शनिवार, 2 दिसंबर 2017

‘प्रद्युम्न हत्या कांड’’ ‘‘न्यायिक व्यवस्था का उपहास’

देश के न्यायिक इतिहास में भोड़सी स्थित रेयान इंटरनेशनल स्कूल के 7 साल के छात्र ‘प्रद्युम्न’ की हत्या शायद ऐसा पहला आपराधिक प्रकरण हैं जिसने एक अलग ही इतिहास रचा हैं। हरियाणा पुलिस ने आनन फानन में प्रारंभ में स्कूल बस के कन्डक्टर अशोक को मुख्य आरोपी बनाया था। लेकिन मीडिया जन आक्रोश व परिवार के दबाव के चलते इस हत्या कांड की जांच सीबीआई को सौपने के बाद, सीबीआई ने उसे मुख्य अभियुक्त न मानकर, मृतक प्रद्युम्न के स्कूल के कक्षा 11 वंीं के नाबालिक विद्यार्थी को मुख्य आरोपी बनाकर उसकी गिरफ्तारी की और आरोपी को आगे जांच हेतु पुलिस व न्यायिक रिमंाड पर लिया गया। 
प्रथम दृष्टया, हरियाणा पुलिस ने प्रद्युम्न की हत्या से उत्पन्न तीव्र जन प्रतिक्रिया के चलते जल्दबाजी में बस कन्डक्टर अशोक को उसके अपराध स्वीकृति बयान ( ) के आधार पर गिरफ्तार कर मुख्य आरोपी बनाया, तब भी मृतक प्रघुम्न के परिवारवालों ने हरियाणा पुलिस की इस कार्यवाही पर प्रश्न वाचक चिन्ह लगाया था? उनका आरंभ से ही यह कहना था कि आरोपी और कोई दूसरा भी हैं। हरियाणा पुलिस द्वारा जिस प्रकार आरोपी कन्डक्टर अशोक से अपराध स्वीकृत कराया गया, वह हमारी पुलिस प्रक्रिया पर ही सवालिया निशान छोड़ता हैं। चर्चित मामलो में पुलिस किस तरह अपनी प्रतिष्ठा को बचाने के खातिर दबाव में दबाव पूर्वक गलत दबावपूर्वक तरीको द्वारा अपराध की झूठी स्वीकृति अभियोगी से करवाती होगी, यह स्थिति इस हत्या कांड की घटनाओं से स्वयं में उजागर होती हैं। तीव्र जन प्रतिक्रिया के दबाव के कारण प्रकरण सीबीआई को सौपने के फलस्वरूप अवश्य एक निरापराध अभियोगी अभियोजन की लम्बी यंत्रणा से बच सकेगा (यद्यपि सीबीआई द्वारा अभी तक उसे पूर्ण क्लीन चिट नही दी गई हैं जबकि उक्त नाबालिक आरोपी विद्यार्थी द्वारा भी अपराध स्वीकारिता का बयान दिया हैं।) लेकिन देश में इस तरह के न जाने कितने प्रकरण और होते होगें जहाँ पुलिस गलत तरीको से अभियोगी से जबरन अपराध स्वीकार करवा कर अपनी जय जय कार करवाती हैं तथा निर्दोष लोग न्यायिक व दांडिक प्रक्रिया की बलि चढ़ जाते हैं। पुलिस की इन हथकंडो वाली प्रक्रिया पर कुछ न कुछ अंकुश व लगाम लगाने की महती आवश्यकता आज के समय की मांग हैं। 
एक महत्वपूर्ण प्रश्न इस हत्या कांड से यह उत्पन्न होता हैं कि इस घटना के छद्म पहलू पर किसी भी बुद्धिजीवी वर्ग, मीड़िया, न्यायालय या वकीलों का ध्यान नहीं गया हैं। प्रश्न यह भी है कि हरियाणा पुलिस ने जिस निर्दोष व्यक्ति को कुछ समय तक यर्थात् अपराधी व अंततः निरपराध माना उनके इस आपराधिक कृत्य के लिये अभी तक संबंधित कर्मचारियों अधिकारीयों के खिलाफ कोई कार्यवाही क्यों नहीं की गई? क्या बोलने वाले समूह के मुख पर एवं लिखने वालो की कलम पर अंकुश लग गया हैं? दूसरा उच्च न्यायालय द्वारा स्वयं स्ंाज्ञान लेकर उस न्यायाधीश के अंतरिम आदेशो की न्यायिक समीक्षा क्यों नहीं की गई जिस कारण एक निर्दोष व्यक्ति को लगभग 70 दिन मात्र गलत न्यायिक प्रक्रिया के चलते जेल में रहना पड़ा? जिसने मशीन वश पुलिस द्वारा मंागे जाने पर पुलिस रिमांड व पुनःन्यायिक रिमांड दिया इसकी भरपाई कौन करेगा व कैसे करेगा? इससे यह लगता हैं कि हमारी दंड़ प्रक्रिया संहिता में पुलिस द्वारा जो जांच की प्रक्रिया निर्धारित हैं, वह पूर्णतः वर्तमान समय की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करती हैं। न्यायाधीश भी प्रकरण के गुण दोष पर गंभीर रूप से विचार किये बिना पुलिस द्वारा रिमाड मांगे जाने पर व जमानत का अभियोजन द्वारा विरोध किये जाने पर मशीन वश अभियोजन के अनुरोधानुसार आदेश पारित कर देते हैं जिससे चार्जशीट होने तक की प्रक्रिया कानून का मशीनी रूप से पालन करना मात्र रह गया हैं। 
इस घटना में एक और बड़ी कमी की ओर ध्यान आकर्षित किया जाना आवश्यक हैं। जब सीबीआई ने अंततः यह निश्चित कर लिया कि कंडेक्टर अशोक हत्या का मुख्य अपराधी नहीं हैं, तथा दूसरे व्यक्ति (नाबालिक विद्यार्थी) को हत्या का आरोपी बना दिया गया हैं, तब उस कन्डक्टर अशोक को तुरंत क्यों नहीं छोड़ा दिया गया व न्यायालय ने भी तुरंत छोडने के आदेश क्यों नहीं दिए? लगभग 70 दिन के बाद उसे जेल से रिहा किया गया। रिहाई के बावजूद वह अभी भी सह अभियोगी हैं? सीबीआई का यह कथन कहीं भी नहीं हैं कि दोनो व्यक्ति सह-अभियुक्त हैं। दोनो की हत्या में शामिल होने के उद्देश्य बिलकुल अगल-अलग बताये गये हैं। अर्थात् दोनो के बीच अपराध घटित होने के मामले में परस्पर कोई लिंक नहीं हैं। तब एक दूसरे व्यक्ति को अभियुक्त बनाने पर पहिले अभियुक्त को तुरंत छोडना न्याय व तथ्य की दृष्टि से आवश्यक नहीं था? अर्थात् एक निर्दोष व्यक्ति की रिहाई का आदेश देते समय न्यायाधीश ने न्यायिक रूप से अपनी बुद्धि का उपयोग शायद नहीं किया जिस कारण समय लगा। शुरू मे भी उसी व्यक्ति को पुलिस रिमंाड देते समय भी न्यायिक बुद्धि का प्रयोग शायद नहीं हुआ हैं और तुरंत रिमाड़ दे दिया। न्यायिक व्यवस्था का यह बड़ा विरोधाभास हैं जो इस हत्या कांड में अपनाई गई प्रक्रिया से दृष्टिगोचर होता हैं। कानूनी प्रक्रिया के इस अंर्तविरोध को दूर कर हमारी न्यायिक प्रक्रिया को मजबूत करना होगा। समस्त कर्मियो पर किसी भी पक्ष द्वारा क्रिया-प्रतिक्रिया न देना भी हमारी मानसिकता को ही दुहराता हैं!

सोमवार, 23 अक्टूबर 2017

आरूषि हत्याकांड़ प्रकरण का क्या ‘‘पटाक्षेप’’ हो गया हैं?

माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने ‘‘आरूषि‘‘ हेमराज’’ दोहरे हत्याकांड के अभियुक्तगण  दंत विशेषज्ञ डॉ. राजेश व उनकी धर्मपत्नि श्रीमति नुपुर तलवार द्वारा गाजियाबाद की विशेष सीबाीआई अदालत द्वारा दी गई आजीवन कारावास की सजा के विरूद्ध की गई अपील को स्वीकार कर विशेष अदालत के दोष-सिद्ध के निर्णय को पलट कर डॉ. राजेश व नुपुर तलवार को दोषमुक्त कर दिया हैं।
‘‘पुत्री’’ ‘‘आरूषि‘‘ व ‘‘नौकर’’ ‘‘हेमराज’’ की हत्या ने पूरे देश के आम नागरिको को बुरी तरह से झंकझोर दिया था। चंूकि आरूषि की हत्या का आरोप उसके ही अपने खून आरूषि के माता-पिता पर लगा, जिनका धर्म, कत्तर््ाव्य व दायित्व सिर्फ पिता-माता होने के संबंध के कारण ही नहीं, बल्कि डाक्टरी पेशे में होने के कारण भी, मानव की जिदगी देना हैं, लेना नहीं। इसीलिये जब अभियुक्तगण पर उनकी ही बेटी व नौकर की जिंदगी लेने का आरोप लगा, तब तत्समय पूरी मीडिया ने डॉं.तलवार दंपति के खिलाफ कई कहानी प्रसारित की। आज जब वे हत्या के आरोप से निर्दाेष करार दिये गये हैं, तब वही डॉं. तलवार दंपति कीे मीडिया नई स्टोरी बता कर उनके प्रति सहानुभूति पैदा करने का प्रयास कर रहा हैं। यह भी प्रश्न उठाया जा रहा हैं कि आरूषि को यदि डॉ. दंपत्ति ने नहीं मारा, तो आखिर किसने मारा हैं! यह भी एक अनबुझी पहेली ही हैं।
न्यायपालिका के निर्णय पर जिस तरह की प्रतिक्रियायंे आ रही हैं, वे वास्तव में आपराधिक न्यायशास्त्र और भारतीय न्याय आपराधिक प्रक्रिया के सिद्धान्त की जानकारी न होने के कारण ही हैं। भारतीय न्याय व्यवस्था के दो मूल सिद्धान्त हैं। प्रथम अपराधी को सजा समस्त उचित संदेह (रीजनेबल डाउट) के परेे होने पर ही दी जाना चाहिए। दूसरा सौ अपराधी छूट जाय, लेकिन एक भी निरापराधी को सजा नहीं होनी चाहिए। आरूषि हत्या प्रकरण में उच्च न्यायालय का निर्णय उपरोक्त धारणा पर ही आधारित हैं। इस हत्याकांड में प्रारंभ से ही, सीबीआई जांच से लेकर, विशेष अदालत व उच्च न्यायालय का निर्णय, सभी में एक बात समान हैं कि जितने भी साक्ष्य, दस्तावेज, परिस्थिति जन साक्ष्य प्रकरण में आये हैं, उपलब्ध हैं, वे सब एक ही बात की ओर इगिंत करते हैं। इस हत्याकांड के लिये यदि कोई जिम्मेदार हैं तो वह नौकर ‘‘हेमराज’’ (जिसकी भी दूसरे दिन हत्या कर दी गई), व कम्पाउडर कृष्णा नहीं बल्कि सिर्फ डॉ. तलवार दंपत्ति ही हैं। चूंकि ये समस्त उपलब्ध साक्ष्य  उपरोक्त अपराधिक न्याय सिद्धान्त द्वारा रेखांकित की गई सीमा को पार नहीं कर पा रही थी, इसीलिए न केवल वे दोषमुक्त ठहराये गये, बल्कि इसी कारण से डॉं. तलवार दंपत्ति को सीबाीआई ने प्रथम चरण में ही चार्जशीट योग्य न मानकर प्रकरण की खात्मा रिपोर्ट न्यायालय में प्रस्तुत की थी। तब भी सीबीआई का कथन यही था कि समस्त साक्ष्य यद्यपि डॉ. तलवार दंपत्ति की ओर ही इशारा करते हैं, लेकिन वे साक्ष्य उस सीमा तक प्रबल नहीं हैं कि उन्हे अंततः सजा दिलायी जा सके। इस खात्मा रिपोर्ट को गाजियाबाद सीबीआई की विशेष न्यायालय ने खारिज कर सीबीआई को चालान प्रस्तुत करने के लिये आदेश दिये थे। तब वे ही तथ्यों के साथ जहां एक बार सीबीआई प्रकरण को चार्जशीट लायक भी नहीं मान रही थी, उसने न्यायालय के आदेश पर डॉ. तलवार दंपत्ति के खिलाफ आरूषि व हेमराज की हत्या का उन्ही तथ्यों केे आधार पर मुकदमा चलाया व सीबीआई न्यायालय ने उक्त साक्ष्य के आधार पर तलवार दंपत्ति केा अपनी ही बेटी की हत्या का अपराध सिद्ध पाया जाकर आजीवन कारावास की सजा सुनाई। 
यहां यह तथ्य बहुत ही उल्लेखनीय हैं जिस खात्मा रिपोर्ट में सीबीआई ने डॉ. तलवार दंपत्ति को चार्जशीट करने से इंकार किया था उसी खात्मा रिपोर्ट को डॉ. तलवार दंपत्ति ने (जो उनकेे पक्ष मे थी) को न्यायालय में चुनौती दी,  क्योंकि उस खात्मा रिपोर्ट ने जो प्रश्न वाचक चिन्ह लगाये गये थे वे सब डॉ. तलवार दंपत्ति की ओर इशारा करते थे। दूसरे पक्ष भी उच्च न्यायालय में गये। अंततः उच्चतम् न्यायालय नें ट्रायल करने के आदेश दिये थे। ऐसा न्यायिक इतिहास में शायद कभी नहीं हुआ जब आरोपी ने उस रिपोर्ट को ही चैलेंज किया हो जो उसे दोषमुक्त करती हैं। लेकिन ट्रायल कोर्ट ने अभियोगी को दोषयुक्त माना।
इस पूरे प्रकरण में उपलब्ध समस्त साक्ष्य और परिस्थितियों व जांच को देखने से स्पष्ट हैं कि घटना के प्रथम दिन से ही उत्तर प्रदेश पुलिस घोर लापरवाही बरतने व संदेह के घेरे में रही हैं। उत्तर प्रदेश पुलिस ने डॉ. तलवार दंपत्ति को दोषी न मानकर ही जांच प्रांरभ की थी। घटना स्थल को तुरंत सील न करना, घटना स्थल पर पाये गये समस्त साक्ष्यों का जमा न करना, मकान की तत्काल पूरी जांच न करना, हेमराज के गायब रहने पर उसका तुरंत पता न लगाना, हेमराज के कमरे की तलाशी न लेना, आदि आदि में उत्तर प्रदेश पुलिस अपने कर्त्यव्य का पालन करने में पूर्ण रूप से बुरी तरह असफल रही हैं। जब सीबीआई को जांच के लिये प्रकरण सौपा गया था तब तक प्रकरण के समस्त साक्ष्यों को नष्ट कर दिया गया था। इसीलिए अपराधियों के विरूद्ध सीबीआई पर्याप्त आवश्यक पुख्ता साक्ष्य नहीं जुटा पाई। जिन मुद्दो का उल्लेख सीबीआई कोर्ट ने अपने सजा के निर्णय में किया था उन समस्त मुद्दो का एक-एक करके जवाब उच्च न्यायालय ने दोषमुक्त करते समय  दिया हैं। लेकिन कोई प्रत्यक्षदर्शी गवाह के न होने के कारण उच्च न्यायालय को डॉ. तलवार दंपत्ति को हत्यारा मानना उचित नहीं लगा। यदि न्यायालय के निर्णय की बातो को गौर से पढा जाये तो, न्यायालय ने यह स्पष्ट लिखा हैं कि पर्याप्त साक्ष्य के अभाव के कारण दोषमुक्त किया जाता हैं।
निर्दोष व ‘‘संदेह के आधार पर दोषमुक्त’’ में अंतर हैं। दोषमुक्त व्यक्ति को अपराधी की निधारित सीमा के अतिंम छोर तक तो पंहुचा दिया जाता हैं लेकिन कानूनी व्याख्या व अपराधिक न्याय सिद्धान्त के कारण संदेह का लाभ देने के कारण उसे अपराधी घोषित नहीं किया जा सकता हैं। लेकिन ऐसे व्यक्ति के पास नैतिकता का बल लगभग शून्य हो जाता हैं। भारतीय दंड सहिंता में कुछ प्रावधान जैसे धारा 298 ए इत्यादि ऐसे हैं जहां पर अभियुक्त को अपराधी के रूप में दोषी सिद्ध करने का भार अभियोजन पर न होकर अभियुक्त पर होता हैं कि वह अपनी निर्दोषता सिद्ध करे। जबकि अन्य प्रकरणो में दोष सिद्ध का भार अभियोजन पर होता हैं। अभियुक्तगण व आरूषि के बीच का माता-पिता का प्राकृतिक रिश्ता भी दोष सिद्ध माननेे में आड़े आया हो सकता हैं। क्योकि हमारा समाज में बच्चो के माता-पिता की भगवान के रूप में कल्पना की जाती हैं, जहां उसका फर्ज जिंदगी को सवारना होता हैं, खत्म करना नहीं। इसलिए मीडिया व सोशल मीडिया में इस दोहरे हत्या कांड पर अर्नगल प्रतिक्रिया करने से परहेज करना चाहिए। साथ ही ‘‘दोषमुक्त अभियुक्त’’ के प्रति अनावश्यक सहानुभूति भी उत्पन्न न करे क्योकि वह दोषमुक्त तो हैं पर मासूम निर्दोष नहीं!
आरूषि हेमराज हत्याकांड को देश का सबसे व सनसनी खोज मामला (मिस्ट्री) बतलाया गया। लेकिन वास्तव में उपरोक्त तथ्यों के प्रकाश में यह मिस्ट्री नहीं रह गई हैं। इसके बावजूद यदि  इस दोहरे हत्या के लिये किसी भी व्यक्ति को अपराधी नहीं माना गया हैं, तो इसका लिये मूलरूप से उत्तर प्रदेश पुलिस की घोर लापरवाही व उसका उद्देश्य (इंटेशन) ही जिम्मेदार हैं जिसके लिये उच्च न्यायालय ने उन अधिकारियों के विरूद्ध कोई कार्यवाही नहीं की।  

शुक्रवार, 20 अक्टूबर 2017

एनसीआर-दिल्ली के नागरिको को क्या ‘‘विशेष दर्जा’’ प्राप्त हैं?

