विगत एक हफ्ते के भीतर देश की राजधानी दिल्ली के पास एनसीआर में नवनिर्मित या निर्माणाधीन या पुरानी बिंल्डिग अचानक ढ़ह जाने की लगातार चार घटनाएँ हो गई जिस कारणं सम्पत्ति के अलावा जानमाल का भी बड़ा नुकसान हो गया। ये घटनाएं 17, 21, 22 जुलाई 2018 के बीच गाजियाबाद, शाहबेरी, मसूरी, साहिबाबाद में हुई हैं। शाहबेरी नोएडा में छह-छह मंजिला दो निर्माणाधीन इमारत गिरने से 10 लोगो की मौत हो गईं। मसूरी में पांच मंजिला निर्माणाधीन इमारत के ढहने से 2 लोगो की मृत्यु हो गई। नोएडा के सेक्टर 63 में भी एक निर्माणाधीन बिंल्डिग की दीवार गिरने से लोगो की जान चली गई। ग्रेटर नोएडा सूरजपुर के पास मुबारकपुर गांव में तीन मंजिला इमारत गिर गई जिसमें से तीन लोगो को मलबे में से निकाल कर किसी तरह बचाया गया। गाजियाबाद के अशोक वाटिका इलाके में एक मकान के ढहने से 1 व्यक्ति की मृत्यु हो गई। इस के अलावा एक इमारत के पिलर के झुकने के कारण 16 परिवार को दूसरी जगह शिफ्ट करना पड़ा। आज ही भिंवडी में सात साल पुरानी इमारत ढ़ह गई। ये समस्त निर्माण कोई बाढ़ या भूंकप की प्राकृतिक आपदा के कारण नहीं ढ़हे, बल्कि निर्माण में गुणवत्ता की कमी या भवन के जर-जर हो जाने के कारण ढहे। आखिर इन घटनाओं के लिए दोषी कौन? आज के प्रदूषित वातावरण से अलग लिये हुया यह एक ज्वलंत प्रश्न है।
सामान्य नागरिक जिदंगी भर की अपनी मेहनत पसीने की कमाई से बचत करके स्वयं के रहने के लिए या तो स्वयं भवन बनवाता है या बिल्ड़रों से खरीदता है। इस प्रकार लगातार हो रही भवन दुर्घटनाओं के कारण उसके मन में यह भाव उत्पन्न होता है कि उसकी सामाजिक सुरक्षा का कोई दायित्व किसी संस्था या सरकार का है अथवा नहीं? घटना घटित हो जाने के बाद सरकारें बिल्ड़रांे के खिलाफ आपराधिक मुकदमा दर्ज कर एक नही कई-कई जाँच एजेंसियां एक साथ बैठा देती हैं और घटना में जानमाल की हानि होने पर पीड़ित परिवार को 2-4 लाख रूपये का मुआवजा देकर अपने दायित्व की इतिश्री मान लेती है। परन्तु साधारण गरीब परिवार की जिदंगी भर की कमाई से एक मात्र निर्मित भवन के नुकसान की भरपाई के लिये कुछ नहीं देती हैं।
जरा सोचिये! एक आम नागरिक की जिंदगी में रोटी और कपड़े के बाद उसका एकमात्र जीवनदायी सपना होता है कि उसका स्वयं का मकान हो जिसमें वह शांति व सुख का अहसास महसूस कर जीवन आराम से व्यतीत कर सके। वह अपनी कडी मेहनत पसीने की कमाई से विभिन्न अत्यावश्यक खर्चो में भी जीवन भर थोड़ी-थोड़ी कटौती करके बचत कर या तो किश्तों में बिल्ड़र्स को पैसे देता है या मकान-ऋण लेकर उसे किश्तों में जमा करता है। 99 प्रतिशत मामलों में मकान के निर्माण की दृष्टि से मकान मालिक को कतई तकनीकि जानकारी नहीं होती है। इसलिए निर्माण के लिए वह सम्पूर्ण रूप से ठेकेदार इंजीनियर्स व बिल्डर पर ही निर्भर रहता है। बिल्डरों के मामले में भी अधिकांशतः तकनीकि रूप से सर्वथा अनभिज्ञ सा अर्धभिज्ञ होते है। जब कोई बिल्डर्स से मकान खरीदता है और वही मकान किसी तकनीकि दोष या भवन निर्माण सामग्री घटिया होने के कारण अचानक एक दिन भर-भराकर गिर जा़ता है, तब उस नागरिक के सामने (बेघर हो जाने के कारण) एक बड़ा संकट सामने आ खड़ा होता है कि अब उसे आंधी बरसात एवं गर्मी से सुरक्षित रखने वाली उसकी छत सदा के लिए उससे छिन गई है। साथ ही यह संकट उसके व्यवसाय प्रोफेशन पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाल कर संकट को और बढाता है। इस प्रकार उसको दोहरा नुकसान झेलना पड़ता है।
