शनिवार, 28 दिसंबर 2019

(दीदी) ममता के प्रति ‘‘ममता’’ खत्म करने का अवसर क्या अब नहीं आ गया है?

सीएए और एनआरसी पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री सुश्री ममता बनर्जी का बयान कि ‘‘इस मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र संघ की निगरानी में जनमत संग्रह कराया जावें,’’ यह न केवल हास्यास्पद बयान है, बल्कि देश की संघीय व संवैधानिक व्यवस्था को चोट पहंुचाने वाला तथा देश की संप्रभुता पर एक चिंता पैदा करने वाला कथन है। देश की स्वतंत्रता के बाद से अभी तक का देश का सबसे विवादित, चर्चित मुद्दा मुख्य रूप से जम्मू-कश्मीर का ही रहा है। सिवाएँ कतिपय अलगाववादी, आंतकवादी तत्वों को छोड़कर, भारत के संविधान में विश्वास रखने वाले कश्मीरयों तक ने कश्मीर के मुद्दे पर जनमत संग्रह कराने की माँग कभी भी नहीं की। ममता बनर्जी के संवैधानिक पद पर आरूढ़ रहते हुये संविधानोत्तर, परे, बयान पर कुछ राजनैतिक आलोचनाओं के अलावा देश में वैसी प्रखर प्रतिक्रिया नहीं हुई, जैसी यथार्थ देशहित में होनी चाहिये थी। भारत सरकार द्वारा भी अभी तक इस पर कोई अधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं दी गई, न ही उसे अनुचित व गैर संवैधानिक ठहराया गया है तथा उक्त बयान पर कार्यवाही करने के कोई संकेत भी नहीं दिये गये। यद्यपि भाजपा खासकर पश्चिम बंगाल भाजपा ने अवश्य उक्त बयान की आलोचना की है। मीडिया से लेकर बुद्धिजीवी वर्ग भी जो सीएए पर तीव्र प्रतिक्रिया दे रहे है, उक्त बयान पर उतने सक्रिय व मुखर नहीं दिखे। ममता बनर्जी के इस बयान को न तो नागरिक की हैसियत से और न ही संवैधानिक पद मुख्यमंत्री की हैसियत से किसी भी रूप से संवैधानिक, वैधानिक नैतिक या किसी भी तरह से देशहित में नहीं कहा जा सकता है। 
आखिर! जनमत संग्रह का अधिकार किसके पास है, व इसे कब व कैसे लागू किया जा सकता है? तनिक इसे भी समझने का प्रयास किया जाना चाहिए। जनमत संग्रह ‘‘मत संग्रह’’ या वह जनमत है, जो प्रत्यक्ष मतदान के द्वारा किसी विशिष्ट प्रस्ताव पर जनता की राय ली जाती है। संक्षिप्त में इसे प्रत्यक्ष लोकतंत्र का एक रूप ही कहा जा सकता है। जहाँ लोकतांत्रिक देशों में चुनाव के द्वारा विधायिका के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से शासन किया जाता है, वहाँ सामान्यतया प्रत्यक्ष रूप से किसी भी मुद्दे पर जनमत संग्रह करने की आवश्यकता नहीं होती है। जब-जब जनादेश द्वारा चुनी हुई सरकार निर्णय लेती है तो, उसे जनमत संग्रह के बराबर ही माना जाता है। इसके बावजूद यदि चुनी हुई जनादेश प्राप्त सरकार किसी मुद्दे पर जनता का विचार जानना चाहती है व स्वयं निर्णय लेने के लिये अपने को पीछे खींचती है, तब उस मुद्दे पर जनमत संग्रह कराने का अधिकार उसके पास होता है। लेकिन विरोधी पक्ष को कोई भी संवैधानिक, वैधानिक या कानूनी अधिकार नहीं है कि, वह किसी मुद्दे पर चुनी हुई सरकार से जनमत संग्रह करने की मांग कर मानने के लिये सरकार को बाध्य करें, मजबूर करें। यद्यपि विपक्ष अपने तई स्वतः जनता के बीच किसी भी मुद्दे को जनमत संग्रह कराने के लिये ले जा सकता है, आंदोलन कर शासन पर दबाव बना सकता है। लेकिन सरकार यदि सहमत नहीं है तो, वह जनमत संग्रह की मांग को अस्वीकार कर सकती है, जो उसका विशेषाधिकार है। लोकतांत्रिक देश में शासन चलाने की यही स्थापित प्रकिया है। लेकिन यदि लोकतंत्र प्रत्यक्ष प्रणाली से चलाया जाता है, जो श्रेष्ठतर माना जाता है तो, उसकी तीन स्टेज प्रथम इनियशेन (शुरूवात) द्वितीय जनमत संग्रह व तीसरी वापस बुलाने का अधिकार होती है जो कि ‘अन्ना’ आंदोलन के मुख्य बिन्दु भी रहे है। 
लेकिन यदि किसी देश में लोकतंत्र परिपक्व नहीं है, या तानाशाही है, राजशाही है या सीमित लोकतंत्र है तो, वहाँ पर किसी भी मुद्दे पर जनमत संग्रह कराया जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ की निगरानी में और सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव के अनुसार भी किसी भी देश में किसी मुद्दे पर जनमत संग्रह करा सकता है। अभी हाल ही में इंग्लैण्ड में यूरोपियन यूनियन से अलग होने के लिये जनमत संग्रह (रायशुमारी) कराई गई थी। जुनागढ़ रियासत के भारत में विलय के समय भी जनमत संग्रह कराया गया था। लेकिन दीदी! याद रखिये, वह जनमत संग्रह संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वाधान में नहीं किया गया था। इसलिए यह समझने का प्रयास किया जाना चाहिए कि ममता दीदी जाने अनजाने में क्या कह गई? देश की सार्व-भौमिकता पर प्रश्नचिन्ह लगा कर देश के साथ-साथ स्वयं को भी कठघरे मे खड़ा कर गई, जिसकी उपेक्षा किया जाना कदापि उचित नहीं होगा।    
लगता है, ममता बनर्जी यह तथ्य भूल गई है कि, जिस संविधान के अंतर्गत स्थापित लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत हुये आम चुनावों में प्रचड़ बहुमत प्राप्त कर केन्द्रीय सरकार ने सीएए बिल संसद में पारित कर अधिनियम बनाया है। उसी प्रक्रिया के तहत ममता दीदी भी बहुमत प्राप्त कर मुख्यमंत्री बनी हुई हैं, जिसके कारण से प्राप्त हैसियत से ही उनने उक्त बयान दिया है। क्या ममता दीदी जनमत संग्रह के उक्त सिंद्धान्त को स्वयं पर भी लागू करने का साहस दिखा सकेगी? क्योंकि जब वह लोकतांत्रिक तरीके से पारित नागरिक संशोधन अधिनियम को अलौकतंात्रिक व अवैधानिक मान कर अंतर्राष्ट्रीय संस्था की निगरानी में जनमत संग्रह कराना चाहती है। तब इसी आधार पर दीदी के विरोध में हो रहे आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में ममता के खिलाफ जनमत संग्रह पश्चिम बंगाल के बाहर किसी निष्पक्ष संस्था के नियंत्रण में क्यों नहीं कराया जाना चाहिए? ममता की उक्त मांग का सही व सटीक उत्तर यही होगा, तभी इस तरह की गैर संवैधानिक बयानांे की रोक व उनका पटाक्षेप हो पायेगा। 
इसलिये अब समय आ गया है कि केन्द्रीय सरकार ममता के प्रति अपनी ममता (ममत्व, प्रेम)  समाप्त कर उक्त बयान से उत्पन्न संवैधानिक संकट पैदा होने के कारण ममता सरकार को तुरंत बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू करें। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल का हालिया यह बयान बहुत महत्वपूर्ण है कि, राज्य में कानून व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है। यही बात केन्द्रीय मंत्री (पश्चिम बंगाल से चुने गये सांसद) भी कह रहे है। फिर भी! राज्यपाल इस आधार पर राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश केन्द्र को नहीं भेज रहे है, क्यों ? राष्ट्रपति शासन लगाने के पश्चात ममता बनर्जी की सरकार के कार्य प्रर्दशन व उनके द्वारा उठाये गये मुद्दे पर पश्चिम बंगाल के बाहर स्थित निष्पक्ष संस्था के द्वारा जनमत संग्रह कराया जाये तभी ममता को अपनी गलती का एहसास हो सकेगा। कहा भी गया है ‘‘लोहा ही लोहे को काटता है’’। 
अतः इस तरह के ऐसे बयान पर यदि तुरंत कार्यवाही नहीं की जाती है, तो निश्चित मानिये, देश के दूसरे भागों में भी जहां देश को तोड़ने वाली शक्तियां तथाकथित मानवाधिकार, नक्सलवाद, जातिवाद के आधार पर जो देश के विभिन्न स्थानों पर जब कभी भी आंदोलन को उकसाते रहती है, उन्हे भी अपनी गैर जायज मांगांे को सामने लाने के लिये इससे प्रोत्साहन मिलेगा, जिसे निरूत्साहित किया जाना देश हित में आवश्यक है।

गुरुवार, 12 दिसंबर 2019

आखिर! ‘न्याय’-‘इंसाफ’! इंसानियत एवं ‘न्यायप्रिय’ तरीके से ‘कैसे’ व ‘कब’ मिलेगा। ‘‘जन भावनाओं’’ से ‘‘न्याय व्यवस्था’’ नहीं ‘‘लोकतंत्र’’ चलता है।

