संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार ‘‘उच्चतम् न्यायालय’’ के समस्त निर्णय न्यायिक और बंधनकारी होते है। लेकिन इसके बावजूद हमेशा ही उच्चतम् न्यायालय के निर्णयांे के औचित्य पर बहस होती रही है और यह स्वस्थ्य व मजबूत लोकतंात्रिक न्याय व्यवस्था का एक श्रेष्ठ उदाहरण है। आरोपित नेताओं के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने से संबंधित प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने आज जो निर्णय दिया हैं वह वर्तमान जन आंकाक्षाओं को निराश करता हैं। उच्चतम् न्यायालय ने आरोपित प्रत्याशी के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने से यह कह कर इंकार कर दिया कि अयोग्यता का प्रावधान अदालत नहीं जोड़ सकती हैं, क्योंकि यह कार्य संसद का हैं। फिलहाल दागी नेताओं को मात्र आरोपित होने पर चुनाव लड़ने से छूट दी है, जो नीति पूर्व से ही चली आ रही है। यद्यपि उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में यह कहा है कि राजनीति का अपराधीकरण बढ़ा हैं, तथा व्यवस्था में भ्रष्टाचार भी बढा हैं, जो खतरनाक है।
उच्चतम न्यायालय ने यह भी निर्देश दिया है कि सभी पार्टियाँ अपने उम्मीदवारो के आपराधिक रिपोर्ट कार्ड नागरिकों के सामने उजागर करें, उसका प्रचार प्रसार करे, एवं उम्मीदवार स्वयं भी ‘‘उस पर लम्बित समस्त आपराधिक प्रकरणों की जानकारी जनता को बतावें। सबसे विचित्र बात प्रथमतः यह है कि देश के उच्चतम न्यायालय ने इस प्रकरण में ‘‘कानून बनाने का कार्य संसद का है’’, इस आधार पर हस्तक्षेप करने से इंकार किया जबकि इसी न्यायालय ने पूर्व में अन्य कई मामलों में ऐसे निर्णय/निर्देश दिये है जो कानून बनाने के समान ही हैं। तब ऐसे संवेदनशील मामले में जहां एक ओर स्वयं उच्चतम न्यायालय मामले की गंभीरता को देखते हुये अपराध का प्रचार प्रसार कर आरोपी को तदानुसार आचरण करने का अवसर दे रहा है तो दूसरी ओर वही देश न्यायालय राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिये यह कहकर कि इस पर कानून बनाने का अब वक्त आ गया है, (ताकि आपराधिक रिकार्ड वालों को सदन में जाने से रोका जा सके) क्या यह दोहरा मापदण्ड़ कहलायेगा हैं? परन्तु ऐसा करते-करते दागी नेताओं को चुनावी प्रक्रिया में भाग लेने से रोकने के लिए कानून बनाने की जिम्मेदारी उस संसद पर छोड़ दी हैं जिसमें पहिले से ही 180 से ज्यादा (लगभग 34 प्रतिशत) दागी संासद शामिल है। अर्थात जब संसद ही दागी नेताओं से भरी पड़ी है, तब ऐसी संसद की स्वयं पर किसी भी प्रकार की रोक लगाने के लिए कानून बनाने की इच्छा शक्ति की कल्पना भी एक आम नागरिक कैसे कर सकता है? न्यायिक प्रक्रिया, दंड प्रक्रिया सहिंता, कानून, इत्यादि के दुरूपयोग के आधार पर हम कोई कार्यवाही ही न करें, यह उचित नहीं होगा। अपितु प्रत्येक कानून व व्यवस्था में दुरूपयोग किए जानेे की संभावनाएं हमेशा बनी रहती है। प्रश्न उन संभावनाओं को कम करना है, न कि वैसे दुरूपयोग से ड़र कर नियम कानून में हम कोई सुधार लाने के प्रयास ही न करेें।
उच्चतम् न्यायालय ने इस बात पर भी ध्यान नहीं दिया कि एक आरोपित नागरिक को तो सदचरित्र प्रमाण पत्र न मिलने के आधार पर नौकरी ही नहीं मिल पाती हैं तब उसी समानता पर लोकतंत्र में जनसेवा की सर्वोच्च नौकरी (कोई भी चुना हुआ नेता यही जुमला कहते-कहते नहीं थकता कि वह जनता का सेवक या नौकर हैं।) क्यों कर मिलना चाहिए, यही विरोधाभास इस निर्णय में भी परिलक्षित हो रहा है।
वैसे यह निर्णय ‘आप’ पार्टी के लिये राहत देने वाला है। चूँकि इसी मुद्दे को केजरीवाल ने अन्ना आंदोलन के समय यह कहकर उठाया था कि असली संसद तो यहाँ है जो सामने रामलीला मैदान में बैठी जनशक्ति है। जिसमें एक तिहाई से ज्यादा संासद आरोपित हैंं‘ वह देश की संसद’’ तो दागी है। उन दागी संासदो को इस्तीफा देकर आरोप मुक्त हो जाने के बाद पुनः चुनाव लड़कर आना चाहिए। परन्तु जब दिल्ली में सरकार बनाई तब यही सिद्धान्त स्वयं उन्होने नहीं अपनाया। उनमें उनकी पार्टी के 20 से भी ज्यादा विधायक/मंत्री दागी है।
‘दागी’ का सरल मतलब होता है दाग का लग जाना। जब हमारे कपड़े पर दाग गिर जाता है तो हम कपडे़ को अच्छी तरह से तब तक साफ करते है जब तक उसका दाग छूटकर वह साफ नहीं हो जाता है। अतः जिस प्रकार हम कपड़ो को सावधानी पूर्वक इस तरह उपयोग करते है ताकि किसी भी स्थिति में दाग न लगे। ठीक उसी प्रकार नेताओं को भी अपना सार्वजनिक जीवन इतनी सावधानी के साथ शुचिता पूर्वक जीना चाहिए ताकि किसी भी व्यक्ति को उस पर दाग लगाने का अवसर ही न मिले। अन्यथा दागी व्यक्तित्व को उस पर लगे दाग के एवज मंे कुछ न कुछ अवश्य भुगतना पड़ेगा। इसीलिए आम जनता की यह अपेक्षा कि आरोपित प्रत्याशी को चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित किया जाना चाहिए सर्वथा उचित व न्याय संगत हैं तथा उसे शीघ्रताशीघ्र मान्य किया जाना चाहिए। इस धारणा को मजबूत करने में न्यायालय से संसद तक सभी को एकदम एकसाथ मजबूत कदम उठाने होगे। तभी बेदाग भारतीय लोकतंत्र का सच्चा उदय हो पायेगा।