माननीय उच्चतम् न्यायालय ने दिल्ली-एनसीआर (राष्ट्रीय राजधानी परिक्षेत्र) में पटाखों कीे बिक्री पर दीवाली तक रोक लगा दी हैं जिसको हटाने की व्यापारियों द्वारा अपील को भी अस्वीकार कर दिया हैं। पटाखों से ही दीवापली त्यौहार की मुख्य पहचान होती हैं। इस प्रकार दिल्ली-एनसीआर के निवासीगण पटाखे (का प्रदूषण) छोडे़ बिना दीपावली मनाना पड़ेगा। लेकिन माननीय उच्चतम् न्यायालय ने इस कमी को पूरा करने के लिए बिक्री पर रोक के निर्णय द्वारा बम ही फोड़ दिया, ताकि नागरिकगण बिना फटाके के दीपावली के ‘‘बम फटाके’’ का अहसास कर सके। माननीय उच्चतम् न्यायालय ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया कि कुछ फटाके ऐसे भी होते हैं जिनसे प्रदूषण नहीं फैलता हैं। पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय ने उच्चतम् न्यायालय के उक्त निर्णय के बावजूद भी कुछ समय (सायं 3 घ्ंाटे) के लिये पटाखों की बिक्री पर छूट प्रदान की हैं जिस कारण पंजाब व हरियाणा प्रदेश तथा चंडीगढ के नागरिकगण 3 घ्ंाटो के लिये दीवाली मना पायेगे। माननीय उच्चतम् न्यायालय ऐसा क्यों नहीं कर सका? शायद इसलिये कि परिपाटी व कानून तो उच्च न्यायालय को उच्चतम् न्यायालय का अनुशरण करने की हैं। 
दीपावली हमारी संस्कृति की विरासत व पहचान का एक बहुत ही महत्वपूर्ण त्यौहार हैं। जब वर्ष का प्रारंभ मानकर शुभ कार्य लक्ष्मी पूजा के साथ किया जाकर दीपो की श्रृखंला प्रज्वलित करके पटाखों के शोर व रंग बिरगी रोशनी के साथ दीपावली धूमधाम से मनाई जाती हैं। उच्चतम् न्यायालय ने रोक लगाते हुये यह कहा कि पटाखों से पर्यावरण के दूषित होने से लोगो का स्वास्थ लगातार खराब हो रहा हैं। साथ ही यह भी देखा जायेगा कि इस रोक से पर्यावरण प्रदूषण पर कितना अंकुश लगा हैं। उक्त निर्णय के अनुषागिंक तुरंत कई टीवी चैनलो ने पटाखांे से पर्यावरण कितना दूषित होता हैं, यह दर्शको को बतलाया। पटाखों के विस्फोट से पर्यावरण दूषित होने के तथ्य से किसी का भी इंकार नहीं हैं। लेकिन इससे जुड़े कई प्रश्न हैं जिन पर उक्त आदेश के परिपेक्ष्य में विचार किया जाना आवश्यक हैं।
अर्जुन गोपाल व अन्य द्वारा वर्ष 2015 में पटाखे व अन्य कारणो से हो रहे पर्यावरण के नुकसान को रोकने के लिये उच्चतम् न्यायालय में एक याचिका दायर की गई हैं। इस याचिका पर माननीय उच्चतम् न्यायालय ने समय-समय पर कई अंतरिम आदेश पारित किये हैं। इनमे से मुख्य अंतरिम आदेश दिनांक 11 नवम्बर 2016 पारित किया जाकर समस्त थोक व चिल्लर विक्रेताओं के लाइसेंस निलम्बित कर दिये गये हैं। तत्पश्चात् 12.09.2017 को इस आदेश में संशोधन करते हुए निलम्बित लाइसेंसो से रोक हटा ली गई। तत्पश्चात 09.10.2017 को पुनः अंतरिम आदेश पारित किया जिसके तहत उक्त (दिनांक 12.09.2017 का) आदेश तुरंत प्रभावशील न करके 01.11.2017 से लागू करने का आदेश दिया गया। अर्थात् 11 नवम्बर 2016 के आदेश पर 12.09.2017 के आदेश द्वारा जो रोक लगायी गई थी, वह अब दिनांक 1.11.2017 से प्रभावशाली होने के कारण, लाइसेंसी अब दीपावली पर भी फटाका नहीं बेच पायेगें।
भारतीय एयर पोल्युशन कन्ट्रोल संघ संस्था के अध्ययन की एक रिपोर्ट के अनुसार पर्यावरण में वायु एवं ध्वनि से होने वाला प्रदूषण में फटाखे का ध्वनि प्रदूषण मात्र 15 प्रतिशत ही रहता हैं  पटाखे से होने वाला वायु प्रदूषण 20-25 प्रतिशत तक होता हैं। क्या नागरिको को सिर्फ 3 दिन 2 दिन या एक दिन बिना ड़र वैधानिक रूप से उनके मूल अधिकार को सुरक्षा प्रदान करते हुये पटाखा जलाने की अनुमति माननीय उच्चतम् न्यायालय नहीं दे सकता था? जिस प्रकार राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने श्री श्री रविशंकर महारज को यमुना के पास कार्यक्रम करने से यमुना नदी में प्रदूषण के कारण हुई क्षतिपूर्ती को भरने के आदेश दिये थे। वैसा ही कुछ शुल्क पटाखा बेचने पर लाइसेंसियों पर लगाया जाकर उस राशी से पर्यावरण के होने वाले नुकसान की कुछ भरपायी की जा सकती थी, खासकर उस स्थिति में जबकि पर्यावरण को नुकसान पहंुचने का न तो यह एक मात्र कारण हैं और न ही मुख्य बड़ा कारण।    
प्रश्न यह हैं कि पटाखों से क्या केवल दिल्ली-एनसीआर में ही प्रदूषण होता हैं (क्योकि  उच्चतम् न्यायालय ने रोक यहीं लगाई हैं)? क्या देश के दूसरे राज्यो के नागरिको को भी उसी तरह से स्वस्थ्य प्रदूषण रहित वातावरण में रहने का अधिकार नहीं हैं, जिस तरह का अधिकार दिल्ली-एनसीआर के नागरिको को उच्चतम् न्यायालय के आदेश के द्वारा मिला हैं? जब ऐसा कोई कानून नहीं है कि पटाखे फोड़ना गैरकानूनी हैं, तब उस पर रोक लगाना कितना कानूनी हैं? चंूकि उच्चतम् न्यायालय द्वारा पारित (अंतरिम रोक का) आदेश देश का कानून माना जाता हैं, जो समस्त नागरिको पर लागू होता हैं। तो फिर उच्चतम् न्यायालय ने इस रोक को पूरे देश में लागू क्यों नहीं  किया? इसका उत्तर इस प्रश्न से भी पैदा होता हैं, वह यह कि क्या दिल्ली के पटाखा व्यापारियो को लाइसेंस न्यायालय केे आदेश के बाद जारी किये गये? चंूकि लाइसेंस लेने के बाद लाखों करोडो की पंूजी से पटाखे खरीदे गये हैं, तब उनकी बिक्री पर रोक कैसे लग सकती हैं? रोक या तो लाइसेंस जारी करने के पूर्व लगायी जानी चाहिए थी या लाइसंेस की अवधि समाप्त होने के बाद लगाई जानी चाहिए थी। जब उच्चतम् न्यायालय लाइसेंसियों को पटाखा बेचने पर रोक लगा सकता हैं तो लाइसेंस जारी करने पर पूरे देश मंे ही प्रतिबंध क्यों नही लगाया गया? प्रश्न यह हैं। यहां तीसरा महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी पैदा होता हैं कि उच्चतम् न्यायालय ने एक पक्ष जो ‘‘पटाखा बेच कर पर्यावरण को खराब कर रहा हैं,’’ उस पर तो प्रतिबंध लगा दिया लेकिन उसीके दूसरे पक्ष उपभोक्ता के पटाखे फोड़ने पर, प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया। (जिसका कारण उच्चतम् न्यायालय ने  मानिटरिंग करने में असहाय होना बताया)। परंतु सम्पूर्ण प्रतिबंध के बिना पटाखे के पूर्ण  प्रदूषण से कैसे बचा जा सकता हैं। यदि उपभोक्ताओं के पास पहले से ही पटाखे रखे हुए हैं अथवा  वे दूसरे सीमावर्ती प्रदेशो से खरीदते हैं तो उनके फोड़ने पर कोई रोक नहीं हैं, तब उच्चतम् न्यायालय का रोक का निर्णय कैसे प्रभावशाली हो सकेगा? इस प्रकार पर्यावरण को साफ सुथरा रखने के उद्देश्य से पारित रोक के ऐसे आदेश में सफलता मिल सकेगी, इसमे संदेह हैं। लेकिन इस रोक के कारण निश्चित रूप से बेचारे निर्दोष व्यापारियों का असीमित नुकसान होकर दीवाली पर दीवाला निकल जायेगा। क्या लाइसेंसी व्यापारियों को उपलब्ध स्टॉक बेचने की छूट नहीं दी जा सकती थी?
प्रदूषण सिर्फ पटाखो से ही नहीं होता हैं अन्य दूसरी चीजों से भी प्रदूषण होता हैं। फिर चाहे वह डीजे, ध्वनि विस्तार यंत्रो, वाहनो के कारण ‘‘ध्वनि’’ का प्रदूषण हो। ‘‘गंदगी’’ और ‘‘प्लास्टीक कचरा’’ सीधे एवं ‘‘नाला’’ ‘‘सीवेज’’ इत्यादि के द्वारा नदियों में मिलने के कारण तथा उन सबके कारण नदियों में जल बहाव न हो पाने के कारण जल का प्रदूषण। ‘‘कल कारखानों’’ से विभिन्न रासायनिक क्रियाओं से उत्पन्न ‘वायु’ को दूषित करने वाला एवं कारखानो द्वारा नदी नालो में छोडे गये अवशेषो के कारण ‘‘औद्योगिक प्रदूषण’’। आद्यौगिक विकास के कारण नष्ट होते जंगल, वृक्ष व कृषि भूमि का रकबा कम हो जाने के कारण हो रहा प्रदूषण। कीटनाशक व रासायनिक खाद्य के प्रयोग के कारण ‘‘जमीन’’ की उत्पादकता को क्षरण करने वाला प्रदूषण। निर्माण कार्य सड़क पर धूल के कारण प्रदूषण। कृषि अवशेष को जलाने से उत्पन्न प्रदूषण। डीजल पेट्रोल के उपयोग के कारण फैलता प्रदूषण। राजनैतिक रैली व मीटिगें में लाखो की भीड़ एकत्रित करण के कारण लाउड़ स्पीकर इत्यादि के द्वारा हो रहा ध्वनि एवं अन्य प्रदूषण। मिलावटी चीजों के उपयोग के कारण मानव के स्वास्थ्य में गिरावट डालने वाला प्रदूषण। आदि-आदि अनेकानेक प्रदूषण के कारक हमारे जीवन में जीवित होकर बाधक हैं। ऐ.सी. से भी प्रदूषण होता हैं (एच.एफ.सी के कारण) लेकिन हद तब होती हैं जब प्रदूषण पर नियत्रंण के निर्णय, निर्देश, आदेश ऐ.सी. रूम में लिये जाते हैं।
सबसे बड़ी दिक्कत यह हैं कि न केवल इस मुद्दे में या इस तरह के अन्य मुद्दो में सरकार से लेकर न्यायालय तक में जो हो रहा हैं वह मुद्दो की मूल (जड़) में न जाकर मात्र उनसे उत्पन्न परिणामों को रोकने का प्रयास भर हो रहा हैं, जिससे इस प्रकार के प्रयास असफल हो रहे हैं। सर्वविदित ‘‘मूल’’ तथ्य हैं कि शराब पीना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हैं, लेकिन सरकार बेच रही हैं। वह कतिपय जगहो पर शराब बेचने पर प्रतिबंध लगाती हैं, लेकिन शराब के उत्पादन पर रोक नहीं लगा रही हैं। उत्पादको द्वारा ‘‘सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हैं,’’ यह चेतावनी, विज्ञापन में छापने के बाद न केवल उसे बेचने की छूट हैं बल्कि उसका खूब उपभोग भी किया जा सकता हैं जो वायु प्रदूषण करता हैं। यद्यपि सरकार ने वीआईपी व्यक्तियों के लिये वीआईपी जगह पर स्मोकिग जोन सिगरेट पीने के लिये बनाई हैं। क्या आपने किसी ग्राम में बीडी पीने के लिये स्मोकिग जोन देखा हैं? चंूकि पटाखे फोड़ना वातावरण को प्रदूषित करता हैं इसीलिए उनकी बिक्री पर कुछ जगह रोक जरूर लगायी गई हैं लेकिन उनके उत्पादन पर कोई रोक नहीं हैं। ऐसी ही अनेकानेक कितनी ही वस्तुएं हैं जो हमारे स्वास्थ्य, प्रकृति व प्राकृतिक वातावरण के लिए सर्वथा हानिकारक हैं लेकिन हम उनके ‘‘मूल’’ अर्थात् ‘‘उत्पादन’’ पर किसी प्रकार की रोक नहीं लगाते हैं। केवल बिक्री पर सीमित प्रतिबंध लगाकर अपने दायित्व व कर्त्तव्यो की इतिश्री मान लेते हैं। जब तक इनके ‘‘मूल’’ यानि ‘‘उत्पादन’’ पर रोक नहीं लगाई जाती हैं तब तक सिर्फ उसके उपयोग/उपभोग पर अंाशिक प्रतिबंध से कुछ हासिल नहीं कर पायेगे। मात्र मीडिया में कुछ मिनट की सुर्खियाँ हासिल कर लेने के अलावा! इसके लिये इतिहास हमे कभी माफ नहीं करेगा। ऐसे दूषित दुर्व्यसनो का उपयोग, उपभोग,उपभोक्ता न करे इसका नैतिक पाठ पढाने की, व नागरिको को जागरूक करने के लिये कोई समयबद्ध, चरणबद्ध लगातार नीति निर्धारण करने एवं उनको लागू करने का नैतिक बल भी हमारे शासन-प्रशासन में नजर नहीं आता। 
सीमित प्रतिबंध कहीं न्यायालय द्वारा, कही प्रशासन द्वारा व कही शासन के द्वारा विधायिका के माध्यम से कानून बनाकर लगाया गया हैं। लेकिन इन सबके बावजूद हमारी मूल जड़ को ध्वस्त करने की इच्छाशक्ति नहीं हैं क्योंकि इनसे सरकार को बड़ा राजस्व मिलता हैं तो उपभोक्ता को भी आनंद की अनुभूति होती हैं। शायद इसीलिए मध्य प्रदेश सरकार ने तो आंनद विभाग ही खोल दिया हैं और हमारे यहां के गृहमंत्री ने प्रभावीत प्रदेशो के नागरिको को अपने प्रदेश में निमत्रित कर पटाखा फोडने का आंनद लूटने का खुला आमंत्रण दिया हैं। शायद मध्य प्रदेश भारत का एक मात्र प्रदेश हैं जहां आंनद विभाग की उत्पत्ति हुई हैं, जो अपनी स्थापना के औचित्य को सिद्ध करने के प्रयास में लगा हुआ हैं।
अंत में एक बात और जब डीजल-पेट्रोल से होने वाले प्रदूषण को रोकने के लिये सीएनजी इलेक्ट्रानिक, बैटरी की कार, टैक्सी, बस चलाई जा सकती हैं, तब बिना प्रदूषण रहित पटाखे का निर्माण हमारे देश के वैज्ञानिक क्यो नहीं बना पा रहे हैं, इस प्रश्न का उत्तर ढूढ़ने का प्रयास अवश्य किया जाना चाहिये।  

बुधवार, 27 सितंबर 2017

‘‘गुरमीत’’ पर एक ‘‘स्वेत पत्र’’ (व्हाईट पेपर) जारी करने की क्या अभी भी आवश्यकता नहीं हैं?


