दिल्ली नगर निगम के चुनाव में बुरी तरह से हारी आप पार्टी और उनके नेता पूरी तरह से बौंखलाये हुये हैं। आजकल मीड़िया से लेकर हर जगह ‘आप’ के ‘‘विश्वास’’ की चर्चा हो रही हैं। आखिर ‘‘आप’’ को हो क्या गया हैं? नगर निगम के चुनाव परिणाम किसी राजनैतिक दल के लिये बहुत ज्यादा अहमियत नहीं रखते हैं। लेकिन दिल्ली नगर निगम के चुनाव परिणाम को जिस तरह राष्ट्रीय मीड़िया ने महत्व दिया और लगातार सुबह से शाम तक टी.वी. चेनलों पर लाईव परिणाम दिखाएॅ गये वैसी अहमियत मुम्बई या कोलकत्ता को कभी भी नहीं मिली। जबकि मुम्बई महानगर पालिका का बजट तो कुछ राज्यों के बजट से भी बड़ा हैं। यह ठीक वैसी ही घटना हैं जैसे कि पूर्व में दिल्ली विधानसभा के चुनावों व परिणाम को राष्ट्रीय कवरेज मिला था जबकि वह पूर्ण राज्य भी नहीं हैं, और बहुत ही छोटी सी विधानसभा हैं। तब ‘‘आप’’ के द्वारा ‘‘आप’’ को 70 में से 67 सीटो पर विजय मिली थी। जीत तब सही मानी गई थी। चुनाव आयोग, ईवीएम मशीन, मतदाता तब सब ‘‘आप’’ की नजर में सही थे। उस वक्त सिर्फ गलत और गलत थे तो मात्र विरोधी पार्टियॉं कांग्रेस व भाजपा जिन्हे दिल्ली के मतदाताओं ने लगभग पूर्ण रूप से अस्वीकार कर दिया था। दो साल बाद अब दिल्ली की जनता ने नगर निगम के चुनाव के जो परिणाम दिये हैं क्या उसे मोदी सरकार के कार्यो के प्रति सकारात्मक अनुमोदन कहा जाय या केजरीवाल सरकार के प्रति नकारात्मक भाव या दस सालो से नगर निगम पर आरूढ़ भाजपा के कार्यो पर मुहर व जनादेश कहे। यह सब व्याख्या राजनैतिक दल अपने-अपने तरीके से, अपनी सुविधानुसार करने के लिये स्वतंत्र हैं। लेकिन प्रांरभिक प्रतिक्रिया में ‘‘आप’’ द्वारा उक्त परिणाम को अस्वीकार करके बवाल मचाकर ‘‘ईवीएम द्वारा जीता हुआ चुनाव’’ कहना, निश्चित रूप से निंदनीय, अनैतिक व अलोकतांत्रिक हैं।
ईवीएम मशीन पर अविश्वास जताकर चुनाव परिणाम को अस्वीकार कर देने का क्या यह मतलब नहीं हैं कि ‘आप’ उस जनता पर अविश्वास कर रहे हैं जिस जनता ने पहले दिल्ली विधानसभा में उसी ईवीएम मशीन का प्रयोग करके ‘‘आप’’ को लगभग पूर्ण रूप से (95% 70 में से 67को) चुना था। तब ‘‘आप’’ को इसी ईवीएम ने मुख्यमंत्री के रूप में प्रतिक्रिया देने का अधिकार प्रदान किया था जिसे न तो ‘आप’ ने अस्वीकार किया था, और न ही कोई प्रश्नवाचक चिन्ह लगाया था? यह 95 प्रतिशत बहुमत भी आप को उस परिस्थितियों के बाद मिला जब इसके पूर्व हुये लोकसभा के चुनाव में दिल्ली की सातो सीट पर उन्हे हार खानी पड़ी। इसके पूर्व केे विधानसभा चुनाव में भी आप को बहुमत नहीं मिला था एकतरफा कांग्रेस के बिना शर्त समर्थन से सरकार बनानी पड़ी थी। 1984 के लोकसभा चुनाव में आई सहानुमति की लहर में भी कांग्रेस को इतना प्रचंड बहुमत नहीं मिला जितना विधानसभा चुनाव में आजादी के बाद किसी भी विधानसभा चुनाव में शायद प्रथम बार किसी पार्टी को 95 प्रतिशत बहुमत प्राप्त हुआ हैं। न ही एग्जिेट पोल व न ही एग्जिट पोल में आप की इतनी प्रचंड़ जीत की संभावना व्यक्त की गई थी। खुद आप को भी लगभग इस पूर्ण जीत का ‘‘विश्वास’’ कदापि नहीं था। तब इस आश्चर्य चकित परिणाम पर ईवीएम पर उंगली न तो ‘‘आप’’ ने उठाई नहीं और ने ही ‘आप’ के विरोधियों ने, बल्कि इसे जनता जर्नादन का निर्णय मान कर हंसते हुये स्वीकारा गया। आप के नेताओं का लगातार यह कहना हैं कि लालकृष्ण आड़वानी के जमाने से व सुब्रम्हण्यम स्वामी के द्वारा ईवीएम मशीन पर आपत्ति जताई जा रही थी और इसी बीच भाजपा के द्वारा इस संबंध में शोध कर ईवीएम मशीन में छेड़खानी करके चालाकी से अपने अनुकूल परिणाम ला रही हैं। इसी कारण भाजपा लगातार उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड़, दिल्ली इत्यादि चुनाव जीत रही हैं। यह सरासर जनादेश का घोर अपमान ही नहीं बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था पर अविश्वास भी हैं।
यदि यह भी मान लिया जाय कि भाजपा ईवीएम मशीन पर लगातार शोध करते करते उसमें गड़बडी करके अपने अनुकूल परिणाम ले आने में विशेषज्ञ हो गई हैं, जैसा कि ‘आप’ अब आरोपित कर रही हैं। तब ‘‘आप’’ को दो साल पूर्व हुये दिल्ली के चुनाव में कैसे भारी एक तरफा विजय मिल गई थी जो सही थी? ‘‘आप’’ के नेता ईवीएम मशीन पर गड़बडी का आरोप मढ़ते समय राजनैतिक वास्तविकता को भूल रहे हैं व अपने गिरेबान में झाक कर देखने का प्रयास नहीं कर रहे हैं। जीते तो ईवीएम मशीन सही, हारे तो ईवीएम मशीन गड़बड। यह वही कहावत हैं कि मीठा-मीठा गप्प और कड़वा-कडवा थू। जबकि एक सामान्य व्यक्ति के स्वास्थ्य के लिये भी मीठा व कड़वा दोनो ही जरूरी हैं। राजनीति में तो स्वाद राजनेता के हाथो में नहीं बल्कि उस जनता के हाथों में हैं जिसे जनता जर्नादन कहा जाता हैं, तो राजनैतिक पार्टी जनता से वोट लेने के दिन तक तो जनता को अपना भगवान मानती हैं, उनका सेवक कहलाना पंसद करती हैं, लेकिन जीतने पर खुद मालिक और भगवान बन जाती हैं।
इस चुनाव के पहले से ही ’’आप’’ ईवीएम मशीन में धांधली का आरोप लगा रही हैं। यदि ‘‘आप’’ को यह विश्वास था (बात फिर ‘‘विश्वास’’ के संकट की है) कि यह धांधली नहीं रूकेगी तथा ‘आप’ उस धांधली को रोकने में असमर्थ हैं तब ‘आप’ के द्वारा इस चुनाव में भाग लेने का क्या औचित्य था। आप ने इस मुद्दे को लेकर शुरू में ही चुनाव का बहिष्कार क्यों नहीं किया व जनता को आंदोलित क्यों नहीं किया। पानी पी पी कर हर मुद्दे पर सोशल मीड़िया के माध्यम से जनमत जानने का दावा करने वाली ‘‘आप’’ ने सोशल मीड़िया के द्वारा इस मुद्दे पर जनता की राय अभी तक क्यो नहीं ली?
आखिर ‘आप’ का (कुमार) ‘‘विश्वास’’ पर ‘‘अविश्वास’’ का संकट क्यों गहराता जा रहा हैं? उसका यह ‘‘अविश्वास’’ उसे कहॉं ले जायेगा? या ‘आप’ इस ‘‘अविश्वास’’ को कहॉं तक लेकर जाकर छोडते हैं? ‘आप’ आखिर ईवीएम मशीन पर विश्वास क्यों नहीं कर रही हैं? उसका ‘‘विश्वास’’ ही जब खुद पर अविश्वास करने लग जाये तो उनके ‘‘अविश्वास’’ पर कौन ‘‘विश्वास’’ करेगा? यदि ‘आप’ को जीत की ओर लौटना हैं तो उन्हें जन-(के)-तंत्र के सामने खड़ा होना पडेगा व उसका सामना करना पडेगा। इसके लिये उन्हें अपने को शुरूवात की स्थिति में लौंटना पड़ेगा जहां से वे जनतंत्र कीे ऑंधी के कारण लोकतंत्र का भाग बन सकें थे। अन्यथा उनका आगे का राजनैतिक सफर सिफर हो जायेगा और ‘‘आप’’ इतिहास के पन्ने में गुम हो जायेगे। आप की जगह मैं, तुम, हम, ही चलायमान होगें।