भोपाल जेल से 8 दुर्दान्त आतंकवादी विचाराधीन (अंडर ट्रायल) अपराधियों के भागने पर मुठभेड़ (एनकांउटर) में समस्त आतंकवादी मारे गये-कैसे व क्यों मारे गये, उस पर विवाद व राजनीति हो सकती है, बल्कि यह कहा जाए कि उस पर जमकर घोर विवाद व राजनीति हो रही हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्रश्न यह नहीं हैं कि उक्त घटना कितनी सत्य अथवा वास्तविक हैं, या अर्द्धसत्य हैं, बल्कि प्रश्न यह हैं कि क्या मानवाधिकार आयोग के अधिकार क्षेत्र में मात्र अपराधियों के मानवाधिकार ही आते हैं। प्रश्न यह इसलिये भी उत्पन्न हुआ हैं क्योंकि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने उक्त घटना का स्वतः संज्ञान लेकर नोटिस जारी किये हैं।
प्रश्न यह हैं कि एक सामान्य नागरिक, पुलिस/अर्द्ध सैनिक बल या सैनिक बल, के जंाबाज सैनिक, जब किन्हीं अपराधियों या आतंकवादियों के द्वारा मारे जाते हैं, तब उसके/उनके मानवाधिकार के स्वतः संज्ञान की आवश्यकता की याद मानवाधिकार आयोग को क्यों नहीं आती हैं? प्रश्न यह हैं कि क्या मानवाधिकार आयोग का कार्य क्षेत्र सिर्फ पुलिस कस्टड़ी वाले आतंकवादी के पुलिस मुठभेड़ों में मरने वाले आतंकवादियों तक ही सीमित हैं? प्रश्न यह भी उत्पन्न होता हैं कि क्या आतंकवादी घटनाओं में शहीद हुये अन्य नागरिकों का (कोई भी) मानवाधिकार नहीं होता हैं? क्या देश की सुरक्षा को परे रखकर केवल आतंकवादियों और अपराधियों के मानवाधिकार की ही सुरक्षा की चिंता करते रह जाना चाहिए? क्या ऐसा करने से असामाजिक तत्वों को अवांछित प्रश्रय और पनपने का अवसर नहीं मिलेगा जिससे केवल अव्यवस्थता और आराजकता ही बढेगी। भोपाल जेल से भागे समस्त अपराधी ‘सिमी’ संगठन के सदस्य थे जिसे ‘‘गैर कानूनी संगठन’’ न केवल राज्य सरकार द्वारा घोषित किया गया हैं, बल्कि माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी राज्य सरकार के उक्त आदेश को अंतिम रूप से सही ठहराया हैं। उक्त 8 आतंकवादियों पर देशद्रोह के गंभीर आरोप हैं जिनमें से चार आतंकवादी पूर्व में भी खंडवा जेल से भाग चुके थे ऐसे (गैर कानूनी संगठन के) दुर्दान्त आतंकवादी, विचाराधीन अपराधियों की मुठभेड़ में हुई मृत्यु पर मानवाधिकार आयोग द्वारा नोटिस जारी करने से समस्त सामान्य शंातिप्रिय देशभक्त नागरिको के मन में एक कौतूहल अवश्य पैदा हुआ हैं कि क्या मानवाधिकार देश की एकता सुरक्षा व अस्मिता से भी बड़ा हैं।
सिमी के मुठभेड़ में मारे गये आंतकी निश्चित रूप से विचाराधीन अपराधी थे, सजायाफ्ता नहीं थे। लेकिन यदि उनके अपराधों का सम्पूर्ण इतिहास पढ़ा जाये तो ‘‘निश्चित रूप से वे दुर्दान्त अपराधी कई-कई बार अपराध करने वाले अभियुक्त हैं,‘‘यह निष्कर्ष निकालना कतई गलत नहीं होगा। इसीलिए माननीय न्यायालयों ने भी उनके जमानत आवेदनों को गुण दोष के आधार पर समय - समय पर अस्वीकार किया हैं। क्योंकि उन प्रकरणों में अपराधियों के विरूद्ध पर्याप्त साक्ष्य थे। अन्यथा ‘‘जमानत एक नियम हैं व ‘‘अस्वीकार करना’’ एक अपवाद हैं,’’ के न्यायिक सिद्धान्त के आधार पर अभी तक सभी जमानत नहीं पा जाते? लेकिन मानवाधिकार को केवल अपराधियों व आतंकियों तक ही सीमित कर देना क्यांेकि उनकी मृत्यु मुठभेड़ में हुई हैं, यह कदापि उचित नहीं होगा। चूंकि एक व्यक्ति का मानवाधिकार दूसरे व्यक्ति की स्वतंत्रता व सुरक्षा के अधिकार को अतिक्रमित नहीं कर सकता हैं। पुनः एक व्यक्ति का मानवाधिकार तभी तक वैध, उचित व मान्य हैं जब तक वह दूसरे व्यक्ति के मानवाधिकार को चोट नहीं पहंुचाता हैं।
