आपको प्रश्न का ‘‘शीर्षक’’ पढ़ने पर थोड़ा आश्चर्य अवश्य होना चाहिए। आपके मन में यह प्रश्न अवश्य उत्पन्न होगा कि क्या हमारा संविधान नैतिक नहीं है? अनैतिक है? यह प्रश्न आज स्वभाविक रूप से हाल ही में महाराष्ट्र में हुई सत्ता आरूढ़ की घटना ने पुनः जाग्रत कर दिया है। हाल ही में 26 नवम्बर को हमने संविधान दिवस मनाया है, जिस कारण से यह घटना ज्यादा ज्वलंत मुद्दा बन गई है। निश्चित रूप से 26 जनवरी 1950 को देश में संविधान लागू हुआ था। तत्समय डॉ. भीमराव अम्बेड़कर सहित संविधान सभा के समस्त सदस्यों के मन में संविधान और नैतिकता दो-दो पृथक पहलू नहीं ही थे। मतलब उस समय की परिस्थितियाँ ऐसी थी, जब संविधान (विधान, कानून, नियम) व नैतिकता एक ही सिक्के के दो पहलू थे, बल्कि इसके उलट दो पहलू के एक ही सिक्के थे, कहना गलत नहीं होगा। अर्थात उस काल में न केवल संविधान पूर्ण रूप से नैतिक था, बल्कि नैतिकता भी संवैधानिक कपड़ा को ओढ़े हुये थी। प्रांरभ से ही संवैधानिक-नैतिकता या नैतिक-संविधान एक दूसरे के पर्यावाची रहे, अर्थात ये दोनों शब्द एक दूसरे में समाहित रहे थे।
स्वतत्रंता प्राप्ति के 72 साल के इतिहास में देश के चौमुखी-सर्वागीण विकास सहित लोकतंत्र व संविधान भी विकास की ओर अग्रेसित होते हुये परिपक्व हुये है। लेकिन दुर्भाग्यवश नैतिकता का जो उच्च स्तर स्वतंत्रता प्राप्ति के समय था, उसमे दुर्त गति से उसी तरह की गिरावट आई है, जिस प्रकार आज प्रदूषण में तेजी से आई गिरावट के कारण उसे दिन प्रतिदिन यंत्रो से नापना होता है। कोई दिन ऐसा नहीं जाता, जिस दिन प्रदूषण की चर्चा नहीं होती है। एक संस्कृति प्रधान व गहरी धार्मिक आस्था रखने वाले देश में ‘‘नैतिकता’’ जिस पर ही देश की आधार भूत संरचना खड़ी हुई है, का हा्रस इस तरह से होता जायेगा और हम निष्क्रिय बने रहेगें, यह कल्पना ही अकल्पनीय है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद आज तक घटित प्रमुख राजनैतिक घटनाक्रम का शैनेः शैनेः विश्लेषण कीजिए तो, आप महसूस करेगें हर बड़ी घटित राजनीतिक घटना के पश्चात मीडिया से लेकर बुद्धिजीवीओं एवं परस्पर विरोधी पक्षों द्वारा एक दूसरे पर यह आरोप लगाना एक जुमला सा बन गया है कि, ये क्रियाये-प्रक्रियायें -प्रतिक्रियायें संवैधानिक, वैधानिक, नियमानुसार व कानूनी तो है, लेकिन नैतिक नहीं है, जैसा कि अभी महाराष्ट्र में हाल में ही तेजी से घटित हुए राजनैतिक घटनाक्रम पर आयी प्रतिक्रियाओं से भी स्पष्ट है, जब पुनः यही जुमला जड़ दिया गया है। यद्यपि पूर्व में कुछ अवसरों पर ऐसी घटनाओं को असंवैधानिक भी कहा जाता रहा।
वास्तव में आज कोई भी कार्य संवैधानिक होकर नैतिक क्यों नहीं हो सकता है? यही एक बड़ा यक्ष प्रश्न पुनः आज हम सबके सामने खड़ा है। निश्चित रूप से देश के विकास में सबसे बड़ा रोढ़ा मूल रूप से यह नैतिक पतन ही है। ‘‘नैतिकता’’ के निरतंर गिरते हुये पतन की आज की स्थिति ने आज उसके अस्तित्व को ही दाँव पर लगा दिया है। इसके दुष्परिणामों पर आगे नजर डालिये।
