माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने ‘‘आरूषि‘‘ हेमराज’’ दोहरे हत्याकांड के अभियुक्तगण दंत विशेषज्ञ डॉ. राजेश व उनकी धर्मपत्नि श्रीमति नुपुर तलवार द्वारा गाजियाबाद की विशेष सीबाीआई अदालत द्वारा दी गई आजीवन कारावास की सजा के विरूद्ध की गई अपील को स्वीकार कर विशेष अदालत के दोष-सिद्ध के निर्णय को पलट कर डॉ. राजेश व नुपुर तलवार को दोषमुक्त कर दिया हैं।
‘‘पुत्री’’ ‘‘आरूषि‘‘ व ‘‘नौकर’’ ‘‘हेमराज’’ की हत्या ने पूरे देश के आम नागरिको को बुरी तरह से झंकझोर दिया था। चंूकि आरूषि की हत्या का आरोप उसके ही अपने खून आरूषि के माता-पिता पर लगा, जिनका धर्म, कत्तर््ाव्य व दायित्व सिर्फ पिता-माता होने के संबंध के कारण ही नहीं, बल्कि डाक्टरी पेशे में होने के कारण भी, मानव की जिदगी देना हैं, लेना नहीं। इसीलिये जब अभियुक्तगण पर उनकी ही बेटी व नौकर की जिंदगी लेने का आरोप लगा, तब तत्समय पूरी मीडिया ने डॉं.तलवार दंपति के खिलाफ कई कहानी प्रसारित की। आज जब वे हत्या के आरोप से निर्दाेष करार दिये गये हैं, तब वही डॉं. तलवार दंपति कीे मीडिया नई स्टोरी बता कर उनके प्रति सहानुभूति पैदा करने का प्रयास कर रहा हैं। यह भी प्रश्न उठाया जा रहा हैं कि आरूषि को यदि डॉ. दंपत्ति ने नहीं मारा, तो आखिर किसने मारा हैं! यह भी एक अनबुझी पहेली ही हैं।
न्यायपालिका के निर्णय पर जिस तरह की प्रतिक्रियायंे आ रही हैं, वे वास्तव में आपराधिक न्यायशास्त्र और भारतीय न्याय आपराधिक प्रक्रिया के सिद्धान्त की जानकारी न होने के कारण ही हैं। भारतीय न्याय व्यवस्था के दो मूल सिद्धान्त हैं। प्रथम अपराधी को सजा समस्त उचित संदेह (रीजनेबल डाउट) के परेे होने पर ही दी जाना चाहिए। दूसरा सौ अपराधी छूट जाय, लेकिन एक भी निरापराधी को सजा नहीं होनी चाहिए। आरूषि हत्या प्रकरण में उच्च न्यायालय का निर्णय उपरोक्त धारणा पर ही आधारित हैं। इस हत्याकांड में प्रारंभ से ही, सीबीआई जांच से लेकर, विशेष अदालत व उच्च न्यायालय का निर्णय, सभी में एक बात समान हैं कि जितने भी साक्ष्य, दस्तावेज, परिस्थिति जन साक्ष्य प्रकरण में आये हैं, उपलब्ध हैं, वे सब एक ही बात की ओर इगिंत करते हैं। इस हत्याकांड के लिये यदि कोई जिम्मेदार हैं तो वह नौकर ‘‘हेमराज’’ (जिसकी भी दूसरे दिन हत्या कर दी गई), व कम्पाउडर कृष्णा नहीं बल्कि सिर्फ डॉ. तलवार दंपत्ति ही हैं। चूंकि ये समस्त उपलब्ध साक्ष्य उपरोक्त अपराधिक न्याय सिद्धान्त द्वारा रेखांकित की गई सीमा को पार नहीं कर पा रही थी, इसीलिए न केवल वे दोषमुक्त ठहराये गये, बल्कि इसी कारण से डॉं. तलवार दंपत्ति को सीबाीआई ने प्रथम चरण में ही चार्जशीट योग्य न मानकर प्रकरण की खात्मा रिपोर्ट न्यायालय में प्रस्तुत की थी। तब भी सीबीआई का कथन यही था कि समस्त साक्ष्य यद्यपि डॉ. तलवार दंपत्ति की ओर ही इशारा करते हैं, लेकिन वे साक्ष्य उस सीमा तक प्रबल नहीं हैं कि उन्हे अंततः सजा दिलायी जा सके। इस खात्मा रिपोर्ट को गाजियाबाद सीबीआई की विशेष न्यायालय ने खारिज कर सीबीआई को चालान प्रस्तुत करने के लिये आदेश दिये थे। तब वे ही तथ्यों के साथ जहां एक बार सीबीआई प्रकरण को चार्जशीट लायक भी नहीं मान रही थी, उसने न्यायालय के आदेश पर डॉ. तलवार दंपत्ति के खिलाफ आरूषि व हेमराज की हत्या का उन्ही तथ्यों केे आधार पर मुकदमा चलाया व सीबीआई न्यायालय ने उक्त साक्ष्य के आधार पर तलवार दंपत्ति केा अपनी ही बेटी की हत्या का अपराध सिद्ध पाया जाकर आजीवन कारावास की सजा सुनाई।