6 दिसम्बर सुबह जैसे ही टीव्ही पर हैदराबाद की रेप पीडि़ता ‘‘दिशा’’ की वीभत्स हत्या के चारों अभियुक्तों के एनकाउंटर में मारे जाने की खबर आयी, लगभग पूरे देश में एक अजीब सी खुशी का माहौल पसर गया। तब से चारांे तरफ अधिकांश खुशी ही खुशी व्यक्त करते हुये एक ही आवाज आ रही है कि ‘‘इंसाफ’’ मिल गया है। देश में विद्यमान राजनैतिक परिस्थितियों को देखते हुये, ऐसे बहुत कम अवसर आये है, जब युद्ध को छोड़कर किसी अन्य मुद्दे/घटना पर कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, प्रशंसा के स्वर लिये हुये सहमति की एकमतता सी दिख रही हो।  
हैदराबाद पुलिस पर पिछले नौ दिनों से प्रश्नचिन्ह व तेलंगाना के मुख्यमंत्री के.चंद्रशेखर.आर. के द्वारा वीभत्स घटना पर 3 दिन बाद देरी से दी गई प्रतिक्रिया पर तंज करने वाले लोग भी एनकाउंटर के बाद अब उनके प्रशंसक बन गये हैं। बच्चों से लेकर बूढे़ं तक, मानवाधिकारों के कुछ पैरोकारों से लेकर विभिन्न राजनैतिक दल के नेतागण और विधानसभा व संसद में कानून बनाने वाले सांसद, विधायकगण तक प्रायः सभी पुलिस बल को शाबासी दे रहे है। उनकी तारीफों के कसीदे गढ़े जा रहे हैं, उनका जिंदाबाद कर रहे है, अभिनंदन किया जा रहा है, धन्यवाद कहा जा रहा है, उन पर फूल बरसायें जा रहे हैं आदि इत्यादि। इतना ही नहीं, हैदराबाद पुलिस के इस कृत्य को माडल बनाकर अन्य प्रदेशों के पुलिस बल को ऐसे ही कार्य करने हेतु उत्प्रेरित करने के उद्देश्य से परोसा भी जा रहा है।इस प्रकार एक संवैधानिक, वैधानिक, कानूनी प्रक्रिया को पूरा किये बिना, जनता के मॉब लिचिंग (जिस पर उच्चतम न्यायालय पूर्व में अपनी कड़ी नाराजगी भी दर्ज कर चुका है) के कृत्य के समान ही एनकाउंटर की इस घटना को कही कानूनी जामा पहनाने का प्रयास तो नहीं किया जा रहा है? अभी तक जिन हाथों को कानून से बंधा हुआ कहा जाता रहा है, उन्हे कानूनी बंधन से पूर्णतः मुक्त कर दोनों हाथों ंसे ताली बजाकर जिंदाबाद के नारे लगाये जा रहे हैं। वर्तमान आपराधिक न्याय व्यवस्था के अंतर्गत हमेशा प्रश्नों में रहने वाली आज की पुलिस की जांच व्यवस्था व कार्यप्रणाली तथा न्याय देने के लिये लम्बा समय खपाने वाली कानूनी व्यवस्था सउत्पन्न घोेर निराशा, जो लम्बे समय से चली आ रही है, के चलते अचानक की गई उक्त त्वरित कार्यवाही (तथाकथित न्याय) से उत्पन्न प्राप्त खुशी का इजहार, क्या वर्तमान व्यवस्था पर यह एक चोट, पूर्णतः अविश्वास व उसका नकारापन नहीं है?आगे इस विश्लेषण को बढ़ाने के पूर्व हुयी एनकाउंटर की चर्चा कर लंे। निश्चित रूप से एनकाउंटर  पुलिस बल का आत्मसुरक्षा का वह अधिकार है, जिस प्रकार देश के प्रत्येक नागरिक (व्यक्ति) को धारा 96 भारदीय दंड संहिता के अंतर्गत कानूनी रूप से आत्म-सुरक्षा का अधिकार प्राप्त होता है। एनकाउंटर तभी सही ठहराया जा सकता है, जब पुलिस पार्टी की स्वयं की जान पर खतरा इतना हो जाये कि आरोपियो को मारे बिना स्वयं की ही जान बच नहीं पायेगी। प्रश्न फिर वही है? क्या इस प्रकार से अंजाम दिया गया एनकाउंटर भी पुलिस पार्टी की आत्मरक्षा के अधिकार की परिधि में आने के कारण उनके कर्तव्य बोध को ही प्रदर्शित कर रहा है? एनकाउंटर की एक निश्चित प्रक्रिया है, जिसे उच्चतम न्यायालय ने काफी समय पूर्व ही दिये अपने एक निर्णय में निश्चित की हुई है। तदनुसार मजिस्ट्रियल, मानवाधिकार आयोग तथा सीबीआई भी उक्त प्रकरण की सीधे जांच करेगी। पुलिस पार्टी को विभिन्न जांच एजेंसीयों को सैकड़ो प्रश्नों का जवाब प्रथम दृष्टया (संभावित) अभियुक्तों के समान देना होगा। अपने जवाब व साक्ष्य से समस्त जांच एजेंसीयों को संतुष्ट करना होगा। तभी पुलिस बल अपने को निर्दोष सिद्ध कर पायेगें। पहले भी एनकाउंटर में हुई हत्या के कई मामलों में पुलिस बल पर जांच के बाद हत्या के मुकदमे चले हैं, व चल रहें है।पुलिस ने तुरंत पत्रकार वार्ता न करके सायं 3.30 बजे के बाद पत्रकार वार्ता (जिस देरी पर प्रश्नचिन्ह लगना लाजमी भी है) द्वारा एनकाउंटर की घटनाक्रम का सिलसिलेवार विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया। फिर भी, एनकाउंटर की इस घटना पर कुछ सवाल तो अवश्य उठते हैं। पुलिस पार्टी द्वारा घटना का ‘‘रीक्रियेशन’’ (जो उनका अधिकार एवं दायित्व भी है) इतनी भोर सुबह (3.30 बजे के लगभग) करना क्या अति आवश्यक था। यद्यपि पुलिस के पास यह मजबूत तर्क है कि पूर्व में अभियुक्तों को दिन में न्यायालय में ले जाते समय जन भावना भड़की थी। दूसरा एक अभियुक्त के हाथ में लाठी थी, वह कैसे और कहां से आई? क्योंकि पुलिस का यह कथन है कि एक अभियुक्त ने फोर्स से पिस्टल छीनी (लाठी नहीं)। क्या अभियुक्तों द्वारा प्रयोग किया गया बल पुलिस बल के जीवन के लिए इतना घातक था कि उन्हे ढ़ेर करने के अलावा कोई अन्य विकल्प ही नहीं बचा था? यदि अभियुक्त भाग रहे थे, जैसा कि दावा किया गया है, तो कमर के नीचे गोली क्यों नहीं मारी गई? क्या चारों अभियुक्तों में से किसी को भी कमर के नीचे एक भी गोली लगी? पोस्टमार्टम रिपोर्ट आने के बाद ही सही स्थिति स्पष्ट होगी। तीसरा आज की परिस्थितियों में समस्त आरोपो से बचने के लिए सामान्यतः विडियों रिकार्डिंग की जाती है, जो शायद नहीं की गई, क्यों?यह एनकाउंटर नहीं था। सामान्यतः एनकाउंटर में आमने-सामने मुठभेड़ होती हैं। यहां तो आरोपीगण जिन्हे पुलिस द्वारा न्यायिक अभिरक्षा से पुलिस अभिरक्षा में लिया गया था, जिसकी सुरक्षा की पूर्ण जिम्मेदारी पुलिस बल की ही थी। तब जहां पुलिस बल को समस्त आवश्यक सुरक्षा बरतनी चाहिए थी, वह क्यो नहीं बरती गई? पुलिस कस्टडी में अभियुक्त / आरोपी पर मुकदमा चलने के बाद अपराध सिध्द होने के बाद ही वे अपराधी कहलाते हैै और हमारी न्यायव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण सिध्दांत यह भी है कि कोई दोषी भले ही छूट जाये लेकिन निर्दोष को सजा न हो। ऐसी अवस्था में प्रश्न यह किया जा सकता है कि यह एनकाउंटर न होकर काउटिंग (गिनकर)  मार गिराने की घटना तो नही है? पुलिस कस्टड़ी में पुलिस द्वारा एनकाउंटर का शायद यह पहला उदाहरण है। इससे भी बड़ा सवाल यह है कि यदि यह एनकाउंटर सही है, जैसा कि पूरा देश भी प्रायः मान रहा है। तब हमारे देश की विद्यमान कानून  पुलिस व न्यायपालिका के ढ़ाचे व कार्यप्रणाली कोे देखते हुये उक्त जघन्य घटना के के अभियुक्तों को (जिन्हे अभी अपराधी भी मान ले) तोे इतनी जल्दी फांसी नहीं मिल सकती थी, आज उत्पन्न खुशी का तत्कालिक कारण शायद यही है। लेकिन इसे मात्र ‘‘एक अपवाद माना जाय’’ ऐसा किसी भी प्रंशसक ने क्यो नहीं कहा? जनमानष की यह दशा देश की चिंताजनक वीभत्स स्थिति की ओर इंगित करती है। प्रायः प्रत्येक व्यवस्था में अपवाद अवश्य होते है। इस घटना को अपवाद मानकर भविष्य के लिये इससे सबक लेकर व्यवस्था (सिस्टम) की कमियों में आमूलचूल परिर्वतन करें, तभी यह अपवाद प्रेरक सिद्ध हो सकता है, क्योंकि अपवाद बार-बार नहीं होते है।आज के पढे लिखे युग में संवैधानिक रूप से परिपक्व अपने लोकतांत्रिक देश में क्या इस तरह न्यायार्पण की प्रक्रिया को स्वीकार कर सकते है? हमारी सोच व बौद्धिक स्थिति किस स्तर पर पहुच गयी है, जहां संवैधानिक व्यवस्था के तहत एक निश्चित समय सीमा में न्याय न कर पाने की असफलता के कारण अभियुक्त (अपराधी नहीं) को एक गैर कानूनी तरीके से न्याय प्रदान करना, क्या भविष्य के लिये यह खतरे की घटीं नहीं है? तब क्या एनकाउंटर द्वारा सजा देने को कानून का भाग बना नहीं देना चाहिए? यदि वास्तव में जांच पश्चात एनकाउंटर सही भी पाया जाता है तो भी, इसे पुलिस की आत्मरक्षा का कार्य माना जावेगा। पुलिस का कार्य न्याय देना नहीं वरण अपराध की गहरी विवेचना व जांच कर सत्य को न्यायालय के सामने लाकर अभियुक्त को “सजा देना नहीं दिलाना“ है। अभियुक्तों को दंड देने का यह तरीका सभ्य समाज में नहीं हो सकता है, जैसा कि जन भावनाओं से व्यक्त हो रहा है। जन भावनाओं से न्याय व्यवस्था नहीं बल्कि लोकतंत्र चलता है, वह भी संवैधानिक सीमा के भीतर। इस मामले में मेनका गांधी का यह बयान काफी सामयिकी है कि घटना को इस तरह अंजाम देने से देश में गुंड़ाराज आ जायेगा।एनकाउंटर की घटना के तुरंत बाद अवाम में जो त्वरित प्रतिक्रिया हुई हैं, उसे हम यदि देश की आवाज-मांग व भावना माने-समझें यदि हमें एनकाउंटर को संवैधानिक जामा नहीं पहनाना है, तो फिर ऐसी पुर्नावृत्ति को रोकने के लिये बलात्कार के बाद हत्या जैसे घृणित अपराध को सजा के अंजाम तक पहुंचाने के लिये अल्प समय की अधिकतम सीमा 30 से 60 दिन जिसमें अभियुक्त का ट्रायल (मुकदमें) से लेकर अंतिम अपील उच्चतम न्यायालय व दया याचिका का निर्णय करने का समय भी शामिल हो, निश्चित कर अपराधी को फांसी पर लटका देने हेतु कानून बनाना अब समय की उत्कृष्ट मांग है। देश की न्यायप्रणाली का आधार भी यही है कि न्याय में देरी न्याय में अन्याय  है। तभी शायद इस तरह केे एनकाउंटर नहीं होगें व देश का अवाम भी कानून व नियम का पालन करता रहेगा, दिखेगा। अन्यथा पुलिस एनकाउंटर व मॉब लिचिंग में अंतर क्या रह जायेगा। राष्ट्रपति की भी क्षमा याचना पर निर्णय देने की की समय सीमा तय करने की आवश्यकता है, जो अभी तक नहीं हैं। अभी भी सजायाफ्ता का अंतिम निर्णय हो जाने के बावजूद राष्ट्रपति के पास कई क्षमा याचिकाएँ काफी समय से लम्बित हैं। राष्ट्रपति का उक्त घटना के बाद आया हालिया बयान अपूर्ण है, जहां उन्होंने केवल पास्को अधिनियम के अंतर्गत क्षमा याचिका के प्रावधान को समाप्त करने का सुझाव दिया है।कानूनन् धारा 164 के अंतर्गत मजिस्टेªट के समक्ष गवाहों द्वारा दिये गये बयानों को स्वीकृत साक्ष्य माना जाता है। तब धारा 164 का क्षेत्राधिकार बढ़ाकर पुलिस के समक्ष अपराध को स्वीकार करने वाले अभियुक्त के दिये गये बयान को मजिस्टेªट के समक्ष लेकर, उसे ही अंतिम ( पूर्ण ) मानकर उसे क्यों सजायाफ्ता घोषित न कर दिया जाय? ऐसा संशोधन करके न्याय तंत्र का काफी समय बच सकता है। वैसे भी ब्रिटिश शासन के जमाने का वर्ष 1861 का पुलिस अधिनियम व भारतीय दंड संहिता वर्ष 1860 में आमूलचूल परिर्वतन कर पुलिस की जांच प्रक्रिया व अपराध को वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार परिभाषित कर कानून बदल लेना चाहिये।एक बात और! कानून के द्वारा ड़र-दहशत व बदले की भावना की “सत्ता“ स्थापित कर क्या ऐसे बदषी अपराधों को रोका जा सकता है? शायद नहीं। याद कीजिये! निर्भया कांड के बाद कितने नये कड़क कानून बनाये व वर्तमान कानून में कितने नये कड़क प्रावधान किये गये, लेकिन फिर भी एक के बाद एक निर्भया कांड होते जा रहे है। इसलिए कड़क कानून व कड़क सजा के साथ-साथ सजा देने के तरीके को भी घटना की वीभत्सता के अनुरूप ही वीभत्स बनाना होगां। तब शायद अपराधी के मन मेें सजा के तरीके का खौफ पैदा हो सकता है, जो शायद उसे अपराध करने से रोक सकता है। इन सब सुझावों के साथ यदि वास्तव में ऐसे घृणित अपराधो को रोकना है तो, लोगों की घृणित व विकृत मानसिकता खासकर महिलाओं के प्रति उनके दृष्टिकोण को बदलने के लिये लगातार नैतिक शिक्षा की एक पीरियेड छात्रों सहित नागरिकों को पढ़ाना होगा, पढना होगा।अन्त में वैसे क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि ‘‘बापू’’ के देश में जब “महात्मा गांधी“ की 150 वीं जयंती मनाई जा रही है, जिन्होने साध्य व साधन दोनो की पवित्रता व नैतिकता पर पूर्ण जोर दिया है (जो उनकी ‘‘अंहिसा’’ के बाद एक बड़ी पहचान है) वहां आज साधन की नैतिकता को इस एनकाउंटर द्वारा सिरे से नकार दिया गया है। क्या इस पर भी हमें गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता नहीं है?    x

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2019

आखिर ‘‘संविधान’’ ‘‘नैतिक’’ कब होगा?

