पिछली एक तारीख से महाराष्ट्र व मध्यप्र्रदेश के कुछ भागो में विभिन्न मांगो को लेकर किसानों एवं भिन्न -भिन्न किसान संगठनों द्वारा आंदोलन चलाया जा रहा हैं जो दिन प्रति दिन तीव्र होकर फैलता जा रहा हैं। देश के मध्य स्थित प्रदेश हमारे मध्य प्रदेश मंे भी आंदोलन इतना तीव्र हो गया हैं कि उसके हिंसक रूप धारण कर लेने के कारण हुई गोली चालन व मारपीट के कारण 6 किसानो की दुखदः मृत्यु हो गई। अकेला मध्यप्रदेश ही वह प्रदेश हैं जिसे लगातार पिछले पांच वर्षो से कृषि क्षेत्र में उल्लेखनीय सफलता व किसानो के हित में कार्य प्रणाली के कारण पुरष्कार स्वरूप केन्द्र सरकार द्वारा ‘‘कृषि कर्मण’’ पुरस्कार दिया जाता रहा हैं। प्रदेश के कृषि मंत्री 5-5 बार पुरष्कार प्राप्त कर फूले नहीं समा रहे हैं। लेकिन कृषि क्षेत्र में लगातार अवार्ड़ प्राप्त करने वाले प्रदेश में किसानो का आंदोलन होना व उस आंदोलन का उग्र व हिंसक हो जाना और उक्त हिंसक आंदोलन के दमन हेतु गोली चालन होना (जिससे 5 किसानो की मृत्यु हो गई हैं,) अपने आप में एक बड़ी संजीदगी विहीन विरोधाभाषी स्थिति को प्रकट करता हैं।
प्रदेश सरकार का रवैया तो बहुत ही अक्षोभनीय व निर्लजता लिये हुये मूर्खता पूर्ण रहा हैं। एक तरफ मुख्यमंत्री किसानांे की मृत्यु पर क्षति राशि की घोषणा करते रहे, तो दूसरी ओर उनके गृहमंत्री पुलिस द्वारा गोली चालन से न केवल लगातार साफ इंकार करते रहे बल्कि कुछ असामाजिक अज्ञात तत्वों को इस गोलीकांड के लिये जिम्मेदार भी ठहराते रहे। लेकिन अंततः उन्हे वस्तुस्थिति को स्वीकार कर पुलिस गोली चालन से 5 किसानों की मृत्यु को स्वीकार करना पडा़। गृहमंत्री का यह रवैया न केवल उनकी गैर संवेदनशीलता व अकुशलता को दर्शाता हैं बल्कि मुख्यमंत्री के स्टेंड़ के विरूद्ध भी रहा जिन्होेंने किसानो की गोली चालन में मृत्यु के पश्चात् तुरंत प्रांरभ में मुआवाजा राशि 5 लाख की घोषणा कर दी थी, जिसे 5 लाख से बढ़ाकर 10 लाख किया गया और अंततः1 करोड़ करके संवेदनशील होने का अहसास (असफल) प्रयास किया गया। यदि सरकार की नजर में घटित नुकसान की पूर्ति मुआवजा राशि से हो जाती हैं तो पहले मात्र 5 लाख की घोषणा क्यांे की गई? यदि वह राशि सही थी तो फिर बढ़ाकर 10 लाख व दो दिन बाद 1 करोड़ क्यों कर दी गई? क्या 5 लाख की राशि की घोषणा के बाद आंदोलन में नरमी न आने के कारण आंदोलन को कमजोर करने के लिये 1 करोड़ रू. की राशि का दॉंव फेंका गया? प्रथम बार ही 1 करोड़ रू. की घोषणा क्यों नहीं की गई? आखिर कब तक इस तरह आंदोलनो में गई जाने व मृत्यु की एवज में मुआवजे की घोषणा कर मरहम लगाने का प्रयास किया जाता रहेगा? क्या जीवन के क्षतिपुर्ति का विकल्प सिर्फ पैसा (मुआवजा राशी) ही हो सकता हैं? आंदोलन से निपटने में विफल होने के लिये शासन, उपस्थित जनप्रतिनिधि प्रशासनिक मशीनरी व अराजक तत्वों को निश्चित सीमित समय में कड़क सजा मिलने का प्रावधान क्यों नहीं बनाया जाता हैं?, ताकि जान माल की हानि न हो सके। ऐसी स्थिति पैदा करने के लिये जो सामूहिक रूप से जिम्मेदार होते हैं उन पर कार्यवाही होकर उन्हे कड़क सजा़ क्यों नहीं दी जाती हैं? एक तरफ ‘‘सरकार की मुआवजा की घोषणा करते जाना’’ व दूसरी ओर आंदोलन में ‘‘असामाजिक तत्वों द्वारा गोली चालन किये जाने का कथन करना’’ क्या यह सब सरकार के मुखिया व गृहमंत्री के बीच संवादहीनता को नहीं दर्शाता है? क्या यही संवादहीनता की खाई प्रशासक, शासक, आंदोलित किसान एवं प्रबुद्ध नागरिकांे के बीच इतनी तो नहीं बढ़ गई जिसका दुष्परिणाम ही 6 लोगो की मौत का कारण बना?
