शनिवार, 22 दिसंबर 2018

कहीं भाजपा का ‘‘कमल’’(भगवा) एजेंडा’’ कांग्रेस के ‘‘नाथ’’ ने चुरा तो नहीं लिया है?

मध्यप्रदेश के 18वें मुख्यमंत्री के रूप में ‘‘कमल’’ को अनाथ न होने देने वाले हमारे पडोसी जिले छिंदवाडा के कमलनाथ द्वारा मुख्यमंत्री पद की शपथ ली गई जिसके लिये उन्हे हार्दिक बधाईयाँ, वंदन व अभिनंदन। सम्पन्न शपथ ग्रहण समारोह में वास्तव में ऐसा लगा ही नहीं कि वह किसी कांग्रेसी मुख्यमंत्री का शपथ ग्रहण समारोह हैं। देश के इतिहास में जहाँ तक मुझे याद है कंाग्रेसी मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में साधू-संतो की इतनी संख्या में उपस्थिती पहली बार हुई जो कि अभी तक भगवा बिग्रेड़ की बपौती मानी जाती रही है। इस देश में अधिकांश साधू-संतो को जन्म जात रूप से विश्व हिन्दू परिषद का भाग ही माना जाता रहा हैं जो ‘‘आरएसएस’’ का प्रमुख अग्रणी सहयोगी संगठन हैं तथा भाजपा के भगवा मुद्दे को आगे बढ़ाने में मजबूती से सहयोग करता आया है। 
याद कीजिए वर्ष 2003 के सुश्री उमाश्री भारती के शपथ गहण समारोह को, जहाँ न केवल उनके पूज्य.‘‘गुरू’’ मंच पर थे, बल्कि अन्य धार्मिक नेता व साधु-संत भी थे जिसे मैंने बहुत ही नजदीक से देखा था। यदि यह कहा जाए कि राजनीति में भाजपा के शपथ ग्रहण समारोह में साधू-संतो की उपस्थित सामान्य रूप से प्रचलित तौर पर अनिवार्य मानी जाती रही है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। पिछले कुछ समय से राहुल गांधी के मंदिर-मंदिर जाने पर मीडिया द्वारा कांग्रेस को (साफ्ट) कोमल हिन्दू का प्रमाण पत्र दिया जाता रहा हैं। उसी कड़ी में यदि कमलनाथ के शपथ ग्रहण समारोह को देखा जाये तो निश्चित रूप से ऐसा आभास होता है जैसे उक्त कार्यक्रम के द्वारा कमलनाथ ने भाजपा के भगवा विचार प्रेम की चोरी कर ली हो। कमलनाथ द्वारा शपथ ग्रहण के पूर्व मंदिर में परिवार सहित पूजा की गई जो इसी का एक भाग था। इस शपथ ग्रहण समारोह में देश का अधिकांश विपक्ष भी शामिल हुआ। शपथ ग्रहण के तत्काल बाद प्रथम आदेश के रूप में किसानों की ऋण माफी पर हस्ताक्षर कर दिए ऐसा करके वचन पत्र के सबसे महत्वपूर्ण आश्वासन  की पूर्ति कर दी और कम से कम आज तो यही सिद्ध किया है कि मुख्यमंत्री के रूप में कमलनाथ ने वांछिल शुरूवात की है,ं और प्रदेश में सामंजस्य का वातावरण बनाया हैं। यह संदेश देकर उन्होने अपने मजबूत कदम जमीन पर रखे है जिसके लिये फिलहाल वे बधाई के पात्र है।
परन्तु एट्रोसिटी एक्ट (आत्याचार अधिनियम) के विषय में उनके द्वारा (एन.ड़ी टी.वी. को दिए गए इंटरव्यू में) किसी प्रकार का रूख स्पष्ट न करना उनकी कमजोरी को ही सिद्ध करता है। हम यह उम्मीद करते है कि वे शीघ्र अपना रूख स्पष्ट करेगें व माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा दी गई न्यायिक समीझा/प्रक्रिया को पुर्नस्थापित करके कानून के राज की स्थापना करना मात्र है। वह किसी विशेष वर्ग के खिलाफ न होकर समस्त वर्गो के हित में होगा। तभी उनके व्यक्तित्व को मजबूती मिल सकेगी। एक बात और कमलनाथ जिस तरह त्वरित ठोस निर्णय अपने घोषण पत्र का जो भाग है दिये जा रहे है निश्चित रूप से यदि चली तो उपरोक्त भाजपा के कर्णधारो के माथे पर तल सिलवटंे आना अवश्यंभावी है।

