विगत दिवस थल सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने एक इवेंट के दौरान सीएए के विरोध में हुये प्रदर्शन के बीच देश में हुई हिंसा की आलोचना की थी, जिस पर सियासी भूचाल आ गया। उन्होंने कहा ‘‘नेता वे नहीं हैं, जो गलत दिशा में लोगों का नेतृत्व करते हैं....जैसा कि हम लोग गवाह रहे हैं कि, बड़ी संख्या में विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के छा़त्रों ने शहरों और कस्बों में आगजनी और हिंसा करने के लिए जन और भीड़ की अगुवाई कर रहे हैं, यह नेतृत्व नहीं हैं’’।
वर्ष 1947 के विभाजन के पूर्व का भारत का वह भाग जो आज पाकिस्तान कहलाता है, हमारा पड़ोसी देश है। लोकतांत्रिक भारत से अलग हुये भाग पाकिस्तान में तो सैनिक शासन को भी जनता स्वीकार कर लेती है और सैनिक तानाशाह बाद में चुनाव में भाग लेकर स्वयं को लोकतांत्रिक भी सिद्ध कर लेते हैं। लेकिन विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में सेना प्रमुख युद्ध के अलावा यदि देश की अन्य किसी भी समस्या(ओं) पर अपने विचार व्यक्त करते हैं, तो सामान्यतया खासकर राजनीतिक क्षेत्रों में उसे उस सीमा तक स्वीकार नहीं किया जाता है, जिस सीमा तक वे बयान/कथन उन राजनीतिक क्षेत्रों में कार्य करने वालो के प्रति अनुकूल नहीं (खिलाफ में) माने जा सकते हैं। अर्थात उनका बयान यदि किन्ही राजनीति दलों को सूट (सुहाता) करता है तो, वे उक्त बयान को सही ठहराकर अपने पक्ष में वातावरण बनाने का प्रयास करते है। जबकि विरोधी पक्ष उस बयान के कारण खुद को अपने आप को स्वयं ही कठघरे में खड़ा महसूस करने के कारण वे उक्त बयान की आलोचना करने लगते है। सेना प्रमुख ने ऐसा क्या विशेष कह दिया जिसके कारण विपक्षी दलों को साँप सूँघ गया व जो सत्तापक्ष को सुगंघ (अनुकूलता) दे गया?
सेना का कार्य सिर्फ देश की सीमा की सुरक्षा करना व दुश्मनों से युद्ध का सामना करना भर ही नहीं हैं, बल्कि आवश्यकता पड़ने पर आंतरिक सुरक्षा व शांति को बनाये रखना भी उनका कर्त्तव्य व दायित्व है, जिसे वे अभी तक बखूबी निभाते आ रहे हैं। देश में शांति बनाये रखने के लिये जब पुलिस, अर्द्धसैनिक बल, जैसे सीआरपीएफ इत्यादि फोर्स असफल हो जाते है तब, देश में तूफान, बाढ,़ सूखा इत्यादि व अचानक उत्पन्न आये संकट की स्थिति में सेना अपना सब कुछ लगा कर व जान पर खेलकर भी स्थिति का सफलता पूर्वक सामना करके उसे सामान्य कर अपना कर्तव्य निभाती है। विगत कुछ दिनों से सीएए बिल एवं एनपीआर को लेकर देश में कई जगह आंदोलन चल रहे हैं। कुछ जगह आंदोलन हिंसात्मक रहे हैं व आगजनी की घटनाएं भी हुई है। इस कारण मात्र उत्तर प्रदेश में ही 18 जाने जा चुकी है व देश की अन्य जगहों में भी कुछ और मौते हुई है। हिंसा का तांडव रोकने के लिए स्थिति से निपटने के लिये नागरिकांे की जान माल की सुरक्षा के खातिर सेना को कई बार अपने सैनिकों को भी खोना पड़ा है। देश की सीमा की सुरक्षा के खातिर लड़ते हुये या युद्ध में मृत्यु होने पर वे शहीद कहलाते है। लेकिन देश के भीतर आंतरिक शांति बनाये रखने के लिए जब वे अपना सब कुछ देश पर कुर्बान कर जान दे देते है, तब सामान्यतः उन्हे शहीद का दर्जा नहीं मिलता है। सेना प्रमुख ने अपने बयान में क्या इसी व्यथा को ही तो व्यक्त नहीं किया? क्योंकि गृह हिंसा रोकने में भी कई बार सेना को जवानों को खोना पड़ता है। कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में हिंसा की प्रतिक्रिया में प्रति-हिंसा से भी इंकार नहीं किया जा सकता हैं।
