प्रयागराज (इलाहबाद) में मकर संक्र्राति से ‘‘अर्धकुंभ’’ प्रारंभ
हुआ है। लेकिन इस अर्धकुंभ को केन्द्रीय सरकार से लेकर उत्तर प्रदेश सरकार व समस्त
मीडिया चाहे वह प्रिंट हो या इलेक्ट्रानिक इसे कुंभ
या महा!कुंभ कहकर महिमा-मंडित कर रहे हैं। इस ‘‘कुंभ’’ के जबरदस्त
प्रचार-प्रसार के कारण ही मुझे भी यह शक हुआ कि यह 6 साल में आने वाला अर्धकुंभ है, या 12 साल में
आने वाला पूर्ण कुंभ है। लेख लिखते समय सामने बैठे व्यक्ति राकेश से भी मैने पूछा
तो उसने भी यही जवाब दिया कि यह कुंभ है। निश्चित रूप से यह जबरदस्त प्रचार-प्रसार
के परिणाम का ही साक्ष्य है।
‘कुंभ’ क्या है? कलश को कुंभ कहा जाता है। ‘कुंभ’ का अर्थ
होता है घड़ा। इस पर्व का संबंध समुद्र मंथन के दौरान अंत में निकले अमृत कलश से
जुड़ा है। देवता-असुर जब अमृत कलश को एक दूसरे से छीन रहे थे तब अमृत की कुछ बूंदें
धरती की तीन नदियों में छलक गई थीं। जहां- जहां ये बूंदें गिरी थी उन स्थानों पर
तब से ही कुंभ का आयोजन होता आया है। उन तीन नदियों के नाम गंगा, गोदावरी, और
क्षिप्रा है। कुछ इतिहास कार इसे 850 साल से
ज्यादा पुराना मानते हुये आदि शंकराचार्य द्वारा इसकी शुरूवात किया जाना मानते है।
कुछ दस्तावेज इसे 525 बी.सी.
में शुरू होना मानते है। वास्तव में कुंभ मेलों का आयोजन प्राचीन काल से हो रहा
है। इन मेलों का प्रथम लिखित प्रमाण महान बौद्ध तीर्थयात्री व्हेनसांग के लेख से
मिलता है, जिसमें छठवीं शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन के शासन में प्रसंगवश इन कुंभ मेलों
के होने का वर्णन किया गया है।
कुंभ मेलों का आयोजन चार
जगहों पर होता हैः-हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन। उज्जैन
के कुंभ को सिंहस्थ कहा जाता है। इसके अलावा प्रति 6 वर्ष के अंतराल पर केवल दो स्थान प्रयाग और हरिद्वार में अर्धकुंभ होता है। चूँकि प्रयाग में पिछला अर्धकुंभ वर्ष 2007 में हुआ था अतः वर्ष 2013 में हरिद्वार के बाद अब प्रयाग में
अर्धकुंभ की बारी है।
अर्धकुंभ क्या है? अर्ध का अर्थ है आधा! हरिद्ववार और प्रयाग में दो कुंभ
पर्वों के बीच 6
वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ का
आयोजन होता है। इसमे कोई शक नहीं कि उत्तर प्रदेश सरकार ने इस
अर्धकुंभ की तैयारी में समस्त साधन-संसाधन झौंक दिये व आवश्यक बजट की उपलब्धता भी
कराई है। ‘पवित्र स्नान’ टैंट हाउस से लेकर ठहरने खाने-पीने, पर्यावरण, शौचालय, स्वच्छता से स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता तथा भारतीय संस्कृति की
विरासत को दिखाने की प्रर्दशनी सांस्कृतिक नाटक, इत्यादि समस्त आवश्यक कार्यो की वृहत्तम स्तर पर जो सर्वोत्तम
व्यवस्था विराट फैले कुंभ मेला क्षेत्र में की गई है, वह न केवल सर्वश्रेष्ठ व सराहनीय है, बल्कि अभी तक की उच्चतम व्यवस्था है। इस उच्च व्यवस्था ने 4 वर्ष पूर्व हमारे उज्जैन में हुये सिंहस्थ कुंभ की व्यवस्था
को भी पीछे कर दिया है। इसलिए यदि इसे महाकुंभ का नाम दिया जा रहा है तो
अतिशयोक्ति नहीं कही जा सकती। लेकिन इस अर्धकुंभ को ही (जो एक वास्तविकता है)
महाकुंभ कहा जाता तो बेहतर होता। इसे कुंभ प्रचारित करने की आवश्यकता नहीं थी।
कही वर्ष 2019 के
लोकसभा चुनाव को दृष्टिगत रखते हुये तो इसे ‘कुंभ’ के रूप में महिमा मंडित तो नहीं किया जा रहा है? वैसे यह भी जानना चाहिए कि ‘‘अर्धकुंभ’’ व ‘‘कुंभ’’ का फल
(प्रसाद) क्या एक समान ही है? यह भी
पूछा जाना चाहिए कि 2013 में इलाहबाद
(प्रयागराज) हुये कुंभ के 6 वर्ष बाद
होने वाले अर्धकुंभ को क्या समाप्त कर दिया गया है? (यदि यह कुंभ है तो) इस ‘‘कुंभ’’ में उत्तर प्रदेश कैबिनेट की बैठक भी हो रही है, जो इस बात की परिचायक है कि यह ‘‘धार्मिक अर्धकुंभ’’ से
ज्यादा यह एक ‘‘राजनैतिक महाकुंभ’’ है। इस महाकुंभ में भाग लेने वाले किसी भी संत, नागा-साधुओं ने अर्धकुंभ की जगह ‘‘कुंभ’’ प्रचारित
करने पर कोई आपत्ति नहीं जताई हैं। वास्तविकता को स्वीकारते हुये उसे ‘अर्धकुंभ’ कहने से
क्या उसकी भव्यता में कोई ‘काला’ चिन्ह लग जाता? हम इस
वास्तविकता की सत्यता को स्वीकार क्यों नहीं कर सकें यह प्रश्न समझ से परे है। मैं
उत्तर प्रदेश सरकार को इस ‘‘अर्धकुंभ’’ की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था के लिए बधाई देते हुये यह अनुरोध
जरूर करना चाहँूगा कि वे वास्तविकता को स्वीकार करते हुये उसके वास्तविक नाम ‘‘अर्धकुंभ’’ से ही उसका
समापन कर गरिमा पूर्वक इस तथ्य को शालीनता से स्वीकार करें।
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