वास्तव में हमारे देश में यदि किसी भी ‘‘सरकार’’ से कोई निर्णय अपने पक्ष में करवाना हो तो सरकार के चुने जाने के 4 साल तक तो वह आपकी मांगे व मुद्दो पर गंभीरता से कोई विचार ही नहीं करती है, क्योकि तब तक वह आपके चुनावी दबाव में ही नहीं होती है। परन्तु चुनावी वर्ष में चुनावी मोड में आ जाने के बाद आपका मुद्दा, फिर चाहे वह गलत हो या सही, कोई भी सरकार राजनैतिक दृष्टि से नफा-नुकसान का आकलन करते हुये उस पर विचार कर निर्णय लेती है। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आता हैं, जनता का दबाव सरकार पर बढ़ता जाता है और सरकार निर्णय लेने के लिए मजबूर हो जाती है।
केन्द्र सरकार द्वारा सवर्ण समाज को आर्थिक आधार पर आठ लाख से कम सालाना आमदनी वालो को 10 प्रतिशत सरकारी नौकरियों व शैक्षणिक संस्थानो में प्रवेश देने पर आरक्षण देने का निर्णय लिया है, वह कुछ इसी मानसिकता व परिस्थितियों का परिणाम हैं। क्योकि हाल में ही तीन हिन्दी भाषी प्रदेशों में भाजपा के हार का एक कारण सवर्ण वर्ग की नाराजगी होना बतलाया गया है एक और तथ्य का यहाँ उल्लेख किया जाना समयाचिन होगा कि देश की लगभग 31 प्रतिशत सर्वण हिन्दू 125 लोकसभा सीट पर जीतकर आते है। फिर भी सिद्धान्त रूप से इस निर्णय का स्वागत इसीलिए किया जाना चाहिए कि पहली बार आर्थिक आधार पर आरक्षण के सिद्धान्त को स्वीकार किया जाकर केन्द्रीय शासन स्तर पर निर्णय लिया गया है। यद्यपि इसको अभी असली जामा पहनाना है, जो इतना आसान काम नहीं है। केन्द्रीय सरकार ने जो निर्णय लिया गया है व जो दिख रहा है, वह न केवल निर्णय अपूर्ण है, बल्कि तुरन्त वास्तविक धरातल पर उतरने वाला भी नहीं है।
आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत सवर्ण समाज को आरक्षण देने का प्रस्ताव वर्तमान में लागु 50 प्रतिशत आरक्षण की संवैधानिक अधिकतम सीमा के अलावा होगी। पचास प्रतिशत की अधिकतम सीमा को उच्चतम न्यायालय ने कई अवसरो पर उचित, वैध व संवैधानिक ठहराया हैं व इसकी सीमा को लांघ कर पचास प्रतिशत से अधिक किये किसी भी प्रकार के आरक्षण को उच्चतम न्यायालय ने अवैध घोषित किया है। आरक्षण के संबंध में वर्तमान में कानूनी, संवैधानिक व न्यायिक स्थिति यही है। ×आपको याद ही होगा सपाक्स पार्टी व वृहत्त सवर्ण समाज की माँग 10 प्रतिशत आरक्षण की कमी भी नहीं रही है। बल्कि उनकी मूल माँग जो है, वह जातिगत आधार पर पचास प्रतिशत आरक्षण जो लागू है उसे जातिगत आधार के बजाए आर्थिक आधार पर आरक्षण दिये जाने की मांग रही है। क्योकि जातिगत आधार पर आरक्षण देने से समाज में समरस्ता के बदले विघटन की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है। यदि आर्थिक आधार पर सम्पूर्ण समाज के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को आरक्षण दिया जाता है (जो कि आरक्षण का मूल आधार ही होना चाहिये) तो निश्चित रूप से न केवल आरक्षण देने की उद्देश्य की पूर्ति होगी, बल्कि विभिन्न समाज के बीच वर्ग-भेद-जाति के आधार पर भेद असमानता भी नहीे होगी, बल्कि समरस्ता की खिचड़ी भी बनेगी। वह यह समरस्ता की खिचड़ी नहीं है जो भाजपा ने कल दिल्ली में बनाई थी, क्योकि वह तो वर्ग विशेष की खिचड़ी थी जो समरस्ता की कैसे हो गई, यह समझ के परे है। गरीबी व अमीरी के आधार पर जो समाज में भेद व खाई है वह अंतर भी आर्थिक आधार से कम होगा। केन्द्र सरकार भी भली भाँति जानती है कि उसका यह निर्णय संविधान व उच्चतम न्यायालय के प्रतिपादित सिंद्धान्त के विरूद्ध व प्रतिकूल है, जो वह लागू नहीं करवा सकती हैं। जब तक कि इस संबंध में संविधान में आवश्यक संसोधन नहीं किया जाता हैं। फिलहाल सरकार चुनावी मोड़ में आ जाने के कारण जनता को खुश (अपीज) करने का शार्ट (छोटा) रास्ता है जो कितना प्रभावी होगा, वक्त ही बतायेगा। यदि वास्तव में सरकार और समस्त दल सरकार के इस निर्णय से सहमत है, तो फिर सरकार एक अध्यादेश लाकर लागू इसे तुरंत क्यों नहीं लागू करके अपने इरादे को नेक बताने का प्रयास नहीं करती है? वास्तव में यदि यह चुनावी लालीपाप नहीं है, तो सरकार ने निर्णय लेने के पूर्व पहले संविधान में आवश्यक संशोधन क्यों नहीं किया? तत्पश्चात ही संविधान संशोधन के अनुसार निर्णय लिया जाना समयोचित होता। तब उन पर चुनावी संकट का आरोप नहीं लगता।
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