70 दिन से उपर हो गये शाहीन बाग आंदोलन के चलते कई प्रश्न एक साथ उठ खड़े हुएँ हैं। ये प्रश्न एक दिशा में न उठकर समस्त प्रभावित व अप्रभावित पक्षों के सामने उठ रहे हैं। ‘‘आंदोलन’’ से उत्पन्न सामान्यतः निम्न प्रश्न जेहन में आ रहे हैं, जिनका निराकरण किया जाना जरूरी है।
नम्बर एक आंदोलनकारियों की नजर में बिना प्रशासनिक अनुमति के शांतिपूर्ण आंदोलन कब तक चलाया जाना चाहिये, चलाया जायेगा, या चलाया जा सकता है? दूसरा जनता की नजर में आंदोलन के माध्यम से घटना व चक्का जाम करके क्या आस-पास के प्रभावित रहवासी नागरिकों की सुविधाएँं, मूल अधिकारों व मानवाधिकारों को रोका जा सकता है? व कब तक? नम्बर तीन उच्चतम न्यायालय की नजर में आंदोलन चलाना यद्यपि एक वैधानिक अधिकार तो है, परन्तु उसे असीमित अवधि तक नहीं चलाया जा सकता तथा आंदोलन से अन्य जनता को कोई असुविधा / कष्ट भी नहीं होना चाहिए। उच्चतम न्यायालय का वर्तमान हस्तक्षेप व ऐसी व्याख्या (आंदोलन के प्रति) क्या उचित है व उनके अधिकार क्षेत्र में है? शासन की नजर में बगैर अनुमति चल रहे आंदोलन के प्रति वह कब तक उनसे कोई वाद-संवाद स्थापित किये बिना मूक दर्शक बने रह सकेगा? विपक्ष की नजर में संसद द्वारा वैधानिक रीति से पूर्ण बहुमत द्वारा सीएए कानून के पारित हो चुकने के तत्काल बाद उसके विरोध में क्या जनतात्रिंक रूप से आंदोलन चलाया जा सकता है? और अंत में एक नागरिक की हैसियत से, एक नागरिक की नजर में समस्त सम्बन्धित पक्षों द्वारा शाहीन बाग में जो तमाशा किया जा रहा है, और आवश्यक कार्यवाही कर सकने वाले अधिकार प्राप्त समस्त पक्षकार तमाशबीन होकर रह रहे है, ऐसी स्थिति में नागरिक मूक दर्शक होकर कब तक भुगतता रहे। लगता है इन सब प्रश्नों के जवाब और प्रति जवाब में ही, न केवल शाहीन बाग की समस्या का हल निहित है, वनण आंदोलन की समस्या का हल भी संभव हो सकता है।
यह समझ से परे है। जब कोई भी व्यक्तियों का समूह, संस्थाएं या राजनैतिक दल किसी भी मुद्दे को लेकर आंदोलन करना चाहते हैं तो, उन्हे आंदोलन करने के लिए विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में ‘‘क्या अनुमति’’ की आवश्यकता है? क्या संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों के तहत संवैधानिक सीमा में रहते हुये, शांतिपूर्ण आंदोलन का अधिकार नागरिकों को नहीं है? यह एक बड़ी बहस का प्रश्न है? इसके लिए आपको सबसे पहले यह समझना होगा कि आखिर आंदोलन है क्या? आंदोलन की आवश्यकता क्यों पड़ती है? आंदोलन का मतलब क्या होता है? जब संवैधानिक रूप से चुनी गई सरकार जनादेश के विपरीत, जनता की आकांक्षाओ व हितो के विपरीत कोई कार्य करती है, शासन चलाती है और ऐसे किसी भी मुद्दे पर अन्य समस्त तरीकों (बातचीत, ज्ञापन या संवाद के माध्यम) से प्रस्तुत किये गये विरोधों को जब सरकार नहीं सुनती है, तभी आंदोलन की उत्पत्ति होती है। आंदोलन का मकसद होता है, समूह का एक जगह एकत्रित होकर किसी मुद्दे पर सरकार का प्रभावी रूप से ध्यान आकर्षित करना, ताकि मजबूर होकर सरकार उस समस्या के निदान हेतु कार्यवाही करे। ‘‘आंदोलन’’ संगठित सत्त्ता तंत्र या व्यवस्था द्वारा शोषण और अन्याय किए जाने के बोध से उसके खिलाफ पैदा हुआ संगठित और सुनियोजित अथवा स्वतः स्फूर्त सामूहिक संघर्ष है। किन्तु ‘‘संघर्ष और ‘‘आंदोलन’’ एक चीज नहीं है।