उक्त बयान किसी भी प्रकार से न तो किसी के खिलाफ है और न ही समर्थन में है, बल्कि यर्थाथ वस्तुस्थिति को (अपनी सीमाओं में रहकर) मात्र इंगित भर करता है। सेना प्रमुख ने उक्त बयान देकर कोई राजनीति नहीं की है, जैसा कि उनकी आलोचना में कहा जा रहा है। राजनीति तो वास्तव में वे दल ही कर रहे है, जो हिंसा को बढ़ावा दे रहे है। एक ओर समस्त राजनैतिक दल एक सिरे से आंदोलन में हिंसा की गहन आलोचना करते नहीं थकते है व उसे पूर्णतः गलत ठहराते है। लेकिन उक्त मौखिक आलोचना मात्र पेपर पर सिंद्धान्त के रूप में ही रह जाती है, कार्यप्रणाली में नहीं दिखती है। जब जनरल ने हिंसा की आलोचना की किसी व्यक्ति, दल या नेता या राजनैतिक मंशा या कार्यक्रम का उल्लेख किये बिना ही की है तो, फिर उनके बयान की आलोचना करने वालो के प्रति क्या यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि, चंूकि वे लोग हिंसा में लिप्त है, इसलिए जनरल द्वारा की गई आलोचना को वे इसे स्वयं के विरूद्ध मानकर उससे छुब्ध होकर उनके बयान की आलोचना की तथा ‘जनरल’ को राजनीति न करने की सलाह तक दे डाली है। हिंसा के विरूद्ध बयान देने वालों व उसकी तथाकथित कड़ी निंदा करने वालों दलों के लिये जनरल द्वारा हिंसा की गई आलोचना उनके द्वारा राजनीति कैसे हो सकती है। यदि वह राजनीति है तो, निश्चित रूप से वे दल व व्यक्ति भी हिंसा की राजनीति करने के लिये जिम्मेदार माने जायेगें, क्योंकि वे स्वयं भी चिल्ला चिल्लाकर आंदोलन में हुई हिंसा की आ
लोचना ही कर रहे हैं।
पूर्व गृहमंत्री पी. चिंदबरम का सेना प्रमुख के उक्त बयान पर यह पलटवार किया कि ‘‘आप आर्मी के मुखिया है और अपने काम से काम रखिये ....जो नेताओं को करना है, वह नेता ही करेगें, यह आर्मी का काम नहीं है कि वे नेताओं से कहे कि हमें क्या न करना चाहिए’’, एक बहुत ही बचकाना पूर्ण बयान है। इससे तो यही झलकता है कि चिंदबरम की कांग्रेस पार्टी भी हिंसा में लगी थी, क्योंकि वह हिंसा की आलोचना करनेे वाले जनरल के बयान को अपने विरूद्ध ले रही है। चिंदबरम के शब्दों में कि उक्त बयान सेना प्रमुख के क्षेत्राधिकार से परे है, जो सरासर गलत है। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता सीताराम येचुरी तो एक कदम आगे जाकर कह गये कि यह सशस्त्र बलों में हो रहा राजनीतिकरण हैं। वास्तव में हिंसा की आलोचना करने वाले बयान की आलोचना करने का मतलब साफ है कि, उन आलोचकगणों का कहीं न कहीं संबंध हिंसा से रहा है जिस पर जनरल साहब ने उंगली उठाई है, जिससे वे तिलमिला उठे है। यह बयान के आने का समय पर अवश्य कुछ लोगों को शंका/कुंशका हो सकती है, क्योंकि इसके तीन बाद ही उन्हे चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ बना दिया गया है। हालाकि उक्त पद पर उनका नाम इस बयान के पूर्व से ही काफी गंभीर रूप से चर्चित था।
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