत्याक्रमण करके उसे नेस्ता नाबूद करते रहेगे। कुछ प्रगतिशील कहे जाने वाले लेखक, नेता, साहित्यकार जो अपने को शंाति का देव-दूत मानते हैं, वे यह कह सकते हैं कि यह अव्यावहारिक हैं, तो फिर यह राग अलापना छोड़ दे कि पूर्ण कश्मीर हमारा हैं व हम उसे साहित्यकारांे की विभिन्न किताबों में लेखनी मात्र इतिहास की किताबों के पन्नों में नजर आयेगी, धरातल पर नहीं!  
देश के नागरिकों, समस्त राजनैतिक पार्टियों व नेताओं को याद होगा कि जब वर्ष 1971 यु़द्ध के फलस्वरूप बंग्लादेश के रूप में एक नये राष्ट्र का जन्म हुआ था तब पक्ष-विपक्ष प्रत्येक नागरिक ने चाहे वह किसी भी विचार धारा का ही क्यों न हो, सब ने एक साथ मिलकर एकजुट होकर तत्कालीन नेतृत्व का बिना शर्त समर्थन किया था। तत्कालीन विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने तो प्रंशसा में इंदिरा गांधी को दुर्गा का अवतार तक कह ड़ालने में हिचक तक नहीं की थी। (यद्यपि बाद में कुछ क्षेत्रो से यह खंडन भी आया कि अटलजी ने ऐसा नहीं कहा था।) आम नागरिक वैसे ही प्रतिक्रिया तत्कालीन सत्तापक्ष जो वर्तमान में अब विपक्ष ंहै,ं से उम्मीद करता हैं। लेकिन वर्ष 1971 के बाद 45 सालों में राजनीति में इतनी गिरावट आ गई हैं, नैतिक मूल्यों का इतना ह्रास हुआ हैं कि वर्तमान विपक्ष नरेन्द्र मोदी को वैसा समर्थन देने से हिचक रहे हैं (जिसके वे हकदार भी है।) जैसा कि पूर्व में इंदिरा गांधी को को मिला था। लोकतंत्र का यह सर्वमान्य सिंद्धान्त हैं कि सत्ता पर बैठा हुआ राजनैतिक नेतृत्व जो भी निर्णय लेता हैं उसके यश-अपयश का भी वही हकदार व जिम्मेदार होता हैं। अतः देशहित में केवल यही उपयुक्त होगा कि विपक्ष अनावश्यक रूप से इस मुद्दे पर राजनीति न कर पडौसी देश को हमारे विरूद्ध कुछ कहने का मौका न दे। सत्तापक्ष से भी यह उम्मीद की जाती है कि वे अतिरेक में सेना द्वारा की गई कार्यवाही को राजनीति से दूर रखने का प्रयास करे। ऐसे समय देश की 100 प्रतिशत एकजुटता की आवश्यकता हैं यदि हमे पीओके पर कब्जा कर पाकिस्तान को वास्तव में सबक सिखाना हैं तो! अंत में देश की सीमा के सजग प्रहरी व देश के आत्म सम्मान की रक्षा करने वाले समस्त सैनिकों को दंडवत् प्रणाम। 

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