दिल्ली प्रदेश (?) विधानसभा के चुनाव हो रहे है, जिसकी चर्चा पूरे देश में हो रही है। दिल्ली देश की राजधानी होने के कारण अभी तक उसे वैसे पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सका है, जैसे अन्य राज्यों को मिला है। परिस्थितियों वश उसे पूर्ण राज्य व केन्द्रशासित प्रदेश के बीच की स्थिति में ही रखा गया है। शुरू-शुरू में यहां पर मुख्य कार्यकारी परिषद हुआ करती थी। यदि दिल्ली की मुम्बई से तुलना करे तो दोनों में ज्यादा फर्क नहीं है। वृहन् मुम्बई में महानगर पालिका (बीएम
सी) के द्वारा शासन चलाया जा रहा है। मुम्बई में महानगर पालिका वार्ड का सदस्य पार्षद कहलाता है, जबकि दिल्ली में पुराने वार्ड अब विधानसभा क्षेत्र बना दिए गए है, जहां के पार्षद ही बदली व्यवस्था के तहत विधायक कहलाते है। शायद इन्ही कारणों से केन्द्र में भाजपा के शासन के साथ दिल्ली जो देश की राजधानी होने के कारण केन्द्र बिन्दु है विधानसभा में जहां भाजपा के पिछले 20 वर्षो से भी ज्यादा समय से शासन से वंचित रहने के कारण, भाजपा द्वारा इस चुनाव को नाक के बाल बना लेने के परिणाम स्वरूप ही यह चुनाव परस्पर प्रतिद्वंवदता की चरम सीमा तक पहंुचते दिख रहा हैं।
याद कीजिए, टीएन शेषन की कार्यप्रणाली को, जिसके फलस्वरूप वे भारत में ही नहीं, बल्कि विश्व के अन्य लोकतांत्रिक देशों में भी अपनी अमिट छाप छोड़ गये है। शेषन के कार्यकाल के पूर्व, चुनाव जिस अव्यवस्थता के साथ धन व बाहुबल के आधीन हुआ करते थे, मतदाता उसके अभ्यस्त हो चुके थे। स्वच्छ व निष्पक्ष चुनाव के लिये आवश्यक कानूनी प्रावधान व आचार संहिता किताबों में तो थी, लेकिन धरातल पर वास्तविक रूप में वह कभी नहीं उतर पायी। टीएन शेषन देश के ऐसे सर्वप्रथम मुख्य चुनाव आयुक्त थे, जिन्होंने आते ही पहली बार चुनावी व्यवस्था में कई प्रभावी ऐतिहासिक व्यवस्थात्मक सुधार कर इतिहास में अपने को अमिट कर गये। मुख्यतः इस कारण ही चुनाव आयोग के अस्तित्व को नागरिकों ने पहली बार वास्तविक रूप में महसूस किया। उन्होंने सरकारी भवनों पर प्रचार प्रसार पर प्रतिबंध लगाया। रोड़ पार कर बैनर नहीं लगा सकते तथा जुलूस में शामिल होने वाले व्यक्तियों व वाहनों की सीमा निश्चित की इत्यादि इत्यादि। निजी सम्पत्तियों पर भी बिना अनुमति के प्रचार की मनाही कर दी गई। समस्त चुनावी खर्चों को पारदर्शी बनाने तथा सीमित कर सकने के उद्देश्य से व्यय का हिसाब रखना बंधनकारी बनाया गया। चुनाव खर्चों के नगद भुगतान की सीमा बांध दी गई व उसकी जांच के लिये एक एकाउट ऑफिसर की पृथक से नियुक्ति की गई। प्रचार प्रसार की समय सीमा भी तय की गई। पैसे बांटनें व बूथों को लूटने से रोक के लिये समुचित प्रभावी व्यवस्था की गई। ये सब प्रतिबंध न केवल लगाए गए वरण उन सबको अपेक्षित पूर्ण कठोरता के साथ सफलता पूर्वक लागू भी कराया गया। इससे भी बड़़ी बात यह रही कि उपरोक्त समस्त सुधार तत्समय प्रचलित चुनाव कानून व आचार संहिता के चलते ही किये गये। शेषन को चुनावी नियम में संशोधन की कतई आवश्यकता नहीं पड़ी। उन्होंने अपने कार्यकलापों व कार्यप्रणाली के द्वारा यह सिद्ध कर दिया था कि, यदि व्यक्ति अपने कर्त्तव्यों के प्रति ईमानदार है, व उसकी कार्य सम्पन्न करने/कराने की दृढ़ इच्छाशक्ति रहे तो, वह वर्तमान प्रचलित कानूनों को ही कड़ाई से व सच्ची भावना से लागू करके स्वच्छ, निष्पक्ष व सस्ते चुनाव सफलतापूर्वक करवा सकता है। अन्यथा कानून में कड़क संशोधन कर देने के बावजूद इच्छाशक्ति के अभाव में सुधार लाना संभव नहीं है। यह उनकी कार्यशैली का ही खौंफ था कि उस समय एक मजाक बड़ा प्रचलित था, भारतीय राजनीति सिर्फ दो नाम से ही ड़रते है, एक खुदा और दूसरे टीएन शेषन से। इसीलिये वे ‘‘अल्सेशियन’’ भी कहलाए, क्योंकि उन्होंने कहा ‘‘आई ईट पालिटीशियसं फॉर ब्रेक फास्ट’’।