‘‘गुरमीत सिंह’’ उर्फ ‘ड़ॉ.’ उर्फ ‘बाबा’ उर्फ ‘‘बिग बॉस’’ उर्फ ‘पिता’ उर्फ ‘राम रहीम’ उर्फ ‘इन्साँ’ उर्फ ‘मेसंजर ऑफ गॉड’ फिल्म निर्माता-निर्देशक-संगीतज्ञ-एक्टर, खिलाड़ी इत्यादि अनेकानेक व्यक्तित्व एक ही व्यक्ति गुरमीत के रूप में आपके सामने आश्चर्य मिश्रित रूप से प्रकृट हुआ हैं। हर किरदार के साथ उसके कार्यो की अलग अलग कार्य श्रंृखलाएॅ भी एक फिल्मी कथा के रूप में आपके सामने हैं। जरा सोचिए, क्या एक व्यक्ति में इतने अनेक व्यक्तित्व एक साथ होने के साथ साथ परस्पर इतने विपरीत किरदार भी हो सकते हैं? यह सामान्यतः संभव नहीं लगता हैं। लेकिन गुरमीत ने इस असाधारण असामान्य कार्य को भी बहुत आसान तरीके से सामान्य बना दिया। इसीलिये वह आज का सबसे चर्चित लेकिन घृणास्पद चेहरा हैं। 
ऐसा व्यक्ति लगभग 20 साल से चरम विरोधाभास के बीच गैर कानूनी, असामाजिक अनैतिक व्यवहार करता रहा हैं। लेकिन इन घृणित कार्यो का इतनी लम्बी समयावधि तक जनता के सामने न आना, क्या राज्य सरकार की कार्य प्रणाली पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाता हैं? क्या यह केन्द्र सरकार की विफलता को भी नहीं दर्शाता हैं? क्या यह समस्त केन्द्रीय एवं स्थानीय खुफिया जांच एजेंसियाँ की गहन विफलता नहीं हैं? ये प्रश्न बहुत ही गंभीर हैं, जो देश की आंतरिक सुरक्षा से भी जुडे़ हुए हैं। इसीलिये अब समय आ गया हैं कि इस पूरे कांड पर एक स्वेत पत्र राज्य/केन्द्र सरकार द्वारा तुरंत जारी किया जाना न केवल समयानुकूल होगा, जो जनता के मन में छिपे ड़र अंधविश्वास व अर्द्धसत्य पर पड़े परदे को भी दूर करेगा। 
डेरा सच्चा सौदा के मामले में पूरे सिस्टम (प्रणाली) की पूर्णतः और पूर्णतः विफलता रही हैं, चाहे फिर, वह प्रशासन की हो, शासन की हो, या समस्त सूचना तंत्रों की हो। ‘‘सच्चा सौदा’’ डेरा नाम का यदि शब्दार्थ निकाला जाय तो प्रतीत होगा कि सच (सत्य) के साथ सौदा होने के कारण यह निर्लज्जता पूर्ण स्थिति निर्मित हुई हैं। हरियाणा के सिरसा में सात सौ एकड़ से भी ज्यादा क्षेत्र में बना यह डेरा एक दिन, एक महीना, एक साल की क्रिया-प्रक्रिया का परिणाम नहीं हैं। इसके अतिरिक्त राजस्थान (जहाँ बहुत बड़े क्षेत्रफल में डेरा फैला हुआ हैं,) सहित कई प्रदेशों में डेरा सच्चा सौदा के आश्रम हैं। इन समस्त सम्पत्तियों का संचय व कुसृजन अचल सम्पत्ति से संबंधित समस्त कानूनी प्रक्रिया, नियमों का घोर उल्लंघन करके किया गया हैं। डेरा के अंदर बने अनेक भवन, शापिग काम्प्लेक्स से लेकर विश्व के सात आश्चर्यो की अनुकृतियों के साथ टाइटन की आकृति निर्माण सहित, सेवन स्टार होटल के निर्माण की समस्त प्रकार की आवश्यक अनुमतियाँ थी या नहीं, यह भी अनबुझा प्रश्न हैं। यदि उत्तर होता तो डेरा के अंदर अनेकानेक गुफाओं के निर्माण की जो कथाएँ सामने आ रही हैं, वह प्रश्नवाचक नहीं रह जाती। तब क्या समस्त संबंधित प्रशासनिक ढाँचा आँखे मूँदे बैठा था? बेखबर था? क्या उसे ऐसी विकट स्थिति के बाबत् कोई भी भनक नहीं लगी? तो क्या यह सूचना तंत्र की पूरी तरह से विफलता नहीं हैं? और यदि खबर थी, तो इस अपराधिक षडंयत्र में प्रशासन की भागीदारी क्यों नहीं मानी जानी चाहिए? एक उत्तरदायी शासन के कितने और कैसे-कैसे उत्तरदायित्व होते हैं, तथा उन्हे किस तरह निभाया जाना चाहिये, इस घटना को लेकर यह मूल प्रश्न हृदय को चुभने वाले हैं। लेकिन आम नागरिको से लेकर देश के बुद्धिजीवी वर्ग के दिमाग में भी यदि ये प्रश्न नहीं कौंध रहे हैं, तो उत्तर का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता हैं।
अभी जब करोड़ो रूपये के दसियों बैंक खातो को सीज किया गया, क्या वे सभी खाते प्रदर्शित किये गये थे नोटबंदी के समय बाबा राम रहीम (डेरा) ने कितने वैध अवैध नोट बैंको में जमा कराये थे? आयकर विभाग ने क्या इस संबंध में उसे कोई नोटिस दिया था? यह सब अभी काल के गर्भ में ही कैद हैं। गुरमीत द्वारा डेरा में स्वतः की मुद्रा का भी प्रचलन किया गया था, जो निःसदेह गैरकानूनी कृत्य था। डेरा में बने अस्पताल में हजारो लोगो को नपुसंक बनाया गया। डेरा में बड़ी संख्या में अवैध हथियारो के जखीरे का एकत्रीकरण कैसे संभव हुआ? बड़े-बड़े मीडिया हॉऊसेस् ने उसे आराम देय कुर्सी पर आमने सामने बैठा कर लम्बे-लम्बे साक्षात्कार कर अपनी टीआरपी तो अवश्य बढ़ाई। लेकिन खोजी पत्रकारिता का दावा करने वाली ‘‘मीडिया’’ गुरमीत की एक भी बुराई की खोज उसे सजा घोषित होेने के पूर्व तक नहीं बता पाई। डेरा के अंदर 600 से ज्यादा नर कंकाल पाये गये। इन व्यक्तियों के दाह संस्कार डेरा में ही डेरा के तरीके से कर दिए गये। क्या वह स्थान घोषित श्मशान घाट हैं? क्या सैकड़ो व्यक्तियों द्वारा उसकी देह और मृत्योपरान्त उपयोग का सम्पूर्ण अधिकार शपथ पत्र के साथ गुरमीत को सौप देना कानूनी हैं? धार्मिक हैं? नैतिक हैं? इन सब गैर-कानूनी कार्यो की हवा तक बाबा को सजा देने के बाद की गई उनकी गिरफ्तारी तक प्रशासन को नहीं लगी थी। गुरमीत द्वारा बनाये गये 19 वर्ल्ड रिकार्ड़ जो गिनीज बुक ऑफ रिकार्ड़ लिमका बुक रिकार्ड़ में दर्ज किए गए, जिनके प्रमाण पत्र सतत् डेरे में प्रदर्शित किए। क्या वे सभी वास्तविक हैं? और यदि नहीं, तो फिर इस ओर प्रशासन का ध्यानाकर्षण क्यों नहीं हुआ। इसकी जांच क्यों नहीं की गई? 
विभिन्न राजनैतिक पार्टियो के हर नेता, और धार्मिक संस्थाओ केे अनेक व्यक्ति गुरमीत को दंडवत प्रणाम कर स्वयं को सम्मानित महसूस करते थे। गुरमीत को सजा प्राप्त होने के बाद हरियाणा के शिक्षा मंत्री का यह कहना कि मात्र बाबा गलत हो सकता हैं। डेरा गलत नहीं हैं। गुरमीत यदि गलत हैं, तो डेरा सही कैसे? फिर कौन सही व्यक्ति उसे चला रहा हैं? इसका नाम भी शिक्षा मंत्री बताये? क्या एक व्यक्ति बिना किसी की सहायता के कुछ अंधभक्त अनुयायियों की सहायता के बिना इतना बड़ा कांड़ कर सकता हैं? इतना बड़ा बवाल मच जाने के बावजूद, अभी भी हमारी मानसिकता गुरमीत व उसकी घृणित मानसिकता पर हमला करने की नहीं हैं? 
डेरा में सैकड़ो लडकियों का साध्वियों के रूप में रहना एवं अनैतिक कार्यो में सलग्न रहना भी प्रशासन की असफलता ही हैं। डेरा सच्चा सौदा की नम्बर दो प्रमुख साध्वी विपसना जिसे इस सम्पूर्ण कर्म कांड की जानकारी हैं, के विरूद्ध अभी तक प्रथम सूचना पत्र दर्ज न होना क्या दर्शाता हैं? संपूर्ण घटना क्रम एवं चक्र्र को देखते हुये ऐसा लगता है कि, डेरा सच्चा सौदा के आश्रम की सात सौ एकड़ जमीन भारत देश का हिस्सा नहीें हैं, वरन वह एक ऐसा क्षेत्र हैं, जिस पर भारत शासन का कोई हक नहीं हैं, या उस पर भारत सरकार का कोई कानून लागू नहीं होता हैं।
इस पूरे कांड में तीन मुख्य किरदार रहे हैं, जो भूतो न भविष्यति की स्थिति को प्रदर्शित करते हैं। मुख्य किरदार गुरमीत तो हैं ही। जिस के व्यक्तित्व की कल्पना सामान्यतः कल्पना से परे हैं। उसने माफी के नाम पर देहिक के शोषण करके ‘‘माफी’’ शब्द को ही बदनाम कर दिया। लेकिन क्या इससे भी बढ़कर व्यक्तित्व हनीप्रीत का नहीं हैं? जो महिला नाम पर ही कलंक हैं? रोजी रोटी के लिये चकला चलाने वाली महिला के भी कुछ नियम सिद्धान्त होते हैं। लेकिन हनीप्रीत ने तो ‘पिता’ ‘बेटी’ के संबंध को ही तार-तार कर दिया। उसने अन्य साथी लड़कियों को जो साध्वी बनकर डेरा की सेवा में रहती थी, उन्हे भी पाश्विक, भयपूर्ण भ्रम पूर्ण व अन्य समस्त निम्न स्तर के तरीको से गुरमीत की शारीरिक भूख प्यास को पूरा करने के लिये इन सैकड़ो साध्वियों को प्रतिदिन उस व्यक्ति को सौपा जिसके साथ स्वतः उसके पति जैसे संबंध थे। ऐसी प्रकृत्ति, प्रवृत्ति, अनर्थ सोच एवं कार्य प्रद्धति शायद ही कोई अन्य महिला की हो सकती हैं। तीसरा किरदार विश्वास गुप्ता हैं जो हनीप्रीत का शादी शुदा पति होने के बावजूद यह सब अनैतिक कार्य व रिश्ते को तार-तार होते देखता रहा, सहता रहा व हनीप्रीत से तलाक होने के बावजूद भी उसने एक भी रिपोर्ट गुरमीत या हनीप्रीत के खिलाफ नहीं लिखाई। बल्कि इसके विपरीत गुरमीत की प्रताड़ना व उससे अपनी जान माल के खतरे के ड़र से विश्वास गुप्ता ने सबके सामने अपने पिताजी के साथ मिलकर बाबा से गिड़गिड़ाकर माफी माँगी। क्या स्वयं की प्रतिष्ठा व पत्नी के सतीत्व से बढकर किसी व्यक्ति के लिये जीवन हो सकता हैं? यहाँ एक और बड़ा प्रश्न पैदा होता हैं कि गुरमीत ने जिस कुटिल उद्देश्य को लेकर अन्य सेवादारों को नपुसंक बनाया, उसी उद्देश्य के लिये विश्वास गुप्ता को भी क्यो नहीं बनाया? डेरा सच्चा सौदा की नये-नये तथ्यों के साथ दिन प्रतिदिन नई-नई कहानियाँ प्रकाश में आ रही हैं। निश्चित रूप से यह किसी फिल्मी कहानी से भी ज्यादा हैं और, किसी भी फिल्म निर्माता को इस पर फिल्म निर्माण के लिये किसी लेखक से कोई पठकथा लिखवाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
गुरमीत को जेड़ प्लस की सुरक्षा मिलना भी कई प्रश्नों को जन्म देता हैं व सिर्फ इसी मुद्दे पर केन्द्रीय/राज्य सरकार को तुरंत ही स्वेत पत्र जारी करना चाहिए। जेड़ प्लस सुरक्षा का अर्थ क्या होता हैं? जेड़ प्लस सुरक्षा का सुरक्षा कवच कितना बड़ा होता हैं? यह अन्याय, अत्याचार, अनाचार, खौफ के विरूद्ध व देश व समाज के हितो के लिये लड़ने वाले व्यक्ति की जान पर खतरा होने की स्थिति में उस व्यक्ति की जान की सुरक्षा के लिये दी जाती हैं। अत्याचारी, व्यभिचारी, हत्यारे, पाखंड़ी, धूर्त व धर्म के विरूद्ध कार्य करने वाले व्यक्ति को नहीं? जेड़ प्लस सुरक्षा का मतलब हैं पुलिस अधीक्षक (आईपीएस केड़र) से लेकर सौ से अधिक पुलिस कर्मियो का दल बल जेड़ प्लस सुरक्षा के रहते हुये डेरे में इतने अनैतिक कार्य लगातार कैसे होते रहे। अन्यथा इन सुरक्षा बलो की नजर के नीचे इस बलात्कारी ने इतने अनैतिक काम कैसे कर लिये? क्यो इस बल द्वारा कोई भी सूचना प्रशासन को नहीं दी गई? यह सब तो स्वेत पत्र आने पर ही पता लग सकता हैं। 
प्रश्न तो अनेक हैं? लिखते जा रहा हूँ तो नये-नये प्रश्न पैदा हो रहे हैं। लेकिन समय की सीमा हैं। इन सब प्रश्नों का उत्तर पाने के लिये भारत सरकार, केन्द्रीय सरकार ,केन्द्र शासित प्रदेश चढीगढ (यदि पंचकूला उसमें शामिल हैं तो) इस मामले में स्वेत पत्र जारी करके जनता को वास्तविक स्थिति से अवगत कराने का कार्य क्यों नहीं कर रहे हैं, क्यों नहीं करना चाहते हैं? जब कि हम पूर्व में छोटे-छोटे कांडो में भी सरकार से स्वेत पत्र जारी करने की माँग करते रहे हैं, संसद में भी यही मांग करते रहे हैं। यह हमारी बड़ी पुरानी आदत हैं। अतः अब यह स्वेत पत्र जारी किया जाना इसलिए भी नितांत आवश्यक हैं, ताकि भविष्य में इस तरह के धूर्त बाबा की उत्पत्ति की पुनरावृत्ति को रोका जा सके।

बुधवार, 20 सितंबर 2017

डॉ. ‘‘गुरमीत सिंह’’ का दूसरा रूप ‘‘बाबा‘‘ ‘‘राम रहीम’’?

