11 मार्च को आये पांच राज्यों के चुनाव परिणाम विपक्ष के लिये आंधी और तूफान से ज्यादा एक ऐसीे सुनामी लेकर आये जिस तरह 11 मार्च को जापान के सेंडाड़ में अब तक का सबसे विध्वंशकारी व विनाशकारी भूकंप आया था। परिणाम पर गहरी नजर रखने वाले चुनाव विश्लेषकों व जीतने व हारने वाली पार्टियों सभी की नजर में उक्त परिणाम पूर्णतः अप्रत्याशित व अद्धभुत रहे। यद्यपि उत्तर प्रदेश में भाजपा का नारा था ‘‘अबकी बार 300 के पार’’। लेकिन यह नारा कार्यकर्ताओं में जोश पैदा करने व विपक्ष को हतोत्साहित करने भर के लिये था। उत्तर प्रदेश में समस्त राजनैतिक पंडितों का स्वस्थ्य आकलन भाजपा के पक्ष में अधिकतम 250-280 सीटों के आस पास था। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह एवं प्रधानमंत्री मोदी ने स्वयं सार्वजनिक रूप से उत्तर प्रदेश विधानसभा के उक्त परिणामों का अप्रत्याशित होना स्वीकार किया हैं। यही बात निश्चित रूप से मोदी जी द्वारा भाजपा केन्द्रीय कार्यालय में दिये गए स्वागत भाषण में भी परिलक्षित होती हैं। लेकिन इस तथ्य के बावजूद भी (मात्र पंजाब को छोड़कर) इतना प्रचड़ बहुमत मिलना क्या मोदी सरकार की 3 साल की नीतियों पर जनता की स्वीकार्यता नहीं दर्शाता हैं?
नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में पहली बार भाजपा को लोकसभा चुनाव 2014 में प्रचंड़ बहुमत प्राप्त हुआ था। परन्तु विधानसभा के चुनाव के मध्य केन्द्रीय सरकार की रीति-नीति कार्यप्रणाली व कार्य सम्पादन की प्रगति के संबंध में पक्ष-विपक्ष के बीच जिस तरह की नोक-झोंक हुई, उसके बावजूद ऐसा परिणाम निश्चित रूप से दर्शाता हैं कि पांचों राज्यों के परिणाम एक तरह से केन्द्र सरकार की नीतियों पर मोहर हैं। पांचों विधानसभाओं के इन परिणामों की एक विशेषता यह भी रही हैं कि समस्त (पाचों) राज्यों में जनता ने स्थापित सरकार के विरूद्ध निर्णय दिया। (यह बात और हैं कि गोवा में भाजपा ने कांग्रेस की अक्रर्मण्यता के कारण पुनः सरकार बना ली)। पंजाब के चुनाव में अकालियों का साथ भाजपाइयों को ले डूबा। महाराष्ट्र में चुनाव के पूर्व भाजपा ने शिवसेना का साथ छोड़ने का जो साहसिक कदम उठाया और उसे सफलता मिली। ठीक उसी तरह की स्थिति यदि पंजाब में भी हो जाती तो शायद इन चुनावों में इस तरह के परिणाम नहीं आते। स्मरण कीजिये 2014 के लोकसभा चुनाव, जब देश भर में भाजपा को प्रथम बार पूर्ण बहुमत के साथ अप्रत्याशित जीत मिली थी। पांच विधानसभा चुनाव परिणामों पर मोदी जी की प्रतिक्रिया से सिद्ध होता हैं कि उनके लिये विधानसभा चुनाव के ये परिणाम लोकसभा चुनाव के परिणामों से ज्यादा महत्वपूर्ण सिद्ध हुये हैं। क्यांेकि इन परिणामों ने न केवल वर्ष 2019 के चुनाव हेतु उनका रास्ता साफ कर दिया बल्कि 2024 तक पार्टी द्वारा प्रस्तावित सरकारी कार्य योजनाआंे के क्रियान्वयन की तैयारी पर भी मुहर लगा दी। जैसा कि जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी स्वीकार किया हैं। मोदी ने अपने भाषणों में उनकी कुछ योजनाआंें के जो लक्ष्य 2024-26 के लिये तय किया जाना बताया हैं उनसे भी यही परिलक्षित होता हैं कि वे वर्ष 2019 के चुनाव में पार्टी की जीत को लेकर आश्वस्त हैं।