आपको प्रश्न का ‘‘शीर्षक’’ पढ़ने पर थोड़ा आश्चर्य अवश्य होना चाहिए। आपके मन में यह प्रश्न अवश्य उत्पन्न होगा कि क्या हमारा संविधान नैतिक नहीं है? अनैतिक है? यह प्रश्न आज स्वभाविक रूप से हाल ही में महाराष्ट्र में हुई सत्ता आरूढ़ की घटना ने पुनः जाग्रत कर दिया है। हाल ही में 26 नवम्बर को हमने संविधान दिवस मनाया है, जिस कारण से यह घटना ज्यादा ज्वलंत मुद्दा बन गई है। निश्चित रूप से 26 जनवरी 1950 को देश में संविधान लागू हुआ था। तत्समय डॉ. भीमराव अम्बेड़कर सहित संविधान सभा के समस्त सदस्यों के मन में संविधान और नैतिकता दो-दो पृथक पहलू नहीं ही थे। मतलब उस समय की परिस्थितियाँ ऐसी थी, जब संविधान (विधान, कानून, नियम) व नैतिकता एक ही सिक्के के दो पहलू थे, बल्कि इसके उलट दो पहलू के एक ही सिक्के थे, कहना गलत नहीं होगा। अर्थात उस काल में न केवल संविधान पूर्ण रूप से नैतिक था, बल्कि नैतिकता भी संवैधानिक कपड़ा को ओढ़े हुये थी। प्रांरभ से ही संवैधानिक-नैतिकता या नैतिक-संविधान एक दूसरे के पर्यावाची रहे, अर्थात ये दोनों शब्द एक दूसरे में समाहित रहे थे।
स्वतत्रंता प्राप्ति के 72 साल के इतिहास में देश के चौमुखी-सर्वागीण विकास सहित लोकतंत्र व संविधान भी विकास की ओर अग्रेसित होते हुये परिपक्व हुये है। लेकिन दुर्भाग्यवश नैतिकता का जो उच्च स्तर स्वतंत्रता प्राप्ति के समय था, उसमे दुर्त गति से उसी तरह की गिरावट आई है, जिस प्रकार आज प्रदूषण में तेजी से आई गिरावट के कारण उसे दिन प्रतिदिन यंत्रो से नापना होता है। कोई दिन ऐसा नहीं जाता, जिस दिन प्रदूषण की चर्चा नहीं होती है। एक संस्कृति प्रधान व गहरी धार्मिक आस्था रखने वाले देश में ‘‘नैतिकता’’ जिस पर ही देश की आधार भूत संरचना खड़ी हुई है, का हा्रस इस तरह से होता जायेगा और हम निष्क्रिय बने रहेगें, यह कल्पना ही अकल्पनीय है। 
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद आज तक घटित प्रमुख राजनैतिक घटनाक्रम का शैनेः शैनेः विश्लेषण कीजिए तो, आप महसूस करेगें हर बड़ी घटित राजनीतिक घटना के पश्चात मीडिया से लेकर बुद्धिजीवीओं एवं परस्पर विरोधी पक्षों द्वारा एक दूसरे पर यह आरोप लगाना एक जुमला सा बन गया है कि, ये क्रियाये-प्रक्रियायें -प्रतिक्रियायें संवैधानिक, वैधानिक, नियमानुसार व कानूनी तो है, लेकिन नैतिक नहीं है, जैसा कि अभी महाराष्ट्र में हाल में ही तेजी से घटित हुए राजनैतिक घटनाक्रम पर आयी प्रतिक्रियाओं से भी स्पष्ट है, जब पुनः यही जुमला जड़ दिया गया है। यद्यपि पूर्व में कुछ अवसरों पर ऐसी घटनाओं को असंवैधानिक भी कहा जाता रहा।  
वास्तव में आज कोई भी कार्य संवैधानिक होकर नैतिक क्यों नहीं हो सकता है? यही एक बड़ा यक्ष प्रश्न पुनः आज हम सबके सामने खड़ा है। निश्चित रूप से देश के विकास में सबसे बड़ा रोढ़ा मूल रूप से यह नैतिक पतन ही है। ‘‘नैतिकता’’ के निरतंर गिरते हुये पतन की आज की स्थिति ने आज उसके अस्तित्व को ही दाँव पर लगा दिया है। इसके दुष्परिणामों पर आगे नजर डालिये। 
इस पतन के कारण ही देश में प्रायः शांति भंग होती है, अपराध बढ़ते है, तथा आम जनता की दिनचर्या व आम कार्यो में उन्हें सामान्यतः अधिक तकलीफ उठानी पड़ती है। देश में अभी हाल में घटित कई वीभत्स बलात्कार की घटनाओं के कारण पूरे देश के क्रोधित दुखित व क्षोभ से भरा हुआ होने का कारण मात्र कानून व्यवस्था का असफल होना ही नहीं, बल्कि नैतिकता के पतन से उत्पन्न भंयकर बुरे परिणामों के ये उदाहरण मात्र है। उत्पादन व निर्माण कार्य गुणवक्ता की कमी का प्रमुख कारण, नैतिकता में आई कमी से उत्पन्न मुनाफाखोरी की प्रबल भावना ही है, जिससे खरबों रूपये देश के बर्बाद हो रहे है। इसी कारण आज संयुक्त हिन्दु परिवार टूट रहे हैं (जो देश को एकसूत्र में रखे जाने में एक रीढ़ की हड्डी सिद्ध हुये थे)। देश के स्वस्थ्य ‘‘स्वास्थ्य’’ पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में, गुरू व शिष्य के बीच मौजूद गौरवान्वित संबंधो की स्थिति आज क्या हो गई है? लाखों करोडों व्यक्तियों के परम पूज्य धर्माचारियों का स्ंिटग ऑपरेशन में फँसना किस उच्च नैतिकता को दर्शाता है? और न जाने कितने क्षेत्रों में। मतलब जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में देश के चतुर्मुखी विकास में मानक उच्च स्तर को बनाये रखने में विभिन्न अवरोधों के बने रहने का एक प्रमुख मूल कारण नैतिक मूल्यों का लगभग समाप्त हो जाना ही है। यदि एक लाईन में कहां जाए कि समस्त बुराइयों की जड़ में नैतिकता की कमी है व इसके विपरीत जहां नैतिक स्तर को बनाये रखा गया हैं वहां इसके अच्छे कार्य के रूप में परिणाम आते है। 
इसीलिए क्या आज इस बात की महती आवश्यकता नहीं है, जब भी हम संविधान में संशोधन करे, कोई कानून बनाये, अथवा नियम बनाये, तब-तब कानून का अनिवार्य रूप से पालने करने का स्पष्ट प्रावधान भी कर दिया जाना चाहिए? (जहां उसके पालन करने से इधर-उधर भागने का कोई जगह (रास्ता) ही न हो।) तब इनके उल्लंघन पर इतनी कड़क व कठोर सजा का प्रावधान किया जावें कि कोई व्यक्ति या संस्था उल्लंघन करने की कल्पना भी न कर सकें। तभी नैतिकता पर संवैधानिक कवच का असली जामा पहनाया जा सकता है। सामान्यतः संविधान के तनिक भी उल्लंघन को ही नैतिकताओं की कमी माना जाना चाहिए। यही सामान्य धारणा/अनुभूति (आभास) होना चाहिए। लेकिन आज तो संविधान का पालन करने के बावजूद भी नैतिकता का पालन करने के आरोप/ढि़ढ़ोरा लगभग हर संविधान का पालन करने के कृत्य (आदेश) के साथ पीटा जाता हैं, जिस पर ही लगाम लगाने की व इस अंतर को समाप्त करने की आज के समय की उत्कट मांग व आवश्यकता है। 
अभी हाल में ही घटित महाराष्ट्र की घटनाक्रम को समझिये! नैतिकता व संविधान! प्रधानमंत्री से लेकर पीएमओं, महामहिम राष्ट्रपति व राज्यपाल का इस पूरे घटनाक्रम में जो रोल रहा है, उस पर न केवल उनके द्वारा उठाये गये कदमों की संवैधानिकता पर ही प्रश्नचिन्ह नहीं लग रहा हैं, बल्कि नैतिकता को भी बिल्कुल ताक पर रख दिया गया है, यह आरोप भी लग रहा है। आप जानते ही है, देश में राष्ट्रपति शासन (महाराष्ट्र में) इस समय पहली बार नहीं लगा है। पूर्व में प्रत्येक बार विहित प्रक्रिया का पालन कर कैबिनेट की बैठक कर निर्णय कर राष्ट्रपति शासन लगाये गये थे। लेकिन आज यह पहली बार हुआ है कि, बगैर कैबिनेट की बैठक किये, नियम 12 के तहत विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुये, प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश राष्ट्रपति को की गई। दूसरी महत्वपूर्ण बात राष्ट्रपति ने उठकर सुबह 5.47 बजे के पूर्व (यर्थाथ कितने बजे?) प्रधानमंत्री के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किये?चंूकि राजपत्र में यह अधिसूचना 5.47 समय पर प्रकाशित हुई है। (निश्चित रूप से उन्होने सोते हुये हस्ताक्षर नहीं किये)।
क्या भारत का ‘दुश्मन’ के साथ युद्ध छिड़ गया था? जिससे निपटने के लिये ‘‘आपातकाल’’ की अधिसूचना पर बिना एक सेंकेंड व्यर्थ व्यतीत किये, भोंर तड़के सुबह हस्ताक्षर करना अति आवश्यक था? जिस प्रकार रेल्वे, चिकित्सा इत्यादि अत्यावश्यक सेवाएँ अनवरत चलाती रहती है, महामहिम राष्ट्रपति को भी अनवरत सेवाओं में संलग्न मानकर देश के सम्मान की रक्षा के लिए अल सुबह उठाकर हस्ताक्षर कराये गये? निश्चित रूप से यह संवैधानिक तो है, लेकिन नैतिक बिल्कुल भी नहीं है। इसी संवैधानिक कार्य को नैतिक भी बनाया जा सकता था, यदि सामान्य दिनचर्या के दौरान राष्ट्रपति हस्ताक्षर करते। ठीक इसी प्रकार यदि राज्यपाल भी सामान्य कार्य समय में  हस्ताक्षर कर सीना ठोक कर दिन के उजाले मंे शपथ दिलाते, तब नैतिकता के कवच पर हथोड़ा नहीं चलता। परन्तु शायद तब राज्यपाल को देवेन्द्र फडणवीस के शपथ दिलाने का अवसर ही नहीं मिलता, क्योंकि तब तक वहीं दूसरा पक्ष अपनी संख्याबल की परेड़ कराकर राज्यपाल के समक्ष दावा ठोंक देते। 
राज्यपाल के ‘‘विवेक’’ के निर्णय पर प्रश्न नहीं उठाया जा सकता है। यह सुरक्षा उन्हे संविधान में दी गई है। सामान्यतः उनका निर्णय न्यायिक समीक्षा के परे रहता है। यद्यपि कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में उच्चतम न्यायालय ने राज्यपाल के निर्णय को न्यायिक समीक्षा की परिधि में माना है। प्रश्न फिर महाराष्ट्र के राज्यपाल के सम्पूर्ण आचरण को नैतिक क्यों नहीं माना जा रहा है? जिस व्यक्ति (देवेन्द्र फडणवीस) ने पूर्व में बहुमत न होने के आधार पर राज्यपाल के निमंत्रण को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर सरकार बनाने से मना कर दिया था, दावे-प्रतिदावे के बीच  उसके सरकार बनाने के किये गये पुनः दावे का बिना कोई भौतिक या अन्य तरीके से सत्यापन किये, उन्हे सरकार बनाने के लिये निमत्रंण देना क्या गिरते हुये नैतिक स्तर का नापने का एक मीटर नहीं बन गया है? इसी तरह घटित अनेक घटनाओं के बीच सबसे आश्चर्यजनक तथ्य यह भी रहा है कि, राजनीति के तराजू में कभी भी नैतिकता का पलड़ा संविधान के पलड़े से उपर नहंीं रह पाया। विश्व के सबसे बडे़ संविधान के सामने विश्व की सबसे पुरानी संस्कृति से उत्पन्न नैतिकता को हमेशा ही झुकना पड़ा है। यह देश का नहीं, समाज का नहीं, बल्कि एक ‘व्यक्ति’ का दुर्भाग्य है, क्योंकि व्यक्ति से ही समाज व अंततः देश का निर्माण होता है। इसीलिए राजनीति के तराजू के नैतिकता के पलड़े को संविधान के पलड़े के बराबर लाने के लिये किसी कानून की आवश्यकता नहीं हैं। संविधान संशोधन या किसी नियम की आवश्यकता नहीं, बल्कि आवश्यकता है तो सिर्फ और सिर्फ प्रत्येक व्यक्ति को अपने शेष जीवन को व्यतीत करते हुये स्वतः के नैतिक स्तर को उस सीमा तक ऊपर उठाने के प्रयास की, जिस प्रकार प्रदूषण के अंक को कम करने का प्रयास अपने जीवन को बचाने के लिए कर रहा है। निश्चित रूप से तब ही हमारा देश पुनः सोने की चिडि़याँ कहला सकेगा। क्या आप हम सबका यह कर्त्तव्य नहीं है कि देश की पुनः सोने की चिडि़याँ बनाने में लग जाएं? 