जब कोई व्यक्ति किसी निजी एंजेसी से या राजमिस्त्री से मकान का निर्माण कराता है और उसमें कोई तकनीकि दोष होने के कारण या निर्माण सामग्री सहित कार्य की गुणवत्ता न होने से जब वह मकान ढ़ह जाता है तब भी उसके पास कोई चारा नहीं बचता है। उसमे कानूनी कार्यवाही के लिए आर्थिक और मानसिक हिम्मत भी नहीं बचती है। वह मात्र निर्दोष मूक दर्शक बना रहता है। उक्त समस्त त्रासदी से निपटने के लिए आज तक न तो जनता ने ही जीवन के अपने संवैधानिक अधिकार का प्रयोग किया और न किसी सरकार ने ही इस संबंध में ऐसे भुक्तभोगी नागरिको के नुकसान की भरपाई के लिए कभी कुछ सोचा हैं।
आज इस विषय पर गंभीरता से सोचने का समय क्या नहीं आ गया है? और यदि आज भी हम इस दिशा में नहीं सोचते है, तो ऐसी घटनाओं में निरंतर वृद्धि होने की बात के बाद तो हमें सोचने के लिये मजबूर होना ही पड़ेगा। लेकिन तब तक सैकड़ो निर्दोष जीवन व बेहताशा सम्पत्ति का नुकसान अवश्य हो चुका होगा। अतः केन्द्रीय व राज्य सरकारंे अविलम्ब ऐसे भुक्तभोगी नागरिकों के हितो की रक्षा लिए कुछ न कुछ कानून अवश्य बनायें जिसमें सर्वप्रथम यह प्रावधान किया जाय कि जब भी कोई बिल्डर मकान बेचता है, तब उस पर अनिवार्य कानूनी दायित्व एवं बाध्यता हो कि वह भवन का आवश्यक इश्ंयोरंेस करा कर ही बेचे। भले ही ऐसे इश्ंयोरंेस का शुल्क वह अपनीे मूल रकम में शामिल कर उपभोक्ता से वसूले। दूसरा या तो यह इश्ंयोरंेस कम से कम 25 वर्षो के लिए हो अथवा वार्षिक प्रीमियम का प्रावधान रखने पर सोसायटी के वार्षिक शुल्क में ही प्रीमियम की राशि को जोड़ दिया जाय। नगर पालिका, नगर पंचायत या ग्राम पंचायतों में इंजीनियर्स की टीम बनाई जाय जो प्रत्येक प्राइवेट निर्माण की अनवार्य रूप से जांच कर गुणवत्ता में कोई कमी पाई जाने पर वैसे घटिया निर्माण कार्य को रोक सके। ताकि ऐसी आपदाओं पर रोक लगे।
जिस प्रकार से आज कल केन्द्रीय व राज्य सरकारे करोड़ो-अरबों रूपये की सब्सिड़ी व जीवन दायनी सुविधाएं मुफ्त देकर लोगो को अक्रमण्य बना रही है, तब उसकी तुलना में जिसने अपनी जिदंगी भर की कमाई भवन लेने में लगाई और उसका वह भवन घटिया निर्माण होने के कारण ढह जाए तब उस स्थिति में क्या सरकार का कोई दायित्व नहीं बनता है कि वह पीड़ित को आर्थिक सहायता देकर नुकसान की भरपाई करे। अभी हाल में मोटर वीहकल एक्ट में संशोधन प्रस्तावित कर यह प्रावधान किया गया है कि दुर्घटना में मृत्यु होने पर 2 लाख का मुआवजा दिया जाय। जब पीड़ित किसान को फसल खराब होने पर सरकार मुआवजा देती है, प्राकृतिक आपदा आने पर थोडा़ -बहुत आंशिक ही मुआवजा देती है। तब इस प्रकार की मानव निर्मित आपदा जिनको रोकने का दायित्व प्रजातंत्र में चुनी हुई सरकार का ही होता हैं, ऐसी (लापरवाही व दुराशय के कारण हुई) दुर्घटना पर पीड़ित परिवार को मुआवजा देने का प्रावधान कानून में क्यों नहीं होना चाहिए? इस लेख का मुख्य विचारणीय विषय यही हैं। पीड़ित नागरिकों का इसमें दोष नहीं है। अविलम्ब इस विषय में सोचकर संबंधित क्षेत्रों से चर्चा करके कोई न कोई सार्थक कदम उठाने की आवश्यकता आज के समय की मांग है। ताकि भविष्य में इस तरह की घटनाओं के बढ़ने से रोका जा सके। अन्यथा बेकसूर निर्दोष, नागरिक अनवरत इस तरह की आर्थिक एवं मानसिक पीड़ा सहने को मजबूर होते रहेंगे।
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