इसीलिए अब दिल्ली में हो रहे ताजा विधानसभा चुनाव में उत्पन्न विशिष्ट विकट विकृत परिस्थितियों ने शेषन की याद को एकदम ताजा कर दिया है। सभी पार्टियों द्वारा परस्पर प्रतिद्वन्दियों के प्रति जिस तरह के अपशब्दों, गालियो,ं द्विअथी मुहावरों का इन चुनावों में बेरोकटोक बेतहाशा उपयोग हो रहा है, तथा उन अपशब्द-बाणों के द्वारा चुनाव को हिन्दु-मुस्लिम बनाया जा कर मानो लोकतंत्र की स्वच्छता, स्वतंत्रता व निष्पक्षता को ही खतरे में ड़ाल दिया गया है। दिल्ली चुनाव में जो राजनैतिक पाटियां चुनाव में भाग ले रही हैं, उनके द्वारा चुनावी दंगल में ‘‘आतंकवादी’’, ‘‘देशद्रोही’’ ‘‘पाकिस्तानी’’ और न जाने कौन-कौन से शब्दों के द्वारा अंगीकृत व अलंकीकृत किया जा रहा हैं। देशद्रोही को गोली मारो, हिन्दुस्थान-पाकिस्तान के बीच चुनाव है, शाहीन बाग में फिदाइन बम्ब तैयार किये जा रहे है, बिरयानी खिलाई जा रही है, आदि-आदि।
गुणवक्ता (मेरिट्स) व योग्यता (परफार्मेंस) के मूल आधार पर ही जो वोट मांगे जाने चाहिए थे, वे मापदंड अब बिल्कुल ही दर किनार कर दिये गये हैं। इस पर अविलम्ब रोक लगाने की आज के समय की महतीं आवश्यकता है। इसके लिए शब्दों के ‘चुनाव’ व भाषण की समय सीमा पर प्रतिबंध लगाना अत्यावश्यक हो गया है जो कि बोलने के मूल अधिकार में प्रावधित भी (सीमित उपयुक्त प्रतिबंध) है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार शेषन ने पूर्व में आचार संहिता लागू कर कड़ाई से उसका पालन करवाया। ऐसे उपयुक्त प्रतिबंध लगा दिए जाने से इस तरह के साम्प्रदायिक भाषण व बे लगाम होती जबान-गाली-गलौज एवं बहु अर्थी व सार हीनता लिये निकृष्ट शब्दों के प्रयोग इत्यादि अनर्गल बातों पर स्वयं मेव प्रतिबंध लग जायेगा। तभी निष्पक्ष स्वच्छ व सही लोकतांत्रिक चुनाव की कल्पना को धरातल पर उतारा जा सकता है। यह कार्य अन्य कोई ‘‘शेषन‘‘ ही कर सकता है। इसीलिए शेषन को पुनः तुरन्त धरती पर उतारे जाने की आवश्यकता है।
यद्यपि आज की राजनीति में निम्नतम स्तर से भी नीचे जाकर स्तरहीन बयानों की विवेचना/आलोचना करना समय की बरबादी ही होगी। परन्तु चुनावी राजनीति के बहाने, जीत का अंकगणित बैठाने के लिए, वोट में फायदे की संभावना को तलाशने के लिए क्या कोई भी, कुछ भी, बयान कभी भी, दें सकता है। विषेषकर कानून मंत्री व गृहमंत्री जैसे जिम्मेदार पद पर बैठे हुए नेतागणों को क्या ऐसे बयान देना चाहिए, जो उनके स्वतः के ही विभाग के कर्त्तव्यों व दायित्वों की धज्जियाँ उड़ाते हुये नजर आ रहे है? क्या तथाकथित राजनैतिक फायदे की दृष्टि से इस सीमा तक बयान बाजी की जाये, जो देश की अख्ंाडता, सुरक्षा व कानूनी व्यवस्था के लिए बिलकुल भी स्वीकार्य न हो? एक तरफ तो कानून व्यवस्था के नाम पर प्रशासन आंदोलन, जुलूस, धरना व प्रदर्शन इत्यादि आयोजित करने के लिए राजनैतिक पार्टी के नेताओं को अनुमति नहीं देते हैं, वही दूसरी ओर बिना किसी वैधानिक अनुमति के लगभग 54 दिन से शाहीन बाग में यह धरना चलने दिया जा रहा है। ऐसे धरने से उस इलाके के लोगों के मूलभूत अधिकारांे का हनन-खनन व अंग-भंग हो रहा है जिस पर समस्त पक्ष दल नेता कार्यकर्ता आदि आश्चर्य जनक रूप से लगभग मौन है।