सोमवार, 2 दिसंबर 2019

भारतीय राजनीति की नई ‘गुगली’।

स्वतंत्र भारत के राजनैतिक इतिहास में बीता कल अभूतपूर्व कहलायेगा! यह घटना राजनैतिक भूचाल नहीं, बल्कि ‘भूकम्प’ है, जो स्वतंत्रता के बाद देश के राजनैतिक पटल पर प्रथम बार हुआ है। राजनीति में नैतिकता के निरंतर गिरते स्तर के बावजूद, इस तरह की यह पहली अलौकिक, अनोखी, अचम्भित करने वाली एक आश्चर्यजनक घटना है। स्वतंत्रता के बाद 1947 से ही देश का राजनैतिक इतिहास राजनैतिक उलटफेरों से भरा पड़ा हुआ हैं। लेकिन कल के इस उलट फेर नेे ‘‘सिद्धान्त’’ व ‘‘विश्वास’’ को शून्य (अस्त्विहीन) ही बना दिया है। याद कीजिए! हरियाणा में भजनलाल ने पूरी सरकार का ही दल बदल कर लिया था। परन्तु कल की महाराष्ट्र की घटना न केवल अकल्पनीय व अपने आप में एकांगी वरण ऐतिहासिक बन गई है।  
देश के मीडिया के लिये भी अचम्भित कर देने वाला यह प्रथम अवसर है। मीडिया को  इसकी बिल्कुल भी आहट नहीं हो पायी और न ही ऐसी कोई कल्पना। मीडिया जो सुबह से ही जहां शिवसेना राकांपा व कांग्रेस की महायुति की सरकार बनने की ख़बरे प्रसारित कर रहा था, उसे अचानक सुबह 08 बजे के बाद देवेन्द्र फडणवीस की शपथग्रहण की रिकॉडे़ड फोटो प्रसारित करनी पड़ी। इस फोटो समाचार के पूर्व फडणवीस के होने वाले शपथग्रहण समारोह का कोई भी समाचार या संभावना की कोई खबर मीडिया प्रसारित नहीं कर पाया था। सबसे बड़ी शर्मनाक स्थिति तो मीडिया के लिये है, जिसे स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार लाईव न्यूज या ब्रेकिंग न्यूज के बदले रिकॉडेड़ शपथग्रहण समारोह का समाचार प्रसाारित करना पड़ा। यह स्थिति भी मीडिया की योग्यता व क्षमता पर एक प्रश्नवाचक चिन्ह तो लगाती ही है। आज तक हुई किसी भी राजनैतिक घटनाक्रम में इससे बड़ी गोपनीयता नहीं बरती गई। इस घटना ने एक बार पुनः इस बात पर मुहर लगा दी है कि, राजनीति में सिंद्धान्त का कोई स्थान नहीं होता है। सिर्फ इस शब्द (सिंद्धात) का प्रयोग आलोचना-प्रत्यालोचना तथा जनता को भ्रमित करने भर में ही होता है। वैसे भी आज की राजनीति में सिंद्धान्त की बात करना बेमानी ही है। याद कीजिए संजय राउत का वह बयान जिसमें उन्होंने कहा था, कि शरद पवार को समझने में 100 जन्म लेने पडे़गें। यदि भजनलाल के पाला बदलने के कदम को अलग रखा जाये तो, ऐसा राजनैतिक उलटफेर देश में पहली बार हुआ है।
आम चुनावों में हमने पाया है कि, चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार पोलिंग के दिन की पूर्व रात्रि को कत्ल की रात मानते हैं (मैं खुद भी चुनाव लड़ चुका हूं इसका मुझे भली भाति अनुभव है) इस ‘कत्ल की रात्रि’ में पूर्ण सजगता के साथ राजनैतिक कदम उठाने पड़ते है। भाजपा ने इसे कत्ल की रात्रि मानकर पूरी राजनैतिक गोटियाँ इस तरह से बिछाई, जिसके परिणाम अपने सामने है। भाजपा के इस धोबी पछाड़ दाव से शिवसेना को बड़ा झटका लगा व वह गर्त में चली गई। 2 दिवसीय यात्रा को बीच में ही छोड़कर जिस तीव्र गति से राज्यपाल दिल्ली से वापिस आये और तुरन्त राष्ट्रपति को प्रतिवेदन भेजा। जिस रफ्तार से सूर्यादय होने के पूर्व ही केबिनेट के  निर्णय के बिना ही नियम 12 का सहारा लेते हुये राष्ट्रपति शासन समाप्त किया जाता है। शपथ पत्र का निमत्रंण छापे बिना व मीडिया को बुलाये बिना (सिर्फ 1 मीडिया को छोड़कर) सुबह लगभग 08 बजे देवेन्द्र फडणवीस को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला कर ‘‘लोकप्रिय’’ लोकतंात्रिक सरकार का गठन किया जाता है। इस प्रकार का अल सुबह शपथ ग्रहण समारोह देश के इतिहास में पहली बार हुआ है। राज्यपाल द्वारा शपथ ग्रहण कराने के बाद मुख्यमंत्री को एक निश्चित समय में बहुमत सिद्ध करने का निर्देश न देना न केवल असंवैधानिक है बल्कि यह भी मात्र एक अपवाद है, खासकर उस स्थिति में जब किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत न मिला हो।  
इससे यह भी स्पष्ट होता है कि देश की समस्त संवैधानिक संस्थाओं ने देवेन्द्र फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाने में जिस प्रकार की तूफानी तेजी दिखाई है, वह एकदम अभूतपूर्व व देश के लोकतांत्रिक इतिहास में पहली बार घटित हुई है। यह घटनाक्रम इस बात को पुनः सिद्ध करता है, कि ‘मोदी-शाह’ की जोड़ी का आज के राजनैतिक दृश्य पटल व परिवेश में दूर-दूर तक कोई मुकाबला नहीं है। तथापि केन्द्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद का यह बयान कि ‘‘महायुति चोर दरवाजे से सरकार बना रही थी’’ बिल्कुल गलत व तथ्यों के विपरीत है। इसके ठीक विपरीत भाजपा ने ही रात्रि में चोर दरवाजे से सरकार बनाने की प्रक्रिया पूर्ण की है। जबकि यह कार्य हमेशा से दिन के उजाले में होता आया है। देश के इतिहास में यह भी पहली बार ही हुआ है कि राष्ट्रपति ने सुबह 5.47 बजे राष्ट्रपति शासन हटाने की घोषणा पर हस्ताक्षर किये। महामहिम राज्यपाल व राष्ट्रपति जिन संवैधानिक पदों पर बैठे है, उन्हें इतनी दिलचस्पी दिखाने की क्या आवश्यकता थी? 24 घंटे चलने वाली अत्यावश्यक सेवाओं (जैसे रेल्वे, चिकित्सा इत्यादि) के समान महामहिमों ने कार्य किया है। महामहिमों के पास वर्षो से लंबित सैकड़ों आवेदन, याचिकाओं (क्षमा याचना सहित) के मामलों में भी ऐसी ही तीव्रता से निर्णय ले लिया जाय तो देश/जनता का बहुत भला हो जाय।  किसी भी प्रकार से यदि यह सही है कि इस पूरे घटनाक्रम में शरद पवार भी है व वे ही इसके सुत्रधार हैं, तो जिस किसी ने भी विश्वास शब्द की रचना की है उसे आज इस देश में अवतरित होकर इस शब्द के अर्थ को ही बदलना होगा। इसके पूर्व जितने भी राजनैतिक उलटफेर हुये है, उनकी कुछ न कुछ झलक/आहट पहले से अवश्य मिल जाती रही है। साथ ही निर्णय के विपरीत परिणाम कभी भी नहीं आए। यहां तो विश्वास के बदले विश्वासघात सफल सिद्ध हुआ है, जिसने विश्वास शब्द को अवैध सिद्ध करके श्ूान्य घोषित कर दिखाया है। यद्यपि शाम तक यह स्पष्ट हो गया था कि यह विश्वासघात शरद पवार ने नहीं बल्कि अजित पवार ने किया है।  
सबसे बड़ा प्रश्न तो राज्यपाल की भूमिका पर है। राज्यपाल ने उस पार्टी के नेता को मुख्यमंत्री पद की शपथ मात्र दावे के पत्र के बल पर 12 घंटों के भीतर दिला दी, जिसने पूर्व में इस आधार पर सरकार बनाने से इंकार कर दिया था कि उसके पास बहुमत नहीं है। जब राकांपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद पवार ने सायं 7.30 बजे मीडिया से चर्चा करते हुये यह स्पष्ट कहा था कि तीनों दलों के बीच इस बात पर सहमति बन गई है कि, उद्धव ठाकरे ही सरकार का नेतृत्व करेगें। तिस पर भी यदि अजित पवार ने राकांपा के विधायकों के समर्थन का पत्र राज्यपाल को साैंपा तो, उस पत्र के वास्तविक सत्यापन का दायित्व तो राज्यपाल पर ही था। इसके साथ-साथ देवेन्द्र फडणवीस के बहुमत के दावे का सत्यापन करने का दायित्व भी संवैधानिक कानूनी व नैतिक रूप से राज्यपाल का ही था। यह सत्यापन सिर्फ उनके विवेक व मात्र एक शब्द संतुष्टि भर कह देने से पूर्ण नहीं हो जाता है। क्योंकि वे उस स्थिति में उस व्यक्ति को निमत्रिंत कर रहे थे, जिसने पूर्व में ही बहुमत न होने के आधार पर सरकार बनाने से इंकार कर दिया था। अलावा शरद पवार जो राकांपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष है, उनके स्पष्टीकरण के बाद तो संख्या बल के दावे का सत्यापन उपलब्ध तथ्यों व आवश्यक तथ्यों को प्राप्त कर लेने के बाद ही किया जाना चाहिये था। तत्पश्चात ही उनकी संवैधानिक दायित्व की पूर्ति होती एवं तभी उनकी राष्ट्रपति शासन के लिए सिफारिश करने की अनुशंसा सही मानी जाती। लेकिन ऐसी कोई कवायद राज्यपाल द्वारा नहीं की गई, जैसा कि अत्यंत अल्प समय में घटित घटनाक्रम से स्वयं सिद्ध हो रहा है। मतलब साफ है! प्रधानमंत्री से लेकर पूरा संवैधानिक तंत्र पिछले रात्रि के 12 घंटे से इस बात में जुट गया था कि ‘‘ऐन-केन-प्रकारेण’’ देवेन्द्र फडणवीस की सरकार को शीघ्रातिशीघ्र शपथग्रहण कराना है, जिसमें वे पूरी तरह सफल भी रहे। सत्ता ही आज के लोकतंत्र में साध्य है व उसे पाने का साधन भी सत्ता ही है। विश्व में भारतीय लोकतंत्र जो सबसे बड़ा भव्य व सफल माना जाता रहा है, ऐसे लोकतंत्र की क्या यही नियति है।  
अन्त में चंूकि इस समय देश में पहली बार ‘पिंक’ गुलाबी क्रिकेट मैच चल रहा है। इसलिए राजनीति मेें यह कदम निश्चित रूप से राजनीति में नई ‘‘गुगली’’ की ईजाद है, जो सिर्फ व सिर्फ ‘सत्ता’ द्वारा ही निर्मित है। 

शनिवार, 16 नवंबर 2019

‘‘50-50!’’ ‘‘क्या राजनीति में इसका अर्थ अलग होता है’’!

                                 
अंततः शिवसेना-भाजपा का वर्ष 1990 से चला आ रहा लगभग 30 वर्ष पुराना गठबंधन टूट गया। तथाकथित 50-50 फॉमूले को आधार बनाकर महाराष्ट्र विधानसभा के परिणाम आने के तुरन्त बाद से ही शिवसेना के प्रवक्ता एवं सांसद संजय राउत लगातार यही कहते रहे है कि मुख्यमंत्री तो शिवसेना का ही बनेगा। 50-50 के सूत्र को स्पष्ट करते हुये संजय राउत ने यह भी स्पष्ट किया कि लोकसभा चुनाव के समय भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के बीच परस्पर यह तय हुआ था कि, आगामी विधानसभा चुनाव में 50-50 की बराबरी की हिस्सेदारी होगी तथा सत्ता की भागीदारी भी 50-50 प्रतिशत की होगी। पिछले 20 दिनों से शिवसेना इस फॉमूले पर अडि़ग है, जिसको भाजपा द्वारा न मानने के कारण ही, शायद देश का सबसे पुराना लम्बे समय तक चलने वाला गठबंधन टूट गया।
यद्यपि अमित शाह का 50-50 के फॉमूले के विषय में कोई बयान नहीं आया और न ही किसी प्रकार का खंडन! लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने अमित शाह के हवाले से अवश्य यह कहा कि इस संबंध में उनकी अमित शाह से बात हुई है, और उन्होंने ऐसे किसी भी समझौते से स्पष्ट इंकार किया है। तथापि अमित शाह ने यह कहा कि शिवसेना की तरफ से ऐसा प्रस्ताव जरूर आया था। आज 20 दिन बाद अमित शाह का उक्त समझौते से इंकार करते हुये बयान अवश्य आया है। इतने दिनों बाद बयान आने पर प्रश्न लगाना तो लाजमी ही है। इसके विपरीत उद्धव ठाकरे ने बार-बार यह स्पष्ट किया कि इस पर सहमति बनी थी। परन्तु भाजपा उन्हें झूठा ठहराने पर तुली हुई है। यदि शिवसेना के प्रवक्ता संजय राऊत का यह कथन सही मान भी  लिया जाय कि लोकसभा चुनाव के दौरान 50-50 के सूत्र पर दोनो पार्टी के बीच सहमति बनी थी, तो फिर शिवसेना को अपनी बात को सही सिद्ध करने के लिए निम्न बातों का जवाब देना आवश्यक होगा।
1. यदि 50-50 की समस्त बातों में साझेदारी तय हुई थी, तो फिर शिवसेना विधानसभा चुनाव में 50 प्रतिशत से कम सीटों पर चुनाव लड़ने के लिये कैसे सहमत हो गई? सीटों के बटवारे के समय ही इस आधार पर विरोध क्यों नहीं किया। उसी समय इस मुद्दे पर गठबंधन को तिलाजंली क्यों नहीं दे दी? क्योंकि 50-50 वाला फॉमूला तो विधानसभा चुनाव के पहले ही लोकसभा चुनाव के समय बन गया था, जैसा शिवसेना स्वयं दावा कर रही है। 2. यदि इस 50-50 के सूत्र में मुख्यमंत्री का पद भी शामिल है, अर्थात ‘‘ढ़ाई-ढ़ाई साल का मुख्यमंत्री’’ तो फिर पहले ही शिवसेना को मुख्यमंत्री पद क्यों मिलना चाहिए, बाद के ढ़ाई वर्ष में क्यों नहीं? जबकि भाजपा से शिवसेना की सीटे लगभग आधी (105-56) है। 
3. क्या यह तय हुआ था कि 50-50 सूत्र के तहत शिवसेना को पहले मुख्यमंत्री का पद मिलेगा। यद्यपि ऐसा कोई दावा शिवसेना ने नहीं किया है, वह सिर्फ यह कह रही है कि मुख्यमंत्री तो शिवसेना का ही बनेगा। अतः बेहतर यह होता कि प्रथम ढ़ाई वर्ष वह भाजपा को मुख्यमंत्री पद व ढ़ाई वर्ष बाद उक्त फॉमूले के आधार पर मुख्यमंत्री पद पर दावा करती और नहीं मानने पर तब  गठबंधन तोड़ती?  
4. क्या 50-50 का फॉमूला विधानसभा विधानसभा अध्यक्ष पद पर भी लागू होगा। अर्थात ढ़ाई-ढ़ाई साल के लिए विधानसभा अध्यक्ष पर का भी बटवारा होगा, इस बाबत शिवसेना ने कुछ नहीं कहां। क्योंकि आपने सभ्यता सत्ता की आधे-आधे की भागीदारी की बात की है व समान रूप से बाटने की बात रही है।
5. क्या कम सीटों पर चुनाव लड़ने के बावजूद मं़त्रिमंडल में भागादारी भी 50-50 फॉमूले कांे तहत ही होगी, यह भी स्पष्ट नहीं है।
6. क्या चुनाव परिणाम मेें बराबरी की जीत अथवा स्ट्राईकिंग रेट न आ पाने के बावजूद भी मंत्रिमंडल में 50-50 की ही भागाीदारी होगी? 
7. क्या मंत्रियों के विभागों के बटवारे के संबंध में भी 50-50 का फॉमूला लागू होगा।
8. क्या ‘‘मलाईदार’’ विभाग को चिन्हित करके उनका बंटवारा भी उक्त फॉमूले के तहत होगा?
9. जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चुनाव के दौरान मंच पर भाषण देते हुये यह कहा था कि ‘‘केन्द्र में नरेन्द्र व महाराष्ट्र में देवेन्द्र’’। जब शिवसेना ने उक्त कथन पर आपत्ति क्यों नहीं की? नरेन्द्र मोदी ने अपने उक्त उद्बोदन में अपना आश्रय स्पष्ट कर दिया था। 
मतलब साफ है!, सत्ता की भागीदारी के प्रत्येक अवसर पर पूर्ण रूप से पूर्ण शुद्धता के साथ 50-50 का फामूला लागू होगा, प्रश्न यह है? मतलब स्पष्ट है, शिवसेना के पास इन बातों का जवाब नहीं है। अतः शिवसेना का इस गठबंधन को तोड़ना बेमानी ही कहलायेगा, माना जायेगा। 
वैसे तो राजनीति में ‘‘वायदा’’ नहीं वायदा खिलाफी ही अधिकतम होती है। वायदा करने के बावजूद सिंद्धान्त को एकतरफ रखकर व्यवहारिक राजनीति के चलते फायदे-लाभ की दृष्टि से ‘‘हैसियत’’ व शक्ति को देखकर ही वायदा निभाने के धर्म को पूरा किया जाता है। इस दृष्टिकोण से शिवसेना को चुनाव परिणाम को देखते हुयेे हैसियत का आकलन स्वयं कर लेना ज्यादा बेहतर होगा।
वैसे जहाँ तक भाजपा द्वारा वायदा खिलाफी का प्रश्न है, यह न तो कोई पहली बार हुआ है और न ही आखरी बार है। यहाँ भाजपा द्वारा मेरे साथ की गई वादा खिलाफी का उल्लेख करना सामयिक हो गया है। स्व. विजय कुमार खंडेलवाल सांसद के निधन से उत्पन्न हुये उपचुनाव में मुझे तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सहित प्रदेश के पूरे नेतृत्व ने एकमत से इस वायदे के साथ सहयोग मांगा कि आगामी विधानसभा चुनाव में आपको बैतूल विधानसभा से टिकिट दी जावेगी। लेकिन सिर्फ यही वादा खिलाफी नहीं हुई, बल्कि टिकिट न दिये जाने पर अपनी मजबूरी बताते हुये प्रादेशिक नेतृत्व ने (शिवराज सिंह सहित) निगम अध्यक्ष बनाने का पुनः आश्वासन दिया व भरोसा दिलाया। लेकिन पुनः वादा खिलाफी हुई। इससे स्पष्ट है, आज की राजनीति में नैतिकता का कोई स्तर न रह जाने के कारण वायदे का कोई महत्व नहीं रह गया है। इसलिये वायदे तो अंसख्य होते है, लेकिन परिपालन मात्र उंगलीयों पर गिनने लायक ही होते हैं।

‘‘विलय’’ के ‘‘प्रतीक’’ को ‘‘विभाजन’’ का ‘‘तड़का’’! यह कैसा सम्मान?