पिछले कुछ दिनो से प्रिंट मीडिया से लेकर इलेक्ट्रानिक मीड़िया में बलात्कारी, व्यभिचारी, अय्याश, पाखंड़ी, परमार्थ के बहाने अपनी स्वार्थी, वहशी, हवस की पूर्ति का एन केन प्रकारेन, साधक बाबा डॉ. गुरमीत सिंह से संबंधित खबरे भरी पड़ी हैं। दिन प्रति दिन नई नई गंदी स्टोरी प्रमाण सहित सामने आ रही हैं। इस बात में कोई शक नहीं हैं कि बाबा समाज के लिए एक बोझ हैं, जिसे उसकेे सही स्थान पर (जेल) पहुंचा दिया गया हैं। 
इस पृथ्वी पर जो भी व्यक्ति आता हैं वह सम्पूर्ण नहीं होता हैं। उसके हमेशा दो पहलू होते हैं, जैसे एक सिक्के के दो पहलू होते हैं। ठीक इसी प्रकार एक व्यक्ति के व्यक्तित्व के भी दो पहलू एक अच्छा व दूसरा बुरा होता हैं। गुरमीत में अनगिनत, अकल्पनीय, अक्षम बुराइयों के रहते हुये यह सिद्ध हो चुका हैं कि उसका व्यक्तित्व बुराईयों से अटाटूट भरा पड़ा हैं। इस तरह  से उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व खराब होकर खारिज कर दिए जाने के लायक ही हैं। फिर भी, आगे हम यहॉं पर सिक्के के दूसरे पहलू को भी पढ़ने का प्रयास करते हैं। 
अनगिनत बुराइयो की व्यापकता के कारण गुरमीत का तनिक तिनका सा भी उजला पक्ष न तो स्वतः दिख रहा हैं और न ही हम देख पा रहे हैं। हम मंे कम से कम इतना तो साहस अवश्य होना ही चाहिए कि, हम बुरे व्यक्तित्व के किचिंत तिनके भर उजले पक्ष को भी पढ़ सकें और उस पर विचार मनन् कर सके। आचार्य बिनोवा भावे व सम्पूर्ण क्रांति के जनक जय प्रकाश नारायण से प्रेरित होकर हमारे मध्य प्रदेश में ही पहले डाकू मान सिंह, फिर डाकू मोहर सिंह ने मूरत सिंह सहित बडी संख्या में अनेक डाकुओं के साथ आत्म समर्पण किया था। आज वे समाज के सभ्य नागरिक बनकर जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इन सबके बहुत पहले भी वाल्मिकी से लेकर चक्रवर्ती राजा सम्राट अशोक जैसे अनेक प्रसिद्ध व्यक्तियों के उदाहरण हमारे समक्ष हैं, जो प्रारंभ में बुरे थे, बाद में किसी एकाधिक घटना से प्रेरणा प्राप्त कर बुरे से अच्छे और अतंतः महान व्यक्ति बनकर इतिहास प्रसिद्ध हो गए। 
ये उदाहरण यह सिद्ध करते हैं कि बुरे व्यक्तित्व में भी अवश्य कुछ न कुछ अच्छाई छिपी होती हैं और अच्छे व्यक्ति में भी कुछ न कुछ बुराई होती ही हैं। जब किसी की बुराई, अच्छाई पर हावी होती हैं, तब वह बुरा व्यक्ति कहलाता हैं व जब किसी में अच्छाई ,बुराई पर हावी होती हैं, तब वह अच्छा व्यक्ति कहलाता हैं। फूलन देवी भी डाकू थी। लेकिन उसके व्यक्तित्व का एक पहलू कहीं न कहीं उजला पन लिये हुये था, जिसके बल पर वह चुनाव जीत कर संसद में पहुंॅच सकी।  
अपराधी गुरमीत सिंह के बुरे पक्ष के संबंध में पहले भी मैं एक लेख लिख चुका हैं। अब उसके उजले पक्ष जो उसके नाम राम रहीम से इंगित होता हैं, पर कुछ उजाला डालने का दुःसाहस पूर्ण  प्रयास कर रहा हूंूॅ। सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह हैं कि आखिर गुरमीत राम-रहीम के करोडो अनुयायी (एक अनुमान के अनुसार लगभग 6 करोड़ से अधिक) कैसे बने, कई हजारो शिष्य अंधभक्त कैसे हुये व सैकडों शिष्य इस सीमा तक समर्पित कि उसे भगवान मानने वाले, कैसे बन गए। यही नहीं वे साधक व साध्वी बने और उन्होने अपना पूरा जीवन ही डेरे को सौप दिया। यही उसके व्यक्तित्व का एकमात्र उजला पक्ष कहा जा सकता हैं। इक्कीसवी सदी के विज्ञान से ओतप्रोत माहोल में हर तरह के व्यभिचारी बाबा के इतने सारे अंधभक्त बन गए कि वे उसके लिए मरने मारने के लिये उतारू हो जाते हैं, यह कैसे संभव हुआ? अर्थात् उसके व्यक्तित्व में अनेकानेक विध्वंशक तत्वों के साथ कुछ न कुछ निर्माण कारक तत्व भी मौजूद हैं।  
यह बात भी सामने आयी कि ‘‘बाबा’’ अपने कई सैकड़ो शिष्यों को रोजी रोटी देता रहा हैं।  उसके वृहत डेरे में सैकडों लोग प्रतिदिन मुफ्त भोजन करते हैं। उसने अस्पताल व स्कूल खुलवाये जहॉं शिष्यों को मुफ्त इलाज व मुफ्त शिक्षा की सुविधा दी जाती हैं। गुरमीत सिंह के साधक व साध्वियों ने कही भी यह दावा नहीं किया कि बाबा तांत्रिक (सिद्ध पुरूष) हैं या बाबा की किसी कार्य पद्धति सिद्धी, पूजा अथवा तंत्र से, भक्तों की समस्त इच्छाओं या मनोकामनाओं की पूर्ति हो जाती हैं। इसके बावजूद भी यदि वे उसके इतने अंधभक्त हैं, तो निश्चित रूप से गुरमीत के व्यक्तित्व में सम्मोहन अथवा कुछ ऐसा विशेष गुण भी हैं, जो एक सामान्य नागरिक को शिष्य बनाकर अंधभक्त बना लेता हैं। भक्तों की अंधभक्ति भी इस सीमा तक कि वे अपने बच्चो व परिवार के सदस्यो पर भी विश्वास न करके बाबा पर अटूट अंध विश्वास (भगवान मानने की सीमा तक) करते हैं जो बाबा की कार्यपद्धति का एक अहम तथ्य हैं। अन्यथा, यह अंधभक्ति निश्चित रूप से गुरमीत के हजारो समर्थको के दिमाग के दिवालियापन को ही दर्शाती हैं। यदि ऐसी अटूट अंधभक्ति का उपयोग  सत्कार्यो के निष्पादन हेतु किया जा सके तो समाज व देश का भला हो सकता हैं। 
गुरमीत एक आधुनिक ढोंगी बाबा हैं इसलिए उसने पीले चोले को धारण न कर 21 वीं सदी का चोला पहना। जिस कपड़े का एक बार उपयोग किया उसे दूसरी बार नहीं छुआ। डेरे में दस हजार से अधिक पोशाखें व ढेड़ हजार से अधिक जूते चप्पल मिले थे। साथ ही उसने कई गाड़ी भी अलग-अलग तरह की डिजाईन की या करवाई। उसके काफिले में सैकडों डिजाईन गाडियों का कारवॉं हैं, जो रजिस्टर्ड ब्रांड के डिजाईन की नहीं हैं। इसीलिए वह डिजाइनर बाबा कहलाए इस डिजाईनिग कार्य को रचनात्मक माना जा सकता हैं। छः म्युजिक एलबम जारी कर वह रॉक स्टार बाबा भी कहलाया। इसके साथ ही उसने फिल्म निर्माता, निर्देशक, एक्टर इत्यादि का भी कार्य किया व चार फिल्मे बनाई। उसने अपनी ऐशो आराम व व्यभिचार पूर्ण अय्याश जिदंगी के लिए अपने डेरे में सात सितारा होटल बनाया जिसकी सबसे विशेष बात  सात कमरे ऐसे बनवाए जो विश्व की सात धरोहर से रूबरू हो सके। इस प्रकार बुरे उद्देश्य को लेकर किए गये निर्माण में भी अनजाने में वह कुछ नवीन (अच्छा) कर बैठा। उसने डेरे में कई मार्केट बनाकर उनमें बहुत से शिष्यों को रोजगार भी दिया। 
बाबा के व्यक्तित्व का एक और अच्छा महत्वपूर्ण योगदान उसके द्वारा करीब 19 से अधिक वर्ल्ड़ रिकार्ड़ व अन्य रिकार्ड़ बनाये गये जो गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड़ व लिमका बुक ऑफ रिकार्ड़ व अन्य संस्थाओ में दर्ज हैं। इनके प्रमाण पत्र डेरे में प्रदर्शित किये गये हैं। यद्यपि उनमें से अधिकांश रिकार्ड कितने सही व उपयोगी हैं, इस पर प्रश्नचिन्ह जरूर लगाया जा सकता हैं।  गुरमीत ने सैकडो शिष्यों से देह दान के शपथ पत्र भी भरवाएॅं हैं। लेकिन इस अच्छे कार्य में भी मानव अंगों की तस्करी का गोरख धन्धा होना बतलाया जा रहा हैं। वह क्रिकेट, बिलिर्यड़, बेड़ मिंटन आदि कई खेलो में रूचि रखता रहा हैं।   
गुरमीत के द्वारा सर्वधर्म समभाव का संदेश देने के लिये अपना नाम गुरमीत सिंह से बदल कर गुरमीत राम रहीम रखा। जाति प्रथा की समाप्ति के लिये जाति सूचक नाम हटाकर अपने भक्तों के नाम के आगे ‘‘इन्सा’’ (इन्सान) लगाने को प्रेरित किया व स्वयं भी लगाया। यह भी कहा गया हैं कि गुरमीत ने गरीब परिवार के बच्चों की शादियों में भी आर्थिक सहायता प्रदान की। भ्रूण हत्या, सामूहिक रक्तदान, आपदा प्रबंधन के लिये ग्रीन वेलफेयर फोरम के नाम से प्रशिक्षित अनुयायियों के दल का गठन किया। स्वच्छता, जैविक खेती व अन्य कई सामाजिक कार्यो के लिये अभियान भी चलाए। नेपाल में आये भूकंप में भी उसने सहायता प्रदान की थी। देश की 130 करोड़ की जनसंख्या में से कुल लगभग 29 नागरिको को सरकार द्वारा प्रदत्त की गई जेड़ प्लस सुरक्षा में एक व्यक्ति राम रहीम भी शामिल हैं।   
बाबा ने बड़ी संख्या में लोगो को शराब, मांस, तंबाकू के व्यसन से मुक्त कराया। भले ही इनकी आड़ में उसका उद्देश्य अनुचित रहा हो। उसके इन कृत्यों की आलोचना नहीं की जा सकती हैं। आज के युग में गांधी जी का वह सूत्र कि ‘‘साध्य के साथ साधन में भी शुचिता होनी चाहिये, कितना सार्थक हैं? यथार्थ धरातल पर आज यह कितना लागू हैं? जब हम आज साध्य की प्राप्ति के लिये साधन की शुचिता को छोड़ देते हैं, तो बाबा ने भी शुचिता को ही पूरी तरह ताक पर रख कर ऊपर वर्णित कुछ अच्छे कार्य सम्पन्न कर दिए। यह भी कहां जा सकता हैं कि गुरमीत ने अपनी अक्षम्य पापी दुनिया पर इस तरह के कुछ अच्छे कार्यो के द्वारा परदा डालकर ढ़कने का प्रयास किया।
गुरमीत के व्यक्तित्व का सबसे खराब पहलू उसका सेक्स के प्रति असीमित असामाजिक घृणित अनुराग रहा हैं। डेरे के स्कूल अस्पताल तथा अन्य सभी कार्य कलाप उसने इसी हवस की पूर्ति के लिए डिजाइन किए व करवाए, यहॉ तक कि इसके लिए उसने अनेक हत्या तथा सैकडो को नपुंसक बनाने में भी कतई गुरेज नहीं किया। यदि उसके व्यक्तित्व से इन अक्षम्य बुराई को हटा दिया जाये, सम्राट अशोक के समान उसका हृदय परिवर्तन हो जाय तो बाबा डॉ. गुरमीत सिंह बाबा राम रहीम बन सकता था तब वह अपने व्यक्तित्व के उपरोक्त कुछ (अच्छे) गुणों के कारण समाज के लिये उस सीमा तक उपयोगी व्यक्ति भी सिद्ध हो सकता हैं?
गुरमीत से भी गिरा हुआ यदि कोेई व्यक्ति इस पूरे कांड में हैं तो वह हनीप्रीत! हैं महिला होकर जिस तरह उसने सैकड़ो महिलाओं को बाबा गुरमीत की हवस का शिकार बनवाया जिसके लिये उसने एक ऐसी महत्वपूर्ण सक्रिय ‘‘विलेन’’ की भूमिका अदा की जो महिला समाज पर एक ऐसा कलंक हैं, जिसकी कल्पना शायद बुरे से बुरा व्यक्ति भी नहीं कर सकता हैं। हनीप्रीत ने सामाजिक रिश्तो को तार-तार कर दिया। इस घटिया कृत्य जिस का शब्दो में उल्लेख करना भी बहुत शर्मनाक हैं, के लिये शायद हमारे अपराधिक दंड संहिता में समुचित दंड़ भी नहीं हैं। अतः गुरमीत के पहिले तो सबसे पहिले हनीप्रीत को पकड़ कर बगैर मुकदमा चलाये उसे सरे आम फॉंसी देना भी शायद सभ्य समाज में असभ्य नहीं कहलायेगा।    

शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

रेयान इंटरनेशनल स्कूल में एक मासूम विद्यार्थी की जघन्य हत्या! क्या एक घटना मात्र हैं?