भाजपा के गृहमंत्री की आंखों के सामने शाहीन बाग एक विचार धारा बनाई/बनते जा रही है, ऐसे बयान सम्पूर्ण भाजपा नेतृत्व द्वारा लगातार दिये जा रहे है। लेकिन उसे रोकने से लेकर हटाने तक का कोई भी सार्थक प्रयास आज तक केन्द्र सरकार द्वारा क्यो नहीं किया गया? इस प्रश्न का जवाब तो स्वयं अमित शाह को ही देना होगा, जिन्होंने स्वतः भी ऐसा ही प्रश्न उठाया है।
दिल्ली के सांसद प्रवेश वर्मा ने अरविंद केजरीवाल को आतंकवादी कहा है। इसे केजरीवाल ने बड़ा भावनात्मक मुद्दा बनाने की कोषिष की है। उन्होंने कहा “मैं दिल्ली का बेटा हूं और मुझे भाजपा आतंकवादी बता रहे“ है। परन्तु केजरीवाल यह तथ्य भूल गये कि एक समय उन्होने स्वयं के लिये ही कहा था “हाँ मैं आराजकतावादी हूँ“। यहाँ नोट करना जरूरी है कि आराजकतावादी व आतंकवादी मंें 19-20 का ही तो अंतर होता हैं।
इस तरह के बयानों व गैर वैधानिक-कानूनी आंदोलन को रोकने के लिये चुनाव आयोग द्वारा कोई पहल न करने की अर्क्रमण्यता ने ही दिल्ली के समस्त नागरिकों को शेषन को ‘ऊपर’ से धरती पर बुलाने की प्रार्थना करने के लिये मजबूर अवश्य किया होगा। काश! चुनाव आयोग की आत्मा में अभी भी कोई शेषन पैदा हो जाए। वैसे कुछ-कुछ इंगित तो अवश्य हो रहा था, जब चुनाव आयुक्त ने गोली चलाने वाले आरोपी की पूरी जांच किये बिना ही उसके आम पार्टी से तथाकथित संबंध को सार्वजनिक करने के गलत कदम पर डी.सी.पी. राजेश देव के खिलाफ कार्यवाही कर उन्हे हटा दिया, जो यथार्थ में एक स्वागत योग्य कदम हो सकता था। लेकिन योगी के 1 फरवरी के अरावल नगर की रैली में दिये बयान पर 6 तारीख को नोटिस जारी कर चुनाव प्रचार समाप्त होने के बाद 7 तारीख को जवाब मांगना, क्या चुनाव आयोग द्वारा ही आचार संहिता का वैधानिक रूप से मजाक नहीं बनाया जा रहा है? स्पष्ट है, दिल्ली के इस चुनावी संग्राम में चुनाव आयोग के ठीक नाक के नीचे वह अपनी नाक बचाने में असफल रहा है। याद कीजिए! टीएन शेषन के उस शख्त रूख को जिसके चलते तत्कालीन राज्यपाल गुलशेर अहमद का अपने पुत्र के पक्ष में चुनाव प्रचार करने के कारण पद से इस्तीफा देना पड़ा था।
इस तरह के बयानों व गैर वैधानिक-कानूनी आंदोलन को रोकने के लिये चुनाव आयोग द्वारा कोई पहल न करने की अर्क्रमण्यता ने ही दिल्ली के समस्त नागरिकों को शेषन को ‘ऊपर’ से धरती पर बुलाने की प्रार्थना करने के लिये मजबूर अवश्य किया होगा। काश! चुनाव आयोग की आत्मा में अभी भी कोई शेषन पैदा हो जाए। वैसे कुछ-कुछ इंगित तो अवश्य हो रहा था, जब चुनाव आयुक्त ने गोली चलाने वाले आरोपी की पूरी जांच किये बिना ही उसके आम पार्टी से तथाकथित संबंध को सार्वजनिक करने के गलत कदम पर डी.सी.पी. राजेश देव के खिलाफ कार्यवाही कर उन्हे हटा दिया, जो यथार्थ में एक स्वागत योग्य कदम हो सकता था। लेकिन योगी के 1 फरवरी के अरावल नगर की रैली में दिये बयान पर 6 तारीख को नोटिस जारी कर चुनाव प्रचार समाप्त होने के बाद 7 तारीख को जवाब मांगना, क्या चुनाव आयोग द्वारा ही आचार संहिता का वैधानिक रूप से मजाक नहीं बनाया जा रहा है? स्पष्ट है, दिल्ली के इस चुनावी संग्राम में चुनाव आयोग के ठीक नाक के नीचे वह अपनी नाक बचाने में असफल रहा है। याद कीजिए! टीएन शेषन के उस शख्त रूख को जिसके चलते तत्कालीन राज्यपाल गुलशेर अहमद का अपने पुत्र के पक्ष में चुनाव प्रचार करने के कारण पद से इस्तीफा देना पड़ा था।
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