सोमवार, 23 नवंबर 2020

‘‘गुपकार गैंग‘‘ पर सिर्फ ‘‘राजनीति‘‘! या कड़ी कार्रवाई! अभी तक क्यों नहीं?


उक्त विषय को आगे बढ़ाने के पूर्व यह जानना जरूरी है कि आखिर गुपकार घोषणा-1 एवं-2 है क्या? जिसकी घोषणा करने वालो को ‘‘गुपकार गैंग’’ का नाम दिया गया है। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को हटाने के एक दिन पूर्व ही 4 अगस्त 2019 फारूख अब्दुल्ला की अध्यक्षता में जम्मू कश्मीर क्षेत्र की लगभग सभी बड़ी व छोटी राजनैतिक पार्टियां नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी), पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी), सीपीएम(एल), जम्मू एंड कश्मीर पीपुल्स मुमेंट (जेकेपीएम), अवामी नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीपुल्स कांफ्रेंस, इफ्तेहार पार्टी, पंैथर पार्टी एवं कांग्रेस (मात्र जेकएपी पार्टी को छोड़कर) ने एक बैठक कर सर्वसम्मति से हस्ताक्षर युक्त एक घोषणा पत्र जारी किया। ‘‘गुपकार रोड़’’ स्थित फारूख अब्दुल्ला के निवास स्थान में बैठक होने के कारण उसे ‘‘गुपकार घोषणा’’ कहा गया। उक्त आपात बैठक में राज्य में अर्द्ध सैनिकों की तैनाती और जम्मू-कश्मीर की पहचान, स्वायत्तता और उसके विशेष दर्जे को बनाये रखने के लिए सामूहिक रूप से प्रयास करने का निर्णय लिया गया। 

प्रमुख नेताओं की रिहाई के बाद 22 अगस्त 2020 को उक्त दलों में से 6 राजनैतिक दलों ने ‘‘गुपकार घोषणा पत्र’’ को आगे बढ़ाते हुये ‘‘गुपकार घोषणा-2’’ जारी की, जिसे लागू करवाने के लिए ‘‘पीपुल्स अलायंस फॉर गुपकार डिक्लेरेशन’’ (पीएजीडी) एक राजनैतिक गठबंधन बनाया गया। उक्त घोषणा पत्र में मुख्य रुप से अनुच्छेद 370 एवं 35ए की बहाली कर पूर्व से ही चला आ रहा जम्मू-कश्मीर का संविधान एवं विशेष राज्य का दर्जा, तथा  जम्मू-कश्मीर को पुनः पूर्ण राज्य के दर्जे की मंाग की घोषणा की गई। 24 अक्टूबर की ‘‘पीएजीडी’’ की बैठक के एक दिन पूर्व ही महबूबा मुफ्ती ने जो बयान दिया, जिसे सिर्फ ‘‘विवादित बयान’’ कहकर झाड़ा नहीं जा सकता है। संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिकता के कारण देश के एक जिम्मेदार नागरिक होने से उस नागरिक दायित्व के बिलकुल विरूद्ध व बेशर्मी लिये हुआ महबूबा का यह बयान है, कि अनुच्छेद 370 की बहाली तक वे जम्मू-कश्मीर के झंडे के अलावा और कोई झंड़ा नहीं उठायेगीं। यद्यपि प्रेस के एक खंड ने उक्त महबूबा के बयान की बजाए ‘‘तिरंगे और राज्य के झंडे को एक साथ रखूँगी’’, बयान बतलाया है। फिलहाल इस संबंध में उनके स्पष्टीकरण की प्रतिक्षा है। इसके पहले फारूख अब्दुल्ला भी कह चुके है कि चीन की मदद से अनुच्छेद 370 ‘‘फिर लागू करेगें’’। 

निश्चित रूप से उक्त गुपकार घोषणा पत्र-2 सहित फारूख अब्दुल्ला व महबूबा मुफ्ती के बयान बेहद आपत्तिजनक और सिर्फ जम्मू-कश्मीर ही नहीं, बल्कि देश की अखंडता, संप्रभुता, सुरक्षा, सम्मान और संविधान पर प्रहार और संघात (चोट) पहुंचाने वाला है, जहां पर विश्व समुदाय को जम्मू-कश्मीर में अप्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप करने का न्योता भी दिया गया है। कोई भी सरकार ऐसी घोषणा पत्र व बयानों पर चुपचाप कैसे बैठे रह सकती है? 

पूर्व में ‘‘पीएजीडी‘‘ ने स्थानीय निकाय जिला विकास परिषदों के चुनाव में भाग न लेने की बात थी। परंतु अब उक्त गुपकार गठबंधन जिसे उनके विरोधी गुपकार गैंग कहते हैं, द्वारा कांगे्रस के साथ स्थानीय जिला विकास परिषद (डीडीसी) के चुनाव व पंचायतों के उपचुनावों की लड़ने की घोषणा पर भाजपा ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। गृहमंत्री अमित शाह से लेकर अनेक प्रमुख भाजपा नेताओं ने ट्विटर और बयानों के द्वारा गुपकार घोषणा को राष्ट्र विरोधी व पाकिस्तान प्रायोजित बताकर कांग्रेस से यह पूछा है कि गुपकार घोषणा जो ग्लोबल हो रही है, का क्या वे समर्थन करते हैं? कांग्रेस ने तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उनके राष्ट्रीय प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने बयान जारी कर कहा कि कांग्रेस का ‘पीएजीडी‘‘ के साथ कोई गठबंधन नहीं है, न ही वह गुपकार घोषणा पत्र का हिस्सा है। डीडीसी के चुनाव में स्थानीय स्तर पर ‘पीजीएचडी‘ सहित अन्य कई छोटे-छोटे दलों के साथ मात्र कुछ सीटों का सामंजस्य भर है। लेकिन प्रवक्ता का यह बयान झूठा व तथ्यों के विपरीत है, क्योंकि कांग्रेस ने ‘‘गुपकार एक और गुपकार दो’’ दोनों घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किए है।  

कांग्रेस ने तो वर्तमान में ‘‘सेल्फ गोल‘‘ मारने में महारथी हासिल सी कर ली है। तब फिर भाजपा गोल मारने का ‘दावा‘ करके स्वयं के हाथों को कीचड़ में अनावश्यक क्यों  सना रही है? प्रसिद्ध हाॅकी खिलाड़ी (गोलकीपर) ‘असलम शेर खान’ जो मेरे बैतूल संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस के लोकसभा के सांसद रहे हैं, ने कुआलालंपुर में वर्ष 1975 के विश्व कप हॉकी में गोल का बेहतरीन बचाव कर बढ़िया गोलकीपिंग करके भारत को को जीत दिलाई थी। उनके कांग्रेस छोड़ने के बाद से (राजनैतिक) ‘‘खेल मैदान‘‘ में सही ‘‘गोलकीपर‘‘ न मिल पाने के कारण कांग्रेस को सेल्फ गोल खाने की आदत सी पड़ गई लगती है। यद्यपि असलम शेर खान कांग्रेस में वापस लौटे जरूर, लेकिन तब तक उनकी ‘फिटनेस‘ कमजोर हो जाने के कारण और ‘‘खेल‘‘ के ‘‘तकनीकी नियम‘‘ में आवश्यकतानुसार परिस्थितियों में भारी बदलाव होने से व कांग्रेस द्वारा उन बदलावों के साथ सामजंस्य न बैठाल पाने के कारण असलम भाई कांग्रेस को ‘‘सेल्फ गोल‘‘ मारने से रोक नहीं पा रहे हैं। वैसे इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि, भाजपा ने जब पीडीपी को समर्थन दिया था, तब उसका यह देशद्रोही और बेहूदा शर्मनाक बयान वाला चेहरा सामने नहीं आया था। जबकि कांग्रेस ने तब समर्थन किया जब उसका यह अराष्ट्रवादी रूप सामने आया है। इसलिए मैंने कांग्रेस का इसे सेल्फ गोल कहा है। ‘‘गुपकार घोषणा गठबंधन’’ का ‘‘हाथ का साथ’’ कहीं कांग्रेस को अस्त-पस्त, गुप्त व विलुप्त न कर दे?

यदि ऐसी स्थिति में यदि भाजपा ‘‘कांग्रेस के सेल्फ गोल के बदले‘‘ तीक्ष्ण बयानों के द्वारा ‘‘गोल मारने का श्रेय‘‘ लेना चाहती है, तो फिर उसको यह भी बताना होगा कि उसने देश विरोधी हरकतें/कार्यवाही करने के लिए ‘‘देशद्रोह का अपराध’’ से लेकर देश के अन्य सुरक्षा कानूनों के अंतर्गत ‘‘गुपकार गैंग’’ के विरुद्ध अभी तक कठोर कार्रवाई क्यों नहीं की? अनुच्छेद 370 समाप्त करने के बाद जब फारूक अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती व अन्य राजनैतिक नेताओं द्वारा कोई अपराध नहीं किया गया था, तब भी अपराध व शांति भंग किए जाने की मात्र आशंका के मद्देनजर ही उन सब नेताओं को 6 महीने से लेकर 14 महीने तक ‘‘बंदी निरोधक‘‘ बनाए रखा गया। तब आज स्पष्ट ‘‘अपराध‘‘ करने के बावजूद सजा दिलाने के लिए कोई कार्यवाही न करना, क्या सिर्फ ‘‘राजनीति‘‘ नहीं कहलायेगी? यह हास्यास्पद लगता है कि जम्मू-कश्मीर के भाजपा प्रदेश अध्यक्ष रविन्द्र रैना इनकी गिरफ्तारी की मांग कर रहे है। किससे? कौन करेगा? क्या ‘कांग्रेस’ इनको गिरफ्तार करेगी? 

आपको याद करना चाहिए कि जब ‘गुपकार गैंग’ ने जिला विकास परिषदों के चुनाव में भाग न लेने की बात की थी, तब तक भाजपा ने उक्त गुपकार घोषणा बाबत कोई तीव्र प्रतिक्रिया नहीं की थी। लेकिन जैसे ही कांग्रेस के साथ सीटों के समझौते करके चुनाव लड़ने की घोषणा की गई, भाजपा एकदम से बेहद आक्रमण हो गई। क्या गुपकार गठबंधन दलों की राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेने से भाजपा को चुनावी परिणामों के बाबत कोई ड़र लग रहा है? जम्मू-कश्मीर में हो रही किसी भी राजनीतिक प्रक्रिया में वहां के पंजीयत राजनीतिक दलों के अधिकतम भाग लेने पर हम विश्व समुदाय की नजर में ज्यादा सहज स्थिति में अपने को पाते हैं। 

वैसे विपरीत सिद्धांतों के गठबंधनों का इतिहास देश की राजनीति में भरा पड़ा हुआ है। अटल जी के समय एनडीए में स्वयं भाजपा ने अपनी पहचान के मुद्दे राम मंदिर, अनुच्छेद 370, समान सिविल कोड़ आदि को तत्समय अस्थाई रूप से तिलांजलि दे दी थी। रामविलास पासवान, ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, मायावती, जयललिता, आदि के साथ सत्ता की भागीदारी भाजपा की सत्ता की सिद्धांतहीन राजनीति के उदाहरण रहे है। कांग्रेस तो इसकी जनक रही है। ‘‘न्यूनतम सामान्य कार्यक्रम’’ के साथ भाजपा के नेतृत्व में गठित ‘राजग’ के साथ ‘‘नेशनल कॉन्फ्रेंस’’ (एनसी) की सत्ता में भागीदारी सिर्फ दिल्ली में ही नहीं रही है, बल्कि वर्तमान में भाजपा करगिल (लद्दाख) में स्थानीय निकाय में अभी भी भागीदारी जारी है। तब आज उस एनसी के कांग्रेस के साथ मात्र सीटों के सामजंस्य पर आपत्ति क्यों? खासकर भाजपा द्वारा? ‘‘मात्र सीटों के सामंजस्य’’ के साथ चुनाव लड़ने में दलों के सिद्धातों के परस्पर स्वीकार/मानने का मुद्दा उत्पन्न नहीं होता है। 

भाजपा को ‘‘गुपकार गंैग’’ पर कांग्रेस को घेरने के पूर्व इस बात का भी जवाब देना होगा कि, उसने पूर्व में पीडीपी के साथ सत्ता की भागीदारी क्यों की? सत्ता की भागीदारी के समय यदि पीडीपी पूर्ण रूप से राष्ट्रीय थी, तो जिला परिषद की सत्ता में भागीदारी के लिए उसका कांग्रेस से हाथ मिलाने पर आप कांग्रेस को दोषी कैसे कह सकते हैं? और सामान्य नैतिकता भी आपको इस बात का अधिकार नहीं देती है। यह एक्सक्यूज (बहाना) करना कि, जब पीडीपी हमारे साथ थी तो, हमने उसे राष्ट्रवादी बनाए रखा, वह तिरंगा झंडे को मानती थी, भारत माता की जय करती थी, सही नहीं होगा। जैसा कि भाजपा प्रवक्ता टीवी बहसों में अपनी रक्षा में ये बातें कहते हैं। यदि भाजपा ‘‘राष्ट्रवाद को बनाने वाला पारस पत्थर’’ है, तो फिर उसने क्यों पीडीपी को छोड़ कर अराष्ट्रवादी होने दिया? स्पष्ट रूप से भाजपा को यह स्वीकार करना ही चाहिये कि पीडीपी के साथ उसका गठबंधन ‘‘होली अलायंस’’ (पवित्र गठबंधन) न होकर एक भूल थी, जो त्रुटि समझ में आते ही अलायंस तोड़ कर ठीक कर ली गई। आज के समय की यह आवश्यकता है कि एक अत्यंत संवेदनशील केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में असयंमित बयान बाजी न की जावे और राष्ट्र विरोधी ताकतों के विरूद्ध बिना शोर-शराबे के ठीक वैसे ही ठोस कदम उठाये जावें, जैसे दृढ़ कदम उठाकर अनुच्छेद 370 को समाप्त किया गया था। भाजपा को पूरी जिम्मेदारी से तुच्छ ‘‘राजनीति’’ से ऊपर उठकर अधिकारिक मजबूत राष्ट्रवादी नीति के साथ जम्मू-कश्मीर की स्थिति को संभालना चाहिए। 






शनिवार, 21 नवंबर 2020

रात्रिकालीन कर्फ्यू ! क्या ‘‘कोरोना’’ ‘‘केवल’’ ‘‘निशाचर’’ ही है?


देश में कोरोना (कोविड़-19) संक्रमितों की संख्या फिर तेजी से बढ़ने लगी है। वैसे तो यह संख्या पहले से ही बढ़ रही थी। लेकिन तत्समय बिहार व देश में हो रहे उपचुनावों के मद्देनजर इस पर सरकार व मीडिया का ध्यान कम ही जा सकता था। संक्रमितों की बढ़ती संख्या को देखते हुए पहले अहमदाबाद और अब मध्य प्रदेश में 5 शहरों व राजस्थान के 8 जिलों में दिन में चल रही अबाध गतिविधियों पर अन्य कोई अतिरिक्त प्रतिबंध लगाए बिना, रात्रिकालीन कर्फ्यू लागू कर दिया है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का कथन है कि  जब तक हालात नहीं सुधारते हैं, तब तक रात्रि में कर्फ्यू जारी रहेगा? गोया कोविड-19 के वायरस ‘‘निशाचर‘‘ हैं जो दिन में ‘सोते‘ हैं और रात्रि में ‘जग कर घूम-घूम कर‘ लोगों को संक्रमित करते हैं। वैसे ‘मानव’ जो रात्रि में नींद में चलता है वह ‘रोगी’ माना जाता है। लेकिन कोरोना रात्रि में स्वयं रोगी न होकर स्वस्थ्य होकर (सरकार की नजर में) दूसरो को संक्रमित कर रोगी बनाता है। इसलिए रात्रि मे कर्फ्यू लगा कर ‘‘उनके मूवमेंट‘‘ पर रोक लगाकर ‘‘संक्रमण‘‘ को रोकने का प्रयास किया है। इस प्रकार सरकार अपने कर्तव्य व उत्तरदायित्व को पूरा हुआ मानकर अपनी पीठ स्वयं ही थपथपा रही है। 
अब तक यह सब को पूर्णतः स्पष्ट हो चुका है कि कोरोना वायरस (कोविड-19) का संक्रमण रोकने के लिए फेस मास, सैनिटाइजेशन, बार-बार हैंड वॉशिंग, और 6 फुट की दूरी  बनाए रखना, इन सब सावधानियों का कड़ाई से पालन करके ही कोरोना
वायरस के संक्रमण को पूर्णतः लगभग रोका जा सकता है। तब रात्रि में कर्फ्यू लगा कर कोविड-19 के उक्त सावधानी के नियमों का कितना पालन हो पाएगा? इसकी कल्पना आप स्वयं कर सकते हैं। रात्रि में इन कोविड़ सावधानियों का न तो पूर्ण रूप से पालन हो सकता है और न ही दिन में खासकर उस स्थिति में जब हम यह लगातार देख रहे हैं कि, खुले आम बेशर्मी के साथ या असावधानीवश अधिकांश लोग उक्त नियमों का लगातार उल्लंघन कर रहे हैं। दिन की तुलना में रात्री में उन सावधानियों के पालन की उतनी आवश्यकता भी  नहीं है। सरकार के किसी ‘सर्वे’ में यदि यह तथ्य संज्ञान में आया है कि कोविड-19 की सावधानियों के पालन का उल्लंघन  रात्रि की तुलना में दिन में बहुत कम हो रहा है, तब बात दूसरी है जिस तथ्य से जनता को भी अवगत कराया जाना चाहिये। 
वैसे यदि सरकार ‘‘परिवार नियोजन‘‘ की दृष्टि से उक्त सावधानियां जिसमें 6 फुट की दूरी शामिल है, का पालन करवाने के लिए रात्रिकालीन  कर्फ्यू लगा रही है, तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए! क्योंकि निश्चित रूप से इससे परिवार को ‘‘नियोजित‘‘ करने में सफलता मिलेगी! फिर चाहे  कर्फ्यू सफल हो या असफल होवे! क्योंकि असफल होने पर आदमी के ‘‘भगवान को प्यारा हो जाने की स्थिति में भी तो वह परिवार को नियोजित (संख्याकम) करने में अप्रत्यक्ष रूप से सहायक ही होगा? अतः उक्त नियमों का पालन करवाने के लिए रात्रि कालीन कर्फ्यू कैसे प्रभावशाली हो सकता है? जिस कारण से दिन में भी नियमों का कड़ाई से पालन हो जाए। कम से कम यह बात मेरे भेजे में तो नहीं घुस रही है। यदि आपके दिमाग में आ रही है, तो कृपया मुझे बताइए ताकि मैं अपने दिमाग को दुरुस्त तो कर सकूं।
इस पूरे कोरोना काल के दौरान हमने प्रायः यही देखा है कि चाहे केंद्रीय सरकार हो या राज्य सरकारें, ‘‘समझ बूझ’’ के साथ ‘समय‘ पर, ‘‘समयानुकूल’’, ‘समयबद्ध‘ निर्णय ‘समय‘ को देखते हुए नहीं लिया गए, जिसका भुगतान आप हम सब को करना पड़ रहा है। इसके लिए वे सब गैर जिम्मेदाराना नागरिक भी उतने ही जिम्मेदार हैं। जब हम ‘‘अपने व गैरों‘‘ में अंतर मानते हैं, रखते हैं ,अपने किसी परिचित को गले लगाते हैं और ‘‘गैरों‘‘ को दूर रखते हैं तो, कृपया आप भी इस ‘गैर‘ शब्द को ‘‘गैर जिम्मेदाराना‘‘ से हटा कर "जिम्मेदार" क्यों नहीं बन जाते हैं? जिम्मेदार हो जाइए? विश्वास मानिए, कोरोना वायरस का संक्रमण निश्चित रूप से रुक जाएगा।

मंगलवार, 17 नवंबर 2020

चुनाव परिणाम ‘‘आप आये’’(बिहार में) ‘‘बहार‘‘ आयी।

 