31 अक्टूबर को देश के लौहपुरूष पूर्व गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल की 143 वीं जयंती के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सम्मान देते हुये देश को सबसे खूबसूरत लेकिन चर्चित समस्याग्रस्त जम्मू-कश्मीर प्रदेश आंतक से प्रभावित क्षेत्र कश्मीर एवं शांत क्षेत्र जम्मू तथा लद्दाख का पुर्नगठित करके विभाजन कर दो नये केन्द्रशासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर और लद्दाख, अस्तित्व में लाए और इस प्रकार मूल जम्मू-कश्मीर राज्य का अस्तित्व समाप्त कर दिया। निश्चित रूप से जम्मू-कश्मीर राज्य में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाकर जो  अल्कपनीय एवं लगभग असंभव सा कार्य केन्द सरकार ने किया, उसके इस साहसिक कार्य के लिये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं उनका नेतृत्व असीम एवं अगणित बधाई के पात्र हैं। लेकिन इस उपलब्धि को सरदार पटेल की जंयती से जोड़कर और उसे सरदार पटेल के प्रति समर्पित कर महिमा-मंडित करना कितना सही, जायज व उचित है, यह एक बड़ा प्रश्न उत्पन्न करता है।,  आज के अंधभक्त मीडिया के शोर-शराबे में ऐसा प्रश्न उठाना भी शायद क्या साहसिक कार्य नहीं कहलायेगा?
देश के करोडांे नागरिक निसंदेह इस बात को मानते है, और न ही उस पर कोई विवाद है, कि देशी रियासतों के स्वतंत्र अस्तित्व को समाप्त करके एक अखंड राष्ट्र निर्माण में सरदार पटेल की अहम भूमिका उस युग में एक योग की तरह रही। अर्थात जोड़ने वाली रही। मललब साफ है! अंग्रेजो ने अखंड भारत को टुकडो़ं में बनाएं रखने के लिए षड़यंत्रकारी योजना के तहत (ब्रिटिश इंडिया की) स्वतंत्र 565 देशी रियासतों में से प्रत्येक रियायत को यह विकल्प दिया गया था कि, वे पाकिस्तान में अथवा भारत में रहे या अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखें। भविष्य के दूरगामी परिणामों को भाँपते हुये उस षड़यंत्र को सरदार पटेल ने अपनी बुद्धि, कौशल, क्षमता व विवेक से 565 में से 562 रियासतांे को भारत संघ में तुरंत विलय कर लेने का जो महती कार्य किया था, उसी कारण से ही वे ‘‘लौहपुरूष’’ बने व सरदार कहलाएं। किसी भी कैसी ही विचार धारा वाला व्यक्ति ही क्यों न हो, वह ‘‘सरदार पटेल’’ को सम्पूर्ण सम्मान आदर व श्रृद्धा की दृष्टि से ही देखता है। ऐसी समस्त 565 रियासतांे का भारत संघ में विलय कर एक मजबूत भारत बनाने वाले व्यक्ति के सम्मान में पूर्व से ही विभाजित जम्मू-कश्मीर का दो केन्द्र प्रशासित प्रदेश में विभाजित कर सम्मान देने का कार्य, शायद सरदार पटेल की आत्मा को ठेस पहंुचाने वाला कार्य नहीं है? जम्मू-कश्मीर के विलय के मुद्दे पर यदि जवाहर लाल नेहरू गलती नहीं करते व पूर्ण निर्णय का अधिकार अगर उसी समय सरदार पटेल को मिला होता तो, आज पूरा अखंड जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न भाग होता। उनका यह कथन आज भी देशवासियों के दिल में गंूजता कि हम जम्मू-कश्मीर की एक इंच भूमि भी नहीं देगें। जम्मू-कश्मीर प्रदेश को विभाजित रूप में उनके सम्मान में प्रस्तुत करना बिल्कुल भी उचित नहीं लगता है। यद्यपि राजनैतिक दृष्टि से वोट बैंक को मजबूत करने के लिए इसे एक राजनैतिक कदम माना अवश्य जा सकता है। अन्य किसी भी दृष्टि से यह तुलना न तो सामायिक है, और न ही तथ्यों की समानता लिये हुये है, बल्कि इसके विपरीत अर्थ लिये विलय और विभाजन साथ में दर्शाने वाली हैं।
नरेन्द्र मोदी द्वारा सरदार पटेल की जंयती पर अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के 5 अगस्त के निर्णय को उन्हे समर्पित करने का कथन आश्चर्यचकित करता है। यह मांग तो पंडित नेहरू सहित पूरे देश की रही है। याद कीजिए, संसद के अंदर अनुच्छेद 370 का प्रावधान लाते समय यह घोषणा की गई थी, यह बिल्कुल अस्थायी प्रावधान है। 70 वर्ष बाद इस अस्थायी प्रावधान को हटाया गया है तो निश्चित ही उसके लिये मोदी की प्रशंसा में कसीदे पढे़ जाने चाहिए। लेकिन इसे सिर्फ वल्लभ भाई पटेल को समर्पित करना समझ के बाहर है। वह इसलिये भी कि, अभी भी अनुच्छेद 370 संविधान से पूरी तरह से हटाया नहीं गया है, बल्कि अनुच्छेद 370 (1) संविधान का आज भी भाग है। जबकि भाजपा सहित समस्त लोगों की मांग उसे पूर्णतः समाप्त करने की थी। फिर सरदार पटेल ने जम्मू-कश्मीर के विभाजन की कोई बात कभी भी नहीं कहीं थी, जिन्हे विभाजित कश्मीर समर्पित किया गया है। सरदार पटेल ने इसे केन्द्र शासित प्रदेश बनाने की  कल्पना भी कभी नहीं की थी, जिस रूप में आज इसे समर्पित किया गया है। इसके अतिरिक्त यदि तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू जिनके अधीन गृहमंत्री वल्लभ भाई पटेल व सचिव कष्णा मेनन थे उन्हें रियासतों के विलय का श्रेय नहीं दिया गया है, तो आज कश्मीर पर अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाने का श्रेय भी सिर्फ गृहमंत्री अमित शाह को ही दिया जाना चाहिए, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को क्यों ?
जम्मू-कश्मीर पूर्ण राज्य के रूप में स्वतंत्रता के समय से ही भारत का अभिन्न अंग है। गृहमंत्री के लिए संसद में बिल प्रस्तुत करते समय जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाने के उद्देश्य से उसे दो भागों में बाँटकर दो केन्द्र शासित प्रदेश बनाकर जम्मू-कश्मीर व लद्दाख केन्द्र शासित प्रदेश बनाया जाना क्यों आवश्यक लगा? इसका कोई कारण नहीं समझाया गया है। यद्यपि यह अवश्य कहा गया कि जम्मू-कश्मीर को समय आने पर पुर्नः पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जायेगा। जबकि भाजपा की घोषित पुरानी नीति में प्रांरभ से ही में उक्त बातों का कभी भी, कही भी उल्लेख नहीं रहा। लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से प्रथक किये जाने की कोई पापुलर प्रभावी मांग भी कभी नहीं रही थी। यूं तो छोटे मोटे स्तर पर देश के कई भागो में नये प्रदेश बनाने की मांग समय-समय पर उठती रहती है, जैसे बोडोलैंड, गोरखालैंड, पूर्वांचल, अवध प्रदेश, बुंदेलखंड, विध्य प्रदेश एवं विदर्भ इत्यादि इत्यादि।
निश्चित रूप से केन्द्र सरकार को अपनी पीठ तब थपथपानी चाहिये, जब वह पीओके पर भारत का तिरंगा झंडा गाड दे। आने वाली सरदार वल्लभ भाई की जयंती पर यह तौहफा पेश करे, सही में तभी वह उनके प्रति सच्चा समर्पण होगा। आगे यह संभव होता भी दिख रहा है, जिसका पूरा श्रेय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अभी से दिया जाना चाहिए। इससे पूर्व तक यह मात्र एक कल्पना भर रही है, जो केवल कागजों पर प्रस्ताव के रूप में प्रतिपादित होती रही और सिर्फ भाषणों में ही इसका उल्लेख सुनाई देता रहा। उसको कार्य रूप में परिणीत भी किया जा सकता है, यह विश्वास एवं अहसास व ताकत आम जनता से लेकर पूरे मीडिया में अनुच्छेद 370 के निष्प्रभावी बना देने के बाद ही उत्पन्न हुई है, जिसका पूरा श्रेय भी मोदी सरकार को ही देना होगा।

सोमवार, 21 अक्टूबर 2019

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अभी तक का सफर। कितना सफल।

वर्ष 1925 में विजयादशमी के पावन दिवस पर डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा एक शाखा प्रांरभ कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की गई थी। वर्ष 2025 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी सौवीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है। किसी भी संगठन के लिये 100 वर्ष पूर्ण करने का अत्यधिक महत्व होता हैक्योंकि इतने लम्बे समय तक किसी भी संगठन को सफलता पूर्वक चलाना  आसान कार्य नहीं होता है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जिसकी स्थापना 28 दिसम्बर 1875 को एक अवकाश प्राप्त अंग्रेज ऑक्टोवियन ह्नयूम ने की थीदेश की सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी हैके सर्वमान्य नेता राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नेतृत्व में देश ने स्वाधीनता संग्राम आंदोलन लड़ा,  जिनकी अभी 150 वीं जंयती भी मनाई जा रही है। स्वतंत्रता संग्राम के लिए अधिकतम श्रेय भी इसी पार्टी को दिया जाता है। 145 वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद कांग्रेस की देश की राजनीति में आज क्या स्थिति हो गई हैयह आप सबके सामने है। 100 वर्ष की पूर्णता हीरक जयंती (डायमंड जुबली) मानी जाती है। अतः यह अवसर आत्मावलोकन करने का एक मौका देता है कि 100 वर्ष के सफर में जिन उद्देश्यों को लेकर संगठन बनाया गया थाउसकी कितनी पूर्ति अभी तक हो पाई है व कितनी प्राप्ति अभी बाकी है। अतः जो शेष बच गई हैउसको पूरा करने के लिए आगे क्या योजना बनाई जानी चाहिए।                                                                                                     100 वर्ष पूर्णता का मतलब पूर्णांक मानना चाहिए। अर्थात 100 वर्ष में किसी भी कार्य ने पूर्णता प्राप्त कर लेना चाहिएयही इसका शाब्दिक अर्थ होता है। परन्तु इस सृष्टि में ऐसी कोई भी  संस्थाव्यक्ति या व्यक्तित्व नहीं हैजो पूर्ण है। यद्यपि सबका उद्देश्य उक्त लक्ष्य को ज्यादा से ज्यादा प्राप्त कर लेने का अवश्य होता है। आज 95 वर्ष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भी पूरे हो गए हैं। यही वह अवसर हैजहां से उद्देश्यों की पूर्णता में जो कुछ भी कमी रह गई हैउसे आगामी 5 वर्षों में पूर्ण नियोजित योजना बना कर उक्त उद्देश्यों को आगे बढ़ाते हुए पूर्णता के निकटतम स्थिति तक पहुंँचाया जा सकता है। लेकिन इसके लिए आत्म विश्लेषण कर स्व-मूल्यांकन करते रहने की महती आवश्यकता है। इस बात पर भी विचार किया जाना होगा संगठन के उक्त स्थापित व विस्तारित उद्देश्यों में संगठन में अभी भी कौन सी कमियां बाकी हैजिन्हे दूर किया जाना अत्यावश्यक है।        इस बात में कोई शक नहीं हैं कि आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विश्व का सबसे बड़ा संगठन है। इस बात में भी कोई शक नहीं है कि इस मूल संगठन ने अनेकानेक आनुषांगिक क्षेत्रों में विभिन्न नामों से जितने संगठन (शाखाएं) खड़े किए गये हैंवह किसी भी अन्य मूल संगठन केे नहीं है। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि संघ के कई आनुषांंिगक संगठन भी विश्व के सबसे बड़े संगठन हैं व उनकी सदस्यता सबसे ज्यादा हैजैसे भारतीय मजदूर संघविद्या भारतीभाजपा इत्यादि एवं अन्तर्राष्ट्रीय संगठन विश्व हिन्दु स्वयंसेवक संघ। यद्यपि भाजपा को सैद्धांतिक रूप से संघ का राजनैतिक आनुषांगिक संगठन नहीं माना जा सकता हैक्योंकि संघ का घोषित उद्देश्य राजनीति नहीं हैबल्कि वह सामाजिक कार्य में विश्वास करता है। किसी भी राजनैतिक पार्टी का कार्यकर्ता जो राष्ट्रवाद में विश्वास करता हैवह समाज सेवा के लिये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्वयंसेवक बन सकता है।                                                                इस वर्षगांठ के अवसर पर आज संघ को यह विचार करने की आवश्यकता है किउसमें ऐसी कौन सी कमियां हैंजिन्हें अगले 5 वर्ष में पूरा किया जा सकें। मेरे विचार में संघ इस समय दो अन्तर्विरोधी विषयों से जूझ रहा है। एक तो क्या संघ हिंदुओं मात्र का संगठन है या सभी  समाजों काहिन्दुहिन्हुत्वहिन्दुस्तान एवं हिन्दु राष्ट्र की स्पष्ट व्याख्या व आचरण संघ को जनता के सामने रखनी ही होगी। यदि यह सिर्फ हिंदुओं का संगठन है तोफिर संघ द्वारा एक आनुषांगिक संगठन राष्ट्रीय मुस्लिम मंच क्यों बनाया गया हैजो सिर्फ मुस्लिम लोगों के बीच में कार्य करता है। यदि संघ सभी समाजों का संगठन हैतो फिर संगठन के समस्त संदेश व उपदेश और उद्देश्य सिर्फ हिंदुओं के लिए ही क्यों होते हैसर्व धर्मसर्व समाज के लिए क्यों नहींक्या सभी समाजों में मुस्लिमईसाईपारसीयहूदीसिजैनइत्यादि शामिल नहीं है। संघ के पदाधिकारी (स्वयंसेवकों को छोड़करवह भी उंगली पर गिनतियों में) गैर हिन्दु क्यों नहीं। यह एक विराट प्रश्न हैजिसका उत्तर और स्पष्टीकरण संघ को देना ही चाहिए। यद्यपि इस संबंध में सरसंघ चालक जी का यह बयान भी प्रांसगिक है किसंघ हिन्दुओं के साथ अन्य वर्गो का भी विकास चाहता हैवह समाज के समस्त वर्गो के बीच सामाजिक समरसता में विश्वास रखता है। लेकिन इसके बावजूद उक्त प्रश्न अनुत्त्रित है।     दूसरा विषय (मुद्दा) हैजनसंख्या के मामले में संघ’ की नीति।संघ’ का यह मानना हैकि मुसलमानों द्वारा जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिये न तो वे जागरूक है और नहीं इस संबंध में उनके द्वारा कोई प्रयास किया जाता हैवरण उनके व्यक्तिगत कानून (पर्सनल लॉ) में 4 बीबी रखने की अनुमति होने के कारणउनकी जनसंख्या में तुलनात्मक रूप से तेजी से वृद्धि हो रही है। इसलिए मुस्लिम कट्टरवाद के कारण उनकी बढ़ती जनसंख्या से निपटने के लिए हिंदुओं को भी अपनी जनसंख्या में बढ़ोतरी करना आवश्यक है। जनसंख्या नियंत्रण करने के लिये भारतीय नागरिकों के लिये पहले ‘‘दो या तीन बस’’ का नारा थाफिर ‘‘हम दो हमारे दो’’ का नारा आयाअब फिर एक ही बच्चा शेर काप्रचलन हो रहा है। यदि हम राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखें तोदेश की राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था इतनी सुदृढ़ नहीं है कि हम तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या का भार उठा सकें। हम सबको यह मालूम है कि देश के साधन-संसाधन चाहे वे प्राकृतिक हो या मानव निर्मितसीमित हैंव उनकी क्षमता की एक अधिकतम निश्चित सीमा है। तब बढ़ती जनसंख्या वृद्धि की तुलना में इन संसाधनों के विस्तार में समानुपतिक रूप से वृद्धि कर पाना संभव नहीं है। इसीलिए यदि देश के प्रत्येक नागरिक का जीवन के हर क्षेत्र में सर्वांगीण विकास परिलक्षित नहीं हो पा रहा हैतो उसका एक प्रमुख सबसे बड़ा कारण जनसंख्या वृद्धि ही है। यह स्थिति भी तब हैजब हमारे देश में जनसंख्या नियंत्रण के क्षेत्र में बहुसंख्यकों के बीच पिछले कुछ समय से प्रभावी रूप से कार्य किया जा रहा है। देश के ‘‘बहुसंख्यक’’ नागरिकों को भी यह बात समझ में आ रही है कियह एक बड़ी भारी राष्ट्रीय समस्या है। सामान्य नागरिकगण भी राष्ट्रीय कर्तव्य निभाते हुए इस समस्या को कम करने में अपनी जिम्मेदारी मानते हुये स्वीकार करते हुयेयथासंभव कम-ज्यादा सहयोग दे रहे हैं। संघ की असमानता पूर्ण जनसंख्या की वृद्धि के मुद्दे पर चिंता का विषय तो बिल्कुल सही है लेकिन उससे निपटने के लिये हिन्दुओं को उनकी जनसंख्या में वृद्धि करने के लिये प्रेरित करना समस्या का कतई सही समाधान नहीं है। यदि इस समस्या को हल करना हैतो इस मुद्दे पर संघ को खासा जोर देना होगा किजो लोग जनसंख्या बढ़ा रहे हैंअर्थात मुस्लिम समाज जनसंख्या नियंत्रण के लिये अविलम्ब और अनवरत प्रभावी प्रयास करें। इसके लिए उन्हें सामाजिक रूप से प्रेरित किया जाकर व शिक्षा दी जानी चाहिए। यदि इन प्रयासों से बात नहीं बनती हैतो निश्चित रूप से कड़क कानून देशहित में लाया जाना चाहिए। जब धारा 370 को निष्प्रभावी बनाने का लगभग असंभव कार्य (संघ के निर्देश पर) भाजपा कर सकती हैजिसकी कल्पना किसी भी आम नागरिक को नहीं थीतब ऐसा कड़क कानून लगाकर इस समस्या का समाधान क्यों नहीं किया सकताप्रश्न यही है।                    क्या संघ को एक ओर महत्वपूर्ण बात पर आगे विचार करने की आवश्यकता नहीं है किहमारे आदिवासी भाई जो हिन्दु समाज का ही अभिन्न भाग हैआज अपने को कुछ क्षेत्रों में हिन्दुओंसे अलग मानकर अलग-थलग क्यों महसूस कर रहे हैबैतूल जिला आदिवासी बाहुल्य है व यहां पर आदिवासियों का एक बड़ा सम्मेलन 8 फरवरी को भागवत जी के मुख्य आतिथ्य में हो चुका है। संघ जो प्रांरभ से ही हिन्दू समाज को एक होने का संदेश लेकर कार्य कर रहा हैतब क्या यह संघ की असफलता नहीं कहलायेगीक्योंकि 10-15 साल पूर्व तक तो आदिवासियों में इस तरह की कोई प्रवृत्ति देखने को नहीं मिल रहीथीजो आज कुछ भागों में समझ आ रही है। मुझे याद आते हैंमेरे स्व. पिताजी श्री जी.डी. खंडेलवाल जी के इस दिशा में किए गए प्रयास। उन्होंने बैतूल जिले में इन आदिवासियों के बीच वर्ष 1960 से मृत्यु (वर्ष 1978) तक अथक ऐसे-ऐसे जनहितेषी कार्य किए जिनके कारण ही वे आदिवासियों के नेता बनकर उभर करगैर आदिवासी होेने के बावजूद स्व. राजमाता विजयाराजे सिंधिया के नेतृत्व में बनी संविद सरकार में (देश में शायद प्रथम बार) आदिवासी विभाग के केबिनेट मंत्री बनें। आज कुछ क्षेत्रों में आदिवासियों का हिन्दुओं से दुराव क्यों परिलक्षित हो रहा हैचिंता का विषय यही है।                                                             उपरोक्त चिंताओं के साथ संघ को वर्ष 2025 के लिये अग्रिम हार्दिक शुभकामनाएँइस विश्वास के साथ कि वह राष्ट्र के 90 करोड़ से अधिक समस्त बालिग नागरिकों का हितेषी संगठन स्वयं को सिद्ध करेगा। संघ ‘‘राष्ट्रवाद’’ को समस्त मुद्दे से परे सबसे ऊपर रखकर सर्व-धर्म-समाज में समान रूप से मजबूत करने में सफल होगा। क्योंकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि देश में राष्ट्रवाद’ की अलख जगाने वाला सही मायने में यही एक मात्र प्रभावी राष्ट्रीय संगठन रह गया है। 