लोकतांत्रिक देश में चुनी हुई सरकार का ही यह दायित्व होता है कि वह अपने देश, क्षेत्र के नागरिकों के हित में सुुशासन, कल्याण, प्रगति, समृद्धि हेतु यथा संभव समस्त कार्य करे, शासन चलाये। ऐसा होने पर शायद आंदोलन की आवश्यकता ही नहीं पडे़गी। लेकिन विद्यमान राजनैतिक परिस्थितियों के रहते एवं आज के राजनेताओं के ‘‘प्रचंड गुणों’’ के तहत आज की राजनीति में ऐसी आदर्ष स्थिति संभव नहीं है। इसीलिए आंदोलन हो रहे है। प्रायः यह अनुभव में आया है कि जब तक सरकारी कर्मचारियों से लेकर आम जन की दिनचर्या में कोई रूकावट न डाली जाये तब तक सरकार का ध्यान उस मुददे पर जाता ही नहीं है। अतः यह समझाना कि आंदोलन से आम जनता से लेकर शासकीय सेवकांे तक को तकलीफ होती है व शासकीय कार्य में अवरोध होता है इसलिए ऐसे आंदोलन नहीं करना चाहिए, गलत है। इसका मतलब तो यह होगा कि आंदोलन करना ही नहीं चाहिए। इसलिये आंदोलन तथा सहमति व सुविधा शब्दों का परस्पर कोई तालमेल नहीं है। क्योंकि आंदोलन का मूलतत्व ही विरोध व दबाव की भावना होती है।
निश्चित रूप से शांतिपूर्ण आंदोलन ही संवैधानिक व्यवस्था होती है। कानून का शांतिपूर्ण तरीके से उल्लघंन ही संवैधानिक आंदोलन है, जैसे 4 से ज्यादा एकत्रित होकर धारा 144 का उल्लघंन करना। लेकिन हंसी तब आती है, जब ‘‘आंदोलन’’ के लिये सरकार-प्रशासन से अनुमति लेने की बात की जाती है, फिर वह आंदोलन कैसा? सरकार से अनुमति ही लेना है, तो वह सरकार जिसके द्वारा मांगो पर विचार न करने के कारण ही आंदोलन की स्थिति बनती है, अनुमति क्यों कर देगी? कई बार तो सरकार उसके लिए चर्चा करने को भी उचित नहीं समझती है। ऐसे में सहमति प्राप्त आंदोलन एक ढकोसला मात्र बन कर रह जावेगा। यह बात जरूरी है, कि आंदोलन करने के पूर्व सरकार को निश्चित समय सीमा के भीतर कार्यवाही करने की चेतावनी जरूर देनी चाहिए, ताकि सरकार को उस विषय पर विचार कर के कार्यवाही करने का पर्याप्त अवसर मिल सकें।
हमने तो यह भी देखा है कि संसद में कानूनी रीति से सीएए विधेयक पारित होने के तुरंत बाद ही उसके विरोध में आंदोलन हो रहा है। ठीक उसी प्रकार जैसे एक पार्टी के द्वारा जबरदस्त बहुमत से चुनाव जीतने के बाद भी दूसरे दिन से ही विरोधी पक्ष उसकी सरकार का विरोध करना प्रांरभ कर देते है। क्या यह कदम अतिश्योक्ति पूर्ण नहीं कहलायेगा? मतलब साफ है! इसे जनादेश का अपमान कहंे या यह कहें कि पांच साल के लिए प्राप्त जनादेश के सम्मान की कोई न्यूनतम समय सीमा हमारे लोकतंत्र में न तो अब तक रखी गई और न ही व्यवहार में पाई जाती है। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल को लगातार तीसरी बार (तीन चौथाई) बहुमत मिलने के बावजूद भगवान हनुमानजी के मुद्दे पर विपक्ष द्वारा उनको घेरने का प्रयास करना जनादेश के अपमान का एक ज्वलंत उदाहरण आपके सामने है।