‘‘बिहार’’ के आये इस चुनाव परिणामों ने पिछले चुनावों के अपने चरित्र को कमोवेश प्रायः बनाये रखा है। तो फिर बिहार का चरित्र क्या है? आईये इसको जानने का प्रयास करते है। याद कीजिए! पिछले विधानसभा के चुनाव में लगभग समस्त ‘‘ओपिनियन व ‘‘एग्जिट पोल’’(निर्गम मतानुमान) को नकारते हुये ‘‘जेडीयू‘‘ व ‘‘आरजेडी’’ के गठबंधन को बहुमत प्राप्त हुआ, और स्टुडियोज मंे विश्लेषण करने बैठे चुनावी पंडितों व विशेषज्ञों तक को भी आश्चर्यचकित होना पड़ा था। इस चुनाव परिणाम ने भी एग्जिट पोल के इतिहास को लगभग पुनः दोहराया है। सिर्फ एबीपी न्यूज सी वोटर का एग्जिट पोल ही लगभग सटीक बैठा है। यद्यपि इस चुनाव परिणाम में भी कुछ मिथक बनें, तो कुछ टूटे भी है। अत इन दृष्टिकोण सेे इन चुनावीे परिणामों का गहराई से अध्ययन कर 

विश्लेषण किया जाना आवश्यक हैं। 

‘‘बिहार’’ में हार शब्द शामिल है। वैसे तो ‘‘हार‘‘ का विपरीत शब्द ‘‘जीत‘‘ होता हैं। परन्तु ‘हार’ का एक अर्थ ‘‘जीत‘‘ भी होता है। कैसे! जब जीतने के बाद ‘‘हार‘‘ (माला) पहनायी जाती हैं। अर्थात सामान्य रूप से बिना हार (माला) के जीत का प्रदर्शन नहीं होता है। यह चुनाव परिणाम दोनों गठबंधनों को एक साथ जीत दिलाता है, अथवा अहसास कराता है, तो हार भी दिलाता है या असहास भी कराता है।ं यह इस चुनाव की एक महत्वपूर्ण विशेषता हैं। यह कैसे! बात पहले जीत की कर ले! एनडीए को स्पष्ट बहुमत मिलने से उसे जीत मिल गई। इसका सीधा अर्थ यही है कि महागंठबन हार गया। यह सीधा सा ‘‘अंकगणित’’ व धरातल पर लागू होने वाला परिणाम है। लेकिन जब मैं यह कहता हूं कि एनडीए के साथ ‘‘महागंठबन’’ की जीत भी हुई है, तब इसके राजनैतिक मायने होते है। राजनैतिक-सार्वजनिक जीवन में पूर्ण विजय या सफलता तभी मानी जाती है, जब आप अकंगणित के आकडों को जीतने के साथ उससे जुड़े परशेपशन (अनूभूति) पर भी विजय प्राप्त करंे, जो बिना शक के इस चुनाव में सिर्फ बीजेपी ने ही प्राप्त ही की। 

लालू यादव के जेल में रहने के बाद एक तरफ 31 वर्षीय 9 वीं पास तरफ तेजस्वी यादव थे, जिनके उपर कभी राजनीति के हीरो रहे व वर्तमान में विलेन लालू की बदनामी की छाया व छाप थी। लेकिन लालू की प्रति छाया के बिना तेजस्वी का यह पहला चुनाव था। चुनाव प्रारंभ होने की घोषणा के बाद उनकी पार्टी के दलित नेता शक्ति मलिक की हत्या का आरोप भी उन पर व उनके भाई पर लगा था। यद्यपि डेढ़ साल वे उपमुख्यमंत्री जरूर रहे, लेकिन राजनीति का अनुभव तुलनात्मक रूप से बहुत कम था। जबकि उनके राजनैतिक विरोधी बडे़ नाम व स्टार नीतीश कुमार सहित देश के समस्त यशवस्वी विश्वसनीय राजनैतिक स्टारस् से तेजस्वी कैसे मुकाबला कर पायेगा, इसका आंकलन चुनाव प्रांरभ के पूर्व तक राजनैतिक पंडितों नगणय मान रहे थे। क्योकि विधानसभा के पूर्व हुये लोकसभा चुनाव में बुरी तरह से हारी राजद को एक भी सीट नहीं मिली थी।

चुनाव की घोषणा होने के बाद समय बीतते-बीतते तेजस्वी का ’तेज’ भी निखरने लगा और वही ‘तेज’ पूरे बिहार में बहार कर अपना रंग दिखाने लगा। उनकी सभाओं में भी उतनी वह भीड़ दिखने लगी, जितनी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सभा में आती थी। सभाओं के भीड़ के समस्त रिकार्ड ध्वस्त हो गये। 

इन सबसे अलग महत्वपूर्ण बात यह रही कि बहुत ही कम अनुभवी लेकिन राजनैतिक परिवार में पैदा हुये युवा कम पढ़े लिखे तेजस्वी नेे रोजगार को मुख्य चुनावी मुद्दा बनाकर उसे चुनाव में एक नरेटिव बनाने मंे पूर्णतः सफल रहे। यद्यपि हम पीछे मु़ड़कर देखे तो दूर-दूर तक ऐसा नरेटिव निश्चित होते कभी नहीं देखा गया। यद्यपि अन्य मंागों के साथ एक मांग रोजगार की होने के बावजूद वह मुख्य मुद्दा कभी भी नहीं बन पाया। लेकिन इस तेजस्वी ने बिना किसी शक व सुबहा के उक्त चुनावी मुद्दा बना कर समस्त राजनैतिक पाटियों को उस मुद्दे पर केंद्रित कर दिया। यही उसकी सूझबूझ व सबसे बड़ी राजनैतिक सफलता है। यह सफलता इसलिए भी बड़ी है, कि बिहार वह प्रदेश रहा है जिसे मडंल-कमंड, अगड़ा-पिछड़ा, पिछड़ा-अतिपिछड़ा, मंदिर-मंस्जिद जैसे विवादित मुद्दों ने जकड़ रखा है और उन मुद्दों से बिहार हारा नहीं और न ही कभी बाहर आया और न ही उससे बाहर लाने का प्रयास कभी किया गया। 

पिछले विधानसभा और उसके बाद हुये लोकसभा के चुनाव में मिले आरजेडी के वोटों का प्रतिशत और प्राप्त सीटों का भी आंकलन करे तो यह स्पष्ट है कि पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में राजद को 6 सीटे कम मिली, लेकिन तब जदयू का साथ था। तथापि आज इन चुनावों में विधानसभा में वह न केवल सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी (भाजपा से भी 1 सीट ज्यादा मिले) बल्कि लगाकर मतों में भी इजाफा हुआ हैं। (लगभग 9 प्रतिशत की वृद्धि)। इस प्रकार इसके पूर्व के विधानसभा के चुनावों में जहां जदयू राजद के लिये एक एसेटस् थी जो अब साथ में नहीं है। परन्तु वर्तमान में कांग्रेस एक बोझ बन गई। बावजूद इन सबके राजद की यह हार के बाद भी उसकी  जीत ही कहलाएगी।

‘‘एनडीए’’ ‘‘सुशासन कुमार‘‘ के नेतृत्व में सुशील कुमार के साथ बिना ‘‘चिराग‘‘ के बहुमत की रोशनी से, आराम से सरकार बना लेगी, यह आंकलन राजनैतिक पडिंतांे का भी रहा। स्वयं एनडीए ने भी दो तिहाई बहुमत का दावा किया। परन्तु लोजपा ने अधिकतर  पाटियों की जीत में सफल अंड़गे लगाये। फिर चाहे वह घोषित विरोधी पाटी जदयू हो या भाजपा जो चिराग घोषित सहयोगी पाटी थी। राजद, कांग्रेस सहित अधिकतर पाटियों के वोट काटकर ‘‘वोट कटवा’’ पार्टी बनने में उसको कोई गुरेज परहेज नहीं थे। 2 सीटों से घटकर 1 सीट हो जाने के बावजूद चिराग पासवान वह परशेप्शन जीतने में विजयी रहे जो उन्होंने  जेडीयू को हराने का संकल्प लिया था। तथापि वह नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनने से रोक नहीं पाये।  

माले व असदुद्दीन औवेसी की पार्टी एआईएमआईएम के विपक्ष में व सत्ता के साथ न होने के बावजूद बहुत फायदा में रही और उन्हांेने अपनी संख्या बल में क्रमशः 8 व 5 की बढ़ोतरी की। असदुद्दीन औवैसी पहली बार ही बिहार के चुनाव में उतरे और वह झंडा गाढ़ कर अब उनका अगला कदम पश्चिम बंगाल होगा। ‘हम’ व ‘वीआईपी’ भी फायदे में रही है, जो एनडीए में रहे। जबकि चुनाव के पूर्व वह तेजस्वी के साथ थे। सिर्फ कांग्रेस ही एकमात्र पार्टी ऐसी रही जो सिर्फ घाटे ही घाटे में रही है, जो परिपाटी (कांग्रेस मुक्त भारत) मोदी के आने के बाद से लगभग चली आ रही है। देश के उपचुनावों ने भी कांग्रेस की उक्त घाटे की स्थिति पर ही मुहर ही लगाई है। 

एक सबसे महत्वपूर्ण बात इस चुनाव की जो रही जिस पर किसी भी राजनैतिक पंडितों से लेकर राजनैतिक पाटियों ने ध्यान नहीं दिया वह 15 वर्ष का लालू का जंगलराज के विरूद्ध 15 वर्ष के सुशासन बाबू के नीतीश कुमार का सुशासन। समस्त पक्ष-विपक्ष व आंकलनकर्ता इस बात को भूल गये कि पिछला विधानसभा चुनाव नीतीश कुमार व लालू ने साथ मिलकर लड़ा था, जिससे दोनों के गठबंधन को भारी विजय प्राप्त हुई थी। जिसका अर्थ यही होता है कि न केवल नीतीश कुमार स्वयं ने उक्त तथाकथित 15 वर्ष के लालू के जंगलराज को गलत नहीं समझा या उसे भुला दिया और जनता भी उस पर अपने मतों की सील लगाकर उक्त जंगलराज के मुद्दे को पिछले विधानसभा के चुनाव परिणाम ने दफना कर समाप्त कर दिया था। इस प्रकार पिछले विधानसभा के चुनाव में दोनों के बंधन को जिताकर सरकार बनाकर मजबूत किया लेकिन शायद फेवीकोल का घोल न चढ़ने के कारण व जोड़ मजबूत नहीं बन पाया और ड़ेढ़ वर्ष में ही चाचा भतीजे के उक्त परस्पर बंधन टूट गये। 

बात मध्यप्रदेश के उपचुनावांे की भी कर ले जैसा की मैंने ऊपर लिखा ‘‘अंकगणित’’ हमेशा सही स्थिति को नहीं दर्शाते है। मध्यप्रदेश की 28 में से 19 सीट जीतने के बावजूद भाजपा जीती नहीं, हारी है। उसको समझने के लिये थोडा सा आपको माथे पर बल देना होगा। याद कीजिये! इन 28 में से 25 सीटे भाजपा के ‘‘पास’’ थी। अब 25 सीटों में से 19 पर विजस प्राप्त करना और कांग्रेस की 3 सीटों की जगह 9 सीटों पर विजय प्राप्त करना जीत किसकी हुई है, आप खुद आंकलन कर सकते है। आप कह सकते है कि पिछले विधानसभा के चुनावों में 25 कांग्रेस की टिकिट पर विधायक चुने गये थे, इसीलिए कांग्र्रेस की हार है। आपने जब 25 विधायकों को शामिल किया तब भाजपा नेतृत्व ने यह माना था कि इन सबका व्यक्तित्व तो प्रभावशाली है, परन्तु ये लोग गलत पार्टी में थे। और अपनी आत्मा की आवाज के कारण इस्तीफा देकर भापजा के साथ आये हंै और आपने भी अंर्तमन से उन्हे स्वीकार किया था कि उनके जुड़ने से पार्टी की स्थिति मजबूत होगी। एक अच्छे व्यक्ति का एक अच्छी पार्टी से जुड़ने के बाद ‘‘सोने पर सुहागा’’ जैसी स्थिति होने के बाद 9 लोगांे की हार को आप कैसे जीत कह सकते है? और उसका बचाव कैसे किया जा सकता है? इसीलिए मैं बार-बार यह कहता हूं वास्तविक जीत वही कहलाती है जहां आंकडांे के साथ परसेप्शन भी जीता जाये। जैसे भाजपा ने बिहार चुनाव में दोनों पर विजय प्राप्त कर की।  

इसीलिए यह चुनाव दिवाली के अवसर पर सबके लिये कुछ न कुछ मुस्कुराहट रही परन्तु कांग्रेस की दिवाली न होकर दिवाला निकल गया।


बुधवार, 11 नवंबर 2020

पत्रकार’’ व ‘‘वकील’’ क्या ‘‘तंत्रों‘‘ से ऊपर है?


