राष्ट्रीय लॉक डाउन के चलते उत्पन्न निशब्दता को शुक्रवार अल सुबह (भोर) जालना औरंगाबाद (महाराष्ट्र) रेलवे ट्रैक पर थक हार कर सो (गहन निद्रामग्न) रहे 16 में से 15 प्रवासी मजदूरों की मालगाड़ी के उनके ऊपर से निकल जाने से वीभत्स दर्दनाक मौत हो गई। उक्त मौत ने छाई निस्तब्छता को ऊगते सूरज के पूर्व के अंधेरे में जिस प्रकार चित्कारती, मानवीय चीखों ने कैमरों को सबूत दिए बिना, भंग किया उसे शब्दों, भावों और दृश्यों में व्यक्त करना एक मानव के लिए संभव नहीं है। मजदूर की भूख की तड़पन, सूर्य देवता के तपस में सहनीय नहीं होती है, लेकिन चन्द्रमा की सुहावनी रात्री के अंधकार में भूखा मजदूर गहरी नींद में सोकर इतना सकून महसूस करता है कि उसके जीवन काल को रौंदता शोर-कोलाहल भी उसके निंद्रा को तोड़ नहीं पाता है और वह मजदूर चिर निंद्रामग्न होकर ईष्वर को प्यारा हो जाता है। नींद का यह सुख एक मजदूर को तो प्राप्त है। लेकिन एक भर-पेट व्यक्ति के पास शायद नहीं, क्योंकि वह निंद्रा के आमास में अपने जीवन की व्यवहारिक चिंताओ के बीच घूमता रहता है।
उक्त र्दुघटना प्राकृतिक है, मानव निर्मित है, रेलवे की लापरवाही के कारण हुई है या आत्महत्या है अथवा गैर इदातन हत्या है, इन सब मुद्दों की आहुतियाँ तो राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोपों के चलते गठित होने वाले आयोग की वेदी पर लग जाएगी। लेकिन इससे हमारे सामने खड़ा हुआ यह विराट प्रश्न समाप्त नहीं हो जायेगा कि आखिर इस देश का गरीब मजदूर कब तक इस तरह की असामयिक मौत को गले लगा कर और जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिए अपने एक नागरिक होने के कर्तव्य की मजबूरी समझ कर निभाता रहेगा। आगे क्या यह कर्तव्य बोध (यह स्थिति) की मजबूरी इस देश में सिर्फ गरीब मजदूरों के साथ ही रहेगी, यह एक विराट यक्ष प्रश्न है?
आप और हम सब जानते हैं कि, राष्ट्रीय लॉक डाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों के संबंध में नीति बनाने को लेकर केंद्र व राज्य सरकारें हमेशा असमंजस में रही हैं। उनकी अस्पष्ट नीति के चलते इन प्रवासी मजदूरों की समस्याओं का निश्चित सकारात्मक सफलतापूर्वक निदान नहीं हो पाया। इन सबका दुष्परिणाम ही उक्त रेलवे ट्रैक की दुखद घटना है, इसको खुले दिल से स्वीकार कर लेने में कतई कोई संकोच नहीं होना चाहिए।
प्रवासी मजदूरों के संबंध में समय-समय पर जारी किए गए आदेशों के क्रम व गुणत्ता (मेरिटस) को देखिए, स्थिति स्वयमेव इतनी स्पष्ट होगी कि आप स्वयं ही समझ जाएंगे। प्रवासी मजदूरों को प्रांरभ में अपने ही स्थानों में रुकने का आदेश देना। बाद में फिर विदेशों से अपने नागरिकों की स्वदेश वापसी व कोटा से विद्यार्थियों के अपने-अपने प्रदेशों में जाने के लिये कुछ राज्य सरकारों द्वारा घोषित राष्ट्रीय लाक डाउन की नीति के विरूद्ध आवागमन की अनुमति देने के बाद बढ़ते दबाव को देखते हुए, प्रवासी मजदूरों को भी अपने-अपने प्रदेशों में लौटने की अनुमति देना। लेकिन कुछ राज्यों द्वारा प्रवासियों