बुधवार, 28 अगस्त 2019

‘‘नौ सौं चूहे खाकर बिल्ली हज को चली’’


विश्व के 195 देशों में भारत निश्चित रूप से एक अनूठा स्थान लिये हुये है। शायद इसका एक बहुत बड़ा कारण हमारी पीढि़यों से चली आ रही खुबसूरत सांस्कृतिक धरोहर एवं विरासत है। हमारे देश की संस्कृति में इतनी (एकता में अनेकता) विभिन्नतायें है, जो सदैव जीवन्त बनी रहकर  और अंततः एक मुहावरे के रूप में प्रसिद्ध होती जाती रही हैं। अर्थात हमारे देश में जितने भी मुहावरे प्रचलित है, उनके पीछे निश्चित रूप से कोई न कोई गूढ़ार्थ अवश्य होता है, जो यथार्थ लम्बे अनुभव का जन हितैषी संदेश लिये हुये होता है। 
पूर्व गृह एवं वित्त मंत्री रहे पी. चिदंबरम की गिरफ्तारी का मामला हमें एक साथ इससे संबंधित  कई मुहावरों की याद दिला देता है। विगत दिवस घटित हुई पी. चिदंबरम की गिरफ्तारी की घटना से उपरोक्त शीर्षक (मुहावरे) के अतिरिक्त भी ‘‘इतिहास अपने आप को दोहराता है’’ कभी भी वक्त एक जैसा नहीं होता ‘दुनिया गोल है’, ‘‘कभी व्यक्ति ऊपर तो कभी नीचे भी आना पड़ता है’’ ‘‘जैसे को तैसा’’ ‘‘जैसी करनी वैसी भरनी’’ ‘‘अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे’’ आदि इत्यादि अन्यान्य मुहावरे चरितार्थ हो रहे हैं। 
कांग्रेस का यह कहना कि ‘‘उक्त कार्यवाही राजनीति से प्रेरित है’’ न तो वह सत्य से परे है और न ही नया है। स्वयं कांग्रेस का उक्त बयान राजनीति पुट लिये हुये है। लेकिन कांग्रेस को स्वतः के इतिहास के परिपेक्ष में नैतिक रूप से क्या यह अधिकार है कि वह उक्त गिरफ्तारी की कार्यवाही पर प्रश्न उठा सके? मामले का कानूनी पक्ष तो न्यायालय देख ही रहा है। जब कांग्रेस जब सत्ता में रही, तब लगातार दुरूपयोग के कारण सीबीआई को ‘‘कांग्रेस ब्यूरों ऑफ इनवेस्टीगेशन’’ कहा जाने लगा था। अभी तो यहाँ पी. चिदंबरम भर की  घटना ही दिख रही है। यद्यपि कुछ ऐसी और घटनाएं और भी हुई हैं, लेकिन शायद मीडिया ने उन्हे उतना महत्व नहीं दिया। यदि राजनैतिक द्वेष एवं प्रतिशोध से प्रेरित कांग्रेस के जमाने की इसी प्रकार की द्वेष प्रेरित कार्यवाहियों की सूची बनाई जाय, तो वह सूची थमेगी नहीं। इसीलिए मैंने शीर्षक लिखा ‘‘नौ सौं चूहे खाकर बिल्ली हज को चली’’।
यह भी कहा जाता है ‘‘जैसी करनी वैसी भरनी’’ यह मुहावरा भी इस मामले में पूर्णतः सही सिद्ध हो रहा है। याद कीजिए! और यह भी मात्र एक संयोग ही है, जब पी. चिदंबरम केन्द्रीय गृहमंत्री थे, तब वर्तमान केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह तब के गुजरात प्रदेश के मंत्री थे जिनको राजनैतिक सत्ता के दुरूपयोग के कारण फर्जी सोहराबुद्दीन एनकाउंटर केस में फंसाया जाकर उन्हे लम्बे समय तक जेल की सलाखों के पीछे रहना पड़ा था। उन्हे दो वर्ष तक गुजरात से तड़ीपार भी किया गया था। ठीक उसके विपरीत पी. चिदंबरम को आज वर्तमान केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह के अधीन सीबीआई एवं ईडी के कारण उन्हें 5 दिन की रिमांड (कस्टडी) में जाना पड़ा। इसे बदला (‘बदलापुर’ किसी मीडिया हाऊस ने कहा है) या इतिहास का अपने आप को दोहराना कहना ज्यादा युक्ति संगत होगा। यह भी एक अदभुत संयोग ही है कि वर्ष 2011 में जिस सीबीआई के वर्तमान कार्यालय का उद्धाटन् तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिंदबरम के हाथों हुआ था, उसी कार्यालय में आज पी. चिंदबरम को गिरफ्तार कर रखा है।   
सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है। भाजपा ने पी. चिदंबरम कांड की कार्यवाही में जिस तरह से उतावलापन दिखाया है, उससे यह जाहिर होता है कि भाजपा ने भी इतिहास से कोई सबक नहीं सीखा। राजनैतिक प्रतिशोध (वैनडेटा) के शिकार होने वालों में सबसे ज्यादा इतिहास जनसंघियों से लेकर भाजपाइयों का ही रहा है। राजनैतिक सत्ता के दुरूपयोग के भुक्त भोगी एवं पीडि़त भाजपाइयों से कम से कम यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि, जब भी भाजपा को सत्ता सुख भोगने का या चस्का लेने का मौका मिलेगा, तब वह कम से कम वह न तो स्वयं उस सत्ता का दुरूपयोग कदापि नहीं करेगें, साथ ही भविष्य में सत्ता के दुरूपयोग नहीं होने देने के लियेे आवश्यक कडे़ कदम अवश्य उठायेगें, ताकि राजनैतिक प्रतिशोध पर की भावना पर अंकुश लग सकें। इससे सत्ता के इस अवांछित अविरल निरंतर चलने वाले चक्र की निरंतरता पर भी अंकुश लग सकेगा। 
इससे भी बडी बेढब मीडिया की यह रही जिसने पी. चिदंबरम के 24 घंटे तथाकथित रूप से भागने पर व प्रेस कॉन्फ्रेंस में उनके द्वारा कहे गये कथन कि ‘‘मुझे शुक्रवार तक गिरफ्तार न किया जाये’’, के लिये उनका मजाक उड़ाते हुये यह टिप्पणी की ‘‘क्या पी. चिंदबरम के लिये कानून अलग है?’’ मीडिया के इस प्रश्न का उत्तर भी मीडिया के उसी प्रश्न में शामिल है। एक तरफ मीडिया पी. चिदंबरम को सामान्य नागरिक मानते हुये उनकी तीव्रगति से की गई गिरफ्तारी की कार्यवाही पर उठाए गये प्रश्न के औचित्य, पर प्रश्न कर रहा है कि, चिदंबरम को एक सामान्य व्यक्ति की तुलना में क्या कोई विशेषाधिकार प्राप्त है? सामान्य नाते बिल्कुल नहीं। वही मीडिया पी. चिदंबरम को विशिष्ट व्यक्ति मान कर उनकी गिफ्तारी को लगातार 24 घंटे लाइव दिखा रहा है। क्या आपने कभी किसी सामान्य व्यक्ति की गिरफ्तारी पर मीडिया का इस तरह की ‘‘लाइव’’ देखी। अर्थात कभी मीडिया उन्हे एक तरफ सामान्य अभियुक्त मानता है, तो दूसरी बार.विशिष्ट वीआईपी नागरिक भी मान कर सीधा प्रसारण (लाइव टेलीकास्ट) कर रहा है। मतलब साफ है, मीडिया भी एक ही तरह के प्रकरण को अपनी सुविधानुसार टिप्पणी करता है।
एक प्रश्न न्यायालय पर भी है। पूर्व में अग्रिम जमानत रद्द करने के आवेदन पर अंतिम बहस हो जाने के बाद भी उस पर 7 महीने तक आदेश पारित न करके माननीय न्यायालय ने किस न्यायिक उच्च गुणवत्ता को दर्शित किया है? जब इन 7 महीने में पी. चिदंबरम देश से भागे नहीं तो, सीबीआई यदि 2 दिन और उन्हे उच्चतम न्यायालय में सुनवाई हेतु मिल जाते तो कौन सा पहाड़ टूट जाता। तब तक वे संविधान में प्रद्धत समस्त ‘‘स्वतंत्रता’’ के अधिकारों का प्रयोग करके संतुष्ट हो जाते व तब उन्हे कोई शिकायत या अफसोस नहीं होता न ही उसका अवसर रहता। 
अंत में बात राजनीति पर आकर अटक जाती है, जैसा कि मैं पूर्व में ही कई बार लिख चुका हूंँ। राजनीति इस देश में ‘‘चीनी’’/‘‘नमक’’ बन कर रह गई है जो कहीं भी किसी भी पदार्थ में मिलने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। इसीलिए देश के हर क्रिया-कलाप में राजनीति सदैव हावी हो जाती है। इसी अटल सत्य को आम नागरिकों ने भी स्वीकार शायद कर लिया है। 

गुरुवार, 8 अगस्त 2019

अनुच्छेद 370 (2) एवं (3) समाप्त! लेकिन उपबंध (1) क्या 370 का भाग नहीं?