प्रथम भाग
जब भी किसी प्रसिद्ध ‘पत्रकार’ अथवा ‘वकील’ पर ‘‘आपराधिक कानून’’ के तहत कोई कार्यवाही की जाती है या शुरू किए जाने का प्रयास होता है, तब प्रायः कार्यवाही करने वाले तंत्रों के ‘हाथ पाव फूल’ जाते हैं। क्योंकि पत्रकार और वकील जगत समाज के प्रमुख वर्ग माने जाते है तथा प्रायः वे स्वयं भी इस बात की तसदीक करते है। इस कारण से वे अपने-अपने समूह वर्ग के सदस्यों के व्यक्तिगत हित में यह नारा लेकर खड़े हो जाते हैं कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया और पहला स्तंभ ‘न्यायपालिका’ जिसका वकील वर्ग एक महत्वपूर्ण भाग है, खतरे में आ गया है। ‘‘प्रतिबद्ध’’  न्यायपालिका का खतरा है’’‘‘प्रेस की आजादी को खतरा है’’ और इस खतरे को जब तब बदनाम‘‘आपातकाल‘‘ का नाम दे दिया जाता है। 
बात ‘रिपब्लिक टीवी’ के मालिक अर्नब गोस्वामी की मुंबई पुलिस द्वारा 2 साल पुराने (बंद) खात्मा लग चुके प्रकरण में की गई गिरफ्तारी के मामले की है। उक्त मामला इंटीरियर डिजाइनर अन्वय नाइक को रिपब्लिक टीवी के द्वारा बकाया भुगतान न करने के चलते तनाव के रहते नाइक व उसकी मां ने आत्महत्या कर ली थी। आत्महत्या के पूर्व स्व. नाइक ने पत्र लिखकर अर्नब पर आर्थिक व्यवहार व धोखाधड़ी का आरोप लगाने पर अर्नब के विरूद्ध प्रकरण पंजीबद्ध किया गया था, जिसमें तत्कालीन फडणवीस सरकार के समय खात्मा रिपोर्ट लग गई थी। मई 2020 में उनकी बेटी अदन्या नाइक की नई शिकायत के आधार पर पुनः जांच के आदेश दिये गये और तदानुसार उक्त गिरफ्तारी की हुई कार्यवाही पर पुनः ध्यान आकर्षित हुआ है। 
इसके कुछ समय (लगभग ढ़ाई महीने) पूर्व प्रसिद्ध वकील मानवाधिकार व जनहित याचिका विज्ञ प्रशांत भूषण के मामले में भी उच्चतम न्यायालय ने 1 रूपये के मूल्यांकन को बढ़ाकर रूपये का सम्मान बढ़ाकर, प्रशांत भूषण को 1 रूपये जुर्माना भरने के आदेश दिये थे। मुंबई पुलिस द्वारा जिस तरह व तरीके से अर्नब गोस्वामी की उक्त प्रकरण में गिरफ्तारी की गई है और पूर्व में भी पिछले कुछ समय से उनके विरुद्ध विभिन्न आपराधिक अधिनियम के अंतर्गत मुंबई पुलिस द्वारा तीन-तीन बार कार्यवाही की गई है, उन सब सम्मिलित कार्यवाहियों से निश्चित रूप से मुंबई पुलिस और अंततः महाराष्ट्र सरकार की नियत व कार्यवाही पर सवालिया निशान व ऊंगली उठना स्वाभाविक ही है। 
देश की ‘चलताऊ’ राजनीति के वर्तमान स्वरूप को देखते हुए अर्नब के प्रकरण में सत्ता व कानून के दुरुपयोग के आरोप लगना लाजमी है और आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति भी चलना तय है। परंतु महत्वपूर्ण प्रश्न यहां पर यह है कि अर्नब गोस्वामी के साथ विगत कुछ समय से जो कुछ भी हुआ है, और हो रहा है वह महाराष्ट्र सरकार द्वारा ‘तंत्र’ के तथाकथित दुरुपयोग का मामला हो कर भी क्या उसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ अर्थात संपूर्ण मीडिया के विरुद्ध कार्यवाही माना जाना चाहिये? ठीक इसी प्रकार प्रशांत भूषण के विरुद्ध की गई कार्रवाई को भी क्या संपूर्ण वकीलों की जमात के विरुद्ध कार्रवाई माना जाएगा? क्योंकि फैसला आने के बावजूद तत्पश्चात सीनियर वकीलों के एक बड़े समूह ने इस संबंध में सीधे मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र देकर फैसले से असहमति व्यक्त करते हुये सजा देने का विरोध किया था, जो शायद न्यायिक इतिहास में पहली बार हुआ है। क्या इन आधारों पर व्यक्तिगत घटना को सम्पूर्ण वर्ग द्वारा अपने उपर हमला मानकर प्रतिकार किया जाना चाहिये? क्योंकि ‘‘आर भारत टीवी’’ लगातार धमकी भरी प्रतिक्रिया द्वारा यह कह रहा है कि राजनैतिक प्रतिशोध के चलते की गई गिरफ्तारी के कारण न्यायहित में पीड़ित अर्नब को तुरंत छोड़ा जावें। दोषी अधिकारियों को निलंबित किया जाये। अन्यथा 120 करोड़ जनसंख्या के रोड़ पर आ जाने की आशंका है। अर्नब के माध्यम से समस्त ‘‘मीडिया’’ ‘वर्ग’ को पीड़ित रूप में कटघरे में लाने की मंशा के चलते सभ्य समाज में उक्त विषय का गंभीर व अति संवेदनशील बनाये जाने के प्रयास पर गंभीरता से निष्पक्ष रुप से चर्चा कर सही हल व निष्कर्ष निकालने की भविष्य के लिये आवश्यकता है। आइए इसी दिशा में कुछ हल ढूंढ़ने का आगे प्रयास करते हैं।
अर्नब गोस्वामी यद्यपि रिपब्लिकन टीवी के प्रधान सम्पादक हैं, जिस कारण से वे चैथे स्तंभ के एक भाग भी हैं, परन्तु पहले वे देश के ‘‘एक नागरिक’’ हैं। प्रश्न यह है कि इस देश में नागरिकों (अर्नब, एक नागरिक सहित) के साथ ज्यादती क्या पहली बार हो रही है? इसके पूर्व में नहीं होती रही ? या भविष्य में नहीं होगी? बेशक एक श्रेष्ठ, स्वस्थ्य व परिपक्व लोकतंत्र में किसी भी नागरिक के साथ एक असहिसष्णुतापूर्वक और कानून का दुरूपयोग कर, पक्षपातपूर्ण एवं बदनियति से प्रतिशोधात्मक कार्यवाही नहीं की जानी चाहिये। परन्तु सुधार के लिये समस्त रूकावटों व सावधानियों के किये गये प्रबंध के बावजूद लोकतंत्र के जन्म से अभी तक यही होता आ रहा है। यद्यपि इसका यह मतलब कदापि नहीं है कि उसका जवाब भी वही असहिसष्णुता, कानून को अपने हाथ में लेना, न्यायपालिका पर अनावश्यक दबाव या घोर अनुउत्तरदायित्व कार्य कलाप हो सकता है। जब किसी भी नागरिक के साथ किसी भी प्रकार ज्यादती होती है तो, उसके पास एकमात्र संवैधानिक अधिकार न्यायालय की शरण में जाकर अपने मूल अधिकारों की रक्षा करना होता है। और अपने संवैधानिक व कानूनी अधिकारों के गैर कानूनी रूप से हनन किये जाने पर सक्षम न्यायालय से हर्जाना मांगने का अधिकार भी होता है। 
आपराधिक कानून के अंतर्गत किसी भी आरोपी की गिरफ्तारी के संबंध में उच्चतम न्यायालय ने काफी समय पूर्व एक विस्तृत गाइड़लाईन जारी की थी, जिसे न्यायालय के निर्देशानुसार प्रमुख अखबारों में व्यापक रूप से प्रकाशित भी किया गया था। बावजूद इसके उक्त निर्देशो का कितना पालन होता आता आया है? आरोपी को हथकड़ी लगाने के संबंध में भी उच्चतम न्यायालय द्वारा वर्ष 1978 में सुनील बतरा विरूद्ध दिल्ली प्रशासन के प्रकरण में तत्पशाच कई प्रकरण में जारी गाइड़लाईन का आज भी निरतंर उल्लघंन होता आ रहा है। उच्चतम न्यायालय से लेकर अधीनस्थ न्यायालयों ने और अपनंे को सबसे जिम्मेदार चैनल कहने वाला रिपब्लिक टीवी ने कब? न्यायालय के उक्त बंधनकारी निर्देशों का पालन न होने की आवाज उठाई और उसे न्यायालय की अवमानना मानकर आवश्यक कार्यवाही की मांग कर अपने अतिरिक्त उत्तरदायी या उत्तरदायी होने का परिचय कराया? या इस विषय को लेकर रिपब्लिक टीवी ने क्या न्यायपालिका की गरिमा की सुरक्षा लगातार तीन महीने सुशांत कांड के समान रिपोर्टिंग की? क्योंकि उक्त मुद्दे लोकहित, जनहित, न्यायहित व देशहित से जुड़े है, जिनका रखवाला होने का दावा रिपब्लिक टीवी लगातार करते आ रहा है। राष्ट्रहित के एकमात्र झंडेवरदार सिर्फ रिपब्लिक टीवी ही नहीं है? अन्य अधिकांश चैनल भी अपना अपना सहयोग इस दिशा में देते आ रहे है।  
मतलब साफ है, सार्वजनिक जीवन जीने वाले ‘‘सम्मानीयों’’ पर जब कभी कानून का ड़ंडा वैध या अवैध रूप से पड़ता है, तब ‘खुद’ पर आसमान टूट पड़ने के कारण उसे ‘‘तंत्र’’ का मुद्दा बतलाकर देशहित खतरे में हैं, का विलाप करने लगते है। जबकि उनका गलत तरीके से निज स्वार्थ वश उक्त विलाप करना ही देशहित के विरूद्ध है। तब हम क्या उस नागरिक के साथ हुई ज्यादती व्यक्तिगत घटना को ‘‘संपूर्ण तंत्र की असफलता‘‘ या उस पूरे ‘‘नागरिक समाज‘‘ के साथ हुई ज्यादती से जोड़ सकते हैं, प्रश्न यह है?यदि हाँ तो फिर एक ‘‘नागरिक’’ अर्नब गोस्वामी के साथ हुई ज्यादती की घटना को सम्पूर्ण प्रेस जगत के साथ जोड़कर और आपातकाल की परिभाषा तक ले जाना, क्या अपने आप में एक ज्यादती नहीं होगी? क्योंकि अर्नब के विरूद्ध प्रस्तुत मामले में की गई कार्यवाही एक आर्थिक व्यवहार व षड़यंत्र के आरोपों के तहत की गई है। न कि एक पत्रकार का दायित्व निभाते हुये ‘‘कोपभाजन’’ बनने के कारण हुई है। 
अर्नब यद्यपि एक प्रमुख पत्रकार है, तथापि वे संपूर्ण मीडिया के पर्यायवाची या प्रतिबिम्ब नहीं है,हमें व उन्हे समझना होगा। पुलिसिया तरीके से पुलिस कार्यवाही पर गुस्सा होना/आना स्वभाविक व जायज है। परन्तु पब्लिक डोमेन में रहने वाले खासकर पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्य करने वाले व्यक्ति के लिये गुस्से में संतुलन खोना सही नहीं है। जब प्रमुख वर्ग (मीडिया) के एक ख्याती प्राप्त व्यक्ति के साथ शासन-प्रशासन तंत्र द्वारा सत्ता, अधिकारों, नियमों व कानून का दूरूपयोग कर ज्यादती की जाती है, तभी वह प्रमुख व्यक्ति ज्यादती के दर्द को महसूस व अहसास कर पाता है। अन्यथा उनके वर्ग के एक सामान्य व एक सर्वबेहाल आम नागरिक जैसे न जाने कितने नागरिक तंत्र के दुरूपयोग का दिन-प्रतिदिन शिकार होते रहते है। परन्तु उनकी न तो स्वयं की कोई आवाज होती है और न ही कोई उठाता है और वह आवाज एक नामचिन के साथ हुई कथित अत्याचार के शोर में दब जाती है। आम निरीह नागरिक के साथ हुई ज्यादती के गहरे दाग तभी लोगों केा दिखते है या उनका दर्द महसूस होता है, जब तक वह पीड़ित नागरिक पत्रकार या वकील का चोला नहीं पहन लेता है। 
अब जब तंत्र में आवश्यक या अल्प सुधार भी न हो पा रहा हो, शायद तभी समस्त सार्वजनिक जीवन के प्रमुख व्यक्तिगण अत्याचार से पीड़ित होने पर ही तंत्र की इस कमी को दूर करने के लिये कुछ न कुछ सुधार करने के बाबत अवश्य सोचेंगें और आवश्यक कदम उठा पायेगें। आज के युग में यह भी तंत्र के इलाज का एक मजबूरी में उठाया हुआ कारगर तरीका हो सकता है, और तंत्र को सुधारने की इस दृष्टि से भी अर्नब और उसके साथ खड़े लोगों को सोचने की नितांत आवश्यकता है। 
                                 *द्वितीय भाग*
रिपब्लिक एवं आर भारत टीवी के मुख्य संपादक अर्नब गोस्वामी के साथ ज्यादती, पक्षपात पूर्ण रवैया, राजनैतिक प्रतिशोध व दुश्मनी निकाले जाने की बात मीडिया में कम परन्तु आंशिक रूप से राजनैतिक क्षेत्रों में ज्यादा की जा रही है। क्या उसी पैरामीटर व प्लेटफार्म पर ‘अर्नब’ को भी खड़ा नहीं करेगें? सर्वप्रथम अर्नब क्या एक राजनैतिज्ञ है? जो राजनैतिक द्वेश की बात की जा रही है। शायद हो सकता है, वे एक विशिष्ट राजनैतिक एजेंड़ा लेकर पत्रकारिता कर रहे हो? तभी तो राजनैतिक प्रतिशोध की बात स्वयं रिपब्लिक टीवी भी कर रहा है। 
अर्नब पर हुई ज्यादती पर अमित शाह से लेकर तमाम प्रमुख भाजपा नेताओं के बयान आये जिन्होंने इस घटना को लोकतंत्र के चैथे स्तंभ पर हमला से लेकर आपातकाल तक बता दिया। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो इसे लोकतंत्र का गला घोटना बता दिया। परन्तु ‘‘राजनैतिक’’ आरोप के चलते शायद योगी यह भूल गये कि उनके स्वयं के ‘‘उत्तम प्रदेश’’ उत्तर प्रदेश में मिर्जापुर का नमक रोटी प्रकरण, जिसमें मिड़-डे-मील के रखरखाव के संबंध में पत्रकार पवन जायसवाल की गिरफ्तारी, बिजनौंर के एक गांव में पांच पत्रकारों के विरूद्ध दलित समुदाय के पानी न लेने-देने की खबर को फर्जी बताते हुये मुकदमा दर्ज करना, आजमगढ़ में पुलिस की बिना नम्बर की गाड़ी की खबर दिखाने वाले पत्रकार पर प्रकरण दर्ज करना, न जाने ऐसे कितने मुकदमे दुर्भावना पूर्ण व पत्रकारों को अनुचित दबाव में लाने के लिये व प्रताड़ित किये जाने के लिये दर्ज किये जाते रहे है। तब लोकतंत्र व मीडिया कितना मजबूत हुआ होगा? रिपब्लिक टीवी टीवी ने राष्ट्रहित में पत्रकारों के साथ हुये उक्त समस्त अत्याचारों पर कितना हाय तोबा मचाया? (सुशांत की सियासत के समान) यह बात भी अर्नब के छिपे राजनैतिक ऐजेंड़ा की पुष्टी ही करती है क्योंकि प्रायः अन्य पाटियों के नेताओं के बयान अर्नब के समर्थन में नहीं आये।
सार में ‘निष्पक्षता’ व कत्र्तव्य पालन की उम्मीद रखने वाले व्यक्ति से क्या स्वयं की निष्पक्षता, कत्र्तव्य निवर्हन व ‘सच’ की उम्मीद नहीं की जानी चाहिये? क्या अर्नब इस बैरोमीटर पर खरे उतरते है? कहा भी जाता है, ‘‘कांच के घर में रहने वाले व्यक्ति को दूसरों के घर पर पत्थर नहीं फेकना चाहिये’’। बात कड़वी हो सकती है। अर्नब के साथ हुई उक्त घटना के लिये यदि आप पूरे तंत्र व राष्ट्र को खीचेगें, आरोपित (ब्लेम) करेगें, (तथाकथित) प्रेस की आजादी को खतरा है, आवाज बुलंद करने वालों को भी तब अपने तर्क को वजन देने के लिये अर्नब को भी उसी पैमाने से उसी तराजू में तौंलकर निष्कलंक दिखाना होगा। तभी आप की बात का वजन कई गुना बढ़ पायेगा। वैसे भी हमेशा सबको आयना दिखाने के साथ कभी-कभी स्वयं को भी आयने के सामने रखना चाहिये, ताकि वास्तवित धरातल का अहसास महसूस होता रहे।  
अर्नब की तथाकथित ‘निष्पक्षता’, राष्ट्रहित व मीडिया रिपोर्टिंग के कुछ मूलभूत मान्य तथाकथित सिंद्धातों के कत्र्तव्य पालन का एक सुपरिचित उदाहरण है, सुशांत केस का मीडिया कवरेज। एक सुशांत सिंह फिल्मी कलाकार की आत्महत्या की घटना का कोई ‘‘सामाजिक सरोकार’’ या ‘‘देश की सुरक्षा’’ से कोई लेना-देना नहीं था जो आत्महत्याओं की अन्य अनके घटनाओं के समान एक सामान्य घटना मात्र है। इलेक्ट्रानिक मीडिया के इतिहास में अभी तक किसी मीडिया हाॅउस ने लगातार इतने लम्बे समय (लगातार तीन महीने से ज्यादा) का स्लाट किसी एक ‘‘सामान्य’’ घटना को नहीं दिया है जो रिपब्लिक भारत ने किया है। उक्त घटना के तथाकथित आरोपियों का मीडिया ट्रायल कर दोषी भी करार कर दिया गया। इसी के चंद दिन बार हुई दूसरे कलाकार ‘समीर शर्मा’ की आत्महत्या को रिपब्लिक टीवी ने कितने समय का स्लाट दिया? क्या सिर्फ इसलिए नहीं कि वह कलाकार ‘बिहार’ का नहीं था या मुंबई के मुख्यमंत्री निवास से उसके तार नहीं जुड़ पा रहे थे? इस लगातार प्रसारण के पीछे अर्नब का उद्देश्य क्या है? जिस घटना पर आत्महत्या के अलावा सीबीआई जांच में भी अभी तक कुछ अतिरिक्त (उकसाने के) साक्ष्य भी नहीं ढूढ़ पाई है, तब उसे हत्या का नाम देकर एक नागरिक को देश के सामने हत्यारा घोषित कर उसकी प्रतिष्ठा को धूल चटाना (जो अब वापिस नहीं आ सकती है) व उसके लिये माफी भी न माँगना; क्या यही सही व न्याय दिलाने वाली पत्रकारिता है? 
माननीय मुबंई उच्च न्यायालय ने (जिससे स्वयं अर्नब ने मामलों में सहायता पायी है) भी सुशांत प्रकरण में इतनी ज्यादा हो रही मीडिया ट्रायल पर ‘‘एनबीए’’ व सूचना मंत्रालय से कार्यवाही करने की बात कही तो, अर्नब ने अपने को उस न्यूज ब्राड़कास्ट एसोशियेसन से हटाकर खुद का एक नया संघ ‘‘न्यूज ब्राड़कास्टिंग फेड़रेशन’’ बना लिया। कानून का पालन करने के बड़े-बड़े दावा करने वाले अर्नब गोस्वामी के पास क्या कानून का पालन करने का यही तरीका बचा था?  
अर्नब ‘‘एक व्यक्ति’’ नहीं ‘‘भारत की आवाज’’ है। ‘‘120 करोड़ लोग’’ इस मुद्दे पर खड़े है, यह ‘‘अघोषित आपातकाल’’ है। ‘‘पूछता है भारत’’। ऐसी रिपोर्टिग ‘‘आर भारत’’ टीवी कर रहा है। हमने तो ‘‘आपातकाल’’ के समय भी ‘‘जेपी आंदोलन’’, में 100 करोड़ लोगों को आंदोलन के साथ खड़े होते नहीं देखा, जब सिर्फ मीडिया ही नहीं बल्कि पूरा ‘‘लोकतंत्र’’ ही खतरे में था। मीडिया के आपके अन्य समस्त साथीगण घटना की वैसी निरंतरता व प्रमुखता से रिपोर्टिंग नहीं कर रहे। वे ही जब आपके साथ नहीं है, तब 100 करोड़ लोग जिन्हे रोजी-रोटी से ही फुरसत नहीं है, उनके सहित 120 करोड़ लोगों का अर्नब के साथ होने का दावा कर क्या रिपब्लिक टीवी सही रिपोर्टिंग कर रहा है? यह घटना कौन सी धार्मिक मामलों या देश की सुरक्षा से जुड़ी है, जहां रिपब्लिक टीवी धार्मिक क्षेत्र के विभिन्न संतो व ‘सेना’ के रिटायर्ड मेजर जनरल आदि की प्रतिक्रियाएं अर्नब के समर्थन में लेकर दिखा रहा है। क्या अपने बचाव में ऐसे बचकाने दावे निष्पक्ष, स्वच्छ व सही मीडिया रिपोर्टिंग है? दुर्भाग्य से या सुनियोजित तरीके से घटित घटना से उत्पन्न आग की अग्नि को शांत करना ‘देशहित’ है या किसी व्यक्तिगत घटना के कारण व्यक्तिगत हितों के लिये जबदस्ती उन्माद पैदा करने का प्रयास करना राष्ट्र हित है? यह अर्नब व जनता को तय करना है। 
उक्त घटना के लिये बार-बार सोनिया, राहुल गांधी का नाम लेकर आप कौन सी निष्पक्षता व सही रिपोर्टिंग कर रहे है? इसका क्या यह मतलब नहीं निकाला जाए कि मोहम्मद साद की अभी तक भी गिरफ्तारी न होने के लिये आपके उक्त नजरिये से मोदी ‘‘जिम्मेदार’’ है? क्या आपने मोहम्मद साद की गिरफ्तारी का मुद्दा जिसका निश्चित रूप से राष्ट्र की सुरक्षा व आमजन के स्वास्थ्य से संबंध है, को सुशांत के समान ऐजेंड़ा बनाकर लगातार प्रश्न उठाकर ‘साद’ का ‘‘मीडिया ट्रायल’’ किया जैसा कि आपने सुशांत प्रकरण में ‘रिया’ का किया था? रिपब्लिक टीवी की रिपोर्टिंग कितनी निष्पक्ष व तथ्य लिये हुये है, यह मुंबई उच्च न्यायालय ने उसके समक्ष दायर फिल्म उद्योग से जुड़े 34 अभिनेता-निर्माता द्वारा दायर की गई याचिका पर रिपब्लिक टीवी, टाइम्स नाऊ, व टीवी 9 का उल्लेख करते हुये यह कहा कि ये मीडिया हाॅउस न्यूज न देकर अपनी ओपिनियन दे रहे है। उच्च न्यायालय ने इसके लिये इनके वकीलों को कड़ी फटकार भी लगाई।  
यदि आपके साथ आपके व्यक्तिगत विरोधी अथवा अन्य कारणों से हुये विरोधियों ने निष्पक्ष होकर कानून का पालन नहीं किया है तो, लोकतंत्र में कानून के राज में आपको अपनी रक्षा में इसके विरोधी बर्ताव करने का अधिकार स्वयंमेव नहीं मिल जाता है? सभ्य समाज में आपको अपने अधिकारो की रक्षा के लिये कानूनी प्रक्रिया की सहायता से व एक उत्तरदायी नागरिक का दायित्व निभाकर ही चलना होगा। अराजकता का जवाब अराजकता नहीं हो सकता है। जहां रिपब्लिकन टीवी इस गिरफ्तारी की घटना को लगातार पिछले 100 घंटे से सिर्फ उक्त घटना की ही रिपोर्टिग कर रही है। इसके पश्चात कुछ अन्य समाचार के शीर्षक व वीडियो क्लिक दिखाये गये। वहीं वह देश में और विदेश में हो रही अन्य घटनाओं को रिपोर्टिग लगभग नहीं के बराबर है। जैसे अमेरिका में हो रहे राष्ट्रपति के चुनाव की। जबकि अन्य टीवी चैनलों में इस घटना के साथ अन्य घटनाओं की रिपोर्टिग भी हो रही है। क्या सिर्फ इसलिये कि आप उस चैनल के मालिक है? यदि बात सिर्फ शुद्ध पत्रकारिता की है, तब टीवी चैनल को अर्नब के मालिक होने के प्रभाव से हटकर मुक्त होकर एक स्वतंत्र व निष्पक्ष रूप से इस घटना व अन्य समाचारांे को प्रसारित करना चाहिये। 
अंत में अर्नब ने जमानत के आवेदन में कानून के उस प्रावधान का पालन न करने का गंभीर आरोप लगाया कि पुलिस ने सक्षम न्यायालय से बंद हो चुके प्रकरण में पुनः जांच प्रांरभ करने के पूर्व अनुमति नहीं ली जो कि गलत व तथ्यों के विपरीत है। उक्त प्रकरण में शिकायतकत्र्ता अदन्य नाइक द्वारा दायर अपराधिक याचिका क्रमांक 1543/2020 में दिनांक 22.09.2020 को मुबंई उच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार को जांच के निर्देश दिये प्रतीत होते है। इस प्रकार उनका यह कहना कि उक्त कार्यवाही अवैध होकर प्रारंभ से ही शून्य है, प्रथम दृष्टियता गलत प्रतीत होती दिखती है। क्योंकि अर्नब की गिरफ्तारी पर न्यायिक मजिस्ट्रेट ने 14 दिनों का न्यायिक हिरासत दी है, जमानत नहीं दी। हाईकोर्ट ने भी अनुरोध के बावजूद तुरंत अंतरिम सहायता न देकर प्रकरण अगले दिन और फिर आगे सुनवाई के लिए रख दिया और आज जमानत देने से इंकार कर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका निरस्त कर दी। अर्थात हिरासत को अवैध (शून्य) नहीं किया, शून्य करणीय (वायडेबल) जरूर हो सकती है।
एक समय जब अर्नब टाइम्स नाऊ में थे, तत्समय उनका स्तर इतना ऊँचा था कि मैंने अन्य समस्त चैनलों को देखना छोड़ दिया था। मुझे याद आता है रामजेठमलानी व राज ठाकरे ही ऐसे शख्स रहे जो अर्नब का सामना प्रभावी होकर कर पाये। रिपब्लिक टीवी प्रारंभ करने के बाद अर्नब स्वयं पत्रकार कम बल्कि एक विशिष्ट ऐजेंड़ा लिये हुये कार्य करते हुये दिख रहे है, यह अर्नब के गिरते स्तर का प्रमाण है। 
चूंकि मैं एक वकील हूं और यदि पत्रकार नहीं भी हूं तो, लेखक होने के कारण उसी जीनस का तो हूं ही। इसीलिए उक्त दोनों रूपों में आये अपने विचारों को आपके साथ साझा कर रहा हंू व उपरोक्त सिद्धांत अपने पर भी लागू करता हूं।

बुधवार, 4 नवंबर 2020

बिहार के चुनाव ‘‘परिणाम’’ कहीं ‘‘अंकगणित‘‘ को गलत तो सिद्ध नहीं कर देंगे?