को अपने प्रदेश में लाने का विरोध। पहले बस से जाने की गृहमंत्रालय की अव्यवहारिक अनुमति। और फिर 24 घंटे के भीतर ही रेलवे द्वारा श्रमिक ट्रेन चलाने की घोषणा करना। पहले राज्य सरकारों के माध्यम से टिकट देना, फिर टिकट न लेने की घोषणा। पहले निशुल्क यात्रा की स्पष्ट घोषणा नहीं की गई थी, जो बाद में की गई)। तदुपरान्त स्पष्टीकरण भाड़ा 85 प्रतिशत रेल्वे द्वारा व पंद्रह प्रतिशत राज्य सरकारों द्वारा वहन किया जायेगा। फिर कुछ राज्य सरकारों द्वारा 15 प्रतिषत भाड़े की राशि को वहन करने में टालमटोल करना मना करना व असमंजस उत्पन्न कर देना। बिहार सरकार द्वारा 14 दिन की कोरोन्टाइन अवधि की समाप्ति के पश्चात ही मजदूर को किराये की वापसी का कथन। कुछ सरकारों द्वारा श्रमिकों से प्रस्थान के पूर्व कोरोना टेस्ट की मांग। इस तरह के तमाम प्रशासनिक आदेश एक दूसरे के पूरक न होकर, विरोधाभासी निकलते रहे और ये प्रवासी गरीब मजदूर इन पाटों के बीच पिसते गये।
इन सब परिस्थितियों से उत्पन्न भूख, भुखमरी, मानसिक तनाव, अवसाद और परिवारों से मिलने की दिन प्रतिदिन बढ़ती जाती तड़पन ने उनके मन में निराशा के भाव उत्पन कर दिये। इसके अलावा राज्य और राष्ट्रीय राजमार्गों पर पुलिस बलों द्वारा जहाँं-तहाँं लगाए गए चेकिंग बैरीकेड़ के रहते इन प्रवासी मजदूरों ने रोटी लेकर (अज्ञानता वश) रेलवे ट्रैक पर चलने को अपने जीवन का आधार माना ताकि वे इन रोटी व पटरी के बल पर जीवन की पटरी को भी अपने गृह नगर पहुंचकर कुछ दुरूस्त कर पाये। परन्तु उनको यह वास्तविक ज्ञान नहीं था कि रेलवे ट्रैक पर मालगाडियाँ भी चल रही हैं। शायद यात्री गाड़ी व मालगाड़ी में विभेद न कर पाने की परिस्थितिजन उत्पन्न बुद्धि शून्य व अविवेक ने उन्हें रेलवे ट्रैक पर चलने के लिए मजबूर कर दिया। जिसकी कुछ व्यक्तियों क्षेत्रों द्वारा आलोचना करना, श्रमिकों की परिस्थिति जन उत्पन्न अनभिज्ञता का मजाक उड़ाना है, जो वास्तव में निंदनीय है।
प्रश्न अब यह उत्पन्न होता है की मध्य प्रदेश के शहडोल व उमरिया जहां के वे मजदूर निवासी हैं, केन्द्र सरकार ने 2 लाख महाराष्ट्र सरकार ने 5 लाख व मध्य प्रदेश सरकार द्वारा मात्र 5 लाख की अनुग्रह राशि की घोषणा की गई। (शायद सरकार ने इसे एक स्वभाविक दुर्घटना माना हो) क्या यह अल्प राशी उचित है? इसी कोरोना कॉल में देश की विभिन्न सरकारों ने डाक्टरों सहित स्वास्थ्य कर्मियों व पुलिस कर्मचारियों को इस कोरोना बीमारी के संक्रमण को रोकने के कर्तव्य निर्वहन के दौरान उनकी मृत्यु हो कर शहीद हो जाने की स्थिति में 50 लाख से एक करोड़ तक न केवल उन्हें अनुग्रह राशि दिए जाने की घोषणा की गई है, बल्कि अन्य सुविधाओं के साथ उनके परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने की भी पेशकश की गई हैं। क्या ये मृत मजदूर कोरोना वीर नहीं हैं यह एक बड़ा ही मार्मिक प्रश्न है। एक बेचारे बेगुनाह (श्रमिक) व्यक्ति का कुव्यवस्था, अव्यवस्था के चलते व्यवस्था (सिस्टम) की बलि चढ़कर मौत के मुंह में समा जाना बलिदान नहीं तो क्या हैं? और यदि यह बलिदान है तो, बलिदान तो वीरो द्वारा ही दिया जाता है। तब ये बलिदानी कोरोना वीर कैसे नहीं हुए? शायद इसलिए कि ये स्वयं को वोट बैंक नहीं बना सके या आज के बाजार में इनकी मीडिया के सामने या राजनैतिक, सार्वजनिक जीवन में वह ब्रांडिंग नहीं हुई जैसी अन्य कोरोना वीरों की हुई है। (यहां अन्यों के हक पर आपत्ति नहीं की जा रही है।)