इस पतन के कारण ही देश में प्रायः शांति भंग होती है, अपराध बढ़ते है, तथा आम जनता की दिनचर्या व आम कार्यो में उन्हें सामान्यतः अधिक तकलीफ उठानी पड़ती है। देश में अभी हाल में घटित कई वीभत्स बलात्कार की घटनाओं के कारण पूरे देश के क्रोधित दुखित व क्षोभ से भरा हुआ होने का कारण मात्र कानून व्यवस्था का असफल होना ही नहीं, बल्कि नैतिकता के पतन से उत्पन्न भंयकर बुरे परिणामों के ये उदाहरण मात्र है। उत्पादन व निर्माण कार्य गुणवक्ता की कमी का प्रमुख कारण, नैतिकता में आई कमी से उत्पन्न मुनाफाखोरी की प्रबल भावना ही है, जिससे खरबों रूपये देश के बर्बाद हो रहे है। इसी कारण आज संयुक्त हिन्दु परिवार टूट रहे हैं (जो देश को एकसूत्र में रखे जाने में एक रीढ़ की हड्डी सिद्ध हुये थे)। देश के स्वस्थ्य ‘‘स्वास्थ्य’’ पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में, गुरू व शिष्य के बीच मौजूद गौरवान्वित संबंधो की स्थिति आज क्या हो गई है? लाखों करोडों व्यक्तियों के परम पूज्य धर्माचारियों का स्ंिटग ऑपरेशन में फँसना किस उच्च नैतिकता को दर्शाता है? और न जाने कितने क्षेत्रों में। मतलब जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में देश के चतुर्मुखी विकास में मानक उच्च स्तर को बनाये रखने में विभिन्न अवरोधों के बने रहने का एक प्रमुख मूल कारण नैतिक मूल्यों का लगभग समाप्त हो जाना ही है। यदि एक लाईन में कहां जाए कि समस्त बुराइयों की जड़ में नैतिकता की कमी है व इसके विपरीत जहां नैतिक स्तर को बनाये रखा गया हैं वहां इसके अच्छे कार्य के रूप में परिणाम आते है।
इसीलिए क्या आज इस बात की महती आवश्यकता नहीं है, जब भी हम संविधान में संशोधन करे, कोई कानून बनाये, अथवा नियम बनाये, तब-तब कानून का अनिवार्य रूप से पालने करने का स्पष्ट प्रावधान भी कर दिया जाना चाहिए? (जहां उसके पालन करने से इधर-उधर भागने का कोई जगह (रास्ता) ही न हो।) तब इनके उल्लंघन पर इतनी कड़क व कठोर सजा का प्रावधान किया जावें कि कोई व्यक्ति या संस्था उल्लंघन करने की कल्पना भी न कर सकें। तभी नैतिकता पर संवैधानिक कवच का असली जामा पहनाया जा सकता है। सामान्यतः संविधान के तनिक भी उल्लंघन को ही नैतिकताओं की कमी माना जाना चाहिए। यही सामान्य धारणा/अनुभूति (आभास) होना चाहिए। लेकिन आज तो संविधान का पालन करने के बावजूद भी नैतिकता का पालन करने के आरोप/ढि़ढ़ोरा लगभग हर संविधान का पालन करने के कृत्य (आदेश) के साथ पीटा जाता हैं, जिस पर ही लगाम लगाने की व इस अंतर को समाप्त करने की आज के समय की उत्कट मांग व आवश्यकता है।
अभी हाल में ही घटित महाराष्ट्र की घटनाक्रम को समझिये! नैतिकता व संविधान! प्रधानमंत्री से लेकर पीएमओं, महामहिम राष्ट्रपति व राज्यपाल का इस पूरे घटनाक्रम में जो रोल रहा है, उस पर न केवल उनके द्वारा उठाये गये कदमों की संवैधानिकता पर ही प्रश्नचिन्ह नहीं लग रहा हैं, बल्कि नैतिकता को भी बिल्कुल ताक पर रख दिया गया है, यह आरोप भी लग रहा है। आप जानते ही है, देश में राष्ट्रपति शासन (महाराष्ट्र में) इस समय पहली बार नहीं लगा है। पूर्व में प्रत्येक बार विहित प्रक्रिया का पालन कर कैबिनेट की बैठक कर निर्णय कर राष्ट्रपति शासन लगाये गये थे। लेकिन आज यह पहली बार हुआ है कि, बगैर कैबिनेट की बैठक किये, नियम 12 के तहत विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुये, प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश राष्ट्रपति को की गई। दूसरी महत्वपूर्ण बात राष्ट्रपति ने उठकर सुबह 5.47 बजे के पूर्व (यर्थाथ कितने बजे?) प्रधानमंत्री के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किये?चंूकि राजपत्र में यह अधिसूचना 5.47 समय पर प्रकाशित हुई है। (निश्चित रूप से उन्होने सोते हुये हस्ताक्षर नहीं किये)।