बिहार के चुनाव परिणाम प्रायः अप्रत्याशित ही रहे हैं। याद कीजिये! पिछले विधानसभा के आम चुनाव के परिणाम। पहले घंटे के निकले प्रारंभिक रुझान पर स्टूडियोज में बैठे समस्त ज्ञानी, बुद्धिजीवी, मूर्धन्य पत्रकार, राजनीतिक पंडित व विशेषज्ञों द्वारा तेजी से प्रतिक्रिया देने के बाद परिणाम के धीरे-धीरे और अंततः एकदम से विपरीत हो जाने के कारण उन लोगों को शर्मिंदा तक होना पड़ा था। अतः यह चुनाव भी अप्रत्याशित परिणाम लाये तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये। वैसे बिहार ‘‘अप्रत्याशितता’’ अन्र्तविरोध व ‘‘विरोधाभास’’ की कर्मभूमि रही है। केंद्रीय भूमिका लिये हुये ‘जेडीयू’ परस्पर घोर विरोधी ‘राजद’ व भाजपा के साथ बार-बार सत्ता सुख ले रही है। ‘‘जेपी आंदोलन’’ से लेकर उससे उत्पन्न नेता या तो जेल में है या ‘‘सुशासन बाबू’’ से होकर अब वे शायद शासन करने लायक भी नहीं रह जायेगें। एक ‘‘मोदी’’ के रहते दूसरे ‘‘मोदी’’ की जरूरत नहीं कहने वाला प्रदेश आज ‘‘मोदी मोदी’’ हो रहा है। ‘‘मोदी’’ के सम्मान में आयोजित भोज को निरस्त करने वाले आज ‘‘मंच साझा’’ करने के लिये तड़प रहे है। चुनावी सभाओं में अनुच्छेद 370 हटाने को अपनी उपलब्धियां बताने वाले प्रधानमंत्री अनुच्छेद का विरोध कर चुके मुख्यमंत्री के लिए वोट मांग रहे हैं। बिहार की राजनीति का उपरोक्त ‘‘विरोधाभास’’ तो देखिए, जहां तीन-तीन बार नीतीश कुमार ने मोदी की अवमानना की हो और नीतीश द्वारा बिना माफी मांगे या खेद प्रकट किए ही मोदी को ऐसे नीतीश कुमार के लिए वोट मांगने पड़ रहे है। राजनीति की यही "निम्न पराकाष्ठा" है। 'राजनीति जो न कराए सो थोड़ा है'!

‘‘राजद‘‘ के अध्यक्ष और मुख्यमंत्री पद के दावेदार लालू यादव के सुपुत्र, पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने ‘‘महागठबंधन’’ का ‘‘बदलाव का संकल्प पत्र’’ जारी करते हुए यह घोषणा की कि वे प्रथम कैबिनेट में ही पहले हस्ताक्षर से 10 लाख ‘‘बेरोजगार नौजवानों‘‘ को ‘‘सरकारी नौकरी‘‘ देंगे। उक्त घोषणा ने न केवल राजनीतिक क्षेत्रों में तहलका मचा दिया बल्कि राजनीतिक विश्लेषकों को थोड़ा अचंभित भी कर दिया। सिर्फ ‘‘नौंवी पास’’ व्यक्ति का इतना बड़ा आर्थिक दाँव/पासा फेकना?बिना देर किये मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एवं उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी ने तेजस्वी के 10 लाख लोगों को नौकरी देनी की घोषणा पर कटाक्ष करते हुए कहा कि इसके लिए 58 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा धन की व्यवस्था करनी पड़ेगी, जो कि वर्तमान में सरकार के कुल वार्षिक बजट लगभग 2 लाख करोड़ को देखते हुए, समस्त अन्य खर्चों व विकास खर्चों की मदों के मद्देनजर बिल्कुल भी सम्भव नहीं है। ‘तंज‘ कसते हुए यह कहा कि क्या यह व्यवस्था ‘नकली नोटों को छापकर’ या उन पैसो से जिसने ‘जेल’ पहुंचाया है, से होगी? उन्होंने तेजस्वी की उक्त उद्घोषणा को ‘‘ढ़पोरशंखी घोषणा‘‘ और चुनावी ‘जुमला’ तक बता दिया।

यहां तक तो ठीक था। परन्तु तेजस्वी की ‘‘नौकरी’’ देने की उक्त घोषणा का बेरोजगार नवयुवक मतदाताओं पर तेजी से पड़ते हुए प्रभाव के भय से चिंतित होकर आनन-फानन में उक्त दावे की आलोचना करने के अगले ही दिन ‘‘महागठबंधन‘‘ के विरोधी गठबंधन ‘‘एनडीए‘‘ की ‘‘डबल इंजन की सरकार‘‘ (जिसे अभी अभी लालू ने ‘‘ट्रबल इंजन‘‘ की सरकार कहां है) के एक प्रमुख घटक भारतीय जनता पार्टी ने पांच सूत्र एक लक्ष्य व ग्यारह संकल्पों के साथ ‘‘संकल्प विजन डाॅक्यूमेंट‘‘ जारी किया, जिसमें ‘‘अटका बनिया देय उधार‘‘ की तर्ज पर 19 लाख लोगों को ‘‘रोजगार‘‘ देने का वादा किया गया। जब पत्रकारों ने यह पूछा कि 10 लाख नौकरी की घोषणा पर अमल होना संभव ही नहीं है, कहकर आप तो तेजस्वी की आलोचना कर मजाक उड़ा रहे थे, फिर अब 19 लाख की बात कैसे? इस पर उन्होंने यह स्पष्टीकरण दिया कि हम ‘‘नौकरी‘‘ की नहीं ‘‘रोजगार‘‘ देने की बात कर रहे हैं। 

यहीं पर एनडीए तेजस्वी की फेंकी हुई ‘‘गुगली’’ में फंस गई। नौकरी का नहीं ‘‘सरकारी नौकरी’’ का महत्व है। सरकार पर काबिज व ‘सरकार’ का महत्व समझने वाले ‘‘सरकारी’’ नौकरी का महत्व नहीं समझ पाये और यही पर तेजस्वी भारी पड़ गये। एनडीए महागठबंधन की पहली कैबिनेट में नौकरी देने की घोषणा की तकनीकि त्रुटियां, कमियां व अड़चन बतलाने के अलावा स्वयं इस बात का स्पष्टीकरण नहीं दे पाया कि इन 19 लाख रोजगार में नौकरी की कितनी संख्या शामिल है? और ये 19 लाख रोजगार वे कितने दिनों में देंगे? इस कारण उन्हें अगर-मगर करते हुए अगल-बगल झांकना पड़ रहा है।

तेजस्वी 10 लाख नौकरी किस प्रकार देंगे, उसका ब्योरा भी वे जनता के बीच लगातार प्रस्तुत कर रहे हैं। जो कम पढ़े लिखे नेता की कम पढ़ी लिखी जनता को ‘भा‘ भी रहा है। 19 लाख जो कि ज्यादा बड़ा आंकड़ा है, की तुलना में 10 लाख (लगभग आधा) पर मतदाता ज्यादा विश्वास कर रहे हैं, जो अंक गणित की अति सामान्य धारणा के विपरीत है। इसीलिए लेख का उक्त ‘शीर्षक‘ दिया गया है। इसी कारण पहले तेजस्वी के दावे का मखौल उड़ाना, ‘बोगस’ करार देना, फिर उसकी काट के लिये 19 लाख रोजगार की बात करना, परन्तु उसमें नौकरी के आंकड़े व समय सीमा न देने के कारण परिर्वतन की चाह के चलते जनता तेजस्वी पर ज्यादा विश्वास करने के लिये मजबूर सी हो गई लगती है। संभवतः बिहार के चुनावों में शायद यही होने भी वाला है।

बिहार विधानसभा के महत्वपूर्ण हो रहे आम चुनाव के ‘‘आंकड़ों’’ के ‘‘रण’’ में ‘‘तेजस्वी‘‘ के पीछे देश के समस्त ‘‘यशस्वी‘‘ ‘‘विश्वसी’’ लोग लग गये हैं। जिस कारण से दिनों दिन बढ़ते विश्वास के साथ तेजस्वी एक युवा चेहरे के रूप में उभर रहे हैं। लालू यादव के ‘‘दाग‘‘ व ‘‘कांड’’ फिलहाल कहीं भी उनका पीछा करते हुए नहीं दिख रहे हैं। शायद इस कारण से तेजस्वी ‘यशस्वी‘ बनने की ओर आगे बढ़ रहे हैं, और एनडीए की ‘‘ईंट से ईंट‘‘ बजाने के लिये कृत-संकल्प दिखायी पड़ रहे हैं। परंतु तेजस्वी के पीछे पड़े उक्त ‘‘यशस्वीगण’’ ‘‘आकाश पाताल एक कर के‘‘ भी तेजस्वी के ‘‘तेज‘‘ को पीछे छोड़ पायेंगे? यह देखने की बात होगी। 

‘‘लालू राबड़ी की चुनाव प्रचार में ‘‘फोटो‘‘ न लगाने पर तेजस्वी की आलोचना करना ‘‘राजनैतिक समझ’’ से परे है। अपने को अधिक समझदार मानने वाले राजनीतिक गण कृपया यह बताने का कष्ट करेंगे कि आपकी आलोचना से ड़र कर या जवाब में यदि तेजस्वी अपने माता-पिता की फोटों ‘‘तीसरे दौर’’ के चुनाव प्रचार में लगा दें तो क्या आप फूलों मालाओं की हार के साथ उनकी ‘‘समालोचक प्रशंसा’’ करेंगे? ‘दागी’ होने के कारण माता-पिता होने के बावजूद तेजस्विनी ने उनकी फोटों नहीं लगाई तो, राजनीति में ‘‘स्वच्छता’’ बढ़ाने के लिये तेजस्वी की पीठ थपथपाई जानी चाहिये थी। एनडीए के लिये तो तेजस्वी का यह कदम ‘‘आत्मघाती’’ गोल सिद्ध हो सकता था। यदि एनडीए ‘दागी’ स्थिति को तेजस्वी द्वारा अप्रत्यक्षतः स्वीकार किये जाने के कारण फोटो न लगाने के लिये (आलोचना करने के बजाए) साहस पूर्वक आगे आकर तेजस्वी को बधाई दे देते! देश की ‘‘राजनीति’’ ऐसी ‘‘राजनीति’’ से कब ऊपर उठकर जनहित नीति व स्वस्थ्य व स्वच्छ ‘राजनीति’ में परिणित होगी, देश इसकी प्रतीक्षा कर रहा है।

वर्तमान चुनाव में चिराग पासवान ‘‘अपनी खिचड़ी आप‘‘ पका रहे हैं। उनका नारा ‘‘नीतीश कुंआ तो तेजस्वी खाई’’ को चिराग के एक ‘‘शुभचिंतक‘‘ ने आगे बढ़ाया ‘तेजस्वी खाई तो चिराग पलटाई।‘ ’’पलटवार‘‘ व ‘‘वोट कटुवा‘‘ (भाजपा की निगाहों में) ‘‘कुआं एवं खाई‘‘ में से किसका ‘‘चिराग‘‘ जलाकर ‘‘उजाला‘‘ पैदा करेंगें, ‘‘अंकगणित‘‘ को सही या गलत सिद्ध करेंगे, यह तो 10 नवंबर को ही पता चल पाएगा। तब तक कुछ अन्य और ‘‘शब्द बाणों’’ का आनन्द लीजिये!

चुनाव परिणाम जो भी आए, लेकिन निश्चित रूप से तेजस्वी इस बात के लिए बधाई के पात्र हैं कि इस आम चुनाव में ‘‘रोजगार के मुद्दे‘‘ को (रोजी-रोटी के साथ जोड़कर) मुख्य चुनावी एजेंडा व ‘‘नरेटिव‘‘ के रूप में केंद्रित करने में वे सफल होते दिख रहे है। तेजस्वी ने एक नया नारा दे दिया है कि, इस चुनावी त्यौहार में जनता कमाई, पढ़ाई, सिंचाई, दवाई, महंगाई, सुनवाई, व कार्यवाही करने वाली सरकार चुनें। बिहार, जिसकी पहचान ही‘‘अगड़ा-पिछड़ा‘‘ ‘‘दलित-अति दलित‘‘ ‘‘जातिवाद की राजनीतिक पहचान‘‘ है और लालू यादव तथा राजद की पहचान भी इसी रूप में रही है। बावजूद इसके अभी तक देश में किसी भी प्रदेश में हुए आम चुनावों अथवा लोकसभा के चुनावों में ‘‘गरीबी हटाओ‘‘, ‘‘मंदिर मस्जिद‘‘, ‘‘मंडल कमंडल‘‘, भ्रष्टाचार व अन्यायों मुद्दों के बीच ‘‘रोजगार का मुद्दा‘‘ होते हुए भी यह मुद्दा इन अनेकानेक मुद्दों की भीड़ के बीच जो ढ़क जाता था, को ‘‘मुख्य मुद्दा‘‘ बना कर उस पर समस्त पार्टियों को विचार करने व बोलने के लिए विवश कर दिया। ‘‘चुनावी राजनीति’’ को नई दिशा देने के प्रयास के लिए निश्चित रूप से वे बधाई के पात्र हैं।

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2020

‘‘राहुल सिंह‘‘ का इस्तीफा! क्या भाजपा कार्यकर्ताओं की ‘‘छाती पर कील’’ तो नहीं?

प्रदेश में 28 विधानसभा की सीटों पर हो रहे उपचुनावों के दौरान ही एक और कांग्रेसी, दमोह के विधायक राहुल सिंह लोधी का इस्तीफा होकर भाजपा की टिकट पर उपचुनाव लड़ने की शर्त पर भाजपा में शामिल कर लिए गए। उपचुनावों के प्रचार के बीच राहुल सिंह को दमोह विधानसभा के भाजपा के नेता व कार्यकर्ताओं की ‘‘छाती पर सवार करवा के’’ मुख्यमंत्री आखिर भाजपा के उन कार्यकर्ताओं को ‘‘कोने में ठकेल कर’’ क्या ‘‘संदेश’’ देना चाहते है?

आपको याद ही होगा! अभी दो वर्ष भी व्यतीत नहीं हुये है, जब मध्यप्रदेश विधानसभा के हुये आम चुनाव में कांग्रेस को अल्प बहुमत मिला और ‘‘अनाथ’’ कांग्रेस के ‘‘नाथ’’ कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार का गठन हुआ। परंतु 15 महीनों में ही ज्योतिरादित्य सिंधिया की राजनैतिक आकांक्षाएं व महत्वाकाक्षाएं गुलाटी खाने लगी और अपने कट्टर समर्थक 22 व 3 अन्य विधायकों के साथ मिलकर विधानसभा की सदस्यता से सामूहिक रूप से इस्तीफा दे दिया और कमलनाथ सरकार को गिराकर उसे पुनः ‘अनाथ’ कर दिया। परिणाम स्वरूप ‘‘मामा’’ शिवराज सिंह के नेतृत्व में भाजपा की सरकार पुनः आरूढ़ हुई। सरकार बनने के बाद भी दल बदल का सिलसिला चलता रहा और 3 कांग्रेसी विधायकों ने इस्तीफा देकर भाजपा की सदस्यता ली। सरकार बनाने के लिए जितने विधायकों की बहुमत की आवश्यकता थी, उससे कहीं ज्यादा सरकार के गठन के पूर्व ही कांग्रेस से विधायकों को तोड़कर सशर्त भाजपा में शामिल कराया गया। 

इस घटनाक्रम से उन समस्त पुराने भाजपाइयों को मानो तो सांप ही सूंघ गया हो, जहां से वे पिछले चुनाव में कांग्रेसी विधायकों से चुनाव हार गये थे। ये भाजपाई नेतागण और उनके समर्थक गण भाजपा के ऐसे कट्टर समर्थक रहे हैं, जिन्होंने व उनके परिवारों ने जनसंघ से लेकर वत्र्तमान भाजपा के खडे विराट वृक्ष की ‘‘जड़ों को रोपा‘‘, ‘‘सींचा’’ और ऐसा ‘‘वट’’ वृक्ष बनाया, जिसकी ‘‘छाया’’ में वे सब जीवन के अंतिम समय तक ‘‘सम्मानपूर्वक रहने की इच्छाशक्ति व आकांक्षा पाले’’ हुए हैं। लेकिन रास्ता की लालसा व मौका परस्ती के कारण उन्हे ‘‘दूध की मक्खी’’ की तरह निकाल कर फेक दिया गया। चूंकि भाजपा की सरकार का गठन हो रहा था, इसलिए उन नेताओं व कार्यकर्ताओं ने एक अनुशासित सिपाही होने के नाते ‘‘खून का घूंट पी कर’’ भी ‘‘नेतृत्व‘‘ की बात को स्वीकार कर अपनी ‘‘राजनीतिक जीवन पूंजी’’ को पार्टी हित में ‘‘न्यांैछावर’’ कर दिया। लेकिन बात यही समाप्त नहीं होती है।

सरकार के गठन के बाद भी और उपचुनाव के दौरान इस तरह से कांग्रेस विधायकों का निरन्तर इस्तीफा दिलवा कर भाजपा में शामिल कर ‘‘किस बात’’ का ‘‘मैसेज’’ दिया जा रहा है, वह उन क्षेत्रों के कार्यकर्ताओं के समझ से परे है। और यह बात उनके उनकी ‘‘खोपड़ी के उपर से जा रही’’ है। यह बात तो तय है कि ये समस्त इस्तीफें सिंद्धान्तों की खातिर तो हुए नहीं है? उन्होंने इसी शर्त पर इस्तीफा दिया है कि होने वाले उपचुनावों में भाजपा के चुनाव चिन्ह पर उन्हें चुनाव लड़ाया जायेगा। इसका क्या यह अर्थ नहीं निकलता है कि यदि भाजपा में राजनैतिक सम्मान व पद पाना है तो, अब आपको ‘‘कांग्रेस के रास्ते‘‘ से होकर ही आना पड़ेगा? दशहरा उत्सव अभी हाल ही सम्पन्न हुआ है। ‘‘लक्ष्मण’’ व ‘‘विभीषण’’ का महत्व सर्व ज्ञात है। तत्समय सही विकल्प न होने के कारण विभीषण का औचित्य सही था।  परन्तु लगता है कि वर्तमान भाजपा ‘लक्ष्मण’ की बजाय ‘विभीषण’ के रास्ते को ज्यादा उचित मान रही है। विभीषण को वर्तमान में किस हेय दृष्टि से देखा जाता है? तो क्या वास्तव में यही सही रास्ता है? यह भाजपा कार्यकर्ताओं को तय करना हैं।

आखिर राहुल सिंह के इस्तीफें की आवश्यकता क्यों पड़ी? जब आपके पास पर्याप्त बहुमत हो गया है, तो अपने खून पसीने से पार्टी को मजबूत मुकाम हासिल कर बने ‘‘नेताओं‘‘ को छोड़कर/उपेक्षा कर  कांग्रेस के नेताओं को उनकी जगह चुनाव से लड़़ा कर पार्टी के प्रति निष्ठावान नेताओं की अर्जित राजनीतिक पूंजी को क्यों छीना जा रहा है? राहुल सिंह लोधी जो दमोह से भाजपा के वरिष्ठ नेता व पूर्व मंत्री जयंत मलैया को हराकर विधायक बने थे, के अब आगामी उपचुनाव में भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ने के कारण, उनकी राजनीतिक विरासत पार्टी ने छीन ली, जिसकी फिलहाल कतई आवश्यकता नहीं थी। चर्चित ‘‘डंपर कांड’’ के दौरान एक समय शिवराज सिंह की जगह जयंत मलैया के नाम मुख्यमंत्री पद के लिए चर्चित था और उनके पिता स्व. श्री विजय कुमार मलैया भी जनसंघ के जमाने से पार्टी से जुड़े रहे और प्रदेश के कोषाध्यक्ष भी रहे। डॉक्टर गौरीशंकर मुद्रित शेजवार, दीपक कैलाश जोशी, तेज सिंह सैंधव, व लाल सिंह आर्य, जय भान सिंह पवैया, रुस्तम सिंह, रामलाल रौतेल राव, देशराज सिंह यादव जैसे कई भाजपाई नेता है, जिन्हे अगली विधानसभा में भी टिकट इसीलिये नहीं मिल पाएगी, क्योंकि उनकी जगह कांग्रेस से आये विधायक भाजपा के उम्मीदवार बनकर चुनाव लड़ रहे है। और भाजपा नेतृत्व के लिये इन सब को जिताना न केवल नैतिक रूप से बल्कि सरकार के अस्त्तिव के लिए भी आवश्यक है। भाजपा के अंदरखाने की एक अपुष्ट खबर यह भी है कि ‘‘महाराजा’’ के उड़ते पंखों को सीमा में बांध दिया जाए, ताकि उनकी राजनैतिक सौदेबाजी की क्षमता को नियत्रिंत किया जा सकें। जिससे ‘‘राजा’’ भी अपना राजनैतिक तड़का लगाने को तैयार है। वैसे तो राजनीति में सब चीज जायज होती है। लेकिन भाजपा के लिये जब उसकी जरूरत न हो तब संघ के तृतीय वर्ष शिक्षित स्वयंसेवक के समान भाजपा कार्यकर्ता की कीमत पर यह ‘खोटी’ ‘‘राजनीति’’ उचित नहीं है। कांग्रेस का एक जमाना था, जब ‘‘फूलछाप कांग्रेसी’’ कहे जाते थे। अब जमाना पलट गया है, अब वे ‘‘पंजाछाप भाजपाई’’ कहलाते है। भाजपा के वफादार नेताओं को अंगूठा दिखाकर एवं कांग्रेस के बेवफा नेताओं को अंगूठी का नगीना बनाने का क्या संदेश जाता है? ‘‘यानी घर का जोगी जोगड़ा और आन गांव का सिद्ध?’’