  ‘गुरूग्राम’’ के ‘‘रेयान इंटरनेशनल स्कूल’’ में हुई एक 7 वर्ष के विद्यार्थी प्रद्युम्न की जघन्य हत्या को पिछले कुछ दिनो से इलेक्ट्रानिक व प्रिंट मीडिया ने इतना अधिक कवरेज दिया है कि फिर वही पुराने अलाप व आरोप मीडिया ट्रायल की स्थिति उत्पन्न हो गई हैं। निश्चित रूप से मासूम की उक्त जघन्य हत्या ने अभिभावक के साथ साथ आम नागरिको को झकझोर दिया हैं जिसकी भर्त्सना के लिये शब्द नहीं हैं। एक मॉं ही उस असीमित, असहनीय, अविरल दुख को महसूस कर सकती हैं व वह उसे घिसटते हुये  जी रही हैं। अन्य लोग सिर्फ शब्दो द्वारा ही संवेदना व्यक्त कर सकते हैं। इन सबके बावजूद इस घटना को जिस तरह से मीडिया के द्वारा प्रसारित प्रचारित किया जा रहा हैं ‘‘क्या यही एक उचित तरीका बचा हैं’’ प्रश्न यह हैं?
सर्वप्रथम इस तरह की यह घटना देश की प्रथम घटना नहीं हैं, पूर्व में भी घटित होती रही हैं। विद्यमान घटना के 24 घंटे के भीतर ही न केवल अभियुक्त पकडा जा चुका हैं बल्कि उसने अपने इकबालिया बयान में जुर्म भीे स्वीकार कर लिया हैं। वह एक मानसिक रोग का शिकार हो सकता हैं, जैसा कि उसने हत्या के उद्देश्य के संबंध में अपने बयान में बतलाया था। इसके बावजूद पीडित परिवार के सदस्य पुलिस जांच से संन्तुष्ट नहीं हैं, एवं सीबीआई जांच की मांग कर रहे हैं जिसके लिये वे उच्चतम् न्यायालय भी पहुंचे हैं। यह उनका एक पूर्ण संवैधानिक अधिकार हैं जिसकी हर कीमत पर रक्षा की जानी चाहिये। उच्चतम् न्यायालय ने घटना का संज्ञान लेते हुये इसे मात्र एक घटना भर न मानकर राष्ट्रव्यापी स्कूलों में हो रहे ऐसी घटनाओं व अव्यवस्था को रोकने के लिए केन्द्र सरकार, हरियाणा सरकार, मानव संसाधन मंत्रालय व सीबीएसई को नोटिस जारी कर पूछा हैं कि स्कूल के बच्चो की सुरक्षा के बारे में व ऐसे घटना घटित होने पर स्कूल प्रबंधक की जवाबदेही क्या होनी चाहिए? लेकिन परिवार का यह कहना हैं कि उक्त हत्या में कन्डक्टर के अलावा और कोई ‘‘दूसरा’’ भी शामिल हैं। यह दूसरा कौन ? न तो पीड़ित परिवार ने अभी तक किसी की ओर निश्चित्ता के साथ इंगित किया हैं और न ही मीडिया ने। यद्यपि मीडिया इस घटना को जोर-शोर से प्रचारित कर रहा हैं। पुलिस की जांच में भी अभी तक कोई दूसरी थ्योरी भी सामने नहीं आयी हैं। एसआईटी की जांच रिपोर्ट में प्रथम दृष्ट्या स्कूल प्रशासन पर गहन लापरवाही व सुरक्षा बंदोबस्त में चूक व विभिन्न नियमों के उल्लंघन के आरोप पाये गये हैं। इस आधार पर पुलिस ने स्कूल के दो प्रशासनिक व्यक्तियों को गिरफ्तार भी कर लिया हैं व कार्यवाहक प्राचार्य को भी पूछताछ के लिये हिरासत में लिया हैं।
यदि हम एसआईटी की उक्त रिपोर्ट की सूक्ष्म  विवेचना करे तो यह स्पष्ट हो जाता हैं कि रेयान स्कूल में जो तीन प्रमुख कमियॉं बतलाई गई हैं, वे सब कमोेवेश लगभग हर सरकारी/गैर सरकारी स्कूल में भी मिल जायेगी। इलेक्ट्रानिक मीडिया के ओवी वेन आज भी किसी स्कूल में चले जाएॅं तो उनमें कमोवेश उपरोक्त कमियों के साथ और अन्य कई कमियॉं भी मिल जायेगी। कुछ मीडिया हॉऊस ने यह कार्य किया भी हैं। तब सरकार इस घटना से सबक लेकर तुरंत समस्त स्कूलो की विस्तृत जांच करवाने के आदेश क्यों नहीं दे रही हैं ताकि ऐसी घटना की पुनरावृत्ति न हो। मीड़िया ने भी न तो स्वयं इस दृष्टि से कार्य किया हैं और न ही सरकार का ध्यान ऐसी कार्यवाही के लिये आकर्षित किया हैं। यद्यपि अब केन्द्रीय सरकार मानव संसाधन मंत्रालय एवं कुछ राज्य सरकारे ने उच्चतम् न्यायालय द्वारा नोटिस जारी होने के बाद इस दिशा में कुछ कार्यवाही करने हेतु कदम उठाए हैं।
सिर्फ पीड़ित परिवार की असहनीय असीमित व्यथा को लगातार 72-72 घंटे से ज्यादा व्यक्त करके क्या मीडिया अपने दायित्व से मुक्त हो गया हैं? इस तरह की घटना जब एक ग्रामीण इलाके में छोटे से स्कूल में हो जाती हैं तब मीडिया कहां चला जाता हैं?किसी ग्रामीण इलाके की स्कूल की व्यवस्था देख ले। क्या वहॉं बाउंड्रीवाल हैं? क्या सिक्योरिटी गार्ड हैं। क्या वे सब व्यवस्थाएॅ इन ग्रामीण स्कूलो में हैं, जिनकी ओर एसआईटी ने उंगली उठाई हैं। क्या ग्रामीण स्कूल के ‘‘बच्चे’ -‘बच्चे’ नहीं होते हैं? अब जब शिक्षा का अधिकार पूरे देश में एक मूल संवैधानिक अधिकार बन गया है, तब सुरक्षित शिक्षा के पैमाने भी पूरे देश में क्यों नहीं लागू होना चाहिए?
एक बात और हैं, राजनेताओं का शिक्षण संस्थाओं के साथ गहरा नाता हैं, जिसके कारण यदि पब्लिक स्कूलों में कही शिक्षा का स्टेन्डर्ड बढ़ता हैं तो दूसरी ओर अभिमावकों का आर्थिक शोषण भी बढ़ता हैं। साथ ही शिक्षण संस्था संचालन में नियमो की बडी अनदेखी भी होती हैं। लेकिन राजनैतिक दखल होने के कारण कोई भी प्रशासनिक व्यवस्था इन पर कार्यवाही करने में तब तक हिचकते रहते हैं जब तक केाई घटना घटित न हो जाय। इस नेक्सस को तोडना भी समय की पुकार हैं। 
अंत में उक्त जघन्य घटना की भर्त्सना मात्र करते हुये पीड़ित परिवार के साथ पूरी हार्दिक संवेदना दर्शाने के साथ मीडिया अज्ञात व्यक्ति के खिलाफ, मीडिया ट्रायल कर, अपनी लक्ष्मण रेखा को खुद तोड़ रहा हैं, और यह पहली बार नहीं हो रहा हैं।
  

बुधवार, 30 अगस्त 2017

गुरमीत सिंह पर आये सीबीआई न्यायालय के निर्णय के पश्चात् उत्पन्न स्थिति के लिये क्या मात्र प्रशासन ही जिम्मेदार हैं?

         
बहुप्रतीक्षित ‘‘मेसंजर ऑफ गाड’’ ‘‘बाबा’’ स्वयंभू ‘‘संत’’ ‘‘गुरमीत सिंह’’ ‘‘राम’’ ‘‘रहीम’’ ‘‘इन्संा’’ डेरा सच्चा सौदा प्रमुख पर निर्णय की तारीख 25 अगस्त पूर्व में ही दिनांक 18 अगस्त को तय की जा चुकी थी। समस्त प्रशासनिक, न्यायिक चेतावनी एवं जांच ऐजेंसीज के ‘‘इनपुट’’ होने के बावजूद हरियाणा पुलिस, पैरा मिलेट्री बल व शासन-प्रशासन सब असफल हो गये और बेलगाम हिंसा में 38 लोग अकारण ही अकाल मौत के शिकार हो गये। इस भयावह स्थिति के लिये जिम्मेदार कौन? निश्चित रूप से इसके लिये ऊपर उल्लेखित समस्त लोग मुख्यतःसामूहिक रूप से  जिम्मेदार हैं। लेकिन क्या मात्र ये ही सब जिम्मेदार हैं? अन्य कोई नहीं ? यह घटना का एक पहलू भर हैं। अनचाहे उत्पन्न हुई इस परिस्थति के दूसरे पहलू पर भी विचार किया जाना आवश्यक हो गया हैं। 
भारतीय न्याय व्यवस्था का यह एक पहला ऐसा मामला हैं जो अन्य मामलों से बिल्कुल अलग व कई कारणों से अनूठा हैं। न्याय के इतिहास में शायद यह पहली बार ही हुआ हैं जब किसी अधीनस्थ न्यायालय द्वारा निर्णय घोषित करने के पूर्व पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने लगातार दो दिनों में पांच बार त्वरित सुनवाई कर सीबीआई कोर्ट द्वारा दिये जाने वाले निर्णय की घोषणा के बाद की संभावित आशंकित परिस्थतियों में कानून व्यवस्था बनाये रखने के उद्देश्य से न केवल कई कड़े व बहुत ही स्पष्ट निर्देश जारी किये वरण हरियाणा के डीजीपी को जमकर फटकार तक लगायी। यह भी कहा गया कि किसी भी संभावित अनपेक्षित उत्पात की स्थिति के लिये उन्हे ही जिम्मेदार ठहराया जायेगा। न्यायिक इतिहास में यह भी पहली बार ही हुआ हैं कि उच्च न्यायालय ने संबधित पक्ष को बिना कोई नोटिस दिये या शपथ पत्र लिये मामले की गम्भीरता को भॉंपते हुए संबधित पक्षकारों को बुलाकर तुरंत सुनवाई कर ऐतिहासिक समुचित आदेश एवं निर्देश पारित किए। यह मामला अपने आप में इस कारण से भी अनोखा हैं जिसमें पीड़िताओं द्वारा औपचारिक रूप से कोई प्रथम सूचना पत्र दर्ज नहीं कराया गया। अपितु घटना के संबंध मंे सिर्फ गुमनाम पत्र तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी एवं पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय को भेजे गए थे, जिसके संज्ञान में ही सीबीआई द्वारा जांच की गई थी। समस्त इनपुट और प्रशासनिक आदेश के बावजूद सरकार पूरी तरह से असफल रही और 18 अगस्त (जब निर्णय की तारीख 25 अगस्त तय की गई) से निर्णय के आते तक लाखो लोग पंचकुला सीबीआई न्यायालय के आस पास के क्षेत्र में जमा होने दिए गए। अतः ऐसी अनियत्रिंत स्थिति उत्पन्न हो जाने देने के लिए सरकार पूर्णतः जिम्मेदार हैं। जब प्रतिबंधात्मक आदेश के बावजूद ‘‘डेरा सच्चा’’ के समर्थक इतनी बडी संख्या में इक्ट्ठा हो गये जिससे प्रशासनिक व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा गई तब क्या माननीय न्यायाधीश जगदीप सिंह को निर्णय को कुछ दिन के लिये स्थगित नहीं कर देना चाहिए था ताकि इकठ्ठा हुई भीड़ समय के साथ तितर वितर हो जाती व तनाव पूर्ण स्थिति डिफ्यूज (सामान्य)हो जाती। पूर्व में भी धारा 376 से लेकर धारा 302 के साथ देशद्रोह सहित कई गंभीर भयानक अपराध के मामलों की सुनवाई न्यायालय, विशेष न्यायालय एवं सीबीआई कोर्ट के द्वारा कई कारणों से स्थगित की जाकर आगे बढाई गई हैं। तब परिस्थिति विशेष में सीबाीआई कोर्ट ने निर्णय को स्थगित कर स्थिति को बेकाबू होने से रोकने का प्रयास क्यों नहीं किया? विशेषकर ऐसी स्थिति में जब एक तरफ उच्च न्यायालय ने यह महसूस किया कि शासन प्रशासन स्थिति से निपटनेे के लिये मानसिक रूप से माकूल नहीं हैं। एक बार गुरमीत को न्यायालय में पेशी पर लाने पर हुये हंगामे के मद्देनजर न्यायालय ने असामान्य कदम उठाते हुये आगे वीडियो कांफ्रेस के जरिये लगातार सुनवाई की। वैसा ही निर्णय दिए जाने के दिन अति असामान्य स्थिति हो जाने के कारण निर्णय को यदि स्थगित कर दिया जाता, तो उस दिन 38 लोगों के जानमाल व करोडों रूपये की सम्पत्ति के हुए नुकसान से बचा जा सकता था व पंचकुला के निवासियों का ड़र व आंतक के साये में जिये 24 घंटे के जीवन को टाला जा सकता था। अतः सीबीआई न्यायालय के न्यायाधीश को 25 अगस्त के निर्णय को आगे न बढाने से उत्पन्न हुई स्थिति के लिये नैतिक रूप से जिम्मेदार ठहराया जा सकता हैं, विशेष कर उन परिस्थितियों को देखकर जब स्वयं उच्च न्यायालय ने परिस्थतियों की वीभत्सता का आकलन करते हुये आदेश व प्रतिबंधात्मक निर्देश जारी किये हो।    
बात टीवी चंेनलो की ले ले। टीवी चेनलों द्वारा ‘‘बाबा’’ ‘‘राम’’ ‘‘रहीम’ का नाम बार-बार लेकर इन नामो को बदनाम करने में भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ी जा रही हैं। विभिन्न चेनलो के ओवी वैन इस हिंसा में नष्ट हुये हैं। इसका समाचार देने में  जब वे परस्पर एक दूसरो की चेनल का नाम लेने पर परहेज करते रहे व सिर्फ न्यूज चेनल बोलते रहे हैं, तब बाबा ‘राम’ ‘रहीम’ के नाम पर यह मेहरबानी  क्यों नहीं कर रहे हैं। मात्र ‘‘गुरमीत’’ सिंह जो उसका मूल नाम हैं, का उल्लेख करने से क्या मीडिया रिपोर्टिग पूरी नहीं हो पाती हैं ? एक तरफ राम रहीम का नाम लेकर इन नामो को जाने अनजाने बदनाम किया जा रहा हैे जो करोड़ो लोगो के लिये आस्था की भावना हैं (‘‘राम रहीम’’ को भगवान बनाकर ‘‘राम’’ और ‘‘रहीम’’ को भगवान रहने से वचित किया जा रहा हैं) तो दूसरी तरफ उन 800 से अधिक गाड़ियों के काफिले का बार बार उल्लेख कर गुरमीत को महिमा मंडित किया जा रहा था। आज तक की ऐंकर अंजना ‘‘ओम कश्यप’’ ‘‘आज तक’’ की ओवी वैन पर हुए हमले के बाद बार-बार चिल्ला-चिल्ला कर गुरमीत के समर्थकों पर उन्हे दोषी मानकर भड़कती हैं। लेकिन उसके साथ ही वह यह भी रिपोर्ट करने लग जाती हैं कि गुरमीत केा हेलीकाप्टर के जरिये जेल ले जाया जायेगा। ऐसी रिपोर्ट करके जाने अनजाने में क्या वह समर्थको को गुरमीत के मौका स्थल (लोकेशन) को नहीं बता दे रही हैं? क्योकि यह जानकारी पाकर गुरमीत के समर्थक हेलीपेड़ पर इकठ्ठा हो सकते थे। इस मामले में एनडी टी.वी. ने कुछ समझदारी की रिपोर्टिग की। हिंसा की कुछ घटनाओ का सीधे लाइव प्रसारण नहीं किया। वहीं अन्य चेनल समस्त घटनाओं को लाइव  दिखा रहे थे। सबसे पहले व सबसे आगे के काल चक्र में मीड़िया को उनकी जिम्मेदारी सिखाने के लिये एक पाठशाला आयोजित करने की भी नितांत आवश्यकता हैं।
महत्वपूर्ण बात हैं गुरमीत समर्थक भारतीय नागरिको का समाज व देश के प्रति दायित्व व अपने गुरू के प्रति अति सीमा तक का असीमित अंधविश्वास! आखिर हमारा देश किस दिशा में जा रहा हैं? हमारी यह संस्कृति हमे कहां ले जा रही हैं? भारतीयता की बात करने वाली समस्त राजनैतिक पार्टियॉं स्वार्थसिद्धि हेतु किस तरह की राजनैतिक रोटियां सेंक रही हैं? ‘‘भारत व भारतीयता’’ के इतर सब कुछ इस उपद्रव में शामिल हैं। धर्म या कहे धर्म के ठेकेदार बाबाओं के साथ राजनीजिज्ञों का घाल मेल इतना गहरा हो गया हैं कि सत्ता साधने के लिये धर्म, संस्कृति सेवा भाव व नैतिकता सब कुछ बेमानी/बेपटरी हो गई हैं। गुरमीत को बलात्कार के अपराध में दोषी करार दिए जाने के बाद उसकेे समर्थको ने अंधभक्त बनकर अनगिनती सामान्य जनो की शांति भंग कर दी तथा देश की सम्पत्ति नष्ट कर दी। यह कैसी भारतीयता/संस्कृति? इस घटना के पूर्व भी आशाराम, रामपाल, रामवृक्ष, नित्यानंद व अन्य कई धर्मगुरू संत, बाबा, स्वामी सेक्स स्कंेडल में फंसे हुए हैं, जिन पर प्रकरण चल रहे हैं। इस सबके बावजूद उनके शिष्यों व समर्थको की आस्था ऐसे गुरूओं के प्रति कम नहीं हो रही हैं। उनका उनके गुरूओं के प्रति ऐसा समर्पण सिर्फ धार्मिक गहरे  अंधविश्वास के कारण हैं जो घातक हैं। फिर ऐसा ही समर्पण अपने देश व माटी के प्रति क्यो नहीं प्रदर्शित हो रहा हैं? जब पडोसी देश हमे लगातार ऑंख दिखाते रहता है व आंतकी घटनाओं को अंजाम देता रहता हैं तब यदि वे सब सड़क पर आकर ऐसी ही निष्ठापूर्ण श्रद्धा देश एवं देश की सम्पत्ति के प्रति प्रदर्शित करते तो निश्चित रूप से हमारे शासनाधीशों को दुश्मनों के विरूध एक कड़क निर्णय लेने के लिये न केवल सम्बल मिलता, बल्कि वे देश हित में निर्णय लेने हेतु मजबूर भी होते। 
एक सजायाफ्ता बलात्कारी एवं आरोपी हत्यारे ‘‘गुरू’’ के समर्थन में उसके समर्थक व शिष्य  सामने आकर किस संस्कृति या नैतिकता की किताब को लिख रहे हैं? उनका ऐसा अंधा समर्थन भी गुरमीत के अपराध से कम नहीं हैं। यह समर्थन देकर व्यक्ति अपने परिवार व समाज को किस नैतिकता का संदेश देना चाहता हैं। क्या इससे व्यभिचार को बढावा नहीं मिलेगा? क्या देश  हितैषी स्वस्थ्य संस्कृति के लिये उसके नागरिकों की इस तरह नैतिकता से गिरना चिंता का बड़ा विषय नहीं हैं? इस देश की संस्कृति के ठेकेदारों का इस प्रकार नैतिकता के गिरने पर और उसको गिरने से रोकने के लिये दूर-दूर तक कोई बयान बाजी करते नहीं दिखना क्या जाहिर करता हैं? न्यायालय के निर्णय का सम्मान करते हैं’’ ऐसे जुमले का बारम्बार बखान करने वाले राजनीतिज्ञों व धर्म के ठेकेदारों से यह जुमला सुनने के लिए हमारे कान तरसते रह गए। क्या गुरमीत के प्रति उनकी यह मौन सहमति/समर्थन नहीं माना जाना चाहिए?
इस पूरे घटना क्रम में उन दोनो साहसी साध्वियों की कोई (सार्थक) चर्चा तक नहीं कर रहा हैं जिन्होने विपरीत परिथतियों में भी लम्बे समय से आंतक व ड़र के साये में लड़ाई लड़ी व बिना समर्पण किये लड़ाई को उसके परिणाम तक पहुंचाया। उनके आगे हम नतमस्तक हैं। सरकार का यह दायित्व हैं कि जब एक आरोपी को जेड़ प्लस सुरक्षा प्रदान की जा रही थी तो उसके अत्याचार से पीड़ित अबलाओ को इस भयावी, मायावी राक्षस से बचाने के लिये आवश्यक सुरक्षा व सुविधा अभी तक क्यों नहीं दी गई? वे समस्त साध्वी जो आश्रम में सेवा दे रही थी उन्हे अभी तक किसी नारी आश्रम में क्यों नहीं भेजा गया व उनके बीच विभिन्न महिला संगठनों के माध्यम से मोरल पुलिसिंग क्यों नहीं की गई? अनुत्तरित प्रश्न के सही उत्तर व उनका क्रियान्वयन ही व्यवस्था को सुधार पायेगा। 
अंततः गुरमीत को विशेष न्यायाधीश केन्द्रीय जांच ब्यूरो के द्वारा 20 वर्ष की सजा सुनाई गई। विशेष न्यायाधीश को हेलीकाप्टर से सुरक्षा कारणो से रोहतक जेल में बनाई अस्थाई कोर्ट तकं पंहुचाना भी न्याय के इतिहास में प्रथम बार हुआ हैं। गुरमीत को अपराधी सिद्ध घोषित करने के निर्णय के बाद डिप्टी एडवोकेट जनरल (जो गुरमीत के भतीजे हैं) को बर्खास्त करने की घटना भी असाधारण हैं। 
सामाजिक मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञों के लिये यह घटना शोध का विषय हैं जहां इंसान अच्छाई-बुराई में परख किये बिना ही हिन्दू धर्म में ईश्वर के कई अवतार होने के बावजूद अपनी अंधी धार्मिक आस्था एक बलात्कारी व हत्यारे अपराधी के प्रति इस सीमा तक समर्पित करता हैं कि हजारो की संख्या में इकठ्ठा होकर मरने मारने के लिये उतारू होकर हिंसक हो उठे। यही से नैतिकता की शिक्षा का पाठ पढाने की आवश्यकता, वक्त की पुकार हैं। 
   जय हिंद! 