क्या भारत का ‘दुश्मन’ के साथ युद्ध छिड़ गया था? जिससे निपटने के लिये ‘‘आपातकाल’’ की अधिसूचना पर बिना एक सेंकेंड व्यर्थ व्यतीत किये, भोंर तड़के सुबह हस्ताक्षर करना अति आवश्यक था? जिस प्रकार रेल्वे, चिकित्सा इत्यादि अत्यावश्यक सेवाएँ अनवरत चलाती रहती है, महामहिम राष्ट्रपति को भी अनवरत सेवाओं में संलग्न मानकर देश के सम्मान की रक्षा के लिए अल सुबह उठाकर हस्ताक्षर कराये गये? निश्चित रूप से यह संवैधानिक तो है, लेकिन नैतिक बिल्कुल भी नहीं है। इसी संवैधानिक कार्य को नैतिक भी बनाया जा सकता था, यदि सामान्य दिनचर्या के दौरान राष्ट्रपति हस्ताक्षर करते। ठीक इसी प्रकार यदि राज्यपाल भी सामान्य कार्य समय में हस्ताक्षर कर सीना ठोक कर दिन के उजाले मंे शपथ दिलाते, तब नैतिकता के कवच पर हथोड़ा नहीं चलता। परन्तु शायद तब राज्यपाल को देवेन्द्र फडणवीस के शपथ दिलाने का अवसर ही नहीं मिलता, क्योंकि तब तक वहीं दूसरा पक्ष अपनी संख्याबल की परेड़ कराकर राज्यपाल के समक्ष दावा ठोंक देते।
राज्यपाल के ‘‘विवेक’’ के निर्णय पर प्रश्न नहीं उठाया जा सकता है। यह सुरक्षा उन्हे संविधान में दी गई है। सामान्यतः उनका निर्णय न्यायिक समीक्षा के परे रहता है। यद्यपि कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में उच्चतम न्यायालय ने राज्यपाल के निर्णय को न्यायिक समीक्षा की परिधि में माना है। प्रश्न फिर महाराष्ट्र के राज्यपाल के सम्पूर्ण आचरण को नैतिक क्यों नहीं माना जा रहा है? जिस व्यक्ति (देवेन्द्र फडणवीस) ने पूर्व में बहुमत न होने के आधार पर राज्यपाल के निमंत्रण को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर सरकार बनाने से मना कर दिया था, दावे-प्रतिदावे के बीच उसके सरकार बनाने के किये गये पुनः दावे का बिना कोई भौतिक या अन्य तरीके से सत्यापन किये, उन्हे सरकार बनाने के लिये निमत्रंण देना क्या गिरते हुये नैतिक स्तर का नापने का एक मीटर नहीं बन गया है? इसी तरह घटित अनेक घटनाओं के बीच सबसे आश्चर्यजनक तथ्य यह भी रहा है कि, राजनीति के तराजू में कभी भी नैतिकता का पलड़ा संविधान के पलड़े से उपर नहंीं रह पाया। विश्व के सबसे बडे़ संविधान के सामने विश्व की सबसे पुरानी संस्कृति से उत्पन्न नैतिकता को हमेशा ही झुकना पड़ा है। यह देश का नहीं, समाज का नहीं, बल्कि एक ‘व्यक्ति’ का दुर्भाग्य है, क्योंकि व्यक्ति से ही समाज व अंततः देश का निर्माण होता है। इसीलिए राजनीति के तराजू के नैतिकता के पलड़े को संविधान के पलड़े के बराबर लाने के लिये किसी कानून की आवश्यकता नहीं हैं। संविधान संशोधन या किसी नियम की आवश्यकता नहीं, बल्कि आवश्यकता है तो सिर्फ और सिर्फ प्रत्येक व्यक्ति को अपने शेष जीवन को व्यतीत करते हुये स्वतः के नैतिक स्तर को उस सीमा तक ऊपर उठाने के प्रयास की, जिस प्रकार प्रदूषण के अंक को कम करने का प्रयास अपने जीवन को बचाने के लिए कर रहा है। निश्चित रूप से तब ही हमारा देश पुनः सोने की चिडि़याँ कहला सकेगा। क्या आप हम सबका यह कर्त्तव्य नहीं है कि देश की पुनः सोने की चिडि़याँ बनाने में लग जाएं?
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