बुधवार, 30 जनवरी 2019

‘‘कुंभ’’ ‘‘महाकुंभ’’ और ‘‘अर्धकुंभ’’ में क्या कोई अंतर हैं?


प्रयागराज (इलाहबाद) में मकर संक्र्राति से ‘‘अर्धकुंभ’’ प्रारंभ हुआ है। लेकिन इस अर्धकुंभ को केन्द्रीय सरकार से लेकर उत्तर प्रदेश सरकार व समस्त मीडिया चाहे वह प्रिंट हो या इलेक्ट्रानिक  इसे कुंभ या महा!कुंभ कहकर महिमा-मंडित कर रहे हैं। इस ‘‘कुंभ’’ के जबरदस्त प्रचार-प्रसार के कारण ही मुझे भी यह शक हुआ कि यह 6 साल में आने वाला अर्धकुंभ है, या 12 साल में आने वाला पूर्ण कुंभ है। लेख लिखते समय सामने बैठे व्यक्ति राकेश से भी मैने पूछा तो उसने भी यही जवाब दिया कि यह कुंभ है। निश्चित रूप से यह जबरदस्त प्रचार-प्रसार के परिणाम का ही साक्ष्य है।   
    कुंभक्या है? कलश को कुंभ कहा जाता है। कुंभका अर्थ होता है घड़ा। इस पर्व का संबंध समुद्र मंथन के दौरान अंत में निकले अमृत कलश से जुड़ा है। देवता-असुर जब अमृत कलश को एक दूसरे से छीन रहे थे तब अमृत की कुछ बूंदें धरती की तीन नदियों में छलक गई थीं। जहां- जहां ये बूंदें गिरी थी उन स्थानों पर तब से ही कुंभ का आयोजन होता आया है। उन तीन नदियों के नाम गंगा, गोदावरी, और क्षिप्रा है। कुछ इतिहास कार इसे 850 साल से ज्यादा पुराना मानते हुये आदि शंकराचार्य द्वारा इसकी शुरूवात किया जाना मानते है। कुछ दस्तावेज इसे 525 बी.सी. में शुरू होना मानते है। वास्तव में कुंभ मेलों का आयोजन प्राचीन काल से हो रहा है। इन मेलों का प्रथम लिखित प्रमाण महान बौद्ध तीर्थयात्री व्हेनसांग के लेख से मिलता है, जिसमें छठवीं शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन  के शासन में प्रसंगवश इन कुंभ मेलों के होने का वर्णन किया गया है।        कुंभ मेलों का आयोजन चार जगहों पर होता हैः-हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन।  उज्जैन के कुंभ को सिंहस्थ कहा जाता है। इसके अलावा प्रति 6 वर्ष के अंतराल पर केवल दो स्थान प्रयाग और हरिद्वार में अर्धकुंभ  होता है। चूँकि प्रयाग में पिछला अर्धकुंभ वर्ष 2007 में हुआ था अतः वर्ष 2013 में हरिद्वार के बाद अब प्रयाग में अर्धकुंभ की बारी है।