लेकिन ऐसा लगता है की इस ‘‘ओपन एजेड़े’’ के साथ छिपा हुआ कुछ अन्य एजेंडा भी है। नेतृत्व शायद कुछ ऐसे मजबूत नेताओं को किनारा करना चाहते है, जो सालों से पार्टी के स्तम्भ रहे है, भले ही वे पिछले विधानसभा चुनाव में चुनावी राजनीति में हार गये हो। शायद इसी का फायदा उठाकर मुख्यमंत्री इस छिपे हुये एजेंडे के तहत कांग्रेसी विधायकों को पद का लोभ व लालच देकर भाजपा में ला रहे है, जिसकी अब कदापि आवश्यकता नहीं है। कम से कम पूरे तपे हुये तपनिष्ट सिद्ध नेताओं की कीमत पर तो नहीं होना चाहिये। इस छिपे एजेंडे का कहीं यह दुष्परिणाम न हो जाए कि भाजपा का कड़क धूप, ठड़ व बरसात को झेल कर बना तपोनिष्ठ कार्यकर्ता पार्टी को मजबूत करने की बजाय मजबूरी में अपने अस्तित्व व सम्मान की खातिर इस चुनाव में चमत्कारी निर्णय लाकर पार्टी को सबक न सिखा दें? इसीलिए केन्दीय नेतृत्व को इस बात को ध्यान में लेकर चिंतन करने की महती आवश्यकता है। हर बार ‘‘शार्ट कर्ट’’ (सुगम व सरल) रास्ता अपनाना घातक हो सकता है? 

वर्तमान  में तो राजनीति में तो ‘‘राहुल’’ शब्द "अपशगुन' ही है। लेकिन मध्य प्रदेश भाजपा के लिए "राहुल" ठीक वैसे ही वरदान सिद्ध हो सकता है जैसा केंद्र में।

शनिवार, 24 अक्तूबर 2020

प्रधानमंत्री का संबोधन! कार्य रूप में कितना ‘‘परिणित‘‘!


कोरोना (कोविड-19) के संबंध में प्रधानमंत्री का राष्ट्र के नाम संबोधन कॉफी आवश्यक व अपेक्षित भी था। यद्यपि प्रधानमंत्री प्रारंभ से ही इस मामले में स्वयं तो काफी गंभीर, चिंतित व आवश्यक कदम उठाने में सक्रिय रहे हैं। परन्तु बात घूम फिर कर वहीं आ जाती है कि, उनके संबोधन के उपदेशों और निर्देशों का क्रियान्वयन से ‘‘लगाव‘‘ या ‘‘दूरी‘‘  उनके सहयोगी और अनुयायियों से लेकर आम जनता के बीच में कितनी है? सबसे बडा प्रश्न यही हैं। और प्रधानमंत्री जी ने इस अंतर को समाप्त करने के लिए ‘‘भावुक अपील‘‘ के अलावा कौन से कड़े कदम उठाने के संकेत दिये हैं? जिसका नितांत अभाव दिखाई देता है। कोरोना पर यदि वास्तव में प्रभावी व जल्द नियंत्रण पाना है तो, आज की परिस्थितियों में कोई नया कदम उठाने का नहीं, बल्कि उठाये गये कदमों को दृढ इच्छाशक्ति के साथ पूर्ण रूप से धरातल पर उतारने की आवश्यकता है, जिसकी कमी अभी भी परिदर्शित हो रही है।

प्रधानमंत्री जी ने नागरिकों को संबोधित करते हुए एक महत्वपूर्ण संदेश दिया,‘‘जब तक दवाई नहीं तब तक ढिलाई नहीं‘‘। लेकिन यह उक्ति तभी सार्थक हो सकती है, जब सरकार स्वयं भी ‘ढिलाई‘ न बरते। अर्थात प्रधानमंत्री उक्त संदेश को स्वयं के मंत्रिमंडलीय सहयोगी, पार्टी के वरिष्ठ नेतागण, मुख्य मंत्रीगण व उनके मंत्रिमंडलीय साथियों पर प्रभावी व सार्थक रूप में लागू करेंगे, तभी उनके संदेश का असर अन्य दूसरे व्यक्तियों व आम जनता पर प्रभावी रूप से पड़ेगा। क्योंकि आम नागरिक तो हमेंशा ही दिशा निर्देशों के लिए अपने नेतृत्व की ओर टकटकी निगाहों से देखता रहता है। परन्तु जब नेतृत्व उन निर्देशों का पालन स्वयं ही नहीं कर रहा हों, जिसका पालन करने का निर्देश वे अपने अनुयायियों को देते हैं, तब वे अनुयायी उनका कितना पालन करेंगे, यह स्पष्ट रूप से समझ में आता हैं। 

‘सावधानी हटी दुर्घटना घटी‘ ‘उक्ति‘ हम प्रायः ट्रकों के पीछे लिखी हुई देखते हैं, जो वर्तमान ‘‘कोरोना‘‘ के संदर्भ में सटीक बैठती है। और प्रधानमंत्री जी का अपने संबोधन में ‘‘ढिलाई‘‘ से आशय भी इसी सावधानी के हटने से है। पर आप देख रहे हैं कि भाजपा के केन्द्रीय मंत्रीगण, मुख्यमंत्री गण व उनके सहयोगी मंत्री, पार्टी के वरिष्ठ नेता गण सहित अनेक राजनैतिक पार्टियों के नेतागण, मंत्रीगण कोरोना काल में कोविड-19 से पीड़ित होते जा रहे है। यद्यपि प्रधानमंत्री ने स्वयं कोरोना के संदर्भ में बरती जाने वाली सावधानियों के समस्त मापदंडों का पूर्ण पालन किया है। परन्तु पार्टी के नेतागण व अधिकांश अनुयायी पालन नहीं कर रहे हैं, तो फिर आम जनता के लिए उक्त संदेश कैसे प्रभावशाली होकर कार्य रूप में परिणित हो सकता है? क्योकि यह तो मानना ही होगा कि आवश्यक सावधानियों के संबंध में दिये गये निर्देशों का अनुपालन न करने के कारण ही ये सब ‘‘माननीय‘‘ कोविड 19 से संक्रमित हुए हैं। इन सब संक्रमित ‘‘मान्यवरों‘‘ के विरूद्व महामारी या आपदा प्रबंध अधिनियम के अन्तर्गत ‘‘प्राथमिकी‘‘ दर्ज क्यों नहीं की गयी? क्या राजनेताओं का यह कहना तो हैं नही कि षड़यन्त्र के तहत उनके विरोधी जबरदस्ती "आवश्यक दूरी" को खत्म कर "बल पूर्वक" सम्पर्क कर उन्हे संक्रमित कर रहे हैं? यदि ऐसा है तब ऐसे महानुभावों के विरूद्व प्राथमिकी दर्ज क्यों नही की जाती हैं? क्या कानून का उल्लंघन आम नागरिकों व महामहिमों में कोई अन्तर करता है? क्योंकि देश में लाखों व्यक्तियों के विरूद्व उपरोक्त अधिनियम के अंतर्गत जुर्माना लगाया गया हैं व कुछ के विरूद्व प्राथमिकी भी दर्ज की गई हैं।

आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 और महामारी रोग अधिनियम 1897 सहपठित धारा 188 भादंवि संशोधित 2020, के अंतर्गत जारी किये गये समस्त आदेश, निर्देश, एसओपी, सावधानियों, चेतावनियों इत्यादि का पालन, शासन और प्रशासन ‘‘ढिलाई‘‘ से नहीं, बल्कि पूरी कानूनी शक्ति और दृढ इच्छा शक्ति के साथ न केवल ‘‘ढीठ जनता‘‘ पर लागू करे, बल्कि स्वयं के अर्थात शासन प्रशासन के स्तर पर भी उसको पूर्ण रूप से लागू करवाये। तभी प्रधानमंत्री का नागरिकों को दिया गया उक्त संदेश सार्थक व उपयोगी सिद्ध होगा जो राष्ट्रहित, समाज हित, पारिवारिक हित एवं स्वयं नागरिक के हित में है। 

वर्तमान में हम देख रहे हैं कि कोरोना से संबंधित सावधानियों के बाबत समस्त निर्देशों का खुल्लम खुल्ला उल्लंघन सभी स्तरों पर हो रहा है। अर्थात कानून लागू करने वाली शक्तियां शासन और प्रशासन तथा जिन पर कानून लागू किया जा रहा है, अर्थात आम नागरिक गण। इसलिए तो यहां यही कहावत चरितार्थ होती है कि ‘‘इस हमाम में सब नंगे हैं‘‘। ऐसी दशा में समस्त स्तरों पर हो रही ढिलाई को रोकेगा कौन? एक तरफ सरकार ने  ‘‘कोरोना‘‘ के कारण अत्यंत सावधानी बरतने के चलते महामारी व आपदा प्रबंधन कानून के अंतर्गत आम नागरिक की व्यक्तिगत, सामाजिक, धार्मिक और व्यवसायिक गतिविधियों को अत्यंत सीमित कर दिया है। जिसे जनता जनार्दन ने चाहे-अनचाहे, कम-ज्यादा स्वीकार कर लिया है, जैसे धार्मिक स्थलों, शादी-ब्याह, अन्य सामूहिक कार्यक्रम, बाजार, माॅल, सार्वजनिक स्थान, परिवहन इत्यादि पर आंशिक प्रतिबंध, वर्क टू होम का प्रावधान आदि। बावजूद इसके, आम नागरिक वे सब आवश्यक सावधानियां नहीं बरत रहे है, जिसके लिए उक्त (जिन्हे मजबूरी में स्वीकारा, लेकिन कमरतोड़) प्रतिबन्ध लगाये गये हैं। सरकार तथा न्यायालयों का भी सावधानियां बरतने और प्रतिबंध लगाने के संबंध में दृष्टिकोण कितना अतार्किक व अव्यवहारिक है? जिसे किसी भी रूप में उचित और सही नहीं ठहराया जा सकता है। 

चुनावी सभाओं, राजनीतिक रैलियों व राजनैतिक गतिविधियों में संख्या पर (पूर्ववर्ती लागू सीमा के अलावा) कोई प्रतिबंध नहीं।लेकिन धार्मिक, सार्वजनिक स्थलों में जाने में संख्या का प्रतिबंध जरूर है। इससे भी बड़ा सवाल यह उत्पन्न हो रहा है कि बिहार विधानसभा के आम चुनाव के साथ देश में हो रहे उप चुनावों में कोरोना के लिए बरती जाने वाली आवश्यक सावधानियों का पूरी उद्दंडता और बेशर्मी के साथ मंच पर बैठें उन व्यक्तियों के सामने, जिनका कर्तव्य व जवाबदेही ही इन नियमों का पालन करवाने की है, तथा प्रशासनिक अधिकारी गण जो चुनावी सभाओं का प्रबंधन देख रहे हैं, के समक्ष खुलेआम मखौल, और धज्जियां उड़ायी जा रही हैं। ‘‘जब सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का"',यह कहावत पूरी तरह से यह चरितार्थ होती दिख रही है। सरकार की ‘आंख में उंगली डाल कर दिखाने‘ के बाद भी उसे यह सब क्यों दिखायी नहीं दे रही है?एक भी प्राथमिकी किसी के द्वारा और किसी के विरुद्ध दर्ज नहीं की गयी है। इन सबके सहित मीडिया के ठीक सामने भी कोरोना के समस्त "प्रोटोकॉल" की धज्जियां उड़ रही हैं। मीडिया ने भी यहां कर आगे आकर जनहित के अपने इस दायित्व को पूरा नहीं किया, जिसका वह चिल्ला चिल्ला कर दावा करता रहता है। परंतु प्रधानमंत्री जी का ध्यान इन कमिंयों की ओर नहीं गया, यह दुर्भाग्यपूर्ण है। इससे भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि चुनाव आयोग आज नागरिकों को अपने पूर्व में जारी दिशा निर्देशों का स्मरण करा कर, उससे पुनः अवगत करा कर, पालन करने का अनुरोध तो कर रहा है, परन्तु स्वयं उल्लघंन का संज्ञान लेकर अपने निर्देशों के पालनार्थ कोई कार्यवाही नहीं कर रहा है। चुनाव आयोग की इस असहाय स्थिति देख कर आज पूर्व चुनाव आयुक्त स्वर्गीय टी एन शेषन की याद तरोताजा हो जाती है।

इसका मतलब साफ है कि यदि कोराना से आम आदमी को बचना है तो, वह ‘जांच‘ कराने के बजाय अपने मोहल्ले में सुबह से शाम तक प्रतिदिन भीड़ भरी चुनावी सभाएं कराता जाये और वह ठीक उसी प्रकार से कोरोना से बच जायेगा, जिस प्रकार से बिहार में नेताओं की चुनावी सभाओं में सम्मिलित होकर लोग कोरोना वायरस से बच रहे हैं? क्योंकि सरकार की यह सोच तो है नहीं कि ऐसी मीटिंगों से लोग कोरोना वायरस से संक्रमित होंगे? और यदि ऐसा नहीं है तो, फिर अपने सामने होने वाले उल्लंघनों के विरुद्ध महामारी अधिनियम के अन्तर्गत कार्यवाही क्यों नहीं की जा रही है? 

‘‘न्यायिक सक्रियता‘‘ के बाद आज की स्थितियों में "न्यायालय" भी कई बार परिस्थितियों व घटनाओं का "जनहित" में स्वतः संज्ञान लेकर  संबंधित पक्षों को नोटिस देकर कार्यवाही प्रारंभ कर देते हैं, जिसका भी अभाव बिहार की चुनावी सभाओं में उमड़ती भीड़  के संबंध में न्यायालय की तरफ से दिखायी दे रहा है। जबकि न्यायालय अभी भी दुर्गा उत्सव के कार्यक्रम में 45-60 व्यक्तियों की अधिकतम सीमा तय करने या पंडाल के ‘‘नो एन्ट्री जोन‘‘ (जिसमें बाद में संशोधन किया गया) तक ही "सीमित" है। आश्चर्य तो इस बात का हैं कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कोरोना के कारण लगी चुनावी सीमा पर रोक हटाने के लिए उच्चतम न्यायालय तक चले जाते हैं। लेकिन इस कारण  जीवन की निर्बाध गति पर लगी अवरोधो को हटाने के लिए न तो वे न्यायालय जाते है न ही स्वयं अवरोध हटाने का प्रयास करते हैं। मतलब साफ है, इस देश में ‘‘नीति‘‘ पर ‘‘राजनीति‘‘ तो प्रारम्भ से ही भारी है, लेकिन यह ‘‘राजनीति‘‘ "कोविड" पर भारी होकर यह कोविड को ही ‘डरा‘ देगी? बिहार के चुनाव में यह सिद्व हैं।

अतः स्पष्ट है कई मामलों में हमारे प्रधानमंत्री ने पूर्व में  सफलता पूर्वक कठोर और ठोस  निर्णय लेकर ‘‘राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय‘‘ स्तर पर अपने दृढ़ नेतृत्व की धाक जमाई है। इसके बावजूद कोविड-19 के संबंध में उनके निर्णय या तो सही नहीं रहे या सही समय पर नही लिये गये, या लिये ही नहीं गये। और जो कुछ निर्णय भी लिये गये तो  आम आदमी की मानसिकता को देखते हुये उन्हें लागू करने की आवश्यक दृढ इच्छा शक्ति का बुरी तरह से अभाव दिख रहा है। हम सिर्फ आंकड़ों के मायाजाल के माध्यम से देश में कोरोना काल से निबटने में तथाकथित सफलता को दर्शाने के लिए कभी जनसंख्या की तुलना में  संक्रमितो की कुल संख्या, संक्रमित होने की दर में सुधार होने के, कभी मृत्यु दर में सुधार होने के या कभी टेस्टिंग के बढ़ते आंकड़ों को लेकर विश्व के अन्य देशों की तुलना में घुमा फिरा कर सुविधानुसार जनता के बीच प्रस्तुत कर यह सिद्ध  करने में सफल रहे हैं, कि हमारा देश विश्व में तुलनात्मक रूप से कोविड-19 से काफी कम प्रभावित रहा है और हमारे देश में कोरोना से निबटने के लिए और इसकी रोकथाम के लिये तुलनात्मक रूप से बेहतर कदम उठाये गये हैं। निश्चित रूप से आंकडों के माया जाल की अपनी "अनुकूल प्रस्तुतियों" में हम विश्व में सर्वश्रेष्ठ हो सकते हैं, इसमें शायद कोई शक न हो। लेकिन यह ‘‘रोग‘‘ का सही उपचार व निदान नहीं है। 

बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

"आत्मरक्षा का अधिकार’’ ‘‘वास्तविकता में है! कितना ’?

‘‘पुलिस संज्ञान‘‘ के लिए कानून में संशोधन की आवश्यकता!