बुधवार, 19 दिसंबर 2018

स्वतंत्रता के 70 सालों के पश्चात भी क्या यही ‘‘परिपक्व’’ लोकतंत्र है?

पाँच राज्यों के चुनाव परिणाम आ गये हैं। चुनाव पूर्व का ‘‘ओपीनियन पोल’’ तुरन्त चुनाव बाद का ‘‘एक्जिट पोल’’ व  अब ‘‘वास्तविक परिणाम’’ आपके सामने है। मैं यहाँ पर परिणामों का विश्लेषण नहीं कर रहा हूूंँ। ये सब ‘‘पोल’’ अनुमान के कितने नजदीक थे, सही थे, या आश्चर्य जनक थे, इस संबंध में भी कोई विशेष मूर्धन्य़ विवेचना अभी नहीं कर रहा हूँ,। इस संबंध में आपने अब तक कई लेख पढे़ होगें। मैं यहाँ पर इस चुनाव में उस जनता की इस चुनावी प्रक्रिया में भाग लेने के आचार-विचार व मतदाता के हाव भाव पढ़ने और उसका सही आकलन करने का गंभीर प्रयास कर रहा हूँ, जिस पर आपके विचार भी सादर आमंत्रित है। 
इस चुनाव में प्रदेश के चुनावी क्षेत्रों में जब मैं घूमा, तब मुझमें यह ऐहसास जागा कि क्या यह सही वास्तविक लोकतंत्र है? क्या यह वही लोकतंत्र हैं, जिसकी शान में हम पूरे विश्व में अपनी पीठ थपथपाते नहीं थकते हैं। सही लोकतंत्र का वास्तविक मतलब तब ही सार्थक माना जा सकता हैं, जब चुनाव के दौरान प्रत्येक मतदाता तात्कालिक रूप से निर्मित की गई एक छलावा पूर्ण भ्रम की स्थिति से प्रभावित हुये बिना पिछले पांच सालों के स्वयं के उम्मीदवार के प्रति अनुभव तथा  उम्मीदवार व पार्टी की कार्यकुशलता व कार्य क्षमता के आधार पर सही पार्टी व व्यक्ति (उम्मीदवार) का चुनाव कर सकें। लेकिन यथार्थ में कई बार ऐसी विरोधाभासी परिस्थिति निर्मित हो जाती है, जब पार्टी व उम्मीदवार के संबंध में परस्पर विपरीत विचार भाव व आकलन की स्थिति बन जाती  है। तब ऐसे में मतदाता के सामने एक दुविधा पूर्ण स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि वह पार्टी को चुने या व्यक्ति (उम्मीदवार) को। यदि वह पार्टी को चुनता हैं तब उसका उम्मीदवार उसकी नजर में खरा नहीं उतरने के कारण अगले पांच वर्षो के लिये उसकी नजर में वह अनुपयुक्त सिद्ध होता है। फिर भी, उसके पास कोई विकल्प नहीं रहने के कारण पार्टी को चुनने के परिणामतः वह ‘अनुपयुक्त’  उम्मीदवार के पक्ष में मत देता है। ठीक इसके विपरीत योग्य व सही व्यक्ति के अनुपयुक्त पार्टी का उम्मीदवार रहने की स्थिति में उसकी गलत पार्टी को चुनने की मजबूरी बनी रहेगी।  