देश की सुरक्षा के लिये सीमा पर मरने वाले प्रदेश के जवानो के लिये कभी 1 करोड़ का मुआवजा मध्यप्रदेश सरकार द्वारा दिया गया? हर पक्ष यही कहता हैं कि ऐसे समय राजनीति नहीं की जानी चाहिए। लेकिन दूसरे ही पल परस्पर एक दूसरे पर राजनीति करने का आरोप जड़ दिया जाता हैं। प्रदेश के संवेदनशील मुख्यमंत्री मुआवजा की राजनीति में ही मशगूल हो गये। हाल में ही कुछ दिन पूर्व प्रदेश के मुख्यमंत्री जब बैतूल जिले के दौरे पर आये थे तब बैतूल शहर में रहने वाले एक जवान जिसकीे सीमा पर मृत्यु हो गई थी उसकेे घर वे (दो मिनट शोक व्यक्त करने) शायद ‘राजनीति’ न करने के कारण ही नहीं पंहुचे। जबकि उसके एक दिन पहले ही वे भोपाल से रीवा जाकर एक शहीद को श्रृद्धाजंली देकर आए थे।
कश्मीर में सुरक्षा बल पर पत्थर फेकने वाले ‘व्यक्ति’ पर रबर बुलेट चलाने के मामले में तो उच्चतम् न्यायालय से लेकर मानवाधिकारी प्रश्न उठा देते हैं। लेकिन देश की पेट पूजा करने वाले किसानो की जब पुलिस/अर्द्धसैनिक बल द्वारा गोली चालन में हत्या हो जाती हैं तब न तो न्यायालय सामने आता हैं न ही तथाकथित बुद्धिजीवी मानवाधिकार के रखवाले लोग बस किसी न किसी रूप में एक जांच के आदेश की नियुक्ति की घोषणा हो जाती हैं।.
बात कुछ राहुल गांधी के दौरे की भी कर ले। राहुल गांधी ने ट्वीट किया कि ‘‘वे प्रभावित किसान परिवारो से मिलने मंदसौर जा रहे हैं’’। यह आंदोलन जिसने हिंसक रूप ले लिया (किसके कारण/द्वारा, यह न्यायिक जांच का विषय हो सकता हैं) जिस कारण करोड़ो रू. की आम नागरिकों व सार्वजनिक सम्पत्ति का नुकसान हुआ। एक बस जिसमें बच्चे व महिलाएॅं सवारी थी उस पर लगातार पत्थर फेके गए उन्हे उतार कर बाद में बस जला दी गई। ऐसे आंदोलन के बीच ऐसी अमानवीय हरकतो से प्रभावित व डरे हुये लोगो के ऑंसू पोछने के लिए राहुल गांधी से लेकर अन्य कोई नेता ने पहंुचने की इच्छा व्यक्त नहीं की। क्यों? तब वह राजनीति कहलाती और वे ऐसी जनहितैषी राजनीति नहीं करना चाहते हैं। वाह री राजनीति!
शिवराज सिंह चौहान द्वारा उपवास पर बैठना कौन सी नीति हैं जिसमें राज-नीति बिलकुल नहीं हैं? यदि 24 घंटे के उपवास से शांति आ सकती हैं, तो मुख्यमंत्री 3-4 दिन पूर्व ही, हिंसा प्रारंभ होते ही क्यों नहीं अनशन पर बैठ गये? उपवास पर बैठने को एक जुमले में ‘‘गंाधी गिरी’’ कहा जा सकता हैं। लेकिन यदि यह गांधी-गिरी हैं तो उसका हिंसा से क्या लेना देना हैं। लेकिन यहॉं पर दोनो पक्षों द्वारा हिंसा का रास्ता अपनाया गया। मुख्यमंत्री द्वारा हिंसा की उच्चस्तरीय जांच कराने का भी निर्णय उपवास पर बैठने के बाद किया गया। जब एक न्यायिक जांच की घोषणा पहिले ही कर दी थी तब दूसरी उच्चस्तरीय जांच का क्या औचित्य? इससे तो यही मतलब निकलता हैं कि जंाच की घोषणा कर मामले को ठंडे बस्ते में डालना जो कमोवेश प्रत्येक सरकार किसी भी घटना को घटित होने पर अपने बचाव में (सफलतापूर्वक) करती चली आ रही हैं।
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