शुक्रवार, 25 अगस्त 2017

‘‘बहुमत’’ का निर्णय ‘नैतिक’ रूप से कितना ‘‘बलशाली’’?

एक साथ ‘‘तीन तलाक’’ के संदर्भ में माननीय उच्चतम् न्यायालय द्वारा दो के विरूद्ध तीन के बहुमत से ऐतहासिक फ़ैसला देकर लम्बे समय से चली आ रही बहस को विराम देते हुए ‘‘त्वरित तीन तलाक’’ को असंवैधानिक करार देने के साथ साथ तुरन्त ही एक अन्य बहस को भी अवसर प्रदान कर दिया हैं। वह इसलिए कि ऐसे महत्वपूर्ण संवेदनशील मुद्दे पर तीन दो के बहुमत का निर्णय संविधान के तहत तो बंधनकारी हैं, जिसने (सिवाए पुर्नावलोकन की स्थिति को छोड़कर) मुद्दे को अंतिम रूप से निर्णीत कर दिया हैं। लेकिन न्यायिक प्रक्रिया में नैतिक बल के आधार पर क्या यह निर्णय उतना ही प्रभावी माना जायेगा? यह निर्णय ऐसा प्रश्न पैदा करने का एक अवसर आलोचको को देता हैं। उच्चतम् न्यायालय ने स्वयं संज्ञान लेकर उक्त मामले की सुनवाई प्रारंभ कर मुस्लिम महिलाओं के बराबरी (समानता) से जीने के संवैधानिक अधिकार पर ‘‘तीन तलाक’’ द्वारा जो अतिक्रमण किया जा रहा था, उस बाधा को समाप्त कर, मुस्लिम महिलाओं को एक बड़ी राहत प्रदान की हैं। उनके असहय जीवन में तनाव को समाप्त कर उनमें नव जीवन का संचार किया हैं। इस ऐतहासिक निर्णय ने एक और विवाद समान सिविल संहिता के संबंध में कानून बनाने का रास्ता भी साफ कर दिया हैं। वैसे भी जब आपराधिक न्यायशास्त्र, मुस्लिम सहित समस्त भारतीयो पर लागू हैं, तब सिविल सहिंता के मामले में मुस्लिम समाज अलग क्यों रखा जाना चाहिए?
लोकतांत्रिक देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया निश्चित रूप से बहुमत के आधार पर संचारित होती हैं। वह बहुमत भी पूर्ण बहुमत न होकर उस प्रक्रिया में भाग लेने वाले व्यक्तियों के बीच का ही होता हैं। अर्थात् ऐसी प्रक्रिया में भाग लेने के लिये अधिकृत रूप से भागीदार होने वाले समस्त पात्र व्यक्तियांे की संख्या का बहुमत गिनने की व्यवस्था हमारी वर्तमान लोकतंात्रिक प्रक्रिया में नहीं हैं। मतलब साफ हैं कि कुल मतो का 50 प्रतिशत से अधिक की संख्या के मत से होने वाले निर्णय को ही बहुमत मानने की व्यवस्था हमारी लोकतंात्रिक प्रक्रिया में नहीं हैं। माननीय उच्चतम् न्यायालय के ऐसे कुछ, बहुत ही संवेदनशील प्रकरणों में भी ऐसी ही प्रक्रिया का लागू होना क्या एक श्रेष्ठ न्यायिक प्रक्रिया/प्रणाली मानी जानी चाहिए? 
कानूनी रूप से संवैधानिक एवं बंधनकारी इस कानूनी व्याख्या को छोड़कर निम्न तीन बिन्दु इस निर्णय को अन्यथा व नैतिक रूप से कमजोर बनाते हैं। एक, ऐसा निर्णय जो समाज विशेष या धर्म विशेष अर्थात् अल्पसंख्यक मुसलमानों के इस्लाम धर्म केे व्यक्तिगत कानून (पर्सनल लॉ) को अक्षुण्ण मानते हुये मात्र आधे अंक से ज्यादा वाले बहुमत के निर्णय के कारण दिया गया हैं। वह नैतिकता के बल के साथ उक्त विवाद को तार्किक रूप से पूर्ण स्पष्टता के साथ अंतिम रूप से निर्णीत कैसे कर पायेगा। आप को मालूम ही है, संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में कोई भी निर्णय सर्व सम्मति से ही लागू होता हैं। पांच सदस्यों में से किसी भी एक सदस्य के वीटो के कारण बहुमत के निर्णय को भी लागू नहीं किया जा सकता हैं। क्या ऐसे ही निर्णय की परिस्थिति इस प्रकार के अल्प लेकिन अतिसंवेदनशील विषयों में उच्चतम् न्यायालय की निर्णय प्रणाली पर भी लागू नहीं किया जाना चाहिए? दूसरा उच्चतम् न्यायालय के उक्त निर्णय में जब स्वयं माननीय न्यायालय ने यह ध्यान रखा कि उक्त मुद्दे की सुनवाई पांच विभिन्न धर्मो के न्यायमूर्तियॉं द्वारा (जिसमें कोई महिला जज शामिल नहीं थी) करें ताकि किसी भी प्रकार की अल्प शंका का भी वातावरण न बन सके। इन बरती गई सावधानियों के बावजूद मुस्लिम धर्मावलम्बी माननीय न्यायमूर्ति ने मुस्लिम व्यक्तिगत कानून (पर्सनल लॉ) से संबंधित प्रकरण में, ही बहुमत के निर्णय से अपने को अलग रखा, तब क्या यह स्थिति इस निर्णय को और भी कमजोर नहीं कर देती हैें? तीसरा मुख्य न्यायाधीश जो इस बंेच के भी प्रमुख थे, ने भी अपने को बहुमत के निर्णय से अलग रखा हैं। इसी कारण से मैंने इसे ‘‘आधे अंक के बहुमत का निर्णय’’ ऊपर पेरा में लिखा हैं। यह भी पहली बार देखने को मिला व क्या यह उचित हैं कि किसी विशेष धर्म पर्सनल लॉ से जुड़े मामले में उच्चतम् न्यायालय ने विभिन्न धर्मावलम्बीयों के न्यायमूर्तियों की (धर्म के आधार पर?) बेंच बनाई। पूर्व में शाहबानो प्रकरण में भी जिसमें मुस्लिम महिला के गुजारे के अधिकार का मामला था उसमे भी ऐसा नहीं हुआ था जहॉ समस्त न्यायमूर्ति जो विभिन्न धर्मो के नहीं थे और मुस्लिम धर्म के कोई भी न्यायमूर्ति नहीं थे। तब सर्वसम्मति से शाहबानो के पक्ष में निर्णय दिया गया था जिसे बाद में संसद ने कानून बनाकर निष्प्रभावी कर दिया था। 
न्याय का मूल सिद्धांत यह भी हैं कि न केवल न्याय मिलना चाहिए बल्कि न्याय मिलता हुआ महसूस भी होना चाहिए। अर्थात परसेप्शन (अनुभूति) का ‘‘न्याय क्षेत्र’’ में बहुत महत्वपूर्ण स्थान हैं जिसका वर्त्तमान निर्णय में अभाव सा महसूस होता हैं। उपरोक्त सब कारणों से यहॉं यह प्रश्न पैदा होता हैं कि नैतिकता के धरातल पर भी यह निर्णय क्या उतना ही बलशाली माना जायेगा जितना कानूनी आधार पर? ऐसी स्थिति के कारण यह निर्णय मुस्लिम समाज के एक वर्ग को क्या यह अवसर प्रदान नहीं कर देता हैं कि आगे किसी बड़ी बेंच में मामला रेफर किया जाय, जहॉं कम से कम दो तिहाई बहुमत से स्पष्ट निर्णय हो। जब हमारे संविधान में संसद में सामान्य बहुमत न होने पर सरकार गिर जाती हैं लेकिन वह सामान्य बहुमत वाली सरकार जब कोई संविधान संशोधन बिल लाती हैं तो उसे दो तिहाई बहुमत से पारित करना होता हैं। ठीक इसी प्रकार की दो तरह के बहुमत की व्यवस्था न्यायपालिका की उपरोक्त स्थिति में भी क्यो नहीं होनी चाहिए? ऐसी व्यवस्था होने पर ही ऐसे संवेदनशील मुद्दे के निर्णय पर से धुंध की छाया हटकर यर्थाथ स्थिति स्पष्ट हो सकेगी और एक स्पष्ट निर्णय पूरे मुस्लिम कौम को कानून के साथ-साथ पूरे नैतिक बल के साथ मानने के लिये बाध्य होना पडे़गा। अभी अभी आया माननीय उच्चतम् न्यायालय की सात सदस्यीय बेंच का निजता का अधिकार के मामले में आम सहमति का निर्णय उक्त मत की पुष्टि ही करता हैं।
इस निर्णय के बाद माननीय मुख्य न्यायाधीश ने सिंगल बेंच के रूप में अभी तक जो निर्णय दिये हैं वे कितने सही होगंे, यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठ सकता हैं, क्योंकि उनके विचार (ओपिनियन) को अन्य तीन न्यायमूर्तियों ने उक्त एक मामले में ही स्वीकार नहीं किया हैं। 
   

मंगलवार, 15 अगस्त 2017

न्यायपालिका की ‘‘अवमानना’’के लिये क्या कुछ सीमा तक न्यायपालिका ही दोषी नहीं?


