पिछले तीन महीनों से ज्यादा समय से पूरा देश कोविड-19 कोरोना वायरस व उससे उत्पन्न परिस्थितियों का पूरी ताकत के साथ सामना कर रहा हैं। वहीं दूसरी ओर देश की 135 करोड़ की जनसंख्या कोरोना वायरस से उत्पन्न कोरोना ‘‘कारावास’’ में अपनी जिंदगी व्यतीत कर रही है। मैने ‘‘लॉक डाउन’’ शब्द के बदले कारावास शब्द का उपयोग इसलिए किया, क्योंकि हमारे देश में कारावासों (जेल) में आज भी सजायाफ्ता अपराधियों की तुलना में विचाराधीन अभियुक्तो की संख्या लगभग 70 प्रतिशत है। अर्थात हर तीन व्यक्ति में से दो व्यक्ति वे हैं जिनका दोष सिद्ध नहीं हो पाया हैं। फिर भी वे जेल में है। ठीक इसी प्रकार इस कोरोना काल में देश की 90 से 95 प्रतिशत बेगुनाह मासूम (इनोसेंस) जनता लॉक डाउन में हैं। शेष मात्र 5 से 10 प्रतिशत नागरिकगण जिनकी बेवकूफियां, असावधानियां और नागरिक कर्तव्यों के भाव (सिविक सेंस) में कमी होने के कारण, समय पर सरकारों के सही निर्णय न ले पाने के कारण तथा आधे अधूरे निर्णय व अनिण्यता की स्थिति के फलस्वरूप देश के इन लगभग 90 से 95 प्रतिशत व्यक्तियों को कोरोना वायरस से बने कारावास में अपनी जिंदगी को गुजारना पड़ रहा है। ‘‘रस’’ के साथ जीवन फिलहाल पीछे छूट गया है।
क्या कोरोना कारावास की जिंदगी की इस भुगतमान अवस्था को समाप्त नहीं किया जा सकता? यही एक कौतुहल बार-बार दिमाग में उत्पन्न होता है। आप सभी जानते हैं! पूरे विश्व में यह स्थापित हो चुका है कि इस कोरोना बीमारी, जिसकी मृत्यु दर भले ही भारत में 3.3 प्रतिशत व विश्व में 7 प्रतिशत से कुछ ज्यादा ही है। इसके संक्रमण को रोकने के लिये इंसान को दो ही दायित्वों का मुख्य रूप से पालन करना हैै। प्रथम व्यक्तिगत दायित्व, पूर्ण स्वच्छता को अपनाकर मास्क पहनना है। दूसरा अनुपालन मानव दूरी (ह्यूमन डिस्टेंस जो पूर्णता व्यक्तिगत नहीं है, बल्कि ज्यादा सार्वजनिक है) को बनाए रखना है। मतलब साफ है व्यक्तिगत सावधानियों सहित यदि सार्वजनिक स्थानों पर हमने मानव दूरी बना ली तो निश्चित रूप से हम अपने आपको इस बीमारी से संक्रमित होने से बचा पाएंगे। तभी हम इस कारावास सरकार के शब्दों में लॉक डाउन से बाहर आ सकेंगे।
अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि इस मानव दूरी को अपने जीवन की आदत बनाकर स्थायी कैसे बनाए रखा जा सकता है? 2 गज या 6 फीट की मानव दूरी बनाए रखने के लिए सर्वप्रथम तो प्रत्येक नागरिक को यह निश्चय करना ही पड़ेगा कि वे दृढ़ता के साथ इसका पूर्ण पालन करेगें। लेकिन हम जानते हैं कि हम लोग इतने ‘‘ज्ञानी’’ और आज्ञाकारी नहीं है। तब फिर क्या ऐसा कोई प्रबंध नहीं हो सकता कि व्यक्ति के स्वयं का प्रयास किए बिना ही मानव दूरी के नियम का पालन हो जाय। मेरी नजर में यह संभव है। मानव दूरी का भीड़ से सीधा संबंध है। यदि किसी मोहल्ले के 1000 व्यक्तियों को किसी दुकान या सार्वजनिक स्थल, पार्क, मंदिर इत्यादि जगह पहंुचना है। यदि उक्त दुकान/स्थान को खुला रखने का समय 2 घंटे, 4 घंटे 8, घंटे 16, घंटे या 24 घंटे का निश्चित किया जाता है। तब उस दुकान में या सार्वजनिक स्थल में भीड़ सबसे ज्यादा कब होगी और एक व्यक्ति अकेला कब रह जाएगा, यह अब आपको बताने की कतई आवश्यकता नहीं होगी। अवधि के कम होने पर भीड़ होने के अवसर ज्यादा रहेंगे। मतलब साफ है, जैसे-जैसे प्रतिबंध कम करते जाएगंे, वैसे-वैसे आपके सुरक्षित जीवन की रफ्तार बढ़ती जायेगी।