एक महत्वपूर्ण बात और! इन मजदूरों के दुर्घटनाग्रस्त होकर उनकी मृत्यु (शहीद) हो जाने से आपराधिक कानून व्यवस्था का प्रष्न भी पैदा होता है। इस घटना के लिए नियुक्त नोड़ल आफिसर जिम्मेदार समस्त प्रशासनिक अधिकारियों (रेल्वे सहित) के खिलाफ धारा 307 का प्रकरण क्यों नहीं दर्ज किया जाना चाहिए? आपको याद दिलाना चाहता हूं, उत्तराखंड में जब तबलीगी मरकज का मामला तेजी से बढ़ाया और बार-बार अनुरोध करने के बावजूद तबलीकी अपनी जांच कराने के लिए प्रशासन के समक्ष उपस्थित (सरेंडर) नहीं हुए। तब उत्तराखंड प्रदेश के डीजीपी अतुल कुमार रजूड़ी ने कहा कि यदि ऐसे तबलीगी जो कोरोना टेस्टिंग के लिए स्वयं को उपलब्ध नहीं करा रहे हैं, यदि पुलिस प्रशासन उनको पकड़ कर लाता है, और यदि वे संक्रमित पाए जाते है व उनके संपर्क से दूसरा कोई व्यक्ति संक्रमित होता है। तब उनके खिलाफ आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 सहित भारतीय दण्ड सहिंता के अतंर्गत धारा 307 का अपराध दर्ज किया जाएगा। डीजीपी वहीं नहीं रुके, बल्कि एक कदम और आगे जाकर उन्होंने यह भी कहा कि यदि ऐसे किसी संक्रमित व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तब अपराध की धारा 307 धारा 302 में परिवर्तित हो जाएगी।
इस बात में शायद कोई शक होगा कि उक्त हादसा से सम्पूर्ण तंत्रों की असफलता का दुष्परिणाम है? इसलिए इस घटना से संबंधित व्यवस्था (सिस्टम) में लगे सभी अधिकारियों की जांच कर दोषी अधिकारियों को चिन्हित किया जाकर कार्रवाई की जावें, ताकि भविष्य में इस तरह की गलतियों की पुर्नवृत्ति न हो सकें।
आप और हम सब जानते हैं कि, राष्ट्रीय लॉक डाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों के संबंध में नीति बनाने को लेकर केंद्र व राज्य सरकारें हमेशा असमंजस में रही हैं। उनकी अस्पष्ट नीति के चलते इन प्रवासी मजदूरों की समस्याओं का निश्चित सकारात्मक सफलतापूर्वक निदान नहीं हो पाया। इन सबका दुष्परिणाम ही उक्त रेलवे ट्रैक की दुखद घटना है, इसको खुले दिल से स्वीकार कर लेने में कतई कोई संकोच नहीं होना चाहिए।
प्रवासी मजदूरों के संबंध में समय-समय पर जारी किए गए आदेशों के क्रम व गुणत्ता (मेरिटस) को देखिए, स्थिति स्वयमेव इतनी स्पष्ट होगी कि आप स्वयं ही समझ जाएंगे। प्रवासी मजदूरों को प्रांरभ में अपने ही स्थानों में रुकने का आदेश देना। बाद में फिर विदेशों से अपने नागरिकों की स्वदेश वापसी व कोटा से विद्यार्थियों के अपने-अपने प्रदेशों में जाने के लिये कुछ राज्य सरकारों द्वारा घोषित राष्ट्रीय लाक डाउन की नीति के विरूद्ध आवागमन की अनुमति देने के बाद