‘‘भारतीय दंड संहिता की धारा 96 से 106 तक’’ में प्रत्येक नागरिक को ‘‘संपत्ति’’ और ‘‘जान’’ की ‘‘सुरक्षा’’ के साथ-साथ परिवार की सुरक्षा के लिये भी ‘‘आत्मरक्षा’’ का मौलिक अधिकार प्राप्त हैं। इसका मूल आधार व सिंद्धान्त यह है कि, कई बार घटित हो रही हिंसक अपराधिक घटनाओं में हिंसा के शिकार ‘‘भुगतयमान नागरिकों’’ को इतना वक्त भी नहीं मिल पाता है कि, वे अपने बचाव के लिए पुलिस सहायता की मांग कर पाये। तब ऐसी स्थिति से निपटने के लिये ही यह आत्मरक्षा का अधिकार दिया गया है। आत्मरक्षा का अधिकार सिर्फ कानूनी ही नहीं, बल्कि मौलिक भी है। आत्मरक्षा का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में मिले जीवन के अधिकार के तहत आता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कई फैसलों में इस बात पर जोर दिया हैै कि, राइट टू सेल्फ डिफेंस एक मौलिक अधिकार है। परन्तु गाली गलौज के खिलाफ राइट टू सेल्फ डिफेंस उपलब्ध नहीं है। यानी अगर कोई आपको गाली देता है, तो आप इसके जवाब में उसको गाली नहीं दे सकते हैं। आत्मरक्षा का अधिकार सिर्फ शारीरिक हमले के खिलाफ ही उपलब्ध है। यह अधिकार पूर्ण रूप से अबाघित नहीं है, बल्कि इसमें सबसे बड़ा प्रतिबंध यह है कि, एक नागरिक को आत्मरक्षार्थ केवल उतने ही प्रतिरोधी बल का उपयोग करने की विधिक स्वतंत्रता है, जितनी परिस्थितियों में अति आवश्यक है। 
‘‘आत्मरक्षा के अधिकार’’ की बात इसीलिए ध्यान में आयी, क्योंकि हाल ही में घटित उत्तर प्रदेश में ‘‘बलिया गोलीकांड‘‘ में आरोपी ठाकुर धीरेन्द्र प्रताप सिंह के द्वारा गोली चालान से एक व्यक्ति की मृत्यु हो गई, व हिंसा में दूसरे पक्ष के भी कई लोग घायल हो गयें । उक्त घटना पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुयें वहां के विधायक सुरेन्द्र सिंह ने जातिवाद (ठाकुर) के आधार यह दावा किया (जबकि अभियुक्त ने ऐसा कोई दावा नही किया था) कि आरोपी ने अपनी व परिवार की जान की सुरक्षा में आत्मरक्षार्थ गोली चलाई। आगे वे एक तथ्यात्मक महत्वपूर्ण बात कहते है कि, यदि वह गोली चालन नहीं करता तो, उसके परिवार के 10-12 लोगों की हत्या हो जाती, जो कुछ सदस्यों के घायल होकर अस्पताल में भर्ती होने से सिद्ध है। वास्तव में आत्मरक्षा का यह अधिकार भारतीय दंड संहिता में वर्णित है और उसको हमारी न्यायिक प्रणाली ने भी मान्यता दी है। इसी कारण इस आधार पर कई हत्या के अपराधियों को न्यायालयों ने छोड़ा भी है।
प्रश्न यहाँ पर यही उत्पन्न होता है कि, क्या वास्तव में यह अधिकार कानून्न व न्यापालिका द्वारा मान्यता देने के बावजूद वास्तविकता लिये हुये व्यवहारिक रूप से एक नागरिक को प्राप्त है? यह प्रश्न इसलिए भी पैदा होता है कि आपराधिक न्यायशास्त्र में पुलिस की विभिन्न जांच एजेंसीज, एस.टी.एफ. सीबीआई सीआईडी आदि की एक निर्धारित जांच प्रकिया होती है। परन्तु जांच की इस प्रक्रिया में नागरिक के आत्मरक्षा का अधिकार के संज्ञान लेने का कोई अधिकार या प्रावधान जॉच टीम को नहीं है। मतलब जांच के दौरान जांच टीम यदि यह पाती भी है कि हिंसा का शिकार अभियोगी ने उक्त आत्म रक्षा के अधिकार के तहत निर्धारित सीमा के अधीन ही अपनी जान व सम्पत्ति की सुरक्षा करते हुये आवश्यक बल का प्रयोग किया हैं। और तदनुसार हमलावर आरोपी की मृत्यु होती है, तब वह ‘‘हत्या‘‘ का ‘‘आरोपी‘‘ नही है, यह तय करने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ न्यायालय को ही है। अर्थात जॉच में पाए गये तथ्यों के आधार पर उक्त निष्कर्ष पर पहूंचने के बावजूद जांच अधिकारी इस निष्कर्ष का संज्ञान लेकर उस अभियुक्त को छोड़ नहीं सकते है और उसके विरूद्ध धारा 302 के अंतर्गत अपराध पंजीयत करके न्यायालय में चालान प्रस्तुत करना ही होगा। 
लेकिन इसी अधिकार से जुडी हुई एक हास्यास्पद बात यह भी है, कि एक अपराधी के प्रथम सूचना पत्र में धारा 302 के अपराध के लिये नामित (दर्ज) होने के बावजूद भी, यदि जांच के दौरान पुलिस जांच, सीआईडी जांच या अन्य कोई जांच या समक्ष अधिकारी या न्यायालय के आदेश के अंतर्गत की गई जांच अधिकारी यह पाते है कि, उसके विरूद्ध धारा 302 के अंतर्गत अपराध नहीं बनता हैै, तो वहां पर पुलिस को यह ‘‘अधिकार‘‘ है कि वह आरोप पत्र से उस अभियुक्त का नाम हटा कर शेष अभियुक्त/अभियुक्तों के विरुद्ध न्यायालय में चालान प्रस्तुत कर दे। महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि, जब एक अभियुक्त को 302 का ट्रायल हुये बिना जांच के दौरान पाये गये तथ्यों के आधार पर पुलिस को उसे अभियुक्त न मानने का अधिकार है। तब यही सिंद्धान्त पुलिस के लिये आत्मरक्षा के अधिकार का संज्ञान लेने के लिये क्यों नहीं लागू किया जाता? 
इस क्षेत्र से जुड़े हुये न्यायविद्व, फौजदारी अधिवक्तागण, बुद्विजीवीगण और मानवाधिकार के क्षेत्र में काम करने वाले व्यक्यिों की तरफ से पुलिस को यह क्षेत्राधिकार देने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय दंड संहिता में आवश्यक संशोधन किये जाने की मांग क्यों नहीं आई? यह एक बड़ा अनुत्तरित प्रश्न है? इस आवश्यक सुधार के लिए समस्त संबंधितो सहित शासन को भी गंभीरता से इस पर विचार करने की आवश्यकता है। वह इसलिए कि हमारी न्यायिक प्रणाली में कई बार दी गई सजा भुगतने की बजाए बजाय सजा देने की प्रकिया से गुजरना ज्यादा कष्टदायक भुगतयमान होता है। अर्थात प्रॉसिक्यूशन (अभियोजन) पर्सिक्यूशन (उत्पीडन) में बदल जाता है। मतलब लम्बी न्यायिक प्रक्रिया से गुजरता हुआ आरोपी इतना उत्पीडि़त व हलकान हो जाता है कि अंततः अपराध से छूट जाने के बावजूद उसकी साख, उसका सब कुछ इस ट्रायल के दौरान समाज व परिजनों के बीच व उनकी दृष्टि में खो जाती है। जिसे किसी भी स्थिति में पुनः वापिस प्राप्त नहीं किया जा सकता है। अतः न्यायिक प्रक्रिया के व्यवहारिक कष्टकारी भुगतयमान परिणाम को यदि आप आत्मरक्षा के अधिकार के साथ रखेगें, जोड़ कर देखेंगे तब आप यह महसूस कर पायेगें कि उस व्यक्ति को वास्तविकता में क्या फायदा हुआ? जब वर्षों ट्रायल (मुकदमा) चलने के बाद आत्मरक्षा के अधिकार के आधार पर आरोपी दोष मुक्त होता है, तब वह जेलों की सलाखें से बाहर तो आ जाता है। (क्योंकि सामान्यतया हत्या के आरोपी को जमानत नहीं मिल पाने के कारण वह जेल में ही रहता है)। परन्तु यदि आत्मरक्षा के उक्त अधिकार का संज्ञान लेने का क्षेत्राधिकार पुलिस क पास भी होता तो दोषमुक्त हुए आरोपी का न्यायालय में ट्रायल ही नहीं होता और इस प्रकार उसके अनावश्यक रूप से जेल में रहने से उसकी स्वतत्रंता के मूल व कानूनी अधिकार का न्यायिक प्रक्रिया (पुलिस द्वारा नहीं) द्वारा जो उल्लंघन हो रहा है वह नहीं होता। 
कुछ रूढिवादी, प्रतिक्रियावादी या प्रतिगामी अथवा कुछ अति सक्रियता वादी लोग चोह चिल्लाहट कर यह कह सकते है कि पुलिस को यह अधिकार दिये जाने पर वह उसका दुरूपयोग कर सकती है। अधिकारों के दुरुपयोग की बात तो वर्तमान में प्रत्येक क्षेत्र में विद्यमान है। बावजूद इसके क्या हम इस आधार पर आवश्यकतानुसार नए कानून का निर्माण या विद्यमान कानूनों में संशोधन नहीं कर रहे हैं? अतः यदि भारतीय दंड संहिता की धारा 96 से 106 तक में वर्णित जान माल की सुरक्षा का अधिकार को वास्तविक अर्थो में धरातल पर उतारकर उसका लाभ एक नागरिक को देना है, तो शासन और ला कमीशन व विधायिका का यह दायित्व है कि वह भारतीय दंड संहिता और दंड प्रक्रिया संहिता में आवश्यक उचित संशोधन करके पुलिस की विभिन्न जांच एजेंसी को जांच के दौरान उक्त अधिकार के अस्तित्व मे पाए जाने पर उसका संज्ञान लेने का अधिकार दिया जावे। ताकि इस आधार पर एक निर्दोष व्यक्ति का गैरकानूनी ट्रायल न होकर उसकी स्वतंत्रता सुरक्षित रह सकें। अन्यथा इन अधिकारों को समाप्त किया जाना ही उचित होगा।

सोमवार, 19 अक्तूबर 2020

‘‘न्यूटन के गति‘‘ का नियम क्या ‘‘अपराधिक राजनीति पर भी लागू होता है?

 ‘‘न्यूटन‘‘ क्या भारतीय राजनीति को ‘‘न्यूट्रल‘‘ कर देगें?


मैं विज्ञान का छात्र रहा हूं। बचपन में मैंने पढ़ा है कि ‘‘न्यूटन के गति‘‘ के तीसरे नियम के अनुसार ‘‘हर क्रिया के बराबर (समान) और विपरीत प्रतिक्रिया होती है‘‘। प्रसिध्द वैज्ञानिक ‘‘न्यूटन‘‘ ने अपनी पुस्तक ‘‘प्रिंसीपिया मैथमैटिका‘‘ (वर्ष 1687) के पृष्ठ 20 पर उक्त नियम लिखा है। यह नियम दो वस्तुओं पर बल के पारस्परिक प्रभाव के बीच के बंधन का वर्णन करता है। इसके कई उदाहरण हैं! जैसे बन्दूक चलाना, नाव चलाना, मनुष्य का तैरते हुए आगे बढ़ना, रॉकेट लॉन्चिंग आदि आदि। इस सिद्धांत को अभी तक कोई चुनौती अधिकाधिक रूप से कहीं से भी नहीं मिली है और आज भी यह नियम सर्वमान्य है। यद्यपि न्यूटन के उक्त नियम में वस्तु का आकार पूरी तरह महत्वहीन है, लेकिन कुछ चल रहे नये शोधों के अनुसार प्रतिक्रिया वस्तु के आकार पर निर्भर करती हैं। अर्थात प्रतिक्रिया क्रिया के ‘‘बराबर, कम या ज्यादा‘‘ भी हो सकती हैं। परंतु राजनीति में अथवा अपराधिक क्षेत्र में या ज्यादा सही यह कहना होगा कि राजनीति के अपराधीकृत  होते जा रहे हैं क्षेत्र में भी यह सिद्धांत लागू होता है या किया जा रहा है, जो अभी ज्ञात हुआ है। किसी ‘‘आपराधिक कृत्य‘‘ को इस नियम का तर्क देकर उसका औचित्य सिद्ध करने का दुस्साहस निश्चित रूप से आज की गिरती हुई राजनीति में बिल्कुल उसी तरह संभव है जैसे हथेली पर सरसों उगाना। यह आश्चर्य का तो नहीं, लेकिन बेहद दुखद अवश्य है।

बात उत्तर प्रदेश की है, जहां बलिया जिले के दुर्जनपुर गांव (यथा नाम तथा गांव) में हुई गोली कांड में एक व्यक्ति की गोली मारकर हत्या कर दी जाती है। ‘‘बलिया‘‘ उत्तर प्रदेश का सबसे पुराना हिस्सा और बिहार सीमा से लगा हुआ वह जिला है, जहां से कभी ‘‘युवातुर्क‘‘ चंद्रशेखर  सांसद हुआ करते थे, जो बाद में देश के प्रधानमंत्री बने। उत्तर प्रदेश को ‘‘उत्तम प्रदेश‘‘ बनाने की घोषणा वाले लोकप्रिय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के प्रदेश में उनके बैरिया विधानसभा क्षेत्र के विधायक सुरेंद्र सिंग उक्त घटना के ‘‘कारण‘‘ में न्यूटन के विश्व प्रसिद्ध उपरोक्त सिद्धांत का हवाला बहुत ही बेशर्मी से दे रहे हैं, और लगातार दे रहे हैं। यद्यपि विधायक का यह कथन तो कुछ सीमा तक सही है कि, इस मामले में मीडिया सिर्फ एक पक्ष को ही उद्धृत कर रहा है। दूसरे पक्ष के भी कई लोग घायल होकर अस्पताल में भर्ती है। उनको चोट कैसे आई और इसके लिए कौन कौन जिम्मेदार हैं, इस बाबत मीडिया बिल्कुल भी ‘‘हाईलाइट‘‘ नहीं कर रहा है। न ही विधायक की मांग के बावजूद दूसरे पक्ष के विरुद्ध प्रशासन द्वारा कोई ‘‘प्राथमिकी‘‘ दर्ज की गई है। परंतु वही विधायक उसी सांस मैं हत्या के आरोपी की भर्त्सना व आलोचना करना तो दूर, बल्कि उसके द्वारा गोली चलाया जाना आत्मा रक्षा में उठाया गया कदम कहकर, आरोपी हत्यारे धीरेन्द्र प्रताप सिंह की रक्षा करने का प्रयास कर रहे हैं, जो भाजपा का कार्यकर्ता, होकर भाजपा के सैनिक प्रकोष्ट का अध्यक्ष व उनका सहयोगी हैं। अन्यथा विधायक के कथनानुसार तो आरोपी द्वारा गोली चालन न करने पर उसके ही परिवार के दस बारह लोगों की हत्या हो जाती। यद्यपि अब स्वयं आरोपी का यह कथन वायरल हो गया है कि, उसने गोली ही नहीं चलाई। वैसे भी आत्मरक्षा में गोली चलाने से सामने वाले व्यक्तियों की मृत्यु हो जाने पर मुकदमा तो धारा 302 का ही दर्ज होगा। अभियुक्त के प्रति सुरक्षा का अधिकार को तो न्यायालय ही तय करेगीं, पुलिस नहीं। यह भी कानून में एक कमी है, जिसकी फिर कभी चर्चा करेंगे। हद तो तब हो गई जब विधायक ने आरोपी हत्यारे के आत्मसम्मान की रक्षा से जाति के आत्मसम्मान तथा स्वयं के कर्तव्य को जोड़ दिया। विधायक सुरेंद्र सिंग आरोपी द्वारा की गई गोली चालन को ‘‘क्रिया की प्रतिक्रिया‘‘ बतलाते हुए घूम रहे हैं। यह सार्वजनिक जीवन जीने वाले चुने हुए जनप्रतिनिधि के लिए शर्मसार करने वाली बात है। 

ये वही विधायक सुरेंद्र सिंह है, जो हमेशा अपने ‘‘अटपटे, उलूल, जुलुल व विवादित‘‘ बयानों के कारण मीडिया में चर्चाओं में रहते हैं। आपको याद होगाय हाथरस बलात्कार कांड पर, पहले उनका यह बयान आया था कि ‘‘फर्जी महिला के दलित उत्पीड़न के नाम पर किसी का भी जीवन संकट में पड़ सकता है‘‘। फिर बाद में इसी घटना पर यह भी कहा कि ‘‘संस्कार‘‘ से ही ‘‘बलात्कार की घटनाएं रुकेगी‘‘। यहां तक तो फिर भी गनीमत थी। लेकिन आगे वे यह कह गए कि ‘‘माता-पिता अपनी जवान बेटी को सांशारिक वातावरण में रहने का तरीका सिखाएं‘‘। लेकिन लड़कियों के साथ लड़कों को भी संस्कार देने का बात वे भूल गए। ‘‘मुसलमान कई बीवियां रखते हैं और उनकी औलादे जानवर प्रवृत्ति की होती है।’’ वे मीडिया को ‘‘दलाल‘‘ तथा डॉक्टरों को ‘‘राक्षस‘‘ तक भी कह चुके हैं। इस तरह से वह हमेशा ही विवादित बयानों  से मीडिया की सुखीयों में बने रहते हैं। तथापि विधायक के इस (दुः) साहस की प्रशंसा इसलिए जरूर की जानी चाहिए कि, वे पीडि़त परिवार के लिए उपजी सहानुभूति की धारा व भीड़तंत्र के विरूद्ध भी अपने सहयोगी कार्यकर्ता आरोपी को बचाने के लिये न केवल अपने स्टैंण्ड पर अड़े हुये है, बल्कि इसके लिए उन्होने एक हफ्तेे बाद थाना पर हजारों साथियों के साथ धरना देने की चेतावनी भी दी हैं। अन्यथा ऐसी स्थिति में तो नेता ‘‘भाग‘‘ खड़े होते हैं। और एक सर्वकालिक तकिया कलाम कह देते कि ‘‘कानून अपना काम करेगा‘‘, और स्वयं को अपनी जिम्मेदारी से मुक्त मान लेते हैं।

शायद विधायक को न्यूटन का क्रिया प्रतिक्रिया का नियम का वास्तविक अर्थ मालूम नहीं है। क्योंकि न्यूटन ने जो नियम बतलाया था, उसमें क्रिया की प्रतिक्रिया बराबर की लेकिन ‘‘विपरीत दिशा‘‘ में होने की बात कही थी। यहां पर  विधायक के अनुसार न्यूटन की क्रिया प्रतिक्रिया के उक्त नियम को यदि लागू कर दिया जाए तो जिस व्यक्ति ने हत्या (क्रिया) की है, उसकी प्रतिक्रिया में इस कृत्य के विपरीत उसे कार्य करना होगा। अर्थात मृतक पीडि़त व्यक्ति के घर जाकर परिवार के सदस्यों के बीच रहकर  इस तरह से प्रायश्चित करना होगा, ताकि परिवार के लोग उस व्यक्ति की कमी व दुख को भूल जाए । अर्थात हत्या का आरोपी प्रायश्चित करते करते उस दुखित, पीडि़त परिवार में स्वयं को ...हुई जगह में लगभग ‘स्थापित‘ कर ले। वास्तव में न्यूटन की यही क्रिया की प्रतिक्रिया होगी। इस संबंध में आपको प्रसिद्ध फिल्मी कलाकार राजेश खन्ना ‘‘काका‘‘ की एक फिल्म शायद उसका नाम ‘‘दुश्मन‘‘/‘‘रोटी‘‘ है, की याद दिलाना चाहता हूं, जिसमें राजेश खन्ना इसी तरह का प्रायश्चित करते हैं।

न्यूटन का यह नियम राजनीति में या सार्वजनिक जीवन में अच्छे कार्यों पर क्यों नहीं लागू होता है, यह एक शोध का विषय होना चाहिए। मतलब यदि एक पार्टी राजनीति में कोई अच्छा कार्य  करती  है तो, प्रतिक्रिया में उसकी एकदम विपरीत विरोधी दूसरी पार्टी उतना ही अच्छा काम क्यों नहीं कर पाती है? प्रश्न यह है। अर्थात भाजपा और कांग्रेस परस्पर एक-दूसरे के अच्छे कार्यों से प्रेरणा लेकर और बेहतर कार्य क्यों नहीं कर पाते हैं, कर सकते हैं? ‘‘रामराज्य‘‘ लाने के लिए यह स्थिति बनानी ही होगी। ‘‘न्यूटन‘‘ को शायद यह पता नहीं था कि भविष्य में, 21वीं सदी में, राजनीतिक अपराधीकरण के क्षेत्र में भी राज नेता अपने अपराधी साथियों की चमड़ी बचाने के चक्कर में उनके नियम को अपने तरीके से लागू करेंगे? अन्यथा वह अपने गति के तीसरे नियम के साथ और एक स्पष्टीकरण इस सिद्धांत को स्पष्ट करने के लिए अवश्य जोड़ देते। ताकि राजनेताओं को यह सिद्धांत का उपयोग करने में ‘‘असहजता‘‘ नहीं होती। वैसे न्यूटन की ‘‘आत्मा‘‘ ‘‘आकाश‘‘ से अवश्य देख रही होगी और अपना सिर फोड़ रही होगी ,यदि उसके सिद्धांत की ऐसी फजीहत होनी थी, तो शायद वे यह नियम निर्मित ही नही करते?