़उत्तर प्रदेश चुनाव की एक प्रमुख विशेषता मुख्तार अंसारी का महु सदर विधानसभा से विजयी होना है। मुख्तार अंसारी के खिलाफ राजनैतिक पार्टियॉं, राजनैतिक विश्लेषकगण व मीडिया एक दागी होने का आरोप लगा कर लगातार निंदा करते रहे हैं। अखिलेश यादव ने भी अपनी पार्टी को स्वच्छ दिखाने के लिये न केवल समाजवादी पार्टी में मुख्तार अंसारी की पार्टी एकता आवाम दल के विलय का विरोध किया, बल्कि उसे टिकिट भी नहीं दिया। तत्पशाच् मुख्तार अंसारी ने बसपा पार्टी से टिकिट प्राप्त कर विजय प्राप्त की। जनता के द्वारा दागी व्यक्ति को चुनने पर न तो मीड़िया ने इस पर कोई आवाज उठायी, और न ही कोई हाय तौबा मचाई। इस प्रकार किसी व्यक्ति विशेष के दागी होने के कारण जब कोई व्यक्ति या पार्टी उसे टिकट न देने का साहस दिखाती हैं, परन्तु दूसरे दल द्वारा टिकिट दिये जाने पर जनता जब उसी को चुनकर भेजती हैं तब उस जीत से क्या यह सिद्ध नहीं हो जाता हैं कि जन मानस के मन में केवल दबंग व दागी होना ही अयोग्यता की निशानी नहीं हैं? वरण् यदि दागी व्यक्ति के चरित्र का दूसरा पक्ष उज्जवल हैं, वह जनसेवी हैं तो जनता उसके दागी व्यक्तित्व वाले एक पक्ष को नजर अंदाज करके उसके जनसेवी उज्जवल चरित्र को स्वीकार कर उसे चुन लेती हैं। क्या जनता के इस प्रकार के विचित्र विवेक पर प्रश्न चिन्ह नहीं उठाया जाना चाहिए? जो मीड़िया किसी नेता के खंॉंसे जाने की प्रवृत्ति पर भी बहस करा लेता हैं। क्या उसे जनता के ऐसे विवेक पर भी बहस नहीं कराना चाहिए। आखिर राजनीति में अपराधीकरण पर रोक कैसे लगेगी? मुख्तार अंसारी यदि स्वयं में पूर्णतः सक्षम होते तो उसे किसी पार्टी (समाजवादी, बाद में बसपा) के सहारे की आवश्यकता नहीं होती। लेकिन पूर्णतः सक्षम न होने के बावजूद उसने अपनी उतनी क्षमता अवश्य प्रदर्शित की हैं जो एक लोकतांत्रिक राजनीति में आवश्यक होती हैं। समाजवादी पार्टी छोड़कर बसपा (जो चुनाव में बुरी तरह से हार गई हैं) की टिकिट पर चुनाव जीतकर आना जनता के बीच उसकी मजबूत राजनैतिक पकड़ को ही प्रदर्शित करता हैं। लेकिन वह पकड़ इतनी मजबूत भी नहीं हैं कि वह अपने भाई व बेटा को जितवा पाता (जो हार गये हैं)।
जीत व्यक्ति को कई बार घमंड़ से भर देती हैं तो कई बार उसे और नम्र बना देता हैं। मोदी के व्यक्तित्व पर जीत के दोनो प्रभाव पाए गये हैं। वर्ष 2014 कीे जीत से सीएम से पीएम तक पहुॅचने के कारण उनके व्यक्तित्व में कुछ ज्यादा गरूऱ-घंमड़ दिखता हैं जो उनके व्यक्तित्व से झलकता रहा हैं, तो इन पांच प्रदेशों (जो कि देश का अल्पांश मात्र हैं) की जीत ने मोदी के व्यक्तित्व में अब गरूऱ-घंमड़ की जगह नम्रता भर दी हैं। यह नम्रता विजय के बाद केन्द्रीय भाजपा कार्यालय में आयोजित सम्मान स्वागत समारोह में उनके द्वारा दिए गये भाषण में भी झलकी हैं।
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