बढ़ते दबाव को देखते हुए, प्रवासी मजदूरों को भी अपने-अपने प्रदेशों में लौटने की अनुमति देना। लेकिन कुछ राज्यों द्वारा प्रवासियों को अपने प्रदेश में लाने का विरोध। पहले बस से जाने की गृहमंत्रालय की अव्यवहारिक अनुमति। और फिर 24 घंटे के भीतर ही रेलवे द्वारा श्रमिक ट्रेन चलाने की घोषणा करना। पहले राज्य सरकारों के माध्यम से टिकट देना, फिर टिकट न लेने की घोषणा। पहले निशुल्क यात्रा की स्पष्ट घोषणा नहीं की गई थी, जो बाद में की गई)। तदुपरान्त स्पष्टीकरण भाड़ा 85 प्रतिशत रेल्वे द्वारा व पंद्रह प्रतिशत राज्य सरकारों द्वारा वहन किया जायेगा। फिर कुछ राज्य सरकारों द्वारा 15 प्रतिषत भाड़े की राशि को वहन करने में टालमटोल करना मना करना व असमंजस उत्पन्न कर देना। बिहार सरकार द्वारा 14 दिन की कोरोन्टाइन अवधि की समाप्ति के पश्चात ही मजदूर को किराये की वापसी का कथन। कुछ सरकारों द्वारा श्रमिकों से प्रस्थान के पूर्व कोरोना टेस्ट की मांग। इस तरह के तमाम प्रशासनिक आदेश एक दूसरे के पूरक न होकर, विरोधाभासी निकलते रहे और ये प्रवासी गरीब मजदूर इन पाटों के बीच पिसते गये।इन सब परिस्थितियों से उत्पन्न भूख, भुखमरी, मानसिक तनाव, अवसाद और परिवारों से मिलने की दिन प्रतिदिन बढ़ती जाती तड़पन ने उनके मन में निराशा के भाव उत्पन कर दिये। इसके अलावा राज्य और राष्ट्रीय राजमार्गों पर पुलिस बलों द्वारा जहाँं-तहाँं लगाए गए चेकिंग बैरीकेड़ के रहते इन प्रवासी मजदूरों ने रोटी लेकर (अज्ञानता वश) रेलवे ट्रैक पर चलने को अपने जीवन का आधार माना ताकि वे इन रोटी व पटरी के बल पर जीवन की पटरी को भी अपने गृह नगर पहुंचकर कुछ दुरूस्त कर पाये। परन्तु उनको यह वास्तविक ज्ञान नहीं था कि रेलवे ट्रैक पर मालगाडियाँ भी चल रही हैं। शायद यात्री गाड़ी व मालगाड़ी में विभेद न कर पाने की परिस्थितिजन उत्पन्न बुद्धि शून्य व अविवेक ने उन्हें रेलवे ट्रैक पर चलने के लिए मजबूर कर दिया। जिसकी कुछ व्यक्तियों क्षेत्रों द्वारा आलोचना करना, श्रमिकों की परिस्थिति जन उत्पन्न अनभिज्ञता का मजाक उड़ाना है, जो वास्तव में निंदनीय है।
प्रश्न अब यह उत्पन्न होता है की मध्य प्रदेश के शहडोल व उमरिया जहां के वे मजदूर निवासी हैं, केन्द्र सरकार ने 2 लाख महाराष्ट्र सरकार ने 5 लाख व मध्य प्रदेश सरकार द्वारा मात्र 5 लाख की अनुग्रह राशि की घोषणा की गई। (शायद सरकार ने इसे एक स्वभाविक दुर्घटना माना हो) क्या यह अल्प राशी उचित है? इसी कोरोना कॉल में देश की विभिन्न सरकारों ने डाक्टरों सहित स्वास्थ्य कर्मियों व पुलिस कर्मचारियों को इस कोरोना बीमारी के संक्रमण को रोकने के कर्तव्य निर्वहन के दौरान उनकी मृत्यु हो कर शहीद हो जाने की स्थिति में 50 लाख से एक करोड़ तक न केवल उन्हें अनुग्रह राशि दिए जाने की घोषणा की गई है, बल्कि अन्य सुविधाओं के साथ उनके परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने की भी पेशकश की गई हैं। क्या ये मृत मजदूर कोरोना वीर नहीं हैं यह एक बड़ा ही मार्मिक प्रश्न है। एक बेचारे