    अर्धकुंभ क्या है? अर्ध का अर्थ है आधा! हरिद्ववार और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच 6 वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ का आयोजन होता है।  इसमे कोई शक नहीं कि उत्तर प्रदेश सरकार ने इस अर्धकुंभ की तैयारी में समस्त साधन-संसाधन झौंक दिये व आवश्यक बजट की उपलब्धता भी कराई है। पवित्र स्नानटैंट हाउस से लेकर ठहरने खाने-पीने, पर्यावरण, शौचालय, स्वच्छता से स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता तथा भारतीय संस्कृति की विरासत को दिखाने की प्रर्दशनी सांस्कृतिक नाटक, इत्यादि समस्त आवश्यक कार्यो की वृहत्तम स्तर पर जो सर्वोत्तम व्यवस्था विराट फैले कुंभ मेला क्षेत्र में की गई है, वह न केवल सर्वश्रेष्ठ व सराहनीय है, बल्कि अभी तक की उच्चतम व्यवस्था है। इस उच्च व्यवस्था ने 4 वर्ष पूर्व हमारे उज्जैन में हुये सिंहस्थ कुंभ की व्यवस्था को भी पीछे कर दिया है। इसलिए यदि इसे महाकुंभ का नाम दिया जा रहा है तो अतिशयोक्ति नहीं कही जा सकती। लेकिन इस अर्धकुंभ को ही (जो एक वास्तविकता है) महाकुंभ कहा जाता तो बेहतर होता। इसे कुंभ प्रचारित करने की आवश्यकता नहीं थी।
  कही वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव को दृष्टिगत रखते हुये तो इसे कुंभके रूप में महिमा मंडित तो नहीं किया जा रहा है? वैसे यह भी जानना चाहिए कि ‘‘अर्धकुंभ’’ ‘‘कुंभ’’ का फल (प्रसाद) क्या एक समान ही है? यह भी पूछा जाना चाहिए कि 2013 में इलाहबाद (प्रयागराज) हुये कुंभ के 6 वर्ष बाद होने वाले अर्धकुंभ को क्या समाप्त कर दिया गया है? (यदि यह कुंभ है तो) इस ‘‘कुंभ’’ में उत्तर प्रदेश कैबिनेट की बैठक भी हो रही है, जो इस बात की परिचायक है कि यह ‘‘धार्मिक अर्धकुंभ’’ से ज्यादा यह एक ‘‘राजनैतिक महाकुंभ’’ है। इस महाकुंभ में भाग लेने वाले किसी भी संत, नागा-साधुओं ने अर्धकुंभ की जगह ‘‘कुंभ’’ प्रचारित करने पर कोई आपत्ति नहीं जताई हैं। वास्तविकता को स्वीकारते हुये उसे अर्धकुंभकहने से क्या उसकी भव्यता में कोई कालाचिन्ह लग जाता? हम इस वास्तविकता की सत्यता को स्वीकार क्यों नहीं कर सकें यह प्रश्न समझ से परे है। मैं उत्तर प्रदेश सरकार को इस ‘‘अर्धकुंभ’’ की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था के लिए बधाई देते हुये यह अनुरोध जरूर करना चाहँूगा कि वे वास्तविकता को स्वीकार करते हुये उसके वास्तविक नाम ‘‘अर्धकुंभ’’ से ही उसका समापन कर गरिमा पूर्वक इस तथ्य को शालीनता से स्वीकार करें। 