याद कीजिए वर्ष 1977 के पूर्व की देश की स्थिति की। जब देश के अधिसंख्यक नागरिकगण अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वस्तुओं के क्रय व उपभोग के लिए लाइन में खड़े रहते थे। राशनिंग और लाइसेंस प्रणाली के चलते वस्तुओं की दोहरी विक्रय कीमत। जनता ने उस दौर को भी भुगता है। वर्ष 1977 में मोरारजी देसाई की जनता सरकार के आने के बाद यह सिस्टम (लाईन व्यवस्था) और दोहरी कीमत प्रणाली समाप्त हो पाई थी। मतलब व्यवसाय को बंधन से मुक्त करके उन्मुक्त कर दिया गया था। अर्थात उन्मुक्त वातावरण व व्यवसाय व्यक्ति के जीवन के लिए ज्यादा सुगम सहज और विकासशील होता है। इसी तत्व के हम अभी तक भोग भी करते रहे हैं।
लॉक डाउन के संदर्भ में उसी सिद्धांत को आज हम क्यों नहीं फिर से लागू कर देते है? 24 घंटों के लिए समस्त व्यापार व आवागमन को खोल दिया जाय। इस लिये प्रथम मांग व पूर्ति का सिद्धांत सहायक होगा। अर्थात दिन के 24 घंटों में समयावधि (टाईम स्लाट) को तय करने का अधिकार व्यापारियों को सौंप दीजिये। मतलब वह 1 घंटे से लेकर 24 घंटे, जितनी भी समयावधि दिन के जिस भी समय (भोर, सुबह, दोपहर, शाम, रात्रि) तय करना चाहे वह उपभोगता की मांग व स्वयं की सुविधा को दृष्टिगत रखते हुये एवं मानव दूरी को प्राथमिकता देते हुये (एक या अधिक श्रेष्ठ द्विपक्षीय स्वीकृत टाईम स्लाट) निश्चित कर लेगा। किसी विशेष समय स्लाट में भीड़ होने पर वह तत्काल उसमें परिर्वतन भी कर सकेगा। इसके लिए सरकार को गुमास्ता कानून में आवश्यक संशोधन करने होगें। ठीक उसी प्रकार जैसे कुछ सरकारों ने अभी हाल ही में उद्योग व निर्माण कार्य प्रारंभ करने के लिये संबंधित श्रमिक कानूनों में आमूल- चूल संशोधन (मूलतः श्रमिको के हितों के विपरित होने के बावजूद) किये है। जीवन में अनुशासन व नियत्रंण दोनों में अंतर है। मुक्त स्वतंत्रता का मतलब उच्छृंखलता नहीं बल्कि उच्छृंखलता पर स्वीकार योग्य नियत्रंण ही अनुशासन है। फेक्ट्ररियों में मानव दूरी बनाए रखकर उत्पादन कार्य कैसे किया जा सकता है, इस पर दूसरे लेख में चर्चा करेगें।
मैं यह मानता हूं कि इस प्रकार सोशल डिस्टेंस को बनाए रखने में नागरिकों सहित शासन व प्रशासन को ज्यादा सहूलियत होगी और हम कोरोना वार से बाहर भी हो पायेगें। इतनी सी बात शासन-प्रशासन को समझ में क्यों नहीं आ रही है? मैं इससे परेशान हूं। इसीलिए उक्त शीर्षक के माध्यम से मैं यह कह रहा हूं, कि यदि मेरा उक्त निष्कर्ष गलत है, तो कृपया मुझे यह बताएं कि अकल का वह चूरण कहां मिलेगा जिससे मैं अपने दिमाग और बुद्धि को दुरुस्त कर सकू। अर्थात बॉटल इंप ऑफ विजडम। मैं अपनी अकल के जिन्न को वापस बोतल में ड़ाल सकू।
मै आपकी बात से सहमत हूं
जवाब देंहटाएंआपके विचारो से मै अभिभूत हूं
जी मैं पूर्णणया सहमत हूं और मुझे लगता है दिशा तो वही है किन्तु आगे बढ़ने की गति अपेक्षाकृत धीमी है
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