‘आंदोलन’ करने के कई स्वरूप है। धरना, प्रर्दशन, जुलूस, रैली, सांकेतिक हडताल, कलम बंद हड़ताल कम्रिक हड़ताल, अनिश्चित कालीन हड़ताल, भूख हड़ताल, आमरण अनशन, चक्काजाम, रेल-बस रोको आंदोलन, भारत या प्रदेश बंद, मौन व्रत आदि-आदि। आपको याद होगा वर्ष 1974 में जार्ज फर्नाडीज के नेतृत्व में ऑल इण्डिया रेलवे फेडरेशन द्वारा रेल रोकने के देशव्यापी आंदोलन के कारण पूरे देश में हाहाकर मच गया था। इससे आम नागरिकों को कितनी तकलीफ हुई थी, तब उस आंदोलन की तत्कालीन विपक्ष जो वर्तमान में सत्तापक्ष है ने आलोचना क्यों नहीं की थी। हमारे देश में तो नियमानुसार कार्य करने को भी आंदोलन कहा जाता है। मतलब साफ है, शासन चलाने में जब आप कोई अवरोध पैदा कर शासक व नागरिकों को पिन चुभायेगें तो ही आंदोलन का अस्तित्व महसूस होगा। आंदोलन राजनीतिक सुधारों या परिवर्तन की आकांक्षा के अलावा सामाजिक, धार्मिक, पर्यावरणीय या सांस्कृतिक लक्ष्यों की प्राप्ती के लिए भी चलाया जाता है। उदाहरणस्वरूप चिपको आंदोलन पेड़ों की रक्षा के लिए चलाया गया आंदोलन था।
यदि हम जनता व सरकार को आंदोलन से होने वाली तकलीफो को ध्यान में रखते हुये आंदोलन की रूपरेखा बनायेगें तो फिर आपको अपने घर या संस्था के आफिस कम्पाउड़ से ही आंदोलन करना होगा। तभी किसी भी नागरिक को तकलीफ नहीं होगी। लेकिन क्या तब वह आंदोलन रह जायेगा (जिस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये किया जा रहा है) प्रश्न यह है। किसी भी सरकार को आंदोलन से निपटने के लिये समस्त कानूनी व संवैधानिक हथियार प्राप्त है, जिसका उपयोग करके वह आंदोलन से उत्पन्न जनता-कर्मचारियों को होने वाली असुविधाओं से बचा सकती है। लेकिन आंदोलनकारियों से स्वयं यह अपेक्षा करना क्या उचित होगा? यह आंदोलन की मूल व प्रभावी भावना को समाप्त करने जैसे ही होगा। यह कहावत तो आपने सुनी ही है कि ‘‘जंगल में मोर नाचा किसने देखा’’ तथा ‘‘जब तक बच्चा रोयेगा नहीं माँ दूध नहीं पिलायेगी।’’ उदाहरण स्वरूप मणीपुर की इरोम शर्मिला के 15 साल से ज्यादा भूख हड़ताल पर ‘आफ्स्पा’ कानून के विरोध में बैठने के बावजूद सरकार के कान में ‘जू’ तक नहीं रेगीं। आंदोलन में उपरोक्त भाव ही निहित है।
अन्त में शाहीन बाग जैसे आन्दोलनों को हल करके जनता की तकलीफें दूर करने का एक उपाय यह समझ में आता है कि अनजान, अनभिज्ञ बच्चो व बूढी दादी-नानी को जिन्होनें वहॉ बैठाया तथा जो उनके खाने, पीने, सोने, जीने इत्यादि का प्रबन्ध कर रहे है जैसा कि भाजपा व सरकार के कुछ नुमाइंदो आरोप लगा रहे है, उन सबको सीधे जेल में क्यो नही डाल दिया जाता है? “फन्ड बन्द, तो आन्दोलन बन्द।“ लेकिन केन्द्रीय सरकार जिसकी सीधे जिम्मेदारी है के स्तर पर कोई भी कार्यवाही न करना (दिल्ली चुनाव सम्पन्न हो जाने भी हो जाने के बाद भी) सातवे आष्चर्य के समान ही है, क्योकिं इसके पूर्व देष के किसी भी मांग में हुये आंदोलन का केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकार ने सफलतापूर्वक सामना कमोबेष कर हल निकाला है। फिर यहॉ बेरूखी क्यों? इसके क्या यह इंगित नहीं होता है कि भारतीय दंड संहिता एवं दंड प्रक्रिया में आंदोलन शब्द को परिभाषित करके तथा उसमें अन्य विधा जोडकर भविष्य में उसे संज्ञेय अपराध बना दिया जा सकता है।