बुधवार, 23 जनवरी 2019

क्या कानून व्यवस्था ‘कांग्रेस’ व ‘भाजपा’ के लिये अलग-अलग है?

विगत दिवस मंदसौर में भाजपा नेता व प्रथम नागरिक नगर पालिका अध्यक्ष प्रहलाद बंधवार की सरे आम गोली मारकर हत्या कर दी गई। निश्चित रूप से यह एक बेहद दुखद घटना थी और पुलिस ने त्वरित कार्यवाही कर 24 घंटे के भीतर ही एक आरोपी को गिरफ्तार भी कर लिया। लेकिन मुख्यमंत्री कमलनाथ का उक्त घटना पर यह बयान कि यह भाजपा का अंदरूनी मामला है, बिलकुल अनावश्यक और घटना की भयवता को कम करने वाला है। कमलनाथ यह कहकर क्या इंगित या दर्शाना चाहते है? आज ही एक और भाजपा नेता बलवाडी भाजपा मंडल मनोज ठाकरे अध्यक्ष की बल़वानी में दिन दहाड़े हत्या कर दी गई। गृहमंत्री का उक्त घटना पर यह कथन कि इस घटना में भी भाजपा के आंतरिक मामले की आंशका है, कहकर मुख्यमंत्री के कथन को ही आगे बढ़ाया है। 
क्या भाजपा व कांग्रेस के लिये अलग-अलग कानून है? पार्टी या पारिवारिक विवाद में यदि कोई व्यक्ति कानून के बाहर जाकर कानून को तोड़ने पर उतारू हो जाये, तो क्या उसके लिये नियम व जांच की प्रक्रिया दूसरी होगी? हत्या आखिर हत्या है, और यदि मुख्यमंत्री राजनैतिक रूप से कोई लाभ (एडवान्टेंज) लेना चाहते भी है, तो वे यह आरोप तो लगा सकते है कि एक भाजपाई ने भाजपाई की हत्या की, यदि उनके पास इस बात के पर्याप्त साक्ष्य व तथ्य है तो। हत्या का कारण राजनैतिक द्वेष व व्यक्तिगत विवाद भी हो सकता हैं। लेकिन मुख्यमंत्री का यह कथन जिम्मेदार पूर्ण नहीं कहा जा सकता कि उक्त घटना भाजपा का अंदरूनी मामला है। मुख्यमंत्री व गृहमंत्री का यह कथन निश्चित रूप से जांच एजेंसी पर विपरीत प्रभाव डालेगें, जिससे जांच की दिशा भी बदल सकती है। इसलिये मुख्यमंत्री को कम से कम गहन आपराधिक घटनाओं  पर खासकर राजनैतिक व्यक्ति के हत्या होने पर इस तरह के अनावश्यक बयानबाजी से अवश्य बचना चाहिए।
क्या कमलनाथ के उक्त कथन का आशय यह तो नहीं है कि भाजपा की चुनाव में लगभग जीती हुई बाजी हारने के कारण उत्पन्न हताशा इसके लिये जिम्मेदार है? भाजपा का अंदरूनी मामला कहकर क्या मुख्यमंत्री व गृहमंत्री भाजपाईयों की हत्या करने की छूट दे रहे है? आखिर इन कथनों के पीछे उद्देश्य क्या है। यदि भाजपा का यह अंदरूनी मामला है व कानून व्यवस्था का मामला नहीं है तो क्या पुलिस प्रशासन का कानून का उल्लंघन करने वाले  ऐसे जघन्य अपराध को रोकने का प्रयास का दायित्व नहीं है? वास्तव में ये बहुत ही गंभीर मामले है, क्योंकि ये घटनाएं हत्या जैसे जघन्य अपराधों से जुड़ी है। इसलिये इस पर शासन व प्रशासन दोनो को अत्यंत संवेदनशील होने की आवश्यकता है। 
गृहमंत्री का यह कथन भी हास्यास्पद है कि भाजपा कानून अपने हाथ में न ले। वास्तव में जब गृहमंत्री स्वयं यह कहकर कि यह भाजपा का अंातरिक मामला है, पल्ला झाड़ रहे है तब जब गृहमंत्री ने कानून की कमान समालने से इंकार ही कर दिया हो तो निश्चिय ही भाजपा के द्वारा कानून हाथ में लेने के अलावा क्या विकल्प रहेगा?

शनिवार, 12 जनवरी 2019

केन्द्रीय सरकार का ‘‘आर्थिक आधार’’ पर 10 प्रतिशत आरक्षण का निर्णय! कितना अधूरा! कितना पूर्ण?