विगत पखवाड़ा भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे.एस.खेहर ने भवन के व्यावसायिक उपयोग से संबंधित एक मामले में पीड़ा के साथ यह टिप्पणी की कि इस देश के लोग न्यायालयों के निर्णयो का पालन नहीं कर रहे हैं। कानून तोड़ने तथा कोर्ट के आदेशांे की धज्जिया उड़ाने में वे अपनी शान समझते हैं। बिना शक, माननीय मुख्य न्यायधीश की उक्त पीड़ा व चिंता सही हैं। लेकिन सिर्फ नागरिको को इसके लिये जिम्मेदार ठहराने का उनका यह कथन पूर्णतः सही नहीं कहा जा सकता। मुख्य न्यायाधीश के उक्त कथन को दो भागों में बांटा जा सकता हैं। एक तो ‘‘कानून को तोड़ना’’ व दूसरा कोर्ट के आदेशों की अवहेलना कर उनकी अवमानना करना। आगे सिर्फ न्यायालय की अवमानना का ही विश्लेषण किया जा रहा हैं। 
अवमानना का अर्थ न्यायापालिका के निर्णयों की अवहेलना करना, उनका पालन न करना और निर्णय में दी गई समय (मूल अथवा बढाई गई) सीमा में उनको लागू न करना हैं। यथार्थ में न्यायालय का यह भी दायित्व हैं कि वह अपने निर्णयों को पारित करने के साथ-साथ उन्हे समय-बद्ध सीमा में पूरी दृढ़ता के साथ लागू भी करे/करवाये। इसेे लागू करने में यदि कोई भी पक्ष उदासीनता दर्शाता हैं, अपेक्षित कर्त्तव्यों का पालन नहीं करता हैं, तो वह अवमानना का दोषी हैं, और उसे कानून के प्रावधान के अनुसार सजा दी ही जानी चाहिए। वास्तव में न्यायालय की अवमाननाओं के लिये मुख्य रूप से स्वतः न्यायालय ही जिम्मेदार होते हैं। अगले कुछ उदाहरणों से यह तथ्य आपके समझ में आ जॉंएगा। 
माननीय उच्चतम् न्यायालय के उस निर्णय को याद कीजिए जहॉं न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने हथकड़ी पहनाने को अमानवीय व अपमान जनक बतलाया था। (देखिये सुनील बतरा विरूद्ध दिल्ली प्रशासन ए.आई.आर.1978 पेज 1678) माननीय उच्चतम् न्यायालय ने अन्यत्र कई प्रकरणों में  भी यह आदेश दिया गया था कि अभियोगियों को न्यायालय में हथकड़ी लगाये बिना प्रस्तुत किया जाना चाहिऐ। सुरक्षा की दृष्टि से यदि हथकड़ी लगाया जाना आवश्यक ही हैं, तो न्यायिक अधिकारी के आदेश के अधीन गिरफ्तारी वारंट जारी किये जाने पर ही हथकड़ी लगायी जानी चाहिए। (देखिये सुनील गुप्ता विरूद्ध म.प्र. शासन 1990 एस.सी.सी. पेज 441 एवं ए.आई.आर.1980 एस.सी पेज 540)। लेकिन आये दिन हम देखते हैं कि प्रायः सभी न्यायालयों में अधिकांश आरोपियों को (प्रभावशालियों को छोड़कर) न्यायालय के ठीक आंख के सामने हथकड़ी लगाकर पेश किया जाता हैं। अतः जब अधीनस्थ न्यायालय ही अपने उच्चतम् न्यायालय के आदेश का पालन नहीं करवाती हैं और न ही चूक करने वाले संबंधित के खिलाफ कोई कार्यवाही करती हैं, तब फिर न्यायालय की आंख के सामने हो रही ऐसी अवमानना के लिये स्वयं न्यायालय ही सबसे बड़े दोषी नहीं तो अन्य कौन?
इसी प्रकार उच्चतम् व उच न्यायालय ने बहुत से निर्णय ऐसे पारित किये हैं जिनका सामान्यतः अक्षरशः  पालन किया जाना संभव नहीं होता हैं। न ही उतनी सक्षम व्यवस्था (सिस्टम) सरकार या न्यायालय के पास हैं कि वह अपने ऐसे निर्णयों को पूरी भावना के साथ दृढ़ता पूर्वक लागू/पालन करवा सके। अतः ऐसेेे मामलो में भी न्यायालय ही अवमानना के लिये जिम्मेदार माने जायेगे। उदाहरणस्वरूप माननीय उच्चतम् न्यायालय केे न्यायमूर्ति आर.सी.लाहोटी ने नाईज पालुशन विरूद्ध अज्ञात (आई.आर. 2005 पेज 3136) में दिये गये निर्णय में निर्देश दिया था कि रात्रि 10 बजे तक ही फटाके, डीजे बजाया जाना चाहिये (कुछ अपवाद को छोड़कर)। आज इस निर्णय का कितना पालन हो पा रहा हैं, और पालन न होने पर अवमानना के लिए न्यायालयों ने कितनी कार्यवाही की हैं? न्यायालय ने उक्त निर्णय देते समय यह नहीं सोचा कि हमारे समाज में शादी व त्यौहारों के वक्त देर रात्री तक संगीत मय कार्यक्रम गाजे बाजे, फटाको के साथ चलते रहते हैं, जिस कारण बिना दुराशय के मासूमियत (इनोसंेसली) के साथ आदेश का उल्लघंन हो रहा हैं। जब किसी कार्यक्रम के लिये प्रशासन से अनुमति मांगी जाती हैं, तब प्रशासन अनुमति देते समय उक्त निर्णय के तहत रात्री 10 बजे तक ही अनुमति देता हैं। इस तरह केवल कागजी कार्यवाही में ही उक्त निर्णय का पालन हो पा रहा हैं। यद्यपि उक्त आदेश के पीछे न्यायालय की मंशा ध्वनि बाधा व प्रदूषण के कारण नागरिको को होने वाली तकलीफ को रोकने की कोशिश हैं। लेकिन न्यायालय ने अपने निर्णय में शादी, धार्मिक आयोजन जैसे कार्यक्रमों के लिये कोई सामान्य अपवाद भी नहीं छोड़ा हैं।   
उच्च न्यायालय का एक और निर्णय जिसमें मध्यप्रदेश के वाणिज्यिक कर विभाग की चेकपोस्ट पर नियुक्त हम्मालो की ‘‘सेवा की समाप्ति के आदेश’’ को अवैध घोषित करके उन्हे नियमित करने के आदेश दिये गए थे। लेकिन मध्यप्रदेश शासन ने वित्तीय स्थिति का हवाला देकर उन्हे अभी तक नियमित नहीं किया हैं। इसी प्रकार संविदा शिक्षक वर्ग, दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी आदि अनेक ऐेसे मामले हैं जो धरातल पर निर्णय के परिणाम की वास्तविकता की राह जोह रहे हैं लेकिन न्यायालय ने न तो अपने संबंधित आदेशों में कोई संशोधन ही किया और शायद ही अवमानना की कोई कार्यवाही की हो। 
इसी प्रकार उच्चतम् न्यायालय ने ‘‘राष्ट्रीय राजमार्ग व राज्य मार्ग (स्टेट हाइवे) की 500 मीटर निकट परिधि में शराब की दुकान को बंद करने’’ के आदेश दिये थे। जिसेे निष्प्रभावी बनाने के लिये उत्तर प्रदेश जैसी कुछ सरकारों ने राष्ट्रीय राजमार्ग की परिभाषा ही बदल दी व अधिसूचना द्वारा प्रभावित कुछ राजमार्गो के कुछ खंड़ो को राजमार्ग से ही हटा दिया। इक्कीसवी सदी में विकास का दम भरने वाली ऐसी सरकारो से उच्चतम् न्यायालय ने यह नहीं पूछा कि प्रगति के इस दौर में राष्ट्रीय राजमार्ग को अंतर्राष्ट्रीय मार्ग घोषित किया जाना चाहिए? या राष्ट्रीय मार्ग की 6 लेन को 8 लेन में परिवर्तित किया जाना चाहिए? अथवा उसे प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के अंर्तगत ग्रामीण मार्ग घोषित करके न्यायालयीन आदेश को अंगूठा दिखाना चाहिए? इस प्रकार सरकारे न्यायिक निर्णयों को प्रभावहीन करने के लिये वैधानिक लेकिन अनैतिक प्रयास करने लगी हैं जिस पर शायद ही न्यायालयों ने अपने निर्णय को इस तरह से प्रभावहीन करने के कारण सरकार के विरूद्ध कोई कार्यवाही की हो।
यहॉ पर ‘‘कानून का पालन न करने’’ व ‘‘न्यायालय के आदेश का पालन न करने’’ के अंतर को भी समझना आवश्यक हैं। हमारे देश में अनगिनत बहुत पुराने कानून हैं। हाल में ही बहुत से पुराने कानून जो अप्रासंगिक हो चुके हैं, उनको संसद ने समाप्त कर दिया हैं। इसके बावजूद कानून व उनके प्रावधान इतने ज्यादा व क्लिष्ट हैं कि एक सामान्य नागरिक के लिये उन सबका पूर्णतः पालन करना लगभग असंभव सा हैं। सड़क चलते थूकना, ध्रूम्रपान करना एक अपराध हैं। लेकिन इसका कितना पालन नागरिकों द्वारा किया जाता हैं या सरकार द्वारा कराया जाता हैं? इस प्रकार के कानूनो के होने से नागरिको में कानून के उल्ल्घंन की प्रवृत्ति बढते जा रही हैं जिसका प्रभाव बंधनकारी न्यायालीन आदेशो के पालन पर भी पड़ रहा हैं। इसके लिये न केवल नागरिकों को उनके नैतिक दायित्व का लगातार बारम्बार बोध कराये जाने हेतु अनवरत पाठशाला लगाई जानी चाहिए बल्कि सरकार को भी ऐसी प्रणाली (सिस्टम) विकसित करना चाहिए जो कानून का पालन करा सके व ऐसे कानून बनाने से बचना चाहिये जिनका अधिकांशतः दिन प्रतिदिन उल्लघंन होता हैं और उन उल्लघंनों के विरूद्ध कोई कार्यवाही भी नहीं होती हैं।
लेकिन समस्या का दूसरा व महत्वपूर्ण पहलू हैं न्यायालय द्वारा ऐसे अव्यावहारिक आदेश पारित कर देना जो ‘‘विधायिका द्वारा पारित कानून न होने के बावजूद उनके समान ही हैं, के पर्यायावाची भाषित होने के कारण वैसा ही न्यायिक प्रभाव रखतेे हैं। इस वजह से ऐसे आदेश के  उल्लघंन के परिणाम स्वरूप न्यायालय की अवमानना होती हैं। ‘‘कानून का उल्लघंन अवमानना नहीं लेकिन न्यायालय के आदेश का उल्लघंन अवमानना’’ हैं। इसलिये माननीय उच्चतम्/उच्च न्यायालय को ऐसे आदेश पारित नहीं करना चाहिए जिन्हे पूर्णतः लागू नहीं करवाया जा सकता हैं। यद्यपि ऐसे आदेश जनहित में हो सकते हैं। इसके लिये सबसे अच्छा तरीका यही होगा कि ऐसे जनहित के मामलो में न्यायालय सीधे आदेश पारित करने के बजाय केन्द्रीय/राज्य सरकारों को यथोचित कानून/नियम बनाने के लिये निर्देश दे, ताकि ऐसे निर्देशों के आधार पर सरकारों द्वारा बनाए गए कानून/नियम का पालन न हो पाने की स्थिति में ‘‘न्यायालय की अवमानना नहीं होगी वरण् कानून का उल्लघंन होगा’’ जिसके लिये कानून में सजा का प्रावधान हैं।  
यह संवैधानिक व्यवस्था हैं कि उच्चतम् न्यायालय द्वारा प्रतिपादित सिंद्धान्त देश का कानून  होता हैं जो पूरे देश पर बंधनकारी रूप से लागू होता हैं। इसका वही प्रभाव होता हैं जो देश के संसद द्वारा पारित कानून का होता हैं। यही स्थिति उच्च न्यायालयों व राज्यो पर भी लागू होती हैं। अवमानना की घटनाओं के बढ़ने का एक महत्वपूर्ण कारण न्यायिक सक्रियता के रहते आज कल न्यायालय द्वारा कानून की व्याख्या करने के साथ-साथ कानून बनाने के आदेश दिये जा रहे हैं जो कार्य विधायिका वह कार्यपालिका का हैं। इस सबके बावजूद यदि अभी भी न्यायालय कीे अवमाननाओं की घटनाओं को रोका नहीं  गया तो न्यायपालिका का सबसे मजबूत आधार कि ‘‘उसका निर्णय बंधनकारी हैं,’’ असफल हो जावेगा और अंततः न्यायपालिका कमजोर होते जायेगी। 
   

सोमवार, 31 जुलाई 2017

‘नैतिकता’’ के आवरण का दावा करने के लिये ‘‘अनैतिकता’’ को ओढना कितना नैतिक!

बिहार की राजनीति में तेजी से बदलते राजनैतिक घटना क्रम के चलते 18 घंटे से भी कम समय में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का रंग हरा से भगवा हो गया। इस बदलते घटना क्रम में सभी पार्टीयों ने भ्रष्टाचार को लेकर नैतिकता को विभिन्न रूप में इस तरह से परिभाषित किया व उसका चीर-हरण़ कर इतना नंगा कर दिया कि नैतिकता के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया, जिससे शायद स्वयं नैतिकता ही शर्मशार हो गई। राजनीति में एक समय राजनैतिक शुचिता व नैतिक आयाम के तहत (स्वं. लाल बहादुर शास्त्री) तत्कालीन रेल्वे मंत्री ने मात्र एक रेल दुर्घटना के घटित होते ही इस्तीफा देकर जो लक्ष्मण रेखा खीची थी, वह अब इतिहास और किताबों के पन्ने की बात हो कर रह गई हैं।
राजनैतिक हमाम में नंगी हुई समस्त राजनैतिक पार्टियों की नैतिकता को देखने परखने व व्याख्या करने का एक और मोैका बिहार के इस राजनैतिक घटना चक्र ने  दिया हैं। सर्वप्रथम बात नीतीश कुमार की नैतिकता की ही ले लें। राजनैतिक शुचिता, नैतिकता और जीरो टालरेंस (शून्य सहनशीलता) को महामुद्दा बनाकर नीतीश कुमार ने आकर्षक सत्ता सुंदरी मुख्यमंत्री की कुर्सी को ऐसी ठोकर मारी कि न्यूटन का ‘‘क्रिया की प्रतिक्रिया वाला’’ सिंद्धान्त याद आ गया। तदनुसार ही नीतीश द्वारा त्यागी गई मुख्यमंत्री की कुर्सी विपक्षी दल के हृदय की दीवार से टकराकर वापस आकर 16 घंटे में पुनः उन्हे प्राप्त हो गई, क्योंकि वह नैतिकता के फेविकॉल से लबरेज थी। 
वास्तव में  इस नाटक की शुरूवात तो उस दिन से ही हो गई थी, जब सी.बी.आई.ने भारतीय रेल्वे की निविदा के एक मामले में पूर्व रेल्वे मंत्री लालू प्रसाद यादव पर रेल्वे की हेरिटेज होटल बीएनआर होटल के विकास, मंेटेनेनस व आपरेशन (चलाने) के लिये हुये टेंडर में उनके परिवार पर तेजस्वी सहित सम्पत्ति लेने का फायदा पहुंचाने का आरोप लगाया गया। लालू यादव ने निविदा की शर्तो को (निविदा कर्त्ता) सुजाता होटल के पक्ष में कम करते हुये उसे फायदा पहंुचाया, जिसके एवज में निविदा कर्ता द्वारा बेहद कम कीमत पर डिलाइट मार्केटिग कम्पनी को 3 एकड़ जमीन दी गई, जो बाद में लालू के परिवार को हस्तांतरित कर दी गई। अतः स्पष्ट हैं कि तेजस्वी यादव आदेश देने में या फायदा पहंुचाने देने की स्थिति में नहीं थे। उन पर यह आरोप भी नहीं हैं कि उनने रेल्वे मंत्री के साथ मिलीभगत करके फायदा पहंुचाने का आदेश करवाया। इस प्रकार उसे निविदाकर से सीधे कोई फायदा भी नहीं मिला था। रेल्वे मंत्री को भी सीधे निविदाकार से फायदा नहीं मिला था। परिस्थितियांे जन नीतीश कुमार के इस कथन को कि उन्हांेने भ्रष्टाचार से कभी भी समझौता नहीं किया हैं, जिसके फलस्वरूप बिहार में यह राजनैतिक तूफान उठा, जो बिहार के हित में हैं, देखना होगा। इस संदर्भ में उनसे क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि न्यायालय द्वारा सजायाफ्ता जमानतदार लालू यादव जो सजायाफ्ता होने से चुनाव लड़ने योग्य भी नहीं थे, उनके व उनकी पार्टी ‘‘राजद’’ के साथ गंठबंधन कर जब उन्होंने चुनाव लड़ा था, तब उनकी वह नैतिकता व जीरो टालरेंश कहॉं चला गया था। यदि सजायाफ्ता व्यक्ति जीरो टालरेंश की परिधि में आ सकता हैं, तो मात्र प्रथम सूचना पत्र में नामित (जिसके विरूद्ध अभी जांच व अनुसंधान ही चल रहा है) व्यक्ति के विरूद्ध जब आरोप पत्र भी अभी पेश नहीं हुआ हैं, तब वह व्यक्ति जीरो टालरेंश की परिधि के बाहर कैसे हो सकता हैं? चुनाव (जो लोकतंत्र की आत्मा, प्राण और उसे वायु देने वाला होता है) लड़ने के अयोग्य लालू यादव के साथ नीतीश ने न केवल चुनाव लड़ा बल्कि जनता ने लालू को नीतीश से ज्यादा बहुमत देकर न केवल लालू यादव के अछूतापन को धोया ही, बल्कि नीतीश ने स्वयं मुख्यमंत्री पद को स्वीकार कर लालू को अंगीकृत भी किया। तब क्या यह सब कुछ सही था! श्रीमान सुशासन बाबु!नीतीश कुमार राजनीति के बडे़ चतुर खिलाड़ी रहे हैं, एवं कौन सी चाल कब चलना हैं, वे अच्छी तरह से जानते और समझते हैं, इसीलिये अबकी छटवीं बार भी वे पुनः मुख्यमंत्री बन गए हैं।  
आरजेडी के अध्यक्ष लालू यादव पर ही नहीं, बल्कि उनके कुनबे के कई सदस्यों पर भ्रष्ट्राचार के न केवल गंभीर आरोप लगे हैं, बल्कि कुछ पर तो मुकदमें भी चल रहे हैं। यदि नीतीश कुमार का ऐसे लालू के साथ मिलकर (स्वयं का बहुमत न होने के बावजूद, और लालू से कम सदस्य होने के बावजूद) मुख्यमंत्री की शपथ लेना जीरो टालरेंश के अंर्तगत था। तब नाबालिग तेजस्वी यादव के प्रति लगाया गया आरोप जीरो टालरेंश क्यों नहीं? क्यांेकि तब वे उस कृत्य के कर्ता भी नहीं थे, मात्र वे अधिकतम मासूम (इनोंसेंस) लाभार्थी थे। ठीक उसी प्रकार जैसा रिश्वत देने वाला नहीं ‘‘लेने वाला’’ भ्रष्टाचारी होता हैं, लेकिन वह लाभार्थी जरूर होता हैं। तेजस्वी के बचपन में लालू द्वारा स्वीकृत किए गए रेल्वे के टेंडर के कारण तेजस्वी को हुए लाभ के आरोप में भी नाबालिक तेजस्वी को कानूनन् जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता हैं। नीतीश कुमार यदि वास्तव में भ्रष्टाचार के विरोधी थे, तो उन्हे भ्रष्टाचार के आगे आत्मसर्म्पण करने के बजाय भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने का साहस तेजस्वी यादव से इस्तीफा मांगकर दिखाना चाहिये था, और (इस्तीफा न देने की स्थिति में) तेजस्वी को बर्खास्त करना चाहिये था। भले ही उस स्थिति में उनकी सरकार ही क्यो न चली जाती। तब भाजपा बिन मांगे ठीक उसी प्रकार बाहर से समर्थन देकर नीतीश की सरकार बनाती जैसा कि कांग्रेस ने दिल्ली में बिना मांगे प्रथम बार अरविंद केजरीवाल को बाहर से समर्थन देकर ‘‘आप’’ की सरकार बनाई थी। तब कुर्सी प्र्रेम का जो आरोप नीतीश कुमार पर लगा, उससे शायद वे बच सकतेे थे। नीतीश कुमार की नैतिकता तब कहॉं गई थी, जब उन्होने उस भाजपा से हाथ मिलाकर गठबंधन सरकार बनाई जिस भाजपा के खिलाफ जनता ने उन्हे आरजेड़ी के साथ मिलकर सरकार बनाने का जनादेश दिया था। 
बात लालू यादव व राहुल गांधी की नैतिकता की भी कर ले। लालू यादव ने आज नीतीश कुमार पर धारा 302 हत्या के आरोपी होने के जो गंभीर आरोप लगाये, वह आरोप लालू नेे कल तक नहीं लगाया था, क्योंकि तब नीतीश स्वंय लालू द्वारा बनाये गये मुख्यमंत्री थे। हत्या का आरोप  जो विधानसभा चुनाव के  पूर्व का है, तब लालू यादव ने विधानसभा के चुनाव में नीतीश कुमार को कम मत मिलने के बावजूद मुख्यमंत्री क्यांे बनाया? लालू को अपने नेता शरद यादव की उस नैतिकता को याद रखना चाहिये जब उनका नाम हवाला कांड में आने पर उन्होंने तुरंत लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था, चालान या ट्रायल की प्रतीक्षा नहीं की थी। इसलिये दूसरो की नैतिकता का सवाल उठाने के पहले स्वयं की नैतिकता भी तो परखों! यह कहा भी गया हैं कि कांच के घर में रहने वाले दूसरे के घर पर पत्थर नहीं फेंका करते। 
जहॉ तक राहुल गांधी व कंाग्रेस की नैतिकता का प्रश्न हैं, उस पर चर्चा या विचार करना मात्र समय की बर्बादी हैं। स्वतंत्रता प्राप्त होने के समय की या उसके पूर्व की कांग्रेस व आज की कांग्रेस में जमीन आसमान का अंतर हैं। कंाग्रेस का यदि भ्रष्टाचार से परहेज होता, तो 1984 में तीन चौथाई बहुमत प्राप्त करने वाली पार्टी आज 50 से भी कम सीटों पर सिमट कर राजनैतिक हाशिये में नहीं आ जाती। इसलिये कांग्रेस से भ्रष्टाचार या नैतिकता के मुद्दे पर कुछ भी आशा करना नितांत बेवकूफी कहलायेगी।
अंत में भाजपा की भी बात कर लें। भाजपा मानती है कि वह ऐसा पारस पत्थर हैं जो समस्त बुराइयों को अच्छाई में बदलकर सोना बना देती हैं। नीतीश कुमार राजनैतिक खेल की पहली पारी में उनके साथ ओपनर थे, तब वे सोना थे और तब उनके चौंके, छक्के ही नहीं, उनका एक एक रन भी भाजपा को अच्छा लगता था। तब धीमी गति से रन बनाने का आरोप लगाकर उन्हे टीम से निकाला नहीं गया था। जब तक भाजपा के साथ थे, नीतीश कुमार सुशासन बाबू के साथ बिहार के विकास के प्रतीक थे। नीतीश कुमार के पाला बदलकर भाजपा का साथ छोड़ने के साथ ही बिहार का विकास रूक गया व भाजपा को उनके डीएनए में ही खोट नजर आने लगा। लेकिन वह डीएनए जब एनडीए में मिल गया तो वह डीएनए अब पुनः बिहार के विकास को प्रतीक का चेहरा माना जा रहा हैं। भाजपा को सुशासन बाबू नीतीश कुमार की इस नैतिकता को समर्थन देने के लिये धन्यवाद? 