बुधवार, 14 अक्तूबर 2020

'चिट्ठी’ से महाराष्ट्र में उठा भूचाल! मुख्यमंत्री/राज्यपाल बर्खास्त किये जाने चाहिये?

हमारे देश की लोकतंत्रीय व्यवस्था ने यद्यपि अप्रत्यक्ष लोकतंत्रीय प्रणाली अपनाई हुई है। तथापि देश का वास्तविक शासक प्रधानमंत्री ही होता हैं, जिसका चुनाव प्रत्यक्ष न होकर अप्रत्यक्ष संसदीय प्रणाली द्वारा होता है। लेकिन इसी व्यवस्था में तीन बड़े संवैधानिक पद राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति (देश के लिये) और राज्यपाल (प्रदेश के लिए) तथा केन्द्र शासित प्रदेश के लिए ‘उपराज्यपाल’ होते है, जो पद के लिये ‘‘शोभामय’’ होने के बावजूद तकनीकि रूप से ‘‘वास्तविक’’ शासकों के ऊपर ही होते है। यह प्रश्न आज इसीलिए पुनः उठ खड़ा हुआ है, क्योंकि महाराष्ट्र के महामहिम राज्यपाल महोदय ने मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से मंदिरों को खोलने के लिए चिट्ठी लिखी हैं।

राज्यपाल को किसी भी विषय पर अपने प्रदेश की जनता के हित में मुख्यमंत्री का ध्यान आकर्षित करने के लिए न केवल चिट्ठी लिखने का अधिकार है, बल्कि वे विधानसभा द्वारा पारित प्रस्ताव को जनहित में रोक कर, पुर्नविचार के लिए मंत्रिमंडल के पास वापिस भेज सकते है। कुछ विशिष्ट स्थितियों में तो वे सरकार को निर्देश भी दे सकते है। यहां तक तो ठीक है। परन्तु आज यहां पर उनके अधिकार क्षेत्र से ज्यादा महत्वपूर्ण प्रश्न उक्त ‘चिट्ठी’ क्या वास्तव में राजनीति से परे है, जनहित में है, अथवा उनके व्यक्तिगत अधिकारों की सुरक्षा के तहत लिखी गई है? इसकी विस्तृत व निष्पक्ष चर्चा किये जाने की जरूर आवश्यकता है। राज्यपाल की उक्त चिट्ठी बिल्कुल भी ‘‘राजनीति से परे‘‘ नहीं है। यदि चिट्टी के लिखें मज़मून (जो स्पष्ट रूप से राज्यपाल की निष्पक्षता को संदिग्ध बनाती है) को छोड़ भी दे तब भी राज्यपाल का गोवा के मुख्यमंत्री जहां के भी वे राज्यपाल है, को उसी मुद्दे पर अर्थात मंदिर खोलने के लिए चिट्ठी न लिखने की स्थिति, जो उनकी पूर्व राजनीतिक पृष्ठभूमि व गोवा की सरकार की राजनीतिक स्थिति ‘‘समान‘ होने के कारण ही हुई है, महामहिम के ‘‘राजनीतिक एजेंडे‘‘ को स्पष्ट रूप से उभारती है। यह चिट्ठी महामहिम ने उस वक्त क्यों नहीं लिखी, जब सरकार द्वारा ‘‘बार‘‘ खोले गए थे, जिसका हवाला इस चिट्टी में देकर उन्होंने अपने (कु) तर्क को बल देने का (असफल) प्रयास किया है।  

इसमें कोई दो मत नहीं है कि राज्यपाल भी इस देश के एक संभ्रांत नागरिक है। और नागरिक होने के नाते उनके स्वयं का व्यक्तिगत अधिकार, नागरिक अधिकार तथा संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकार और मानवाधिकार उन्हें प्राप्त है। क्या ये अधिकार पद पर रहते हुये स्थगित हो जाते है? प्रश्न सबसे बड़ा यहां पर यही है। यदि इन अधिकारों में से किसी का भी उल्लघंन सरकार या संस्थागत व्यवथापिका द्वारा हो रहा है, तो उनसे लड़ने के लिए, उसका विरोध करने के लिए और उन अधिकारों की रक्षा के लिए, बात जब शासन के विरूद्ध लड़ने की हो तब, इस संवैधानिक पद पर बैठेे रहकर भी क्या राज्यपाल अपने अधिकारों की रक्षा की लड़ाई लड़ सकते है? राजनैतिक शुचिता और नैतिकता (जो आज एक दूर की एक ‘‘कोड़ी’’ हो गई है) का यह तकाजा है कि उक्त अधिकारों की लड़ाई के लिये महामहिम संवैधानिक पद से इस्तीफा देकर ही एक ‘‘नागरिक’’ की हैसियत से देश के संविधान द्वारा प्रदत्त कानून का उपयोग करते हुये अपने स्वाभिमान की रक्षा की जानी चाहिये। यही एक सही व आदर्श स्थिति होगी। परन्तु देश का यही तो दुर्भाग्य है कि, चालाक व धूर्त राजनितिज्ञों ने इस नैतिकता व आदर्शवाद को जनता से छीनकर स्वयं को इन ‘‘आवरणों’’ से ढ़ककर इतना सुशोभित कर लिया है कि इस संबंध में वे उस जनता को आदर्शवाद व नैतिकता का सिर्फ पाठ सिखाने के कार्य को ही अपना आदर्श व नैतिक होना मानते है, जिस जनता की नैतिकता व आदर्शवाद को इन नेताओं ने ही अपने कार्यो व कार्य प्रणाली के द्वारा छींना हो।

‘‘महामहिम’’ यह लिखते है, जब बाजार, माल, चित्रपटगृह सब खोल दिये गये हो, तो ‘मंदिर’ क्यों नहीं खोले जा रहे है? तंज कसते हुये लिखते हैं, ‘‘लाकडॉउन का मजाक उडाया गया था, तो अब लाकडॉउन क्यों लगाया जा रहा है।’’ महाराष्ट्र के राज्यपाल आगे लिखते हुये मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को यह भी याद दिलाते है कि वे ‘‘हिन्दुत्व’’ के मजबूत पक्षधर रहे है, और सार्वजनिक रूप से भगवान श्री राम के प्रति अपनी भक्ति भी व्यक्त की है। उनके द्वारा विट्ठल रुक्मणी मंदिर का दौरा किया गया था। लेकिन दूसरी तरफ ‘‘देवी देवताओं’’ के स्थलों को नहीं खोला गया है। आगे फिर प्रश्नवाचक कथन लिखते है, ‘‘क्या आपने अचानक खुद को धर्मनिरपेक्ष (सेकुलर) बना लिया है?’’ इस शब्द का पत्र की लेखनी में चयन न केवल देश के लिए बहुत घातक है, बल्कि यदि कोई सामान्य व्यक्ति उक्त बात कहता या लिखता तो उसके खिलाफ आपराधिक कार्यवाही भी की जा सकती है। परन्तु संवैधानिक पद पर बैठे हुये माननीय ऐसे कथन कर रहे है, तो क्या वे यह भूल गये है कि, देश के संविधान का एक प्रमुख तत्व धर्मनिरपेक्षता है व स्वयं महामहिम भी इससे बंधे हुये है? और ‘‘हिन्दुत्व होना’’ ‘‘धर्म निरपेक्षता’’ का ही भाग है, जिसे समय-समय पर न्यायालय ने परिभाषित भी किया है। तब महामहिम इन दोनों शब्दों ‘‘हिन्दुत्व’’ व ‘‘धर्म निरपेक्षता’’ को एक दूसरे के विपरीत क्यों बता रहे है? क्या धर्मनिरपेक्ष होना एक अपराध है, गाली है, तो संवैधानिक पद पर बैठे महामहिम ने एक ‘‘हिन्दुत्व’’ वाले मुख्यमंत्री के धर्मनिरपेक्ष न होने से संविधान के विरूद्ध कार्य करने के कारण उन्हे मुख्यमंत्री पद से क्यों नहीं बर्खास्त कर दिया? क्या राज्यपाल के कहने का यह अर्थ कदापि नहीं निकलता है कि महामहिम व मुख्यमंत्री सेकुलर नहीं है? 

इस बात को भी महामहिम ने ध्यान में रखना चाहिये कि देश में सबसे ज्यादा कोरोना का संक्रमण महाराष्ट्र राज्य में ही है। अतः जहां तक ‘‘बार‘ खोलने का बात है, राज्यपाल शायद इस बात को भूल गये है कि सर्वप्रथम केंद्र सरकार द्वारा जारी ‘‘एसओपी‘‘ में ही बार खोलने की बात कही गई थी। जब स्वयं केन्द्र सरकार की नजर में ‘‘धार्मिक स्थानों‘‘ की अपेक्षा ‘‘बार‘‘ खोलने की प्राथमिकता हो तो, सिर्फ और सिर्फ राज्य सरकारों को इसके लिये दोषी ठहराना कहां तक उचित है? अनलॉक 5 के चलते केन्द्र सरकार स्वयं यह नहीं मान रही है कि पूरे देश में समस्त गतिविधियां पूर्ण रूप से जारी की जा सकती है। इसीलिये इन पर निर्णय लेने का विवेकाधिकार राज्य सरकारों पर छोड़ा गया है। तब राज्यपाल की यह चिट्टी जो ‘‘पत्र की चारों तरफ की सीमाएं ’’सुंदर’’ सी लिखावट के बंधन से सजी हुई आबद्ध है, क्या वह क्षेत्राधिकार का उल्लघंन करने के कारण ‘‘सुंदरता‘‘ को नष्ट करती हुई नहीं लगती है? यह स्पष्ट नहीं है कि राज्यपाल ने उक्त चिट्टी स्वयं के अधिकार के हनन होने के कारण लिखी है या उनके पास इसके संबंध में कोई ज्ञापन, मांग पत्र या शिकायत आई है, जिसे उन्होनें मात्र ‘पोस्टमैंन’ की तरह अग्रेषित किया हो? जो सामान्य रूप से एक राज्यपाल का कार्य होता है। इसीलिए उद्धव ठाकरे का यह जवाब ठीक तो हो सकता है कि ‘‘मुझे अपना हिन्दुत्व साबित करने के लिए राज्यपाल के प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं हैं।’’ परन्तु यदि वे स्वयं भी संवैधानिक नैतिकता की मर्यादा का पालन करते हुये महामहिम पद की गरिमा को बनाये रखने के लिए इस तरह के बयान नहीं देते तो, शायद उनकी गरिमा व साख और ज्यादा अच्छी बनी रहती।

अंत में; राज्यपालों के मुंह तभी खुलते हैं, जब राज्यपाल जिन राजनीतिक परिवेशों व पृष्ठभूमि से आते हैं, उसी पृष्ठभूमि व विचारधारा के विपरीत या केंद्र शासित पार्टी की विरोधी पार्टियों की राज्य सरकारों के होने पर ही महामहिम ‘‘सरकार‘‘ पर निशाना साधते हुए अपने विचार व्यक्त करते हैं। अन्यथा तो वे सरकारों की हां में हां ही मिलाते रहते हैं। क्या आपने उत्तर प्रदेश, राजस्थान व मध्यप्रदेश में इतनी वीभत्स घटनाएं होने के बावजूद वहां के राज्यपाल को मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर चिंता व्यक्त करते हुये देखा है? इस संबंध में राकांपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद पवार का प्रधानमंत्री को चिट्टी लिखी जाना न केवल सामयिक है, बल्कि इस चिट्ठी में जो ‘‘तेवर‘‘ दिखाए गये हैं, वह तो और भी साहसिक है और यह उनकी राजनीतिक परिपक्वता को ही दर्शाता है।

‘‘मानक’’ का रखा जाए ध्यान तो खुशनुमा हो सकता है ‘‘जीवन’’!

 14 अक्टूबर ‘‘विश्व मानक दिवस के उपलक्ष्य में’’ लेख         


आज विश्व मानक दिवस है। वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए मानकीकरण के महत्व के रूप में नियामकों, उद्योग और उपभोक्ताओं के बीच जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से ‘‘विश्व मानक दिवस’’ मनाया जाता है। यह अंतर्राष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (आईएसओ) के स्थापना दिवस के रूप में विश्व भर में मनाया जाता है। माना जाता है कि मानकों के तकनीकी फायदे हैं और इससे उत्पादों तथा सेवाओं को बेहतर बनाने तथा इनसे जुड़े उद्योगों को अधिक कुशल बनाने में मदद मिलती है।यदि इनमें मानकों का उचित पालन न हो तो व्यक्ति का जीवन सुखमय की बजाए दुखमय हो जाता है।

अंतर्राष्ट्रीय मानक दिवस प्रतिवर्ष 14 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाता है। यह दिन उन हजारों विशेषज्ञों के प्रयासों का सम्मान करता है जो अमेरिकन सोसाइटी ऑफ मैकेनिकल इंजीनियर्स (एएसएमई), अंतर्राष्ट्रीय इलेक्ट्रोटेक्निकल कमीशन (आईईसी), अंतर्राष्ट्रीयकरण के लिए अंतर्राष्ट्रीय संगठन (आईएसओ), अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार जैसे मानक विकास संगठनों के भीतर स्वैच्छिक मानकों को विकसित करते हैं। यूनियन (आईटीयू), इलेक्ट्रिकल एंड इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियर्स संस्थान (आईईईई) और इंटरनेट इंजीनियरिंग टास्क फोर्स (आईईटीएफ)।

14 अक्टूबर को विशेष रूप से तारीख को चिह्नित करने के लिए चुना गया था, 1946 में, जब 25 देशों के प्रतिनिधियों ने पहली बार लंदन में इकट्ठा किया और मानकीकरण को सुविधाजनक बनाने पर केंद्रित एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन बनाने का फैसला किया। हालांकि एक साल बाद आईएसआंे का गठन हुआ था। लेकिन पहला विश्व मानक दिवस वर्ष 1970 में ही मनाया गया था।

इस दिन की शुरुआत मानकों के विकास संगठनों के भीतर स्वैच्छिक मानकों को विकसित करने वाले हजारों विशेषज्ञों के प्रयासों को सम्मान व श्रद्धजंली देने के लिए भी की गई। मंशा थी कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वैश्विक मानकीकरण की दिशा में जो भी अच्छे प्रयास किए जा रहे हैं, उनका फायदा विकासशील देशों को भी मिलेगा। इससे न केवल उनके व्यापार में बढ़ोतरी होगी बल्कि सामाजिक−आर्थिक क्षेत्र में भी बदलाव आएगा। 

मानक के माध्यम से आज पूरा विश्व एक दूसरे से जुडा हुआ है। हमारा डेबिट, क्रेडिट कार्ड प्रत्येक एटीएम मशीन से हमारे लिए पैसे निकाल देता है। किसी भी दुकान से हमारे लिए वस्तुएं खरीद सकता है। जो बल्ब हम बाजार में कहीं से भी खरीदते हैं, वो हमारे घर में लगे होल्डर में फिट आता है।यह सब मानको के कारण ही संभव हुआ है। मानकों से ही मशीन, पुर्जों तथा उत्पादों में आपस में तालमेल अत्यंत सरल हुआ है।

इस दिन को मनाने का एक और उद्देश्य है। अर्थव्यवस्थाओं के लिए मानकीकरण की आवश्यकता के प्रति जागरूकता फैलाना है। कम दाम में उत्तम गुणवत्ता के उत्पाद तैयार करने या सेवाएं देने के लिए प्रक्रियाओं को लागू करते हुए लक्ष्यों को हासिल करने की क्षमता ही दक्षता है। 

व्यक्ति के जागने से लेकर सोने तक उत्पाद व सेवाओं के मानक

:-सुबह जिस अलार्म से उठते हैं, कई बार उसके धोखा देने से लोगों को बड़ा नुकसान हुआ है।

:-जिम में कसरत करते समय यदि उपकरण मानकों का नहीं है तो लेने के देने पड़ जाते हैं। 

:-नाश्ते के लिए प्रयोग होने वाला टोस्टर कई बार हादसों को जन्म देता है। इसमें भी जरूरी हैं मानक।      

:-दांत मांजने के लिए प्रयोग होने वाला ब्रश कमतर मानक का है तो अच्छे भले दांत खराब हो जाते हैं। 

:-ऑफिस या कारोबार तक जाने के लिए प्रयोग होने वाले वाहन की कमी से कई बड़े नुकसान हुए हैं। 

:-जिस लिफ्ट में हम ऊपरी मंजिल तक जाते हैं, उसके मानकों की कमी हमें मुश्किल में डाल देती है। 

:-जिस कंप्यूटर पर हम काम करते हैं, उसका मानकों से कमतर होने से हमारा कीमती समय खराब हो जाता है। 

:-जिस भोजन को हम स्वास्थ्यवर्द्धक समझ कर ग्रहण करते हैं। उसका सब स्टैंडर्ड होना हमें बीमार करता है। 

इस प्रकार के अनेकानेक उदाहरण हो सकते है।

रविवार, 4 अक्तूबर 2020

‘‘कारसेवक’’ क्या ‘‘अराजक’’ व ‘‘असामाजिक‘‘ तत्व थे?