प्रत्येक स्थिति में मतदाता एक गलत उम्मीदवार अथवा पार्टी को चुनने के लिए मजबूर होगा जिसके कारण आने वाले पांच वर्षो के कार्यकाल के लिए अपनी उम्मीदों की पूर्ति न हो पाने की जोखिम उसे उठानी पड सक़ती हैं। हमारे लोकतंत्र में इस प्रकार की कोई सटीक व्यवस्था नहीं है कि मतदाता सही पार्टी एवं सही उम्मीदवार दोनो का एक साथ चयन कर सके। वर्तमान व्यवस्था के तहत आम चुनाओं में कई बार व्यक्तिगत निष्ठा के आधार पर मतदाता चुनाव करता है जिसके परिणाम स्वरूप या तो लोकप्रिय पार्टी सत्ता से बाहर हो जाती है अथवा गलत उम्मीदवार चुन लिया जाता है।
बात यही तक सीमित नहीं रह जाती है। लोकतंत्र के सिक्के का दूसरा पहलू स्वयं मतदाता का लोकतंत्र की परीक्षा में खरा उतरना भी है। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में मतदाता को एक पूर्ण आदर्श व्यक्ति मान लिया गया है, जो गलत है। वर्तमान चुनावी व्यवस्था में यह मानकर चला गया है कि प्रत्येक मतदाता स्वविवेक से, संपूर्ण ईमानदारी पूर्वक, बगैर किसी लोभ लालच अथवा या बाहुबल का भय, समाज व प्रदेश के हित में तथा उनके सतत विकास के लिये ही लोकतंत्र को मजबूत करने के लिये अपने मतदान का प्रयोग करेगें। यह एक आदर्श अवधारणा एवं अनुमान है, जो होना भी चाहिये। परन्तु वास्तविकता में क्या मतदाता इन सभी अपेक्षाओं की पूर्ति करता है? अधिकांश मामलो में आज भी इसका उत्तर नहीं ही होगा। क्या यह अधिकार उस उम्मीदवार के पास भी नहीं होना चाहिए कि वह अपने मतदाता से उसी ताकत से वे प्रश्न पूछे जो मतदाता उससे पूछता रहा है? यही लोकतंत्र का वास्तविक खतरा भी हैं।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में चरित्र, ईमानदारी, भयमुक्त भष्ट्राचार रहित सर्वधर्म-सर्व समाज व्यवहार का उत्तरदायित्व क्या केवल उम्मीदवार का ही है, और मतदाता को केवल इस विषय में अनेकानेक प्रश्न करते रहने का अधिकार ही होना चाहिए? क्या मतदाता का कोई दायित्व नहीं होना चाहिय? क्या उम्मीदवार को भी मतदाता से उपरोक्त बातों के लिये सवाल पूछने व उस पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगाने का अधिकार तथा राज्य व राष्ट्र के हित में अपेक्षा करने का अधिकार नहीं होना चाहिए? इसीलिए मेरे जेहन में यह ज्वलंत प्रश्न उत्पन्न हुआ कि हमारा लोकतंत्र इन 70 सालो में क्या परिपक्व हो गया है?   
एक बात और! सामान्य रूप से मतदाता इस भाव से मत देता है कि वह उम्मीदवार पर कोई उपकार कर रहा है, साथ ही वह उसके प्रतिफल में कुछ पाने की चाह भी रखता है। वह लोकतंत्र के महायज्ञ मंे मत डालना मात्र अपना कर्तव्य नहीं मानता है। इसीलिए आज भी हमारा लोकतंत्र संपूर्ण रूप से परिपक्व नहीं हैै बल्कि वास्तविक दृष्टि में धरातल पर अधूरा है।
‘‘लोक’’ व ‘‘तंत्र’’ को मिलाकर ‘‘लोकतंत्र’’ तो बन गया। लोगो को मतदान का अधिकार भी मिल गया। लेकिन वर्तमान में ‘‘तंत्र’’ ने ‘‘लोक’’ को सामान्यतया भ्रष्ट आचरण की ओर धकेल दिया। इसीलिए प्रदेश व देश के गौरवशाली भावना पूर्ण तथ्य से लबालब वास्तविक लोकतंत्र अभी तक नहीं बन पाया। यह वास्तविकता है, जो हमने चुनाव में देखी है। आज भी लोग विशेष जाति, वर्ग, धर्म व क्षेत्र एवं समाज के आधार पर दबाव, ड़र व लालच पूर्ति से वोट देते है। धनबल और बाहुबल एवं व्यक्तिगत द्वेष, भविष्य के स्वार्थ की आशा व कल्पना में वोट देने को मजबूर होते है। 
क्या लोकतंत्र तभी स्वस्थ्य नहीं होगा, जब मतदाता सिर्फ और सिर्फ अपने स्वविवेक से अपने मन की बात को निष्पक्ष रूप से ईवीएम मशीन की बटन दबाकर व्यक्त कर सकंे। चुनाव के दौरान ऐसी परिस्थति बनी रहे जहाँ मतदाता को अनैतिक व गैर कानूनी रूप से प्रभावित न किया जा सके। कुल मिलाकर आदर्श मतदान करने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी मतदाता की हो व यह स्थिति बनाने का उत्तरदायित्व सिर्फ और सिर्फ मतदाता का ही है, जब तक मतदाता से स्पष्ट आदर्श व्यवहार नहीं मिल जाता हैं तब तक मतदाता द्वारा चुने गये उम्मीदवार को भी ‘‘मतदाता’’ पर उंगली उठाने का अधिकार होना मान्य किया जाना चाहिए। 
पूर्व में राजतंत्र के समय एक कहावत प्रचलित थी ‘‘यथा राजा तथा प्रजा’’। चूंँकि वर्तमान में लोकतंत्र में ‘‘प्रजा’’ ही ‘‘राजा’’ ‘‘(नेता)’’ की चुनती है, अतः वर्तमान में उक्त कहावत का स्वरूप बन गया है ‘‘यथा प्रजा तथा राजा।’’ (नेता) इसलिए जब तक प्रजा अपने आप को हर प्रकार से स्वच्छ नहीं बना लेती तब तक केवल नेता पर दोषारोपण करते रहने का कितना/क्या औचित्य? एक नागरिक व मतदाता होने के नाते प्रत्येक का यह कर्तव्य है कि वह इस पर गहनता से विचार कर स्वयं का आत्मविश्लेषण करे, तभी सार्थक व परिपक्वता की ओर बढ़ता हुआ लोकतंत्र स्थापित हो पायेगा। 
याद कीजिये राहुल गांधी का वह कथन जिसके द्वारा उन्होने 7.50 लाख कार्यकर्ताओं से ‘‘शक्ति एप’’ के माध्यम से तीनो प्रदेशो के मुख्यमंत्री चुनने में राय माँगी थी, यह कहकर कि आपकी राय सिर्फ मुझे (राहुल) ही मिलेगी किसी अन्य को बिलकुल जानकारी नहीं होगी। इस कथन के पीछे क्या वह ड़र व भय नहीं हैं जिसकी मैं यहाँ चर्चा कर रहा हूँ? क्या यह डर या भय स्वतंत्र लोकतंत्र के लिये ठीक बात है? जब पार्टी के कार्यकर्तागण बिना ड़र व भय के हमेशा पार्टी के लिये न केवल कार्य कर स्वयं का मत देते है बल्कि दूसरो को भी समझाइश देते है। तब यह ‘‘खुलापन’’ मतदाताओं के साथ व उनके द्वारा क्यों नहीं होना चाहिये मेरी लोगो को जागरूक करने की फिलहाल यही महती मुहिम इस लेख के द्वारा है। 

शनिवार, 15 दिसंबर 2018

राहुल गांधी का ‘एप’ के माध्यम से मुख्यमंत्री चुनना! जनादेश का अपमान नहीं?



पाँच प्रदेशों में हुये विधानसभा चुनावों में तीन विधानसभाओं में कांग्रेस सरकारें बनने जा रही है। कांग्रेस पार्टी द्वारा तीन प्रदेशों में मुख्यमंत्री चुनने की प्रक्रिया की औपचारिकताओं की (औपचारिक) पूर्ती की जाकर विधायक दल द्वारा अंतिम निर्णय लेने का अधिकार परम्परा अनुसार हाई कमान अर्थात राहुल गांधी को दे दिया है। इसके साथ ही मुख्यमंत्री चुनने के लिए राहुल गांधी ने ‘‘शक्ति एप’’ के माध्यम से कांग्रेस कार्यकर्ताओं की राय अलग से माँगी हैं। लेकिन अभी तक निर्णय नहीं हो पाया हैं। इस तरह एक ओर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को एक कदम आगे बढ़ाने के आर्कषित करने वाले राहुल गांधी के इस कदम से दूसरी ओर इससे कही संवैधानिक लोकतंत्र की हत्या तो नहीं हो रही है? प्रश्न यह पैदा होता हैं। ईवीएम के बदले ‘‘शक्ति एप’’ के द्वारा मुख्यमंत्री चुनने की प्रक्रिया क्या सही हैं? कहीं यह दिखावा मात्र तो नहीं है? प्रश्न यह भी है? 
भारतीय लोकतंत्र की संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद विधायक दल की बैठक बुलाकर पार्टी विधायकों द्वारा नेता का निर्वाचन किया जाता है। इस तरह चुने गए बहुमत वाली पार्टी या गठबंधन का सरकार बनाने का दावा पेश करता हैं। अर्थात नवनिर्वाचित विधायक दल ही मुख्यमंत्री चुनता है। फिर चाहे वह विधायक दल के बाहर के व्यक्ति को क्यों न नेता चुन ले। लेकिन संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि चुनाव परिणाम धोषित हो जाने के  बाद कार्यकर्ता (मतदाताओं) का एक बड़ा समूह (विधायक दल के बाहर के व्यक्ति) मुख्यमंत्री चुनने के लिये अपनी राय प्रथृक से दे सकें। जनता द्वारा अपने विधायक प्रतिनिधि का चुनाव कर देने के बाद विधायक का मत ही उस क्षेत्र की जनता का मत माना जायेगा। इस तरह चुने गए विधायकांे के द्वारा मुख्यमंत्री चुनना ही संवैधानिक प्रक्रिया व प्रचलित पद्धति हैं।
शायद, राहुल गांधी, केजरीवाल (जिन्होने जनता के सीधे मतो द्वारा उम्मीदवार चुनने से लेकर अन्य कई मामले में यह पद्धति अपनाई) के समान भारतीय लोकतंत्र को एक कदम और आगे ले जाना चाहते है। जहाँ वह अपने कार्यकर्ताओं की लोकतांत्रिक रूप से प्रत्यक्ष दिखने वाली भागीदारी मुख्यमंत्री चुनने में करना चाहते है। सिद्धान्त स्वरूप यह बात बड़ी अच्छी व आर्कषक लगती है। लेकिन भविष्य में इसके अवांछित परिणाम क्या हो सकते है इस पर गंभीरता से विचार करने कीं आवश्यकता है।
मान लीजिये एक ओर राहुल गांधी को मध्यप्रदेश के मामले में कार्यकर्ताओं का मत सिंधिया के पक्ष में मिलता है, परन्तु दूसरी ओर बैठक विधायक दल कमलनाथ के पक्ष में मत देता हैं तब राहुल गांधी क्या करेगें? यदि वे कार्यकर्ताओं के मत को मानते हुये सिंधिया को चुन लेते है तो इस प्रकार क्या उस जनादेश का अपमान नहीं होगा जिसमें नवनिर्वाचित विधायकगणों ने अपना बहुमत कमलनाथ के पक्ष में दिया है। इसके विपरीत कमलनाथ को चुन लेने की दशा में राहुल गांधी को क्या कार्यकर्ताओं की राय की अवेहलना नहीं करना पड़ेगा। तब इस तरह अलग से उनकी राय लेने का औचित्य क्या रह जायेगा। राहुल गांधी का उक्त प्रयास क्या इस तरह मात्र एक जुमला बनकर नहीं रह जायेगा?

Popular Posts