शुक्रवार, 30 जून 2017

राष्ट्रपति चुनाव लड़ने के पूर्व ही विपक्ष ने वाकओवर दे दिया!






         "क्या भाजपा नेतृत्व को रामनाथ कोविंद की घोषणा करते हुए दलित कार्ड खेलने के बजाय यह कथन एवं दावा करना चाहिए था कि उसने एक सरल, प्रखर बुद्धिजीवी, वकील, गहन सवैंधानिक व राजनैतिक अनुभव रखने वाले एवं संयुक्त राष्ट्र संघ में उच्च पद पर काम करने के अनुभवी बेदाग छवि के व्यक्ति को सर्वोच्य पद के लिये उतारा हैं?"
             "देश में विपक्ष (यूपीए) का रवैया ऐसा कैसे हो सकता है कि जैसे उन्होंने मान लिया हो की सत्तापक्ष के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद का चुनाव जीतना तय हैं? "
           "क्या वास्तव में मोदी के आने के बाद से देश में लम्बे समय से सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस के दिमाग का दिवालियापन हो गया हैं? "
           "क्या मोदी वास्तव में ‘‘कांग्रेस विहीन भारत’’ से भी एक कदम आगे ‘‘विपक्ष विहीन भारत’’ की ओर बढ़ चुके हैं?"

          भाजपा ने चतुर पहल करते हुये बिहार के गर्वनर रामनाथ कोविंद का नाम राष्ट्रपति पद के लिये घोषित करके राजनैतिक श्रेष्ठता के साथ बढ़त प्राप्त कर एक बड़ी सफलता हासिल की हैं। विपक्ष को तो मानो सांॅंप ही सूंघ गया हैं। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने उनकी उम्मीदवारी की घोषणा करते समय यह कहां ’’रामनाथ कोविंद दलित समाज से उठकर आये हैं और उन्होंने दलितो के उत्थान के लिए बहुत काम किया हैं वे पेशे से एक वकील हैं उन्हे संविधान का अच्छा ज्ञान भी हैं इसलिए वे एक अच्छे राष्ट्रपति साबित होंगे और आगे भी मानवता के कल्याण के लिए काम करते रहेंगे।’’ भाजपा के पास जातिवादी राजनीति पर चोट करने का यह एक अति सुंदर मौका था। यदि भाजपा नेतृत्व इस समय थोडी बहुत सूझ बूझ से काम लेता तो मतदाता के सामने अधिकृत रूप से रामनाथ कोविंद के नाम की घोषणा करते समय उन्हे ‘‘दलित’’ के रूप में पेश न करके योग्यता (जो उनके पास भरपूर मौजूद हैं) के आधार पर उनके नाम को पेश करते तब भाजपा एक और राजनैतिक धमाके की अधिकारी भी बन जाती। तब भी क्या उनका स्पष्ट दिखने वाला यह ‘‘दलित कार्ड़’’ एक अघोषित मेसेज नहीं देता? ऐसा करके भाजपा कम से कम अपने आप को जातिवादी राजनीति के आरोपो से तो अलग कर लेती, जिसकी वह शुरू से ही घोर विरोधी रही हैं। विपक्ष ने भी विरोध में दूसरा उम्मीदवार ‘‘एक दलित’’ नेत्री मीरा कुमार को उतारा। 
भाजपा नेतृत्व को रामनाथ कोविंद की घोषणा करते समय यह कथन एवं दावा करना चाहिए था कि उसने एक सरल, प्रखर बुद्धिजीवी, वकील, गहन सवैंधानिक व राजनैतिक अनुभव रखने वाले एवं संयुक्त राष्ट्र संघ में उच्च पद पर काम करने के अनुभवी बेदाग छवि के व्यक्ति को सर्वोच्य पद के लिये उतारा हैं। रामनाथ कोविंद जिस राज्य के राज्यपाल थे उसके मुख्यमंत्री ने भी उनकी इन्ही योग्यताओं को सराहा एवं स्वीकारा हैं। जबकि देश के अन्य प्रांतो में जहॉं विपक्ष की सरकारे हैं तथा जहॉ के राज्यपाल सत्ताधारी सरकार द्वारा नियुक्त किये गये एवं अन्य दल से संबंधित रहे हैं, वहॉं अकसर आपस में टकराव की स्थिति ही निर्मित होती रही हैं। 
ऐसा व्यक्ति जो कि भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता के साथ-साथ पार्टी के अनुसूचित जाति के राष्ट्रीय मोर्चे का अध्यक्ष रहा हो, यदि उनके नाम की उपरोक्त योग्यताओं के आधार पर राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवारी की घोषणा की जाती तो निश्चित रूप से भाजपा को दलित कार्ड़ फेके बिना भी स्वयं दलित वर्ग का फायदा मिल जाता व विपक्षी दलों को आरोप लगाने का मौका भी नहीं मिलता। ऐसे व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति मात्र दलित होने के कारण नहीं वरण अपनी योग्यता के आधार पर चुने जाते। लेकिन आज की छुद्र राजनीति में शायद ऐसी गंभीर सोच लुप्त हो गई हैं। 
 ऐसा लगता हैं कि भाजपा की इस घोषणा पर विपक्ष ने राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार उतार कर मानो वाकओवर ही दे दिया हैं। यूपीए ने उम्मीदवार की घोषणा अवश्य की हैं लेकिन ऐसा लगता हैं कि वह एनडीए के उम्मीदवार की जीत के प्रति (निराशा के कारण) इतने ज्यादा आश्वस्त हैं कि वेे होश खोकर विरोध के जोे वास्तविक मुद्दे उनके पास हैं उनको भी वे उठाना तक भूल गये हैं। इस सुनिश्चित जीत की प्रत्याशा में पूरे देश के मीड़िया से लेकर बुद्धिजीवी वर्ग का ध्यान भी एक बड़ी भूल की ओर नहीं गया। एनडीए के उम्मीदवार श्री रामनाथ कोविंद राज्यपाल के पद पर थे जिन्हे प्रोटोकाल के तहत सुरक्षा प्राप्त थी। राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी की घोषणा होने के साथ ही रामनाथ कोविंद को बिना मांगे केन्द्रीय सरकार द्वारा जेड़ प्लस सुरक्षा प्रदान की  गई। हो सकता हैं कि राज्यपाल पद से इस्तीफा देने व स्वीकार होने के बाद उनकी पूर्ववर्ती सुरक्षा हटा ली गई हो। लेकिन जब यूपीए ने मीरा कुमार को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया तब से अभी तक भी उन्हे रामनाथ कोविंद के सम्यक श्रेणी की सुरक्षा प्रदान नहीं की गई हैं। यदि रामनाथ कोविंद गर्वनर रह चुके थे, तो मीरा कुमार भी स्पीकर व केन्द्रीय मंत्री रह चुकी हैं। चूॅंकि वे देश के तीन सबसे उच्च पद राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री व उसके बाद तीसरा बड़ा पद लोकसभा के स्पीकर के पद में से एक स्पीकर पद पर रही हैं, अतः उन्हे भी वही सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए थी। देश के संविधान में सभी उम्मीदवारों को बराबर का हक व अधिकार हैं। दोनो व्यक्ति फिलहाल दोे विरोधी गठबंधन एनडीए व यूपीए के घोषित उम्मीदवार हैं जिनके फार्म की तकनीकी जांच (स्क्रुटिनी) भी अभी नहीं हुई हैं। (अर्थात् फार्म निरस्त भी हो सकता हैं) चुनाव परिणाम की घोषणा आज नहीं की जा सकती हैं? न ही तकनीकि रूप से (जीत की) कल्पना ही की जा सकती हैं। देश का इतिहास आश्चर्यजनक चुनाव परिणामों से भरा पड़ा हैं। चुनावो में इंदिरा गांधी से लेकर अटलजी सहित अनेक नामी ज्ञानी व्यक्ति भी संभावनाओं के विपरीत हार चुके हैं। लेकिन सबसे खराब हालत तो वर्तमान समय में यूपीए की हैं जिसने यह मान लिया हैं कि रामनाथ कोविंद का चुनाव जीतना तो तय ही हैं। इसीलिए न तो उसने रामनाथ कोविंद को जेड़ प्लस सुरक्षा देने का विरोध ही किया और न ही अपने उम्मीदवार मीरा कुमार के लिये कोविंद समतुल्य सुरक्षा की मांग ही की।  
इस अवसर पर मैं नरेन्द्र मोदी एवं अमित शाह की जोड़ी को बधाई देना चाहता हैूंॅ जिन्होने एक नेक, सामान्य व सरल स्वभाव वाले, उपयुक्त, योग्य एवं बेदाग व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाने का अवसर देकर दलित वर्ग में अपनी पैठ को और मजबूत कर लिया हैं। राजनीतिक दृष्टि से कई निशाने एक साथ मारने में माहिर मोदी अपने इस कदम में पूर्णतः सफल रहे हैं। इसलिये अब यूपीए को राष्ट्रपति चुनाव को सैद्धांतिक आवरण देने में भी मुश्किल हो रही हैं। यूपीए का यह आरोप हैं कि सर्वसम्मति के प्रयास किये जाने के दौरान भाजपा द्वारा उम्मीदवार का कोई नाम प्रस्तावित नहीं किया गया, अतः भाजपा किस बात पर सर्वसम्मति का प्रयास कर रही थी? वास्तव में यह उनकी अक्ल के खोखलेपन व सोच के दिवालियापन को ही दर्शाता हैं। यह वास्तविकता हैं व राजनीति का सिंद्धात भी यही हैं कि सत्ताधारी पार्टी जिसके पास बहुमत होता हैं वह अपनी मरजी/इच्छा के व्यक्ति को उम्मीदवार बनाती हैं व सही सोच रखने वाली पार्टियॉं उस पर सर्वानुमति बनाने का प्रयास करती हैं। अभी तक कंाग्रेस जो करती आ रही थी भाजपा ने भी वही किया हैं। कांग्रेस ने पूर्व में राष्ट्रपति के चुनाव में शायद ही कभी सर्वानुमति के प्रयास किये हांे। यदि कंाग्रेस का आरोप सही हैं तो कंाग्रेस ने भी उम्मीदवारी पर संशय क्यों बनाए रखा? उसने भी तो भाजपा से चर्चा के दौरान अपनी ओर से कोई उम्मीदवार या उम्मीदवारों का पेनल पेश करके भाजपा को सीमा में बॉंधने का प्रयास नहीं किया? वास्तव में मोदी के आने के बाद से देश में लम्बे समय से सत्ता पर काबिज रही कंाग्रेस के दिमाग का दिवालियापन हो गया हैं। इसलिये उसे कुछ समझ मेें ही नहीं आ रहा हैं कि वह मोदी के कदमो का राजनैतिक जवाब कैसे दे। यूॅं भी मोदी ‘‘कांग्रेस विहीन भारत’’ से भी एक कदम आगे ‘‘विपक्ष विहीन भारत’’ की ओर बढ़ चुके हैं।

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