बेशक, भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। नरेंद्र मोदी के दुबारा प्रधानमंत्री बनने के बाद से लगातार पिछले कुछ समय से भारतीय राजनीति में जो घटनाएं घटित हो रही हैं, उनसे लगता है कि अगले कुछ समय में ही भारत विश्व का सबसे बड़ा एकमात्र ऐसा लोकतांत्रिक देश बन जायेगा, जहां सिर्फ एक पार्टी (सत्ताधारी) का ही अस्तित्व होगा। इसके बावजूद भी वह विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश कहलाता रहेगा। जहाँ दूसरे देशों में इस स्थिति को (राजशाही) मोनोआर्की कहां जाता है। विश्व के किसी भी लोकतांत्रिक देश के संविधान में यह नहीं लिखा है कि लोकतंत्र के लिए दो राजनीतिक पार्टियों के होने की आवश्यकता है। लेकिन व्यवहारिक रूप से प्रभावी लोकतंत्र की सफलता के लिए सामान्यतः कम से कम दो राजनीतिक पार्टियां के अस्तित्व की अपेक्षा अवश्य की जाती है। एक सत्ताधारी और दूसरी उस पर अंकुश रखने वाला विपक्ष। यद्यपि कानून में ऐसा कोई सीमा का प्रावधान/प्रतिबंध नहीं है। वर्ष 1947 के पश्चात स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही भारत में भी गुजरते समय के साथ-साथ लोकतंत्र परिपक्व होता गया। वर्ष 1952 के प्रथम आम चुनाव में भारी बहुमत प्राप्त करने वाले सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस की तुलना में बहुत अल्प (नगण्य) संख्या में विपक्ष रहने के बावजूद एक प्रभावी विपक्ष की उपस्थिति और भूमिका हमेशा रहती आयी है। क्योंकि तत्समय कई प्रबुद्ध और स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिए हुए प्रसिद्ध राजनैतिक नेता संसद में मौजूद रहकर विपक्ष से प्रभावी रूप में उपस्थिति दर्ज कराते थे।
नरेंद्र मोदी द्वारा दोबारा प्रधानमंत्री का पद संभालने के बाद जनादेश द्वारा चुनी हुई कांग्रेसी सरकारों के एक के बाद जाने को संभावनाएं दिन प्रतिदिन बलवती होती जा रही हैं। कर्नाटक का उदाहरण ताजा है, जहां सरकार गिर जाने की पूरी संभावनाएँ है। इसके पूर्व गोवा में भी 10 विधायक दल बदल करके भाजपा में शामिल हो कर विपक्ष के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया। वहाँ आम चुनाव में कांग्रेस (अब विपक्ष) सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी व सरकार बनाने का उसका वैधानिक व नैतिक आधार राजनैतिक चाल बाजियों के चलते छीन लिया गया था। पिछले कुछ समय से उत्तर प्रदेश से लेकर उत्तर पूर्व प्रदेशों में लगातार दल बदल के द्वारा विपक्ष को अस्तित्वहीन करते हुए भाजपा तेजी से एकाधिकार की ओर बढ़ती जा रही है। तर्क यह किया जा सकता है कि विपक्ष को मजबूत बनाए रखना क्या सत्ताधारी पार्टी का काम है? निश्चित रूप से कदापि नहीं। लेकिन एक लोकतांत्रिक देश, जहां दल बदल विरोधी कानून वर्षो से लागू है, सत्ता लोलुपता के लाभ में उस कानून का पूरा मखौल वास्तविक रूप से नहीं उड़ाया जा रहा है?या कानून की बारिकियों से (नैतिकता से नहीं) तोड़ मरोड़ कर उससे बचने का रास्ता नहीं निकाला जा रहा है? इस तथ्य को भी ध्यान में रखना आवश्यक होगा कि जनता जनादेश देकर एक पार्टी के लोकतांत्रिक शासन को सौपना नहीं चाह रही है। नरेंद्र मोदी का सिद्ध निस्वार्थ जनसेवक जैसे महान व्यक्तित्व व राहुल गांधी का प्रेरणा हीन एक सामान्य व राजनीति में असफलता का पु्रछल्ला लिये हुये व्यक्तित्व होने के बावजूद, यदि कांग्रेस को गुजरात में सफलता से लेकर कर्नाटक, राजस्थान मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में सरकार बनाने का मौका जनता ने दिया है, तो सत्ता और धन बल का उपयोग करके छेड़ छाड़ द्वारा सत्ताधीष भाजपा को उस जनादेश को बदलने का नैतिक व कानूनी अधिकार बिलकुल भी नहीं है। विशेषकर इसीलिये भी क्योंकि भाजपा एक ऐसी पार्टी रही है जिसने उस समय हमेशा सिद्धांतों व नैतिकता के मूल्यों की बात की है, जब कांग्रेस ने उक्त मूल्यों को लगभग समाप्त कर दिया था। विशेष कर अटल बिहारी के जमाने में तो अटल जी ने विपक्ष (भाजपा) को हमेशा सम्मान दिया। मात्र एक वोट कम पड़ने पर भी उन्होंने सरकार को गिर जाने दिया, लेकिन सरकार बचाने के लिये वह एक वोट पाने का प्रयास नहीं किया। जिस तरह अभी पूर्ण बहुमत प्राप्त सरकारे दल बदल कर अपनी सरकारो को और मजबूत कर रही है। अटल जी की और नरेंद्र मोदी की कार्यशैली का यह अंतर स्पष्ट गोचर होता है।
इसलिए भाजपा को यह सोचना चाहिए कि जनता जब उन्हें लगातार जनादेश दे रही है व आगे भी तैयार दिखती है, तब वह समय का इंतजार कर वह जनता से सीधा जनादेश लेकर अपना एकछत्र राज स्थापित करके नरेंद्र मोदी की उस कल्पना को क्यों नहीं चरितार्थ एवं साकार करती है जिसमें नरेंद्र मोदी यह कहते हुये नहीं थकते रहे कि देश की राजनीति एक दिन कांग्रेस विहीन हो जाएगी। सत्ता के शीघ्र विरोध शिखर पर पहुंच जाने के चक्कर में सिद्धांतों की बली देकर खासकर उस समय जब जनता को आज की परिस्थितियों में किसी अन्य पार्टी से कोई उम्मीद ना बची हो, क्या भाजपा भी उसी रास्ते की ओर नहीं जा रही है जिस रास्ते को कांग्रेस द्वारा लम्बे समय तक अपनाये जाने कारण जनता उसे लगभग पूर्णतया खारिज कर चुकी है?सिंद्धातों व नैतिकता को कमजोर करने जाने का कतई कोई औचित्य/समझ नहीं पड़ता है।
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