यहां यह तथ्य बहुत ही उल्लेखनीय हैं जिस खात्मा रिपोर्ट में सीबीआई ने डॉ. तलवार दंपत्ति को चार्जशीट करने से इंकार किया था उसी खात्मा रिपोर्ट को डॉ. तलवार दंपत्ति ने (जो उनकेे पक्ष मे थी) को न्यायालय में चुनौती दी, क्योंकि उस खात्मा रिपोर्ट ने जो प्रश्न वाचक चिन्ह लगाये गये थे वे सब डॉ. तलवार दंपत्ति की ओर इशारा करते थे। दूसरे पक्ष भी उच्च न्यायालय में गये। अंततः उच्चतम् न्यायालय नें ट्रायल करने के आदेश दिये थे। ऐसा न्यायिक इतिहास में शायद कभी नहीं हुआ जब आरोपी ने उस रिपोर्ट को ही चैलेंज किया हो जो उसे दोषमुक्त करती हैं। लेकिन ट्रायल कोर्ट ने अभियोगी को दोषयुक्त माना।
इस पूरे प्रकरण में उपलब्ध समस्त साक्ष्य और परिस्थितियों व जांच को देखने से स्पष्ट हैं कि घटना के प्रथम दिन से ही उत्तर प्रदेश पुलिस घोर लापरवाही बरतने व संदेह के घेरे में रही हैं। उत्तर प्रदेश पुलिस ने डॉ. तलवार दंपत्ति को दोषी न मानकर ही जांच प्रांरभ की थी। घटना स्थल को तुरंत सील न करना, घटना स्थल पर पाये गये समस्त साक्ष्यों का जमा न करना, मकान की तत्काल पूरी जांच न करना, हेमराज के गायब रहने पर उसका तुरंत पता न लगाना, हेमराज के कमरे की तलाशी न लेना, आदि आदि में उत्तर प्रदेश पुलिस अपने कर्त्यव्य का पालन करने में पूर्ण रूप से बुरी तरह असफल रही हैं। जब सीबीआई को जांच के लिये प्रकरण सौपा गया था तब तक प्रकरण के समस्त साक्ष्यों को नष्ट कर दिया गया था। इसीलिए अपराधियों के विरूद्ध सीबीआई पर्याप्त आवश्यक पुख्ता साक्ष्य नहीं जुटा पाई। जिन मुद्दो का उल्लेख सीबीआई कोर्ट ने अपने सजा के निर्णय में किया था उन समस्त मुद्दो का एक-एक करके जवाब उच्च न्यायालय ने दोषमुक्त करते समय दिया हैं। लेकिन कोई प्रत्यक्षदर्शी गवाह के न होने के कारण उच्च न्यायालय को डॉ. तलवार दंपत्ति को हत्यारा मानना उचित नहीं लगा। यदि न्यायालय के निर्णय की बातो को गौर से पढा जाये तो, न्यायालय ने यह स्पष्ट लिखा हैं कि पर्याप्त साक्ष्य के अभाव के कारण दोषमुक्त किया जाता हैं।
निर्दोष व ‘‘संदेह के आधार पर दोषमुक्त’’ में अंतर हैं। दोषमुक्त व्यक्ति को अपराधी की निधारित सीमा के अतिंम छोर तक तो पंहुचा दिया जाता हैं लेकिन कानूनी व्याख्या व अपराधिक न्याय सिद्धान्त के कारण संदेह का लाभ देने के कारण उसे अपराधी घोषित नहीं किया जा सकता हैं। लेकिन ऐसे व्यक्ति के पास नैतिकता का बल लगभग शून्य हो जाता हैं। भारतीय दंड सहिंता में कुछ प्रावधान जैसे धारा 298 ए इत्यादि ऐसे हैं जहां पर अभियुक्त को अपराधी के रूप में दोषी सिद्ध करने का भार अभियोजन पर न होकर अभियुक्त पर होता हैं कि वह अपनी निर्दोषता सिद्ध करे। जबकि अन्य प्रकरणो में दोष सिद्ध का भार अभियोजन पर होता हैं। अभियुक्तगण व आरूषि के बीच का माता-पिता का प्राकृतिक रिश्ता भी दोष सिद्ध माननेे में आड़े आया हो सकता हैं। क्योकि हमारा समाज में बच्चो के माता-पिता की भगवान के रूप में कल्पना की जाती हैं, जहां उसका फर्ज जिंदगी को सवारना होता हैं, खत्म करना नहीं। इसलिए मीडिया व सोशल मीडिया में इस दोहरे हत्या कांड पर अर्नगल प्रतिक्रिया करने से परहेज करना चाहिए। साथ ही ‘‘दोषमुक्त अभियुक्त’’ के प्रति अनावश्यक सहानुभूति भी उत्पन्न न करे क्योकि वह दोषमुक्त तो हैं पर मासूम निर्दोष नहीं!
आरूषि हेमराज हत्याकांड को देश का सबसे व सनसनी खोज मामला (मिस्ट्री) बतलाया गया। लेकिन वास्तव में उपरोक्त तथ्यों के प्रकाश में यह मिस्ट्री नहीं रह गई हैं। इसके बावजूद यदि इस दोहरे हत्या के लिये किसी भी व्यक्ति को अपराधी नहीं माना गया हैं, तो इसका लिये मूलरूप से उत्तर प्रदेश पुलिस की घोर लापरवाही व उसका उद्देश्य (इंटेशन) ही जिम्मेदार हैं जिसके लिये उच्च न्यायालय ने उन अधिकारियों के विरूद्ध कोई कार्यवाही नहीं की।
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