इस घटना पर पूरे देश में हुई क्रिया-प्रतिक्रया से एक दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी उत्पन्न हुआ हैं कि क्या देश की राजनैतिक दिशा व पहचान यही हैं। आतंकवादियों के मानव जाति के रूप में गिनने के बजाय केवल जाति मानव (मुसलमान) के रूप में गिनने की चेष्टा करने का ‘‘मौलाना दिग्विजय सिंह’’ का प्रयास न केवल समरसता व सहिष्णुता के सिद्धान्त के बिलकुल विपरीत हैं बल्कि वह कहीं न कहीं देश की समभाव व सांप्रदायिक एकता की भावना में रूकावट के रूप में खड़ा हो रहा हैं। दिग्विजय सिंह से यह क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि यदि मारे गये समस्त आतंकवादी मुसलमान थे, जिसकी ओर वे इशारा कर रहे हैं, तो इस तरह कहीं अनजाने में वे इस ओर तो इशारा नहीं कर रहे हैं, कि समस्त मुसलमान आतंकवादी होते हैं! अन्यथा इन आठ व्यक्तियों के खिलाफ अपराधों की विभिन्न धाराओं में जब मुकदमें दर्ज हुये थे, तत्समय तत्काल उनका ऐसा बयान क्यों नहीं आया? वास्तव में वे समस्त अपराधी हैं और उनके खिलाफ देश द्रोह के आरोप हैं। अभियुक्त की एक ही जात होती हैं अपराधी। दिग्विजय सिंह से यह भी पूछा जाना चाहिये कि पाकिस्तान एक मुस्लिम राष्ट्र हैंे जो न केवल आंतकवाद को जन्म दे रहा हैं बल्कि पनाह भी दे रहा हैं, जिसको खुद उनकी यूपीए की सरकार ने समय-समय पर स्वीकार किया था, जो तथ्य रिकार्ड़ पर भी उपलब्ध हैं, तो फिर तब उन्होंने मुस्लिम आतंकवाद पर ऊंगली क्यों नहीं उठाई।
जब किसी नागरिक की किसी भी घटना में मृत्यु होती हैं, या पुलिस कस्टडी में मृत्यु होती हैं तब यह कहा जाता है कि उसके अधिकारों की रक्षा के लिये भारतीय दंड़ संहिता व दंड़ प्रक्रिया सहिंता के पर्याप्त प्रावधान अपराधियों को सजा दिलाने के लिए भारतीय संविधान में हैं, जो एक न्यायिक प्रक्रिया हैं। तदनुसार तब उसके मानवाधिकार की बात ही नहीं की जाती और उसका वह मानवाधिकार गौंण हो जाता हैं व भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त कानून ऊपर हो जाता हैं। लेकिन जैसे ही कोई आतंकवादी या अपराधी पुलिस की कार्यवाही में मारा जाता है तब उसका मानवाधिकार भारतीय कानून से कैसे ऊपर माना जाने लगता है। देश में कानून की सबसे बड़ी यही विड़म्बना हैं।
देश का दुर्भाग्य ही है कि वह ‘‘मुस्लिम कट्टरवाद’’ और ‘‘मानवाधिकार’’ के बीच झूल रहा हैं। उससे आगे जाकर देश की अस्मिता, सुरक्षा व सम्मान का प्रश्न गौण होते जा रहा हैं। इस बात को देश के नागरिक नहीं समझ पा रहे हैं जो उन्हें समझने की जरूरत हैं। इसीलिए ‘‘जन बल आगे आकर अविलम्ब दिग्विजय सिंह जैसे व्यक्तियों के मॅंुंह को बंद करे’’ यही देश हित में होगा।
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