वास्तव में हमारे देश में यदि किसी भी ‘‘सरकार’’ से कोई निर्णय अपने पक्ष में करवाना हो तो सरकार के चुने जाने के 4 साल तक तो वह आपकी मांगे व मुद्दो पर गंभीरता से कोई विचार ही नहीं करती है, क्योकि तब तक वह आपके चुनावी दबाव में ही नहीं होती है। परन्तु चुनावी वर्ष में चुनावी मोड में आ जाने के बाद आपका मुद्दा, फिर चाहे वह गलत हो या सही, कोई भी सरकार राजनैतिक दृष्टि से नफा-नुकसान का आकलन करते हुये उस पर विचार कर निर्णय लेती है। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आता हैं, जनता का दबाव सरकार पर बढ़ता जाता है और सरकार निर्णय लेने के लिए मजबूर हो जाती है।
केन्द्र सरकार द्वारा सवर्ण समाज को आर्थिक आधार पर आठ लाख से कम सालाना आमदनी वालो को 10 प्रतिशत सरकारी नौकरियों व शैक्षणिक संस्थानो में प्रवेश देने पर आरक्षण देने का निर्णय लिया है, वह कुछ इसी मानसिकता व परिस्थितियों का परिणाम हैं। क्योकि हाल में ही तीन हिन्दी भाषी प्रदेशों में भाजपा के हार का एक कारण सवर्ण वर्ग की नाराजगी होना बतलाया गया है एक और तथ्य का यहाँ उल्लेख किया जाना समयाचिन होगा कि देश की लगभग 31 प्रतिशत सर्वण हिन्दू 125 लोकसभा सीट पर जीतकर आते है। फिर भी सिद्धान्त रूप से इस निर्णय का स्वागत इसीलिए किया जाना चाहिए कि पहली बार आर्थिक आधार पर आरक्षण के सिद्धान्त को स्वीकार किया जाकर केन्द्रीय शासन स्तर पर निर्णय लिया गया है। यद्यपि इसको अभी असली जामा पहनाना है, जो इतना आसान काम नहीं है। केन्द्रीय सरकार ने जो निर्णय लिया गया है व जो दिख रहा है, वह न केवल निर्णय अपूर्ण है, बल्कि तुरन्त वास्तविक धरातल पर उतरने वाला भी नहीं है।
आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत सवर्ण समाज को आरक्षण देने का प्रस्ताव वर्तमान में लागु 50 प्रतिशत आरक्षण की संवैधानिक अधिकतम सीमा के अलावा होगी। पचास प्रतिशत की अधिकतम सीमा को उच्चतम न्यायालय ने कई अवसरो पर उचित, वैध व संवैधानिक ठहराया हैं व इसकी सीमा को लांघ कर पचास प्रतिशत से अधिक किये किसी भी प्रकार के आरक्षण को उच्चतम न्यायालय ने अवैध घोषित किया है। आरक्षण के संबंध में वर्तमान में कानूनी, संवैधानिक व न्यायिक स्थिति यही है। ×आपको याद ही होगा सपाक्स पार्टी व वृहत्त सवर्ण समाज की माँग 10 प्रतिशत आरक्षण की कमी भी नहीं रही है। बल्कि उनकी मूल माँग जो है, वह जातिगत आधार पर पचास प्रतिशत आरक्षण जो लागू है उसे जातिगत आधार के बजाए आर्थिक आधार पर आरक्षण दिये जाने की मांग रही है। क्योकि जातिगत आधार पर आरक्षण देने से समाज में समरस्ता के बदले विघटन की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है। यदि आर्थिक आधार पर सम्पूर्ण समाज के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को आरक्षण दिया जाता है (जो कि आरक्षण का मूल आधार ही होना चाहिये) तो निश्चित रूप से न केवल आरक्षण देने की उद्देश्य की पूर्ति होगी, बल्कि विभिन्न समाज के बीच वर्ग-भेद-जाति के आधार पर भेद असमानता भी नहीे होगी, बल्कि समरस्ता की खिचड़ी भी बनेगी। वह यह समरस्ता की खिचड़ी नहीं है जो भाजपा ने कल दिल्ली में बनाई थी, क्योकि वह तो वर्ग विशेष की खिचड़ी थी जो समरस्ता की कैसे हो गई, यह समझ के परे है। गरीबी व अमीरी के आधार पर जो समाज में भेद व खाई है वह अंतर भी आर्थिक आधार से कम होगा। केन्द्र सरकार भी भली भाँति जानती है कि उसका यह निर्णय संविधान व उच्चतम न्यायालय के प्रतिपादित सिंद्धान्त के विरूद्ध व प्रतिकूल है, जो वह लागू नहीं करवा सकती हैं। जब तक कि इस संबंध में संविधान में आवश्यक संसोधन नहीं किया जाता हैं। फिलहाल सरकार चुनावी मोड़ में आ जाने के कारण जनता को खुश (अपीज) करने का शार्ट (छोटा) रास्ता है जो कितना प्रभावी होगा, वक्त ही बतायेगा। यदि वास्तव में सरकार और समस्त दल सरकार के इस निर्णय से सहमत है, तो फिर सरकार एक अध्यादेश लाकर लागू इसे तुरंत क्यों नहीं लागू करके अपने इरादे को नेक बताने का प्रयास नहीं करती है? वास्तव में यदि यह चुनावी लालीपाप नहीं है, तो सरकार ने निर्णय लेने के पूर्व पहले संविधान में आवश्यक संशोधन क्यों नहीं किया? तत्पश्चात ही संविधान संशोधन के अनुसार निर्णय लिया जाना समयोचित होता। तब उन पर चुनावी संकट का आरोप नहीं लगता।

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