बेगुनाह (श्रमिक) व्यक्ति का कुव्यवस्था, अव्यवस्था के चलते व्यवस्था (सिस्टम) की बलि चढ़कर मौत के मुंह में समा जाना बलिदान नहीं तो क्या हैं? और यदि यह बलिदान है तो, बलिदान तो वीरो द्वारा ही दिया जाता है। तब ये बलिदानी कोरोना वीर कैसे नहीं हुए? शायद इसलिए कि ये स्वयं को वोट बैंक नहीं बना सके या आज के बाजार में इनकी मीडिया के सामने या राजनैतिक, सार्वजनिक जीवन में वह ब्रांडिंग नहीं हुई जैसी अन्य कोरोना वीरों की हुई है। (यहां अन्यों के हक पर आपत्ति नहीं की जा रही है।)
एक महत्वपूर्ण बात और! इन मजदूरों के दुर्घटनाग्रस्त होकर उनकी मृत्यु (शहीद) हो जाने से आपराधिक कानून व्यवस्था का प्रष्न भी पैदा होता है। इस घटना के लिए नियुक्त नोड़ल आफिसर जिम्मेदार समस्त प्रशासनिक अधिकारियों (रेल्वे सहित) के खिलाफ धारा 307 का प्रकरण क्यों नहीं दर्ज किया जाना चाहिए? आपको याद दिलाना चाहता हूं, उत्तराखंड में जब तबलीगी मरकज का मामला तेजी से बढ़ाया और बार-बार अनुरोध करने के बावजूद तबलीकी अपनी जांच कराने के लिए प्रशासन के समक्ष उपस्थित (सरेंडर) नहीं हुए। तब उत्तराखंड प्रदेश के डीजीपी अतुल कुमार रजूड़ी ने कहा कि यदि ऐसे तबलीगी जो कोरोना टेस्टिंग के लिए स्वयं को उपलब्ध नहीं करा रहे हैं, यदि पुलिस प्रशासन उनको पकड़ कर लाता है, और यदि वे संक्रमित पाए जाते है व उनके संपर्क से दूसरा कोई व्यक्ति संक्रमित होता है। तब उनके खिलाफ आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 सहित भारतीय दण्ड सहिंता के अतंर्गत धारा 307 का अपराध दर्ज किया जाएगा। डीजीपी वहीं नहीं रुके, बल्कि एक कदम और आगे जाकर उन्होंने यह भी कहा कि यदि ऐसे किसी संक्रमित व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तब अपराध की धारा 307 धारा 302 में परिवर्तित हो जाएगी।
इस बात में शायद कोई शक होगा कि उक्त हादसा से सम्पूर्ण तंत्रों की असफलता का दुष्परिणाम है? इसलिए इस घटना से संबंधित व्यवस्था (सिस्टम) में लगे सभी अधिकारियों की जांच कर दोषी अधिकारियों को चिन्हित किया जाकर कार्रवाई की जावें, ताकि भविष्य में इस तरह की गलतियों की पुर्नवृत्ति न हो सकें।
अंत में मजदूरों के प्रति सरकार के नजरिये व भावना को देखिये व पहचानिये! अभी प्रवासी भारतीय नागरिकों को ‘स्वदेश लाया जा रहा है, जिसे भारत सरकार ने आपरेशन वंदे भारत की संज्ञा देकर उनके प्रति सम्मान का अहसास कराया है। लेकिन मजदूरों को श्रमिक ट्रेनों द्वारा गृहनगर पहुचाने के आदेश को आपरेशन जय भारत (या और कोई नाम) न देकर सम्मानित नहीं किया है। सरकार की नजर में वह मात्र एक प्रशासनिक आदेश हैं, करोड़ो श्रमिकों को गृहनगर पहुचाने का ‘‘आपरेशन’’ नहीं है।। क्योंकि वे एक जमीनी गरीब मजदूर है व विदेशों से आने वाले हवाई मध्य या उच्च कुलीन वर्ग के लोग है। वैसे सरकार ने मजदूरों को उनकी जमीनी हकीकत से रूबरू करने के लिये श्रमिक ट्रेन की संज्ञा देने में कोई कोताही न कर मेहरबानी अवश्य की है।
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