अयोध्या के ‘‘विवादित ढांचा’’ ढहाए जाने के आरोप के मुकदमे का बहुप्रतीक्षित निर्णय आखिर 28 साल बाद आज आ ही गया। सीबीआई की विशेष न्यायालय ने 49 आरोपियों में से बचे समस्त 32 जीवित आरोपियों को सबूतों के अभाव में ‘‘निरापराधी’’ घोषित किया। ‘‘सम्मानित’’ आरोपियों सहित प्रायः देश ने इस निर्णय का स्वागत ही किया है।
आज जब निर्णय आने वाला था, तब मैं टीवी देख रहा था। ‘हेडलाइंस’ चालू हो गई थी। माननीय न्यायाधीश निर्णय का ’भाग’ पढ़ रहे थे। फिर एकदम से ब्रेकिंग न्यूज दिखाई गयी। समस्त 32 आरोपी निर्दोष घोषित कर बाईज्जत बरी कर दिए गए। चेहरे पर खुशी के भाव आ गये। धीरे-धीरे समाचार आगे बढ़ता है। माननीय न्यायाधीश कहते हैं, आरोपियों के विरूद्ध कोई साक्ष्य नहीं है, किसी भी आरोपी की संलिप्तता ढ़ाचा गिराने या उसके लिये लोगों का उकसाने में नहीं पायी गई। बल्कि इसके उलट कुछ आरोपियों ने तो ढांचा गिराने से रोकने का प्रयास भी किया। ‘चेहरे’ पर खुशी के भाव बढ़ते जाते हैं। जज कहते हैं, बाबरी विध्वंश की घटना अचानक हुई। पूर्व नियोजित नहीं थी। फिर आगे अचानक समाचार आता है, चूंकि ढांचा गिराया गया है, इसलिए निश्चित रूप से यह अज्ञात असामाजिक तत्वों का कार्य होगा। मुकदमें का सबसे दुखद पहलु यह है कि विशेष न्यायालय ने बचाव पक्ष के वकील द्वारा प्रस्तुत 400 पेजों की लिखित व मौखिक दलील स्वीकार कर ली, जिसमें यह कहा गया कि सांकेतिक कारसेवा के निर्देश की अवेहलना करने वाले अराजक तत्वों ने ही ढ़ाचा ढ़हाया। 
इसी दौरान मेरे पारिवारिक बुजुर्ग सेवानिवृत्त सहायक आयकर कमिश्नर जी का फोन आता है और वे मुझे बधाई देते हैं। मैं पूछता हूं, किस बात की बधाई? वे कहते हैं, सब छूट गए हैं। मैं एकदम से किंकर्तव्यविमूढ हो जाता हूं। समझ में नहीं आता है, बधाई कैसे स्वीकार करूं? ढांचे के ऊपर भगवा झंडा फहराने के बाद हुई कार सेवा के दौरान मुलायम सिंह सरकार की पुलिस द्वारा की गई अंधाधुंध गोलीबारी से‘‘दो कोठारी‘‘ बंधु ( राम एवं शरद कोठारी) सहित  16  कारसेवक ‘‘शहीद‘‘ हो गए थे। इस कारण उत्पन्न जोश व आक्रोश ने आंदोलन को और हवा दी और तदनुसार राम जन्मभूमि आंदोलन के आयोजक कर्ताओं के आह्वान पर अपनी दृढ़ आस्था के साथ  पहुंचकर हजारों कारसेवकों ने अयोध्या पहुंचकर उक्त विवादित ढांचे को गिराने में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहयोग दिया था। इन सब को माननीय न्यायालय ने अराजक व असामाजिक तत्व ठहराया दिया। इसलिये बधाई स्वीकार करने में हिचक थी। विश्व हिंदू परिषद से लेकर मंदिर आंदोलन के सर्मथक किसी भी नागरिक ने तथा "ढांचा" को गिराने वालों ने उक्त निर्णय की इस आधार पर आलोचना नहीं की कि ‘‘विवादित ढांचा‘‘ गिराने वाले लोग अराजक असामाजिक तत्व नहीं थे। किसी ने भी अभी तक उक्त आदेश के विरुद्ध इस मुद्दे पर अपील मे जाने की बात भी नहीं कही है। बल्कि समस्त सम्मानित आरोपित नेताओं के दोष मुक्त किए जाने से खुशी से सब लबालबाब है। सभी माननीयों के दोषमुक्त हो जाने पर ‘‘जान बची लाखों पाये’’ की खुशी में इतना डूब गये कि, हजारों कार्यकर्त्ताओं को न्यायालय द्वारा अराजक व असामाजिक ठहराये के निर्णय के भाग के किसी ने भी नोटिस (संज्ञान) नहीं लिया।
हमारा जीवन कितना खोखला है तथा छिछलापन व दोहरापन लिए हुयें है, यह उक्त निर्णय पर आयी प्रतिक्रिया से दर्शित होता है। पूरा देश जानता है! किन व्यक्तियों और संगठनों के आह्वान पर देश के राष्ट्रवादी सोच के लोग अयोध्या पहुंचे थे। मैंने भी आंदोलन में भागीदारी की थी। यद्यपि मैं अयोध्या नहीं गया था। परन्तु अयोध्या पहुंचे लोग किसी भी रूप में ’अराजकतावादी’ नहीं थे, यह देश के सामने स्पष्ट है। इसलिए उन लोगो द्वारा माननीय विशेष न्यायालय द्वारा उन लोगों के प्रति की गई उन टिप्पणी के लिए उच्च न्यायालय के दरवाजे जरूर खटखटाने चाहिए, जिनके आह्वान पर अपनी आस्था के साथ राष्ट्र के गौरव के प्रतीक भगवान श्रीराम जन्मस्थली अयोध्या में मंदिर निर्माण के वास्ते राम प्रेमी कारसेवक पहुंचे थे।
इस देश में कानून का उल्लघंन ही तो राजनैतिक आंदोलन होता है। यही नहीं ‘‘नियमानुसार कार्य करना’’ भी आंदोलन होता है। तब राजनैतिक या धार्मिक एजेंडे को लेकर किया गया श्रीराम जन्मभूमि आंदालेन के अंतर्गत अयोध्या कूच करने की योजना, निश्चित रूप से राजनैतिक/ धार्मिक कृत्य है। जहां कानून का उल्लंघन तो है, लेकिन वह अराजक तत्वों द्वारा नहीं, बल्कि राजनैतिक व धार्मिक आस्था लिये हुये व्यक्तियों द्वारा किया गया है। कानून के उल्लंघन मात्र से ही कोई व्यक्ति ‘‘अराजक’’ नही हो जाता हैं। अतः न्यायालय के उक्त अराजकता वाले निष्कर्ष को उच्च न्यायालय में चुनौती जरूर दी जानी चाहिये।

मंगलवार, 29 सितंबर 2020

‘‘गिरता चरित्र‘‘ क्या हमें ‘‘चरित्रवान‘‘ बनने का संदेश देगा?

        
‘‘कोविड-19’’ सेे कमोबेश पूरा विश्व  संक्रमित है; कहीं हम से कम, तो कहीं ज्यादा। परन्तु हमारे देश में शासन व प्रशासन के विभिन्न अंगों के साथ लगभग संपूर्ण तंत्र ‘‘कोरोना काल’’ में जिस तरह से कार्य कर रहे हैं, वह स्थिति निश्चित रूप से शोचनीय, चिंताजनक और एक सीमा तक निंदा जनक भी है। ‘‘राम मंदिर निर्माण’’ के रास्ते चलकर ‘‘रामराज्य’’ लाने की कोशिश करने वाली एकमात्र पार्टी, वर्तमान सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा को आखिर हो क्या गया है? क्या इसे हम मात्र कोविड-19 का अस्थाई प्रभाव कह कर टाल सकते हैं? अथवा समस्त क्षेत्रों के ‘तंत्र’ में हो रही गिरावट को रोकने के बजाय भाजपा सिर्फ राजनीति के चलते कहीं उसमें सहायक तो सिद्ध नहीं हो रही है?
जब मैं भाजपा को जिम्मेदार ठहराता हूं, तो कुछ लोग मुझसे कहते है कि आप कई बार अपनी पृष्ठभूमि के विपरीत चले जाते हैं। तब मैं यही कहता हूं कि मैं किसी के खिलाफ नहीं जाता हूं; अपनी नीर क्षीर विवेक से सिर्फ उपलब्ध तथ्यों का ही विश्लेषण करने का प्रयास मात्र करता हूं। चूंकि जब कभी तथ्य आपके विपरीत होते है, तब शायद आपको ऐसा लगता होगा। परन्तु आपकी बात तब ही सही हो सकती है, जब मैं गलत तथ्यों को अथवा तथ्यों को गलत रूप से प्रस्तुत कर विश्लेषण करू। वैसे एक बात और! उक्त आरोप में ही उत्तर भी निहित है। अर्थात मैं भाजपा की बात इसलिए करता हूं कि, वर्तमान में कांग्रेस अप्रासंगिक व अप्रभावी होती जा रही है। अतः किसी भी क्षेत्र में देश की स्थिति को सुधारने के लिये कांग्रेस की चर्चा करना मात्र समय की बर्बादी ही है। यद्यपि भाजपा के पास विराट व्यक्तित्व वाले नेतृत्व के साथ-साथ विशाल बहुमत भी है, परंतु दुर्भाग्यवश प्रखर प्रभावी सोच रखने वाला विपक्ष वर्तमान में लगभग नगण्य सा हो गया है। जबकि कांग्रेस के स्वर्णकाल अर्थात वर्ष 1952 से लेकर ऐतिहासिक अभूतपूर्व बहुमत (वर्ष 1984) के समय तक, विपक्ष नगण्य होने के बावजूद गंभीर विषयों पर सार्थक व बुलंद आवाज करने वाले समस्त क्षेत्रों के जानकार विपक्षी थे। इसलिये  आम नागरिकों की आकाक्षांओं एवं आशाओं की पूर्ति का केंद्र भाजपा उपरोक्त सुविधाजनक स्थिति मैं होने के बावजूद जब कोई आवश्यक जनहितकारी कदम नहीं उठा पाती है, तब उसे सचेत करना ही मात्र एक विकल्प रह जाता है। आइए! विषय पर आते है और आगे देखते हैं, आखिर हो क्या रहा है। 
देश की समस्त समस्याओं को सुशांत और सुशांत से संबंधित ‘रिया’ फिर ‘कंगना’ ‘दीपिका पादुकोण’ आगे शायद ‘करण जौहर’ और अब फिल्म उद्योग के ड्रग्स रैकेट तक सीमित कर भाजपा इसे क्या अपनी सफलता मान कर खुशफहमी पाले हुये है? या वास्तव में यह उसकी असफलता है? आखिर ‘‘सुशांत‘‘ को ‘‘शांत‘‘ क्यों नहीं होने दिया जा रहा है? शायद जब तक, महाराष्ट्र सरकार से लेकर बिहार सरकार का भाग्य ‘तय’ नहीं हो जाता? जबकि बेहद दुखद अवस्था में सुशांत ‘‘स्वर्गवासी‘‘ होकर स्वयं तो ‘‘शांत‘‘ हो गए (या कर दिये गये?) लेकिन वे जाते जाते ‘‘वर्तमान‘‘ को अशांत कर गए।
सुशांत प्रकरण में एक और अदभुत बात हुई है।कभी आपने सुना है,  पोस्टमार्टम या विसरा की  जांच रिपोर्ट देने के पूर्व  डॉक्टर्स और जांच एजेंसियों के बीच चर्चाओं का दौर होकर सहमति बनाने का प्रयास किया जाता है? जो सुशांत प्रकरण में एम्स के डॉक्टर्स व सीबीआई के बीच "विसरा" की जांच को लेकर की गई। फिलहाल सुशांत की आत्महत्या से लेकर हत्या तक की जांच का मामला एक तरफ रह  गया है, यानि कि ‘‘आये थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास’’। जैसा कि स्वयं सुशांत के वकील ने सीबीआई पर आरोप भी लगाया है। सुशांत का खुद ड्रग्स का नशा करना और उसके फार्म हाउस में नशे (ड्रग्स) लेने से लेकर सप्लाई तक के मामले में एनसीबी की जांच में फिल्म उद्योग के बहुत से कलाकार एक-एक कर "रडार" पर आ रहे है, जिसने समाज के एक वर्ग में ‘‘तूफान‘‘ सा पैदा कर दिया है। फिल्मी कलाकार, लेखक, आलोचक और टीवी बहसों में बैठने वाले रजिस्टर्ड वक्ता, प्रवक्ता गण अब देश को यह समझाने में लगे हैं कि, सुशांत प्रकरण के कारण फिल्म उद्योग का यह एक घिनौना चेहरा आम लोगों के बीच सामने आया है। ‘‘दीपिका पादुकोण’’ जैसी प्रसिद्ध ग्लैमरस अभिनेत्री जिसे देश के लाखों युवा वर्ग अनुसरण करते हैं, के ड्रग्स स्कैंडल में नाम आ जाने से युवा वर्ग पर पर इसका कितना बुरा प्रभाव पड़ेगा, इससे चिंतित वक्ता, प्रवक्तागण मीडिया के प्लेटफार्म का उपयोग करके हमें उक्त आदर्श की बात समझाने का प्रयास कर रहे है।
आखिर आज हम कौन से समय में या किस युग में आ गए है? जिस सुशांत पर स्वयं ही उनसे जुडे़ हुये कुछ लोगो द्वारा ड्रग्स संबंधित आरोप लगाए जा रहे हो, जिसके फार्म हाउस में ड्रग्स की पार्टियां होती रही हो, और जो दो महिलाओं के साथ ‘लिव इन रिलेशन’ में रहता रहा हो, तब ऐसे ‘‘चरित्र‘‘ को मीडिया व बिहार की राजनीति का ‘‘आइकॉन‘‘ बना कर समाज को "चरित्र का आईना" दिखाने का प्रयास, क्या यह एक मजाक नहीं है, तो क्या है? दीपिका पादुकोण के तथाकथित कृत्य के कारण युवा वर्ग पर पड़ने वाले  बुरे प्रभाव को लेकर आलोचना करने वाले  क्यों यह भूल जाते हैं कि फिल्म उद्योग सिर्फ ड्रग्स सेवन का ही नहीं, बल्कि अश्लीलता, कास्टिींग काउचिंग, "भाई" व गैंगेस्टर से संबंध, पक्षपात, परिवारवाद आदि अनेक बुराइयों से भरा पड़ा हुआ है। और यह आज से नहीं है, काफी पहले से ही है। क्या इतने सालों से इन तथाकथित समाज सुधारकों की आंखों पर पर्दा पड़ा हुआ था? तब इन्होनें ड्रग्स सेवन व अन्य बुराइयों के विरुद्ध आवाज क्यों नहीं उठाई? (तब बिहार चुनाव नहीं थे? और जब बिहार चुनाव थे, तब सुशांत जैसे प्रकरण नहीं थे?) क्या ‘‘लिव इन रिलेशन शिप‘‘ फिल्म उद्योग के कलाकारों या हमारे जीवन की नैतिकता को ऊंचा उठाती है? क्यों नहीं तथाकथित समाज सुधारक उक्त नैतिकता‘‘ को ऊंचा उठाने के लिए उन्हे ‘‘मेडल‘‘ प्रदान कर देते? क्योंकि आजकल खासकर फिल्म उद्योग मे तो हर चीज ‘‘प्रायोजित’’ ही तो होती है। 
धर्मेंद्र-हेमा मालिनी के बाबत किसी महिला या पुरुष कलाकार या बुद्धिजीव वर्ग व तथाकथित समाज सुधारको ने कभी आवाज नहीं उठाई? एक पत्नी के होते हुए बगैर विवाह-विच्छेद (तलाक) किये दूसरी शादी करना न केवल नैतिक मूल्यों की गिरावट है, बल्कि कानून का उल्लंघन होकर धारा 494 के अंतर्गत ‘‘द्विविवाह’’ का एक अपराध भी है। धर्मेंद्र ने पहली पत्नी के रहते हुए बगैर तलाक लिए दूसरी शादी ‘‘ड्रीम गर्ल‘‘ हेमा मालिनी से की थी। धर्मेंद्र की पहली पत्नी के द्वारा शिकायत न करने के कारण वे अपराधिक अभियोजन से बच गए थे। देश के ये दोनों कलाकार अत्यंत लोकप्रिय होने के कारण इतने बड़े आइकॉन बन गए कि देश की जनता ने उन दोनों महान कलाकारों को देश की उस संसद में भेजा जहां कानून का निर्माण होता है। व्यभिचार (एडल्ट्री) जो धारा 497 के अंतर्गत एक घृणित सेक्स अपराध था,को उच्चतम न्यायालय ने अपने एक निर्णय द्वारा अवैध घोषित कर दिया था।वही संसद जिसने शाहबानो मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा घोषित निर्णय को संविधान संशोधन विधेयक पारित कर "शून्य" कर दिया था। लेकिन उक्त अवैध घोषित धारा 497 को समाज सुधार व भारतीय संस्कृति को बनाएं रखने के लिए शाहबानो प्रकरण के समान  पुनर्स्थापित नहीं किया।
फिल्मी कलाकारों के बीच जो नशे का सेवन हो रहा है, क्या वास्तव में देश, समाज और स्वयं व्यक्ति के लिए इतना नुकसानदायक है कि उसको खत्म करने का बीड़ा मीडिया और उसके पीछे खड़ी सरकार ने उठा लिया है? मीडिया के पीछे सरकार की बात इसलिए कहीं जा रही है, क्योंकि अधिकतर मीडिया हाउसेस में अंबानी के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप का ज्ञान मीडिया के लोगो को है। और ‘‘अंबानी‘‘ को कौन चला रहा है, यह देश जानता है। इसीलिए मीडिया के बीच के ही कुछ लोग ‘‘गोदी मीडिया‘‘ कहने में परहेज नहीं करते हैं। इस प्रकार ड्रग रैकेट के विरुद्ध कार्रवाई कर ‘‘रामराज्य की स्थापना‘‘ की ओर एक कदम और बढ़ाने का दावा जरूर किया जा सकता है? परंतु ड्रग्स सेवन के विरुद्ध आवाज कितनी खोखली है, इसका अंदाजा आपको आगे लग जाएगा। 
नशा सिर्फ क्या ड्रग्स का ही होता है? भांग, गांजा, चरस, हैरोइन, स्मैक, ब्राउन शुगर, अफीम, हशीश, चिलम, सिगरेट, सिगार, हुक्का, शराब, पान, तंबाकू, बीड़ी, आदि न जाने कितनी चीजें लोग नशे के रूप में लेते हैं। सिर्फ फिल्म उद्योग के लोगों की ही ड्रग्स के नशे की बात क्यों की जा रही हैं? क्रिकेट, राजनीति, उच्च (एलीट) वर्ग (स्टेट्स के लिये) और न जाने कितने क्षेत्रों में यह रोग फैला हुआ है। जिस प्रकार मानसिक तनाव को दूर करने के लिये कुछ फिल्मी कलाकार ड्रग्स का सेवन कर रहे है। उसी प्रकार क्रिकेटर्स भी अच्छे परिणाम के लिये प्रतिबंधित दवाइयों का उपयोग करते है। क्या यह सब नशीली चीजें स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नहीं है? लेकिन ऐसा लगता है कि इनमें से कई नशीले पदार्थ सरकार के लिए राजस्व का एक बड़ा साधन है। पैकिंग पर ‘‘स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है‘‘ लिखा हुआ एक रैपर चिपका दीजिए और फिर खूब ‘‘पीजिए’’ ‘‘धुआ छोडिये’’,‘‘गहरी सासें’’ लीजिये! और कहिये ‘‘दम मारो दम’’। आप ‘‘पीकर खुश‘‘ हैं क्योंकि आप ‘गम’ को पी रहे है और सरकार बिना पिए ही खुश है, क्योंकि सरकार को खजाने में भारी भक्कम पैसा मिलने से वह गमगीन नहीं है। और हम सबने यह देखा ही है ‘‘न बीबी न बच्चा’’, ‘‘न बाप बड़ा न मैया’’ ‘‘होल थिंग इज़ दैट कि भैया’’ ‘‘सबसे बड़ा रुपैया‘‘। 
सरकार का नशे के मामले में दो तरफा रवैया क्यों है ?एक तरफ कुछ नशीले द्रव्यों को कुछ वैधानिक चेतावनी के साथ विक्रय एवं उपयोग करने की अनुमति देती है, तो दूसरी ओर कुछ नशीली चीजों के विक्रय व उसके उपभोग पर प्रतिबंध लगाकर उसे एक अपराध घोषित करती है। इसी को कहते है ‘‘गुड़ खाए" और गुलगुलों" से परहेज़ करें’’। आखिर "नशा तो नशा" ही है। लगभग प्रत्येक नशा स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। हम देखते हैं, प्रत्येक वर्ष सिगरेट, तंबाकू से कैंसर व अन्य बीमारियां उत्पन्न होकर हजारों व्यक्ति मृत्यु के ग्रास बन जाते हैं। यदि कुछ दृव्यों को छोड़ दिया जाए तो, अधिकतर नशीली पदार्था के उपभोग से उपभोक्ताओं की आर्थिक बर्बादी ही होती है। और इस बर्बादी की ही कीमत पर सरकार अपनी जेब भरती है। यह कौन सा सामाजिक न्याय है? क्योंकि अंततः सरकार को भी तो नागरिकों के प्रति अपने जिम्मेदार होने का एहसास दिखाने के चलते इन व्यक्तियों के स्वास्थ्य और आर्थिक स्थिति पर करोडों रुपए आगे पीछे खर्च करने ही होते हैं। "आपदा को अवसर" में बदलने का एक मौका सरकार को "सुशांत" ने दे दिया है। उठाइये कदम और "अवसर" में बदलकर अपने कथन को तार्किक व वास्तविक तथ्यात्मक बल प्रदान कीजिये।

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