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश के इतिहास में राष्ट्रीय सुरक्षा व अंतर्राष्ट्रीय दृष्टि से वर्ष 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सबसे बड़ा कदम उठाकर पाकिस्तान को युद्ध में बुरी तरह से पटकनी देकर बंग्लादेश का निर्माण किया था। भारतीय सेना ने उक्त युद्ध में दो लाख से अधिक पाकिस्तानी सैनिकों जिसमें सिविलियन्स, नागरिकगण व कुछ बंगाली लोग भी शामिल थे, का आत्मसमर्पण करवा कर पाकिस्तान को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था। उस ऐतिहासिक उपलब्धि के लिये, तबके विपक्ष के नेता भाजपाई अटल बिहारी बाजपेयी ने इंदिरा गांधी को मां दुर्गा तक की संज्ञा दी थी। 
आज गृहमंत्री अमित शाह ने बड़ा ऐतिहासिक राजनैतिक कदम उठाने के पूर्व उक्त कदम को लागू करने से राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पटल पर पड़ने वाले प्रभाव का समुचित प्रबंध करते हुये, संविधान के अनुच्छेद (धारा) 370 (1) को छोड़कर अनुच्छेद 370 की शेष समस्त उपधाराएं (खंड 2 एवं 3) को समाप्त करते हुये, धारा 370 की धार को ही बोठल कर दिया। साथ ही धारा 35ए भी समाप्त कर दी। लद्दाख व जम्मू-कश्मीर दो नये केन्द्र शासित प्रदेश बना कर आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘‘अगस्त क्रंाति’’ की याद दिला दी। (इसी सावन महीने में ही चंद्रयान 2 का सफल परीक्षण एवं ट्रिपल तलाक बिल भी पारित हुआ। राम जन्मभूमि मामले में उच्चतम न्यायालय में प्रतिदिन सुनवाई भी आज प्रांरभ हो गई हैं) इस प्रकार दोहरी नागरिकता, दो झंडे और दो विधान के प्रावधानों को एक झटके में समाप्त कर दिया। 
इंदिरा गांधी द्वारा बांग्लादेश निर्माण के समय उठाये गये कदम एवं अमित शाह के आज पूरी तैयारी के साथ उठाये गये कदमों में कई समानताएं हैं। प्रथम इंदिरा गांधी ने घोषित रूप से पाकिस्तान पर आक्रमण कर बांग्लादेश का निर्माण नहीं करवाया, बल्कि पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में वहां के निवासियों जिन्हे मुक्तिवाहिनी कहा गया द्वारा पश्चिमी पाकिस्तान के अत्याचार के विरूद्ध चला रहे आंदोलन जो बाद में स्वतंत्रता आंदोलन में परिणित हो गया था, को पूरी तरह से मदद देकर स्वतंत्र होने में पूरी सहायता की थी। ठीक उसी प्रकार गृहमंत्री अमित शाह ने पिछले एक हफ्ते से जम्मू-कश्मीर में अतिरिक्त फौज इस आधार पर भेजी कि वहां पर आंतकी गतिविधियों एवं उनके द्वारा की जाने वाली आंतकी कार्यवाहियों का इनपुट मिला है, अमरनाथ यात्रियों पर हमले की आंशका है। अतः कानून शांति व्यवस्था व नागरिकों की सुरक्षा बनाये रखने का कारण बताया जाकर, राजनैतिक नेताओं की गिरफ्तारी, कर्फ्यू व धारा 144 लगाई गई। स्पष्ट है, घोषित रूप में अनुच्छेद 370 पर संशोधन करने की घोषणा के उद्देश्य से उक्त कार्यवाही नहीं की गई। अतः आज जब संसद में धारा 370 में संशोधन लाने की घोषणा की गई, तब यह महसूस हुआ कि यह उक्त एजेंड़ा हिडन (छिपा हुआ) हैं, ठीक वैसा ही, जैसा कि इंदिरा गांधी के बंग्लादेश बनाने के समय फौज भेजने के निर्णय के साथ था। 
एक समानता यह भी है कि जहां इंदिरा गांधी ने दुश्मन देश के दो टुकड़े किये, वहीं गृहमंत्री ने ‘‘गृह’’ (घर) जम्मू-कश्मीर (भारत का ताज) के दो टुकड़े कर दिये। बांग्लादेश बनाकर विश्व में एक राष्ट्र की और बढ़ोत्री हुई, तो अमित शाह के संकल्प पत्र से 29 प्रदेश वाला भारत 28 प्रदेश में सिमट गया व केन्द्र शासित प्रदेश के रूप में दो प्रदेशों की वृद्धि हुई। इंदिरा गंाधी ने जहां पश्चिम पाकिस्तान के अत्याचार से पीडि़त पूर्वी पाकिस्तान की जन भावना के अनुरूप कार्य कर बांग्लादेश बनाया, वही अमित शाह ने सेना व बंदूक के साये में वहां की जनता को (बिल्कुल) विश्वास में लिये बिना जम्मू-कश्मीर का राज्य का स्ट्टेस खत्म कर केन्द्र शासित प्रदेश कर दिया।
उक्त कदम ऐतिहासिक कई कारणों से है। पिछले 70 सालों से जनसंघ से लेकर भाजपा तक सत्ताधारी पार्टी का एजेंडा संविधान की धारा (अनुच्छेद) 370 जो कि स्वयं में एक अस्थायी संक्रमण कालीन प्रावधान है, को पूर्णतः समाप्त कर एक राष्ट्र, एक निशान व एक विधान की लगातार वकालत करते रहने का रहा है। अस्थायी का मतलब ही यह होता है कि उसे किसी न किसी दिन समाप्त होना ही है, जैसा कि स्व. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अनुच्छेद 370 के संबंध में कहा था कि यह घिसते-घिसते घिस जायेगा। शिवसेना ही एक मात्र ऐसी राजनैतिक पार्टी है, जो शुरू से इस मुद्दे पर भाजपा के साथ रही है। अटल जी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार अलग-अलग अवसरांे पर लगभग कुल छः वर्ष की अवधि में रही। नरेन्द्र मोदी भी वर्ष 2014 से 2019 तक पांच साल की अवधि में प्रधानमंत्री रहे। लेकिन नरेन्द्र मोदी की दूसरी पारी में आज यह कदम उठाने के पूर्व किसी भी सरकार ने उक्त साहस नहीं दिखाया। भाजपा को वर्ष 2014 के चुनाव में भी पूर्ण बहुमत मिला था, जैसा की आज प्राप्त है। भाजपा के पास राज्यसभा में पूर्ण बहुमत तब भी नहीं था, और आज भी नहीं है (अपने बलबूते पर)। इन तथ्यों के रहते हुये राजनाथ सिंह के बदले अमित शाह के गृहमंत्री बनने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने जो यह कदम उठाया वह साहसिक व ऐतिहासिक ही कहा जायेगा। क्योंकि पूर्व में अटल जी व नरेन्द्र मोदी राजनाथ सिंह के गृहमंत्री रहते हुये यह कदम नहीं उठा पाये। ऐतिहासिक इस कारण से भी है कि पिछले कुछ दिनों से जम्मू-कश्मीर में सरकार जो कार्यवाही कर रही थी, उसका लबालूब निष्कर्ष यही निकल रहा था कि सरकार जम्मू-कश्मीर में ‘‘कुछ’’ करने जा रही है व अधिकतम धारा 35ए को समाप्त कर सकती है। लेकिन समस्त समीक्षकों, आलोचकों, समालोचकांे को हतबद्ध कर अमित शाह ने न केवल धारा 35ए को समाप्त किया, बल्कि जम्मू-कश्मीर प्रदेश का राज्य का दर्जा समाप्त कर उसके दो टूकडे़ कर दो अलग-अलग केन्द्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर एवं लद्दाख बना दिया। यह कदम ऐतिहासिक इसीलिये भी है, क्योंकि भाजपा अपने एजेंडे़ से दो कदम और आगे जाकर (जिसकी कल्पना किसी भी ने नहीं की थी) जम्मू-कश्मीर को केन्द्र शासित प्रदेश बना दिया। लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से काटकर नया केन्द्र शासित प्रदेश बनाना व जम्मू-कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा समाप्त कर केन्द्र शासित प्रदेश बनाना निश्चित रूप से समस्त राजनैतिक आलोचकों के लिये एक आश्चर्यजनक व कौतूहल पूर्ण कदम रहा है।  
यह निर्णय इसलिये भी ऐतिहासिक है कि वे पार्टियाँ जो प्रायः संसद में व संसद के बाहर कभी भी भाजपा के साथ खड़ी दिखाई नहीं दी है, लेकिन भाजपा के इस ऐतिहासिक कदम के साथ संसद में आज खड़ी हुई दिख रही है। इसमें प्रमुख रूप से बसपा, एआईडीएमके, बीजेडी, वाईएसआर कांग्रेस, आप, टीआरएस, एवं तेलगु देशम पार्टी शामिल है। अतः यदि आज उक्त ऐतिहासिक कदम से कुछ क्षेत्रों में सरदार पटेल की याद ताजा हो रही है, तो यह अतिश्योक्ति नहीं है। 
एक बात और! कांग्रेस को अनुच्छेद 370 में किये जा रहे संशोधन के विरोध इस आधार पर कि यह महाराजा हरिसिंह के साथ किये गये वायदे का उल्लंघन है और कोई नैतिक बल व अधिकार नहीं है क्योंकि कांग्रेस ने स्वयं वर्ष 1969 में निजी बैंको के राष्ट्रीय करण के साथ पूर्व राजाओं का प्रिविपर्स समाप्त कर 562 रियासतों के साथ भारत में शामिल करते समय किये गये समझौते का उल्लंघन किया था। तब उक्त कदम को बड़ा क्रंातिकारी प्रगतिशील व ऐतिहासिक बतलाया था।    
आइये, अब सिक्के के दूसरे पहलू को भी थोड़ा समझने का प्रयास करें। एक बात जो समझ से बिल्कुल परे है, वह जम्मू-कश्मीर को केन्द्र शासित प्रदेश बनाना, जो भाजपा सहित देश की किसी भी पार्टी के एजेंडा में शामिल नहीं था। निश्चित रूप से कश्मीरियों का जम्मू-कश्मीर के प्रति एक प्राकृतिक भावनात्मक लगाव है। कुछ लोगो का अनजाने या ना-समझी मंें ही सही, अनुच्छेद 370 से भावनात्मक लगाव है, यह भी सही है। क्योंकि वे भारत से जुडाव का बंधन इसी को मानते है,  जो यद्यपि सही नहीं हैं। अनुच्छेद 370 (2) एवं (3) के उपबंधों में प्रतिबंध के प्रावधान रहने के बावजूद अनुच्छेद 370 के उपबंध (1) का प्रयोग करते हुये भारत के अधिकांश कानून कश्मीर पर लागू कराये गये। इस प्रकार व्यवहारिक रूप से इन 70 वर्षो में अनुच्छेद 370 के प्रभाव को निष्प्रभावी कर दिया गया था। धारा 35ए के कारण ही देश के नागरिकों को जम्मू-कश्मीर में जमीन खरीदने का अधिकार अभी तक नहीं था। अतः अनुच्छेद 370 (2) एवं (3) को समाप्त करते समय गृहमंत्री ने कश्मीरियों की भावनात्मक भावना को ध्यान में रखे बिना उक्त राज्य जिसे विशेष दर्जा प्राप्त था का न केवल विशेष दर्जा समाप्त किया, बल्कि उसे अन्य प्रदेशों के समान एक राज्य भी नहीं रहने दिया। उसे दिल्ली, गोवा समान केन्द्र शासित प्रदेश बना दिया गया। इस प्रकार जम्मू-कश्मीर जहां एक समय ‘‘महाराजा’’ राज्य करते थे से लेकर गर्वनर जनरल, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री फिर मुख्यमंत्री व अंत में राज्यपाल के बाद अब उपराज्यपाल के अधीन कर दिया है, जो निश्चित रूप से कश्मीरियों के सम्मान को भावनात्मक रूप से ठेस पहंुचता है। इस स्थिति को देखते हुये जब गृहमंत्री ने राज्य को केन्द्र शासित राज्य बनाने का कोई उचित, आवश्यक व स्वीकार योग्य कारण नहीं बतलाया हैं, जबकि उनका उद्देश्य तो धारा 370 में संशोधन कर उसका विशेष दर्जा समाप्त करना मात्र था। जम्मू-कश्मीर राज्य के विभाजन की मांग कभी भी, किसी, ने किसी कार्नर से नहीं उठाई थी, तब इस विभाजन की आवश्यकता नहीं थी। फिर भी यदि राजनैतिक रूप से यह आवश्यक था, तब उसे विभाजित कर केन्द्र शासित प्रदेश बनाने के बदले दो राज्य बनाते तो ज्यादा बेहतर होता। 
संसद में जम्मू एवं कश्मीर राज्य पुनर्गठन विधेयक व अनुच्छेद 370 में संशोधन का प्रस्ताव प्रस्तुत करते समय व उस पर हुई बहस का जवाब देते हुये अमित शाह द्वारा दिये उस कथन पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है कि अनुच्छेद 370 के कारण जम्मू-कश्मीर को कोई फायदा नहीं मिला (उनके शब्दों में ‘‘कोई मुझे बताएं तों...’’।) आगे उन्होंने यह भी कहा कि राज्य की अधिकांश समस्यायें चाहे वह विकास, भ्रष्टचार, शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार, अपराध आदि किसी से भी संबंधित हो या आंतकवादी घटनाएं हो, उन सबके लिये अनुच्छेद 370 ही मुख्यतः जिम्मेदार है। अनुच्छेद 370 के कारण ही देश के लगभग 116 कानून जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं हो पाये। लेकिन उन्होंने यह नहीं बतलाया कि अनुच्छेद 370 के प्रतिबंध के प्रावधान के बावजूद अधिकतम महत्वपूर्ण कानून जम्मू-कश्मीर में की विधानसभा में पारित करवाकर लागू किये गये। जब पीडीपी व भाजपा की संयुक्त सरकार थी, तब वे 116 कानून विधानसभा में पारित करवाकर क्यों नहीं लागू करवाये गये, यह प्रश्न विपक्ष द्वारा न तो पूछा गया और शायद उसका कोई जवाब भी नहीं था। अमित शाह के अनुसार यदि समस्त समस्याओं की जड़ अनुच्छेद 370 है, जैसा कि उन्हांेने संसद में अपने भाषण में कहां है, तो हमारे उत्तर पूर्वी प्रदेश व अन्य प्रदेश नागालैंड (अनुच्छेद 371ए) असम (371 बी) मणिपुर (371 सी) आंध्र प्रदेश तेलंगाना (371 डी) सिक्किम (371 ई) मिजोरम (371 जी) अरूणचल प्रदेश (371 एच) एवं गोवा (371 आई) एवं महराष्ट्र गुजरात हिमाचल प्रदेश (371), इन सभी राज्यों को विशेष दर्जा उपरोक्त उल्लेखित अनुच्छेदों को संविधान में शामिल करके दिया गया है। क्या  उक्त इन्ही आधारों पर ही उपरोक्त उल्लेखित समस्त अनुच्छेदों को संविधान से हटाकर (जैसा कि 370 (2) एवं (3) के साथ किया गया) कर विशेष राज्य का दर्जा समाप्त कर केन्द्र शासित प्रदेश बनाने के लिए सरकार क्या संसद के अगले सत्र में बिल लायेगी? ताकि उक्त समस्त विशेष दर्जा प्राप्त प्रदेशों का समुचित विकास हो सके। दुर्भाग्य की स्थिति तो यह है कि कोई भी पार्टी किसी भी समय चाहे देश में कितने ही संकट की स्थिति क्यों न हो बिना राजनीति किये सिर्फ और सिर्फ देश हित में कार्य करना ही नहीं चाहती है। निरपेक्ष रूप से शुद्धता के साथ सिर्फ देश हित में कार्य इस देश में कब संभव होगा? यद्यपि आज संसद में बार-बार यह कहा जा रहा था कि चर्चा राजनीति से ऊपर उठ कर की जानी चाहिये। लेकिन उक्त कथन में ही राजनीति भी परिलक्षित हो रही थी। यह एक बड़ा अवसर अमित शाह के लिये था। देश की जनता इस मुद्दे पर उनके साथ थी। यदि वे थोड़ा सा भी राजनीति से ऊपर उठकर बहस करते, तो शायद वे असरदार से सरदार होकर लौहपुरूष भी कहलाते। उदाहरणार्थ यह कहने की कतई आवश्यकता नहीं थी कि धारा 370 से जम्मू-कश्मीर के मात्र 3 परिवार को ही फायदा मिला जो न तो सच था और न ही समायोचित था। जूनागढ़ व हैदराबाद रियासत का भारत में विलय का मामला सरदार पटेल ने संभाला था, इसलिये समस्या नहीं हुई, जबकि कश्मीर का मुद्दा नेहरू के कारण आज तक विवादित बना रहा। उक्त कथन चीरफाड़ के बाद मरहम लगाने वाले तो कम से कम नहीं थे।  
खैर अब तो यही आशा है कि गृहमंत्री के आशानुरूप स्थिति तेजी से सामान्य होगी, ताकि गृहमंत्री लोकसभा में दिये गये आश्वासन के अनुसार जम्मू-कश्मीर पुनः देश का 29 वां राज्य बन सके, ताकि उसकी मुकुटमणि की स्थिति को पुर्नस्थापित किया सके।  
अंत में एक बात और सरकार द्वारा संसद भवन में रोशनी कर खुशी का अतिरिेक्त प्रर्दशन करने का औचित्य क्या है? ऐसी स्थिति में, जबकि वह जनता जिसके फायदे के लिये उक्त कानून बनाया गया कर्फ्यू में ड़र व खौंफ के माहोल में है, व उसे अपनी खुशी(?) व्यक्त करने का अवसर सरकार नहीं दे रही है। इसीलिए ऐसे अति उत्साह से बचा जाना चाहिए था। खैर अब तो मोदी सरकार का अगला कदम निश्चित रूप से ‘राम जन्म भूमि’’ ही होना चाहिये जो पूरे राष्ट्र की मांग व आवाज है।

बुधवार, 31 जुलाई 2019

साध्वी प्रज्ञा ठाकुर ने आखिर गलत क्या कहाँ ?


भोपाल की सांसद साध्वी प्रज्ञा ठाकुर जो पूर्व में भी अपने कई बयानों के कारण मीडिया व देश की राजनीति में न केवल चर्चित रही, बल्कि उनके बयानों के कारण भाजपा को शर्मिदंगी भी उठानी पड़ी है, व पार्टी की किरकिरी भी हुई है। प्रधानमंत्री तक को पार्टी की छवि बचाने के लिये यह कहना पड़ा कि गोड़से को देशभक्त बताने वाले उनके बयान के लिये वे साध्वी को कभी भी दिल से माफ नहीं कर पाएगें। 
वही साध्वी प्रज्ञा ठाकुर का सीहोर में पार्टी कार्यकर्ताओं की एक बैठक में यह उद्बोधन/कथन सामने आया है कि ‘‘हम नाली साफ करवाने के लिए नहीं बने है। हम आपका शौचालय साफ करने के लिए बिल्कुल नहीं बनाएं गए हैं। कृपया इसे समझें! हम जिस काम के लिए चुने गए हैं, वह काम हम ईमानदारी से कर रहे हैं’’। आगे उन्होंने ये भी जोड़ा कि ‘‘निर्वाचन क्षेत्र के समग्र विकास के लिए स्थानीय विधायक और नगरपालिका पार्षदों सहित स्थानीय जनप्रतिनिधयों के साथ काम करना संसद के सदस्य का कर्तव्य है।’’ साध्वी प्रज्ञा ठाकुर का यह बिल्कुल सीधा सादा सही अर्थो में संवैधानिक रूप से सत्य बयान होने के बावजूद भी उस पर तुच्छ राजनीति भी हो सकती है, यह शायद सिर्फ हमारे देश में ही संभव है। उक्त बयान पर मीडिया से लेकर राजनैतिक नेताओं तक ने बवाल और बवंडर मचा दिया। इससे यह भी सिद्ध होता है कि देश का राजनैतिक स्तर, नेताओं का बौद्धिक स्तर व मीडिया की गुणवता का स्तर निम्न होकर कितने नीचे गिर सकता है? किसी बयान पर अपनी प्रतिक्रिया देते समय उस बयान के प्रसंग में जाए बिना राजनेताओं द्वारा अनर्गल व असंदर्भित प्रतिक्रिया देकर मीडिया के सहयोग से किस तरह से वे सुर्खियों में आना चाहते हैं, उसके निम्न स्तर का यह एक ‘‘श्रेष्ठ’’ उदाहरण है। 
बयान पर प्रतिक्रिया देने के पहिले जरा सोचिए तो! साध्वी ने उक्त कथन कहां पर किस संदर्भ में व किनके समक्ष दिया है। किसी भी बयान को उसके संर्दभ से अलग कर उस पर प्रतिक्रिया देना अपरिपक्वता नहीं तो और क्या है? साध्वी के बयान पर दी गई प्रतिक्रिया, बयान के तथ्यों से बिल्कुल भी मेल नहीं खाती है। अतः बिना सोचे समझे, या यह कहां जाए तो ज्यादा बेहतर होगा कि जानबूझकर सोची समझी योजनाबद्ध रूप से उक्त बयान को प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय स्वच्छता कार्यक्रम की सीमा तक ले जाकर, उसके विरूद्ध ठहराकर, आलोचना करने का जिस तरह माध्यम उक्त बयान को बनाया गया है, वह नितांत बचकाना कार्य लगता है। सांसद असदुद्ीन ओवैशी ने कहां मुझे कतई हैरानी नहीं हुई, न मैं इस वाहियात बयान से स्तब्ध हूूँ, वह ऐसा इसलिए कहती हैं, क्योंकि उनकी सोच ही ऐसी है। सांसद भारत में हो रहे जाति तथा वर्गभेद में यकीन करती हैं। वह साफ-साफ यह भी कहती है कि जो काम जाति से तय होता है वह जारी रहना चाहिए यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है और उन्होंने खुलेआम प्रधानमंत्री के कार्यक्रम का विरोध किया। 
जरा ओवैसी केे उक्त बयान पर ध्यानपूर्वक गौर कीजिये। जो बात साध्वी ने कही ही नहीं, वह ओवैसी उनके मुख में जबरदस्ती डलवाना चाहते है। यह देखा जाना चाहिऐ कि साध्वी अपने कार्यकर्ताओं के साथ बैठी हुई थी, और जब किसी कार्यकर्ता ने उन्हें सफाई की कोई समस्या बताई तब उन्होंने उक्त कथन किया, कि मुझे आपने इस कार्य के लिए नहीं चुना गया है। उनका यह कथन पूर्णतः सही है। लेकिन देश में आज कल राजनैतिक वातावरण भाजपा के ईर्द गिर्द सीमित मात्र होकर शैनेः शैनेः एक तंत्रीय प्रणाली होता जा रहा है। भाजपा में रहते हुए कड़क सही बात बोलने की जो हिम्मत उन्होंने दिखाई है, वह काबिले तारिफ है। उसके लिये वे साधुवाद की पात्र है।
आखिर उन्होंने गलत क्या कहा है? हमारे देश में लोकतंत्र को पूर्ण सही रूप से सच्चे अर्थो में स्थापित करने की प्रक्रिया स्वरूप ही संविधान और कानून समस्त विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप पंचायत स्तर से लेकर राष्ट्र को चलाने की केन्द्रीय शासन की व्यवस्था तक प्रत्येक स्तर पर अलग-अलग तंत्र स्थापित किया गया है। पंचायत का कार्य ग्राम पंचायत स्तर पर ग्रामों का विकास करना है, जिसे पंचायती राज कहा गया है। नगर पंचायत, नगर पालिका व नगर निगम के माध्यम से स्थानीय स्वशासन स्थापित कर कस्बे-शहर में साफ सफाई करने से लेकर शौचालय व सड़कों की सफाई के कार्य के साथ-साथ सर्वांगींण विकास के कार्य का उत्तरदायित्व स्थानीय स्वशासन अर्थात पार्षदों का ही है। मतलब निश्चित रूप से मूलतः सफाई का कार्य विधायक या सांसद का नहीं है, और न ही जनता उन्हे इस कार्य के लिये चुनती हैं। इसके लिये तो सामान्य पार्षद चुने जाते है। लेकिन जनप्रतिनिधी होने के नाते सफाई कार्य व स्वच्छता पर निगरानी रखना जनप्रतिनिधी होने के नाते जरूर उनका दायित्व बनता है, क्योंकि आजकल क्षेत्र का विकास नापने का एक मापदंड स्वच्छता भी है। 
विधायक को विधानसभा क्षेत्र के विकास व प्रदेश के नागरिकों के हित के लिए आवश्यक कानून बनाने के लिए विधानसभा भेजा जाता है। ठीक उसी प्रकार सांसद को संसदीय क्षेत्र के विकास के साथ-साथ देश हित में देश के नागरिकों के सर्वांगीण शांतिपूर्ण विकास व देश की आंतरिक-बाह्य सुरक्षा के लिए पर्याप्त समुचित कानून बनाने के लिए चुना जाता है। इसीलिये विकास के लिये विधायक निधि व सांसद निधि का प्रावधान भी किया गया है। मतलब साफ है कि विधायिका जिसमें सांसद व विधायक शामिल है, का कार्य मुख्य रूप से मूलतः कानून बनाना है। ट्रांसफर, पोस्टिंग व्यक्तिगत कार्य और साफ सफाई का कार्य सांसद का नहीं है। यद्यपि नागरिकों के चुने हुए प्रतिनिधी होने के नाते सांसद यदि उक्त कार्यों पर प्रभावी निगरानी रखते है, तो अवश्य वे एक सजग विधायक या सांसद कहलाएंगे।
भारतीय जनता पार्टी के विधायक व प्रदेश के उपाध्यक्ष अरविंद भदोरिया इस बात के लिए बधाई के पात्र है, कि उन्होंने साध्वी की भावनाओं को सही परिपेक्ष में समझा, और उसे सही बतलाया। वास्तव में साध्वी ने जो कहा, उसे इस बात से भी समझा जा सकता है, कि गिलास आधा भरा है, अथवा आधा खाली। साध्वी ने गिलास आधा भरा है, के अनुसार कथन किया। बात कही। बाकी नासमझ लोगों ने उसे आधा खाली जताने की कोशिश की। 
ओवैसी से लेकर भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष जय प्रकाश नड्डा से यह पूछा जाना चाहिये कि वास्तव में सांसद के संविधान में निहित कार्य, दायित्व, जिम्मेदारी व अधिकार क्या है? जिनका वर्णन संविधान में किया गया है। जब साध्वी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अत्यंत महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय कार्यक्रम राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान कार्यक्रम का कोई संदर्भ या जिक्र तक नहीं किया और न ही इस ओर इग्ंिांत ही किया है अथवा किसी भी तरह से उक्त अभियान की कोई आलोचना की है, तब उनसे उनके उक्त बयान को राष्ट्रीय अभियान से जबरदस्ती संर्दभित कर,स्पष्टीकरण मांगने की आवश्यकता बन गई ? उक्त बयान सेे पार्टी की छवि को कैसे नुकसान पहंुच गया, यह समझना मुश्किल है। इससे तो यही सिद्ध होता है, कि भाजपा में भी सांसदों को सही बात दिल से कहने की स्वतंत्रता नहीं है? उन्हे अपने कार्यकर्ताओं को सही बात (जो प्रायः कड़वी होती है) समझाने का अधिकार नहीं है। उन्हे परिपक्व बनाने व अपने दायित्व के प्रति जाग्रत करने का अधिकार नहीं है? शायद कड़वी बात कहना आज की राजनीति में संभव ही नहीं है।  
निश्चित रूप से ‘‘साध्वी’’ उस तरह की अनुभवी व बड़ी राजनीतिज्ञ नहीं है, जैसे (अन्य) लोग राजनीति में आते हैं। इसीलिए वेे वह राजनैतिक सावधानी नहीं बरत पाई, जो आज की राजनीति में अत्यंत आवश्यक है। यदि वे उस बयान के साथ यह भी जोड़ देती कि मोदी जी के राष्ट्रीय स्वच्छता कार्यक्रम को आप लोग आगे बढ़ाये, तो शायद यह बवंडर नहीं होता। चंूकि वह कोई स्वच्छता अभियान की बैठक तो नहीं ले रही थी? न ही कोई समीक्षा कर रही थी, न ही उक्त कथन साध्वी ने किसी संगोष्ठी में, किसी टीवी डिबेट में या किसी सार्वजनिक मंच पर दिया था। शायद देश में आज की राजनैतिक स्थिति में सीधे सज्जन और साध्वी जैसों की आवश्यकता ही नहीं है। इसलिए आवश्यकता साध्वी के कान उमेठने की नहीं, बल्कि राजनैतिक पार्टी के कार्यकर्ता को जागृत करने की है। ऐसे कार्यकर्ताओं को उनका दायित्व बोध कराकर, परिपक्व बनाने की है, जो अपने मोहल्ले के नाली साफ करने के लिए भी सांसद से अपेक्षा रखते हैं। 
लेख को शुरू से अंत तक पढ़